जनवरी 1
इस विश्वमे ऐसी एक शक्ति है, जिसका निश्चित और स्पष्ट शब्दोंमे वर्णन नहीं किया जा सकता और जो विश्वकी हर वस्तुमें व्याप्त है । मैं उसका अनुभव करता हूँ, यद्यपि वह मुझे दिखाई नहीं देती । यही वह अदृश्य शक्ति है, जो अपना अनुभव कराती है और फिर भी सारे प्रमाणोंसे परे है; क्योंकि वह ऐसे समस्त पदार्थोंसे सर्वथा भिन्न है, जिन्हें मैं अपनी इन्द्रियोंद्वारा देखता और अनुभव करता हूँ । वह इन्द्रियातीत है, इन्द्रियोंकी पहुँचके बाहर है । परन्तु एक सीमा तक ईश्वरके अस्तित्वको तर्क द्वारा सिध्द किया जा सकता है । |
यं. इं., 11-10-’28
जनवरी 2
मैं अस्पष्ट रूपमें यह जरूर देख और समझ सकता हूँ कि यद्यपि मेरे आसपास प्रत्येक वस्तु निरन्तर बदलती, निरन्तर नष्ट होती रहती है, फिर भी इस परिवर्तनके पीछे ऐसी एक सजीव, चेतन शक्ति है, जो कभी नहीं बदलती, जो सबको एकताके सूत्रमें बांधे रखती है, जो सर्जन करती है, नाश करती है और पुन नवसर्जन करती है। यह घट-घटमें बसी हुई चेतन शक्ति या तत्त्व ही ईश्वर है । और ऐसी कोई वस्तु, जिसे मैं केवल इन्द्रियोंसे देखता और अनुभव करता हूँ, शाश्वत नहीं हो सकती या नहीं होगी; इसलिए एकमात्र ईश्वरकी ही सत्ता शाश्वत है । |
यं. इं., 11-10-’28
जनवरी 3
और यह शक्ति कल्याणकारिणी है या अकल्याण करनेवाली है? मैं तो इसे शुध्द कल्यराणकारिणी शक्तिके रूपमें ही देखता हूँ । क्येंकि मैं देख सकता हूँ कि मृत्युके बीच जीवनका अस्तित्व बना रहता है, असत्यके बीच सत्य टिका रहता है और अंधकारके बीच प्रकाश जीवित रहता है । इसलिए मैं इस निर्णय पर पहूँचता हूँ कि ईश्वर जीवन है, सत्य है, प्रकाश है। वह प्रेम है, वह सर्वोच्च शिव है - शुभ है । |
यं. इं., 11-10-’28
जनवरी 4
मैं किसी भी तर्क-पध्दतिसे बुराईके अस्तित्व को समझा नहीं सकता । ऐसा करनेकी इच्छा रखनेका अर्थ है ईश्वरके समान बननेकी इच्छा रखना । अंत मैं बुराईको बुराईके रूपमें स्वीकार कर लेने जितना नम्र हूँ; और मैं ईश्वरको इसीलिए शांतिसे सहन करनेवाला तथा धैर्यवान कहता हूँ कि वह बुराईको दुनियामें टिकने देता है । |
यं. इं., 11-10-’28
जनवरी 5
मैं जानता हूँ कि ईश्वरमें कोई बुराई नहीं है; और फिर भी यदि संसारमें बुराई है तो ईश्वर उसका सर्जक है और सर्जक होते हुए भी वह बुराईसे अछूता है । मैं यह भी जानता हूँ कि यदि मैं अपने प्राणोंकी बाजी लगाकर भी बुराईके साथ और बुराईके खिलाफ युध्द न करूँ, तो मैं कभी भी ईश्वरको नहीं जान सकूँगा । |
यं. इं., 11-10-’28
जनवरी 6
हम ईश्वरके सारे नियमोंको नहीं जानते, न हम यह जानते हैं कि वे नियम कैसे काम करते हैं। ऊँचेसे ऊँचे वैज्ञानिक अथवा महानसे महान अध्यात्मवादीका ज्ञान भी रजके एक कणके समान है । यदि ईश्वर मेरे लिए अपने पार्थिव पिताकी तरह शरीरधारी व्यक्ति नहीं है, तो वह मेरे लिये इससे अनन्त गुना अधिक है । वह मेरे जीवनकी सूक्ष्मसे सूक्ष्म बातोंमें भी मुझ पर शासन करता है। इस कथनके एक एक अक्षरमें मेरा विश्वास है कि ईश्वरकी इच्छाके बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता। हर साँस, जो मैं लेता हूँ, ईश्वरकी दया पर निर्भर करती है । |
यं. इं., 11-02-’34
जनवरी 7
ईश्वर और उसका कानून एक ही है । वह कानून ही ईश्वर है । जिस किसी विशेषताका उस पर आरोपण किया जाता है, वह केवल गुण नहीं है । ईश्वर स्वयं गुणरूप है । वह सत्य है, प्रेम है और कानून है; और ऐसी हजार वस्तुएँ हैं, जिनका मानवकी शोधक बुध्दि नाम बता सकती है । |
यं. इं., 11-02-’34
जनवरी 8
पूर्णता उस सर्व-शक्तिमान ईश्वरका गुण है, और फिर भी वह कितना बड़ा प्रजातंत्रवादी है ! वह हमारे कितने अन्यायों और पाखंडोंको सहन कर लेता है? यहाँ तक कि वह अपने तुच्छ प्राणियों द्वारा उसके अस्तित्वके बारेमें उठायी गयी शंकाको भी वरदाश्त कर लेता है, यद्यपि वह हमारे आसपास, हमारे इर्द-गिर्द और हमारे भीतरके प्रत्येक अणु-परमाणुमें बसा हुआ है । परन्तु जिसके सामने वह प्रकट होना चाहता है, उसके सामने प्रकट होनेका अधिकार उसने अपने हाथमें सुरक्षित रखा है । वह ऐसी चेतन शक्ति है, जिसके न हाथ हैं, न पाँव हैं और न कोई दूसरी इन्द्रियों हैं; फिर भी ऐसा मनुष्य उसे देख सकता है, जिसके सामने वह अपने आपको प्रकट करना पसन्द करता है । |
यं. इं., 11-02-’36
जनवरी 9
मेरी दृष्टिमें ईश्वर सत्य है और प्रेम है; ईश्वर नीति है और सदाचार है; ईश्वर निर्भयता है। ईश्वर प्रकाश और जीवनका स्त्रोत है और फिर भी वह इन सबसे ऊपर और परे है। ईश्वर विवेक-बुध्दि है । वह नास्तिककी नास्तिकता भी है; क्योंकि अपने अपार और असीम पेमके कारण वह नास्तिकको भी जीने देता है । |
यं. इं., 5-3-’25
जनवरी 10
वह हमारे हृदयको खोजने और टटोलनेवाला है । वह वाणी और बुध्दिके क्षेत्रसे परे है । हमारी अपेक्षा ईश्वर हमें और हमारे हृदयोंको अधिक जानता है । वह हमारे शब्दों पर विश्वास नहीं करता, क्योंकि हममें से कुछ लोग जानमें और दूसरे जनजानमें जो कुछ कहते हैं, वही अकसर उनका आशय नहीं होता । |
यं. इं., 5-3-’25
जनवरी 11
उन लोगोंकि लिए वह व्यक्तिरूप ईश्वर है, जो उसकी व्यक्तिगत उपस्थितिकी आवश्यकता महसूस करते हैं । ऐसे लोगोंके लिए वह साकार ईश्वर है, जो उसके स्पर्शकी आवश्यकता अनुभव करते हैं । वह शुध्दतम सारतत्त्व है। वह केवल उन्ही लोगोके लिए है जो श्रध्दालु हैं । वह सब मनुष्योंके लिए सब-कुछ है । वह हमारे भीतर है और फिर भी हमारे ऊपर और हमसे परे है । |
यं. इं., 5-3-’25
जनवरी 12
ईश्वरके नाम पर भयंकर अनाचार होते हैं और अमानुषिक क्रूरतायों की जाती हैं, इसीलिए उसके अस्तित्वका लोप नहीं हो सकता । वह दीर्घकालसे शान्त रहकर हमारे दोषोंको सहन करता आया है । वह धैर्यशाली है, परन्तु वह भयंकर भी है । इहलोक और परलोकमें वह अधिकसे अधिक कसौटी करनेवाला है । हम अपने पड़ोसियों - मानवों और पशुओं - के साथ जैसा व्यवहार करते हैं, वैसा ही व्यवहार वह हमारे साथ करता है । वह अज्ञानके लिए भी क्षमा नहीं करता । और इन सबके बावजूद वह सदा क्षमा करनेवाला है, क्योंकि वह हमें सदा पश्चात्ताप करनेका अवसर देता है । |
यं. इं., 5-3-’25
जनवरी 13
वह संसारका सबसे बड़ा प्रजातंत्रवादी है, क्योंकि वह हमें भले और बुरेके बीच चुनाव करनेके लिये स्वतंत्र छोड़ देता है । वह दुनियाका कूरसे कूर स्वामी है, क्योंकि वह प्राय हमारे मुँहके सामने आयी रोटीको छीन लेता है और इच्छाकी स्वतंत्राकी आड़मे इतनी अपर्याप्त छूट देता है कि हमसे कुछ करते-धरते नहीं बनता; और हमारी इस परेशानीमें से वह अपने लिए केवल विनोदकी सामग्री ही मुहैया करता है । इसीलिए हिन्दू धर्म इस सबको उसकी लीला अथवा उसकी माया कहता है । |
ह., 5-3-’25
जनवरी 14
ईश्वर हमारे इस पार्थिव शरीरसे बाहर नहीं है । अत बाहरी प्रमाण यदि कोई हो तो भी वह बहुत उपयोगी सिध्द नहीं होगा । हम उसे इन्द्रियों द्वारा देखनेमें सदा असफल ही रहेंगे, कयोंकि वह इन्द्रयोंसे परे है - इन्द्रियातीत है। हम उसका अनुभव कर सकते है, यदि हम केवल इन्द्रियोंसे अपने आपको खींच लें - इन्द्रियोंके व्यापारसे ऊपर उठ जायें । हमारे भीतर दिव्य संगीत तो निरन्तर चलता ही रहता है । परन्तु प्रबल इन्द्रियाँ उस सूक्ष्म दिव्य संगीतको दबा देती हैं, जो ऐसी प्रत्येक वस्तुसे भिन्न और अनन्त गुना श्रेष्ठ है, जिसे हम अपनी इन्द्रियों द्वारा देखते या सुनते हैं । |
यं. इं., 13-06-’36
जनवरी 15
मेरी जानकारीमें ईश्वर इस धरती पर कठोरसे कठोर काम लेनेवाला स्वामी है । और वह आपकी पूरी पूरी परीक्षा करता है । पर जब आप अनुभव करते हैं कि आपकी श्रध्दा आपकी सहायता नहीं कर रही है या आपका शरीर आपका साथ नहीं दे रहा है, और आप निराधार बनकर हताश हो रहे हैं, तब ईश्वर किसी न किसी तरह आपकी सहायताके लिए पहुँच जाता है और आपके सामने यह सिध्द कर देता है कि आपको अपनी श्रध्दा नहीं छोड़नी चाहिये और जब आप उसका स्मरण करेंगे तब वह हमेशा आपकी मदद पर रहेगा - परन्तु उसकी अपनी शर्त पर, आपकी शर्त पर नहीं। अपने अनुभवोंसे मैने ऐसा ही पाया है । मुझे ऐसा एक भी उदाहरण याद नहीं है जब संकटके समय उसने कभी मुझे छोड़ा हो । |
स्पी. रा.म.,पृ.1069
जनवरी 16
जब क्षितिज अत्यन्त अंधकारमय होता है, जब चारों ओर निराशाका घोर अंधकार छा जाता है, तब अकसर दिव्य प्रकाश हमारा मार्गदर्शन करता है । |
यं. इं., 27-8-’25
जनवरी 17
जब हम अपने पैरों तलेकी धूलसे भी अधिक नम्र बन जाते हैं, तब ईश्वर हमारी मदद करता है । केबल दुर्बल ओर निराधारके लिए ही ईश्वरीय सहायताका वचन दिया गया है । |
स.सा.अ., पृ.6
जनवरी 18
मनुष्य-जातिकी बुध्दि इतनी जड़ है कि वह ईश्वर द्वारा समय समय पर भेजे जानेवाले संकेतोंको समज ही नहीं सकती । हमारे कानोंमें ढोल बजानेकी जरूरत है – तभी हम अपनी मूर्छासे जागेगें, उसकी चेतावनियोंको सुनेगें और इस बातको समझेंगे कि अपने आपको आननेका एकमात्र मार्ग स्वयंको ईश्वरके सब प्राणियोंमें खो देना है । |
यं.इं.25-8-’27
जनवरी 19
अगर तुम ईश्वकी मदद मांगना चाहते हो, तो तुम्हें अपने पूरे नग्न – सच्चे रूपमें उसके सामने जान होगा और इस बातका कोई भय या शंका रखे बिना उसकी शरण लेनी होगी कि तुम्हारे पतितकी सहायता वह कैसे कर सकते है । जिसने अपनी शरणमें आये हुए लाखों-करोड़ों मनुष्योंकी सहायता की है, वह भला तुम्हें ही क्यों छोड़ देगा? |
यं. इं., 1-3-’29
जनवरी 20
मनुष्यका अंतिम लक्ष्य ईश्वरका साक्षात्कार करना है । और उसकी सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक सभी प्रवृत्तियाँ ईश्वर-दर्शनके इस अंतिम लक्ष्यको सामने रखकर ही चलनी चाहिए। समस्त मानवप्राणियोंकी सेवा केवल इसलिए इस प्रयत्नका आवश्यक अंग बन जाती है कि ईश्वरको पानेका एकमात्र मार्ग उसे उसकी सृष्टिमें देखना और उसकी सृष्टिके साथ एकरूप हो जाना है । यह स्थिति केवल सबकी सेवा करके ही साधी जा सकती है। मैं ईश्वरकी समग्र सृष्टिका एक अभिन्न अंग हूँ; और मैं ईश्वरको बाकीकी मानवसृष्टिके बाहर नहीं पा सकता । |
ह., 29-8-’36
जनवरी 21
ईश्वर बढ़ी कठोरतासे काम लेनेवाला स्वामी है । वह आवेशमें आकर किये जानेवाले त्यागसे कभी संतुष्ट नहीं होता । उसकी चक्की यद्यपि निश्चित रूपसे तथा निरन्तर गतिसे चलती रहती है, किन्तु उसकी गति अतिशय धीमी होती है । और ईश्वर जल्द बाजीमें किये जानेवाले प्राणत्यागसे कभी संतुष्ट नहीं होता । वह शुध्दतम बलिदानकी मांग करता है । इसलिए आपको और मुझे प्रार्थनाकी भावनासे, नम्र भावसे, दृढ़तापूर्वक काम करते रहना चाहिये और जब तक ईश्वरकी कृपासे जीवन टिका रहे तब तक जीवन जीना चाहिये । |
यं. इं.,22-9-’27
जनवरी 22
ईश्वरी अच्छी और बुरी सभी बातोंका निश्चित लेखा रखता है । इस वृथ्वी पर उससे अच्छा दूसरा कोई मानवके अच्छे-बुरे कर्मोका हिसाब रखनेवाला नहीं है । |
ह., 2-9-’34
जनवरी 23
ईश्वर यदि परिवर्तनहीन और अटल जीवित नियम न होकर कोई स्वच्छन्द व्यक्ति होता, तो वह अपनी क्रोधाग्निमें ऐसे सब लोगोंको जलाकर नष्ट कर देता, जो धर्मके नाम पर उसे और उसके नियमको माननेसे इनकार करते हैं । |
यं. इं., 11-7- ’29
जनवरी 24
ईश्वर अपने भक्तोंकी पूरी पूरी परीक्षा करता है, परन्तु उनकी सहन-शक्तिसे बाहर कभी कभी नहीं । जो अग्नि-परीक्षा वह अपने भक्तोंके लिए निर्धारित करता है, उसमें से पार होनेकी शक्ति भी वही उन्हें देता है । |
यं.इं., 19 – 2 -’25
जनवरी 25
ईश्वरको सच्चे अर्थमें ईश्वर होनेके लिए मनुष्यके हृदय पर शासन करना चाहिये और उसे पूरी तरह बदल डालना चाहिये । अपने भक्तके प्रत्येक छोटेसे छोटे कार्यमें भी उसे अपने आपको व्यक्त करना चाहिये । यह निश्चित साक्षात्कारके द्वारा ही किया जा सकता है - ऐसा साक्षात्कार जो पाँच इन्द्रियों द्वारा किसी भी समय कराये जा सकनेवाले साक्षात्कारसे अधिक सच्चा होता है । |
यं. इं., 11 – 10 - ’28
जनवरी 26
जब इंन्द्रियोंके क्षेत्रसे बाहर ईश्वरका साक्षात्कार होता है तब वह अचूक सिध्द होता है । वह बाहरी प्रमाणसे सिध्द नहीं होता, परन्तु ऐसे लोगोंकि सर्वथा बदले हुए आचरण तथा चरित्रके रूपमें सिध्द होता है, जिन्होंने अपने अंतरमें ईश्वरकी सच्ची उपस्थिति अनुभव की है । ऐसा प्रमाण संसारके समस्त देशों और कालोंके सन्तों तथा पैगम्बरोंकी अटूट परम्पराके अनुभवोंसे हमें मिल सकता है। उस प्रमाणसे इनकार करनेका अर्थ है अपने आपसे इनकार करना । |
यं. इं., 11-10- ’28
जनवरी 27
परन्तु जब तक हम इस नश्वर शरीरमें कैद हैं तब तक हमारे लिए पूर्ण सत्यको स्पष्ट रूपसे समझना असंभव है । हम केवल अपनी कल्पनामें ही उसका दर्शन कर सकते हैं । इस क्षणभंगुर देहके माध्यमसे हम शाश्वत सत्यका प्रत्यक्ष दर्शन नहीं कर सकते । यही कारण है कि अंतिम सहारेके रूपमें हमें श्रघ्दा पर ही निर्भर रहना चाहिये । |
य.मं.,प्रक.2
जनवरी 28
कोई भी मनुष्य जब तक शरीरमें कैद है तब तक पूर्णताको प्राप्त नहीं कर सकता; इसका सादा कारण यह है कि जब तक मनुष्य अपने अहंकार पर पूर्णतया विजय प्राप्त नहीं कर लेता है, जब तक इस आदर्श स्थितिको सिध्द करना असंभव है । और अहंकारसे तब तक पूर्णतया मुक्ति नहीं मिल सकती जब तक कि मनुष्य शरीरके बन्धनोंसे बंधा हुआ है । |
यं.इं., 20-9ö’28
जनवरी 29
शरीरधारी प्राणियोंके नाते हमारा अस्तित्व, हमारा जीवन, बिलकुल क्षणभंगुर है । अनन्त कालकी तुलनामें मानव-जीवनके सौ वर्ष किस गिनतीमें हैं? परन्तु यदि हम अहंकारके बंधनोंको तोड़ दें और मानवताके समुद्रमें विलीन हो जायँ, तो हम उसके गौरव और प्रतिष्ठाके भागी बनते हैं । हम भी कुछ हैं ऐसा अनुभव करनेका अर्थ है ईश्वरके और हमारे बीच दीवाल खड़ी करना; और हम भी कुछ हैं इस भावनाको छोड़नेका अर्थ है ईश्वरके साथ एकरूप हो जाना । |
यं.मं.,प्रक.12
जनवरी 30
महासागरमें रहनेवाला जलबिन्दु अपने जनककी महानता और विशालताका भागी बनता है, यद्यपि उसे इस बातका भान नहीं होता । परंतु ज्यों ही वह जलबिन्दु महासागरसे अलग हो जाता है त्यों ही वह सूख जाता है । जब हम यह कहते हैं कि जीवन पानीका बुलबुला है, तब हम कोई अतिशयोक्ति नहीं करते । |
यं. मं., प्रक.12
जनवरी 31
ज्यों ही हम ईश्वर-रूपी महासागरके साथ एकरूप हो जाते हैं, त्यों ही हमारे लिए विश्राम जैसी कोई चीज नहीं रह जाती; और न उसके बाद हमें विश्रामकी कोई आवश्यकता ही रह जाती है । यहाँ तक कि हमारी निद्रा भी कर्मका रूप ले लेती है; क्योंकि हम अपने हृदयोंमें ईश्वरका ध्यान धर कर ही सोते हैं । यह अविश्राम ही सच्चा विश्राम है । यह अविरत अशांति ही अनिर्वचनीय शांतिकी कुंजी है । संपूर्ण समर्पणकी इस उदात्त स्थितिका शब्दोंमें वर्णन करना कठिन है, परन्तु वह मानव-अनुभवके क्षेत्रसे परे नहीं है । अनेक समार्पित आत्माओंने यह उदात्त स्थिति प्राप्त की है और हम भी इसे प्राप्त कर सकते हैं । |
य. मं., प्रक.1