| | |

वर्तमान सन्दर्भ में भारतीय एवं गांधीय दृष्टि

राधेश्यामधर द्विवेदी

प्रो. राधेश्यामधर द्विवेदी सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय में तुलनात्मक धर्म एवं दर्शन विभाग के अध्यक्ष रहे। उनका गांधी विद्या संस्थान से विगत दो दशक से सम्बन्ध रहा है। वे यहाँ की विविध संगोष्ठियों में सक्रिय रूप से भाग लेते थे। गांधी विचार के प्रति उनकी गहरी निष्ठा थी और संस्थान द्वारा प्रकाशित होने वाली इस शोध पत्रिका में उनके लेख प्रकाशित हो रहे हैं। उनके निधन से अपूरणीय क्षति हुई है। श्रद्धांजलि के रूप में प्रकाशित है उनका यह आलेख।

कभी समझ में आता था कि धर्म से जो कार्य मिल जाय उससे प्राप्त प्रतिफल के आधार पर जीवन चलाया जाय। पर अब समझ में आने लगा है कि सम्प्रदायमूलक धर्म धोखा है और व्यवस्था सही है। व्यवस्था कई प्रकार की हो सकती है। वह राज्याश्रित, मानवनिर्मित, नैतिक बन जाय तो और सही कही जा सकती है।

नैतिकता को परम्परागत लोग धर्म कहते हैं क्योंकि यह समाज की व्यवस्था बनाती है। वह समाज को धारण करती है। नैतिकता तीन प्रकार से बन सकती है १. परम्परागत मान्यताओं को मानकर, २. राज्य के ऐसे सख्त नियम जिसमें कहीं ढील की गुंजाइश न हो, ३. ईश्वरीय आस्था में विश्वास करके अधिकतर धर्म ईश्वरवादी है और ईश्वर की व्यवस्था को नैतिक या धार्मिक मानते हैं। पर विश्लेषण करने पर अब ईश्वर टीक नहीं रहा है, यद्यपि अपनी असमर्थता से उसकी सत्ता जायज लगती है पर बारीक विश्लेषण पर वह थोथी कल्पना ठहरता है। परम्पराएँ जनजातियों के विश्वासों से चलती है पर जैसे जैसे जनजातीय विश्वासों का आकलन होता है, वे टूटते जाते हैं; या अपने से विकसित विचारवालों के ईश्वर पकडते जाते हैं। इसमें कुछ हद तक ईमानदारी होती है। पर जैसे जैसे यान्त्रिक विकास होता जा रहा है और जैसे जैसे उपभोगवादी दृष्टि पनपती जा रही है, वैसे वैसे परम्परावादी तथा ईश्वरवादी दृष्टियाँ विभाजित हो रहीं हैं और मनष्य का मनष्य से विश्वास हटता जा रहा है, सब कुछ पा लेने की अभीप्सा से लोकवासना का प्रसार बढ रहा है। अतः कहा है-

पृथिव्यां यानि रत्नानि गजाश्च मणयस्तथा।

एकैकस्याप्य पर्याप्तं किं सर्व जगतो भवेत्।।

अर्थात इस धरा के समग्र रत्न हावी तथा मणियां इच्छा के प्रसार होने पर एक के लिए भी अपर्याप्त हैं। यह सुभाषितं है पर तथ्य भी है कि उपभोगवादी व्यक्ति की आकांक्षाओं का कहीं अन्त नहीं दिखायी देता है। जब वह उबता है तब आध्यात्मिकता की ओर भागता है और यदि वह अन्धविश्वासी होता है तो ईश्वर की ओर भागता है। पर यदि विश्लषणवादी बनता है तो ईश्वर और अध्यात्म को कल्पित मान पुनः नैतिक रूप से भौतिक व्यवस्था को सार्थक बनाना चाहता है। गांधीजी इस चरम अन्धविश्वास तथा चरम यान्त्रिकता के विरुद्ध मध्यमवादी नैतिकता के पक्षधर लगते हैं यद्यपि उनकी ईश्वरनिष्ठा टूटी नहीं है। पर उनकी सहिष्णुता में दूसरे ईश्वर के लिए स्थान है। सम्भव है ऐसा ईश्वर सर्वं कर्तुं अकर्तुं अन्यथा कर्तुं समर्थ न हो प्रत्युत सबका सहभावकारी बने, पर वह तात्त्विक सत्ता में यदि देखा जायेगा तो भगवान् मात्र बनेगा, न कि सर्व समर्थ। सर्व समर्थ ईश्वर भी अधिनायक बनता है कुछ कम नहीं, क्योंकि मनुष्य उस पर आश्रित हो जाते हैं और अपना स्वातन्त्र्य खो देते हैं। देसी स्थिती में बौद्धिक मनुष्य उसकी सत्ता को चैलेंज दे, कह उठता है -

ऐश्वर्य मदमत्तोऽसि मामवज्ञाय वर्तसे।

उपस्थितेषु बौद्धेषु मदधीना तवस्थितिः।।

अर्थात् मैं उदयन तुम्हारे दर्शन के लिए (पुरी के मन्दिर में) आया हुआ हूँ और तुम्हारा फाटक बन्द है। जानते ही हो बौद्धों से तुम्हारे अस्तित्व पर जब प्रश्न खडा होगा तो उसका उत्तर मैं ही दे सकूँगा। अतः हमारी अवमानना मत करो। अर्थात् शीघ्र फाटक खोलकर दर्शन दो। यहाँ यह ध्यातव्य है कि फाटक पंडों ने भगवान् के आराम हेतु व्यवस्था के रूप में लगायी है पर श्रद्धालु जनता अपना आरोपण अन्यथा कर रही है।

सभी धर्म में ईश्वर की यही स्थिती है और सभी उसको निमित्तोपादान मानकर अपने को तदधीन बनाते हैं तथा व्यवस्था बनाते हैं। निमित्तोपादान अमूर्तसत्ता बनकर जगत चला सकता है पर निरपेक्ष निरंकुश शासक जनता पर कहर डालता है। अतः उसकी सत्ता का नाश कर मात्र समन्वित सत्ता, या जनता से संचयित शासन व्यवस्था का जनतंत्रात्मक रूप खडा किया जाता है, जिससे सामाजिक व्यवस्था बना दी जाय पर इससे विस्तार नहीं होता और इस व्यवस्था में भी घून लगते जाते हैं तब कौटिल्य कहता है-

मत्स्या यथान्तः सलिले चरन्तो ज्ञातुं न शक्या सलिलं पिवन्तः।

युक्तास्तथा कार्यविधौ नियुक्तः ज्ञातुं न शक्याः धनमाददानः।

                                                          अर्थशास्त्र-२/९/३३

अर्थात् घूसखोर राज्यकर्मचारियों की जाँच के तमाम उपाय बताने के बाद भी अधिकारी ने कितना हजम किया है, यह पता लगाना उतना ही कठिन है जितना यह बताना कि तैरती मछली कितना पानी पी गयी।

इसका अनुभव नगरमहापालिका के गृहकर के निश्चय के वक्त स्वयं लेखक का भी रहा है। और क्यों ठोस उदाहरण दें, आज सभी सरकारी कार्यालयों की यह दशा है यहाँ तक कि न्यायपालिका भी इससे अछूती नहीं है। और उस पर भी अब एक द्रष्टा प्रशासक अपेक्षित हो गया है। यह द्रष्टा प्रशासक यदि आस्था का विषय है और वह सर्वज्ञ नहीं तो वह कदापि अन्धश्रद्धा से बडा नहीं होगा क्योंकि भगवान के दरबार में भी घूस चल रहा है, इसकी अनेक एजेंसियाँ काम कर रही हैं और एतदर्थ लेखक का धर्म के नाम पर प्राप्त ‘शफाखाना“ निरंकारी-अमृतसर, पंजाब का अनुभव पर्याप्त प्रमाण है।“

जब ईश्वर नियन्त्रित या राज्य नियन्त्रित व्यवस्था बनाने का प्रयत्न किया जा रहा था तब उसकी खामियाँ दिखीं और तदर्थ शास्त्र तथा लोग का उदाहरण प्रस्तुत किया गया। पर इसका समाधान तभी सम्भव है जब नैतिक चेतना सब में जागृत हो, यदि यह जागृत नहीं है तो उपभोग के नाम पर या भक्ति के नाम पर अन्याय्य आचरित होगा ही, इससे छुटकारा पाना मुश्किल है। इस कल्पित ईश्वरीय सत्ता में भी कर्मफल व्यवस्था स्वातन्त्र्यकृत बनता है और राज्यनियन्त्रित कर्मफल व्यवस्था में भी स्वातन्त्र्यकृत कर्मफल व्यवस्था होगी। अन्तर यह होगा कि ईश्वरीय सत्तात्मक कर्मफल व्यवस्था अपारदर्शी आस्था पर आधारित है, राज्यनियन्त्रित कर्मफल व्यवस्था स्वातन्त्र्यकृत बनाकर पारदर्शी किया जा सकता है। राज्यकृत पारदर्शी कर्मफल व्यवस्था समाजमूलक बनकर कभी-कभी और कहीं-कहीं अपारदर्शी हो जाती है उसके लिए बौद्धों ने कर्मफल दायक कर्म को चेतनात्मक मानकर ईश्वर से छुट्टी ले ली, तथा संघ में सीमित साधनों के साथ मन में उठनेवाले अनैतिक भाव का संघ के सामने प्रायश्चत करके उसकी अपारदर्शिता को भी प्रत्यक्षकृत बना दिया और कर्मफल व्यवस्था को जनतांत्रिक आधार पर नैतिक आयाम दिया है।

दर्शन में समाज में पारम्परिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक, लौकिक तथा उपभोगात्मक तृष्णा के समापन का प्रत्ययात्मक स्वरूप रखा जाता है ताकि कम शब्दों तथा वाक्यों में सबका समाधान किया जा सके। पर सामान्य जनों के लिए इसकी व्याख्या आवश्यक लगती है या परम्परागत संस्कार से संस्कृत व्यक्ति के लिए पृथक परम्पराओं और संस्कारों के विलगन की गुंजाईश मानकर समाधान किया जाता है जो प्रत्ययात्मक चिन्तन से ही आ सकता है। गांधीजी महात्मा थे और एक परम्परा के संस्कार से आबद्ध थे पर सहिष्णुता वाले थे, सम्भव है कि वह आध्यात्मिकता संपदा के योग से भी विभूषित हों। पर विरोध को काटने की जो चतुष्कोणात्मक द्वन्द्वात्मक प्रक्रिया नागार्जुन ने दी उससे कितना परिचित थे कहा नहीं जा सकता। इसका कयास उनके व्यवहार से लगता है।

यह सबके जीवनगत आलम्बन का ध्यान रखते हैं। जीवन में शुचिता रहे इस पर विश्वास करते हैं। यह शुचिता कर्मकृत के साथ भावकृत भी मानते हैं। भावकृत शुचिता आध्यात्मिकता है। आध्यात्मिकता भी द्विधा है नैतिकता मूलक तथा ईश्वर मूलक। नैतिकता मूलक शुचिता समाज व्यवस्था सापेक्ष है ईश्वर मूलक शुचिता आस्था सापेक्ष है। गांधी जी की शुचिता ईश्वर मूलक थी और परम्पराश्रित थी। अतएव उसपर अटूट विश्वास था। वह ईश्वर मूलक शुचिता को समाज मूलक बनाना चाहते थे इसीलिए सबको कर्मव्यावृत करने के लिए बुनियादी शिक्षा तथा कुटीर उद्योग की तरफ ध्यान खींचते थे। इसका अर्थ यह नहीं है कि वह वैज्ञानिक यान्त्रिक विकास के खिलाफ थे पर वह शिक्षण की परिपक्वता के बाद उस उच्च तकनालॉजी ज्ञान के हिमायती थे। अज्ञानमूलक तकनीकी प्रयोग उपभोक्तावाद को बढाता है और अभाव में नैतिकता को खडा करता है। और यह आज भारत में सब जगह व्याप्त है। भारत का दोष इतना ही है कि उसने परम्परागत समाज को प्रशिक्षण के द्वारा आधुनिकतम नहीं बनाया और बनाया भी नहीं जा सकता था। क्योंकि पारम्पारिक समाज के मानक संस्काराश्रित होते हैं। वे आधुनिकता से टूटते हैं पर यदि बिना जाने टूटेंगे तो अव्यवस्था उत्पन्न करेंगे, यदि समझ-बूझ के साथ टूटेंगे तो समाजिक परिष्कार खडा होगा और एक-दूसरे से सम्बद्ध होकर नफरत की जगह भ्रातृत्व भाव से प्रेम के साथ सहयोगात्मक दृष्टि से विकास को बल देगा। इसमें समय लग सकता है पर एक निश्चत दिशा में निश्चत प्रक्रिया से विकास बनेगा! यदि यह न बनकर एकाएक परिवर्तन होगा तो दिशाबोध की अनिश्चतता के कारण विकास ज्ञान के अभाव में भोक्तापन की तृष्णा जगेगी और तदर्त मारपीट, अव्यवस्था खडी होगी। क्योंकि परम्परा ने अपने पारम्पारिक मानक का परिष्कार नहीं किया है और आधुनिकतम परिवर्तन को पचाया नहीं है। यह घर-घर में जन-जन में अपच होकर असंतोष खडा करेगा और समाज में हलचल मचायेगा। जो आज हो रहा है।

जो लोग इस विकासात्मक समाज की तकनीकिगत विकास को न समझते हुए परम्परागत धारणाओं के आधार पर उपभोग करते हैं उनमें अधिकांशतः भाग्यवादी, ईश्वरवादी होते हैं। पर ये लोग सुविधा प्राप्त समाज के लोग हैं। जो सुविधाविहीन समाज के लोग आधुनिकता के चाकचिक्य से प्रभावित हो रहे हैं। वे समझ नहीं पा रहे हैं कि किस प्रकार विकासात्मक जीवन से सामंजस्य स्थापित किया जाय और वह सब कुछ पूना पैक्ट की भाँति आरक्षित चाहते हैं। फलतः अपवित्रतामूलक विकासानुसन्धान की होड म सब करने के लिए उतावले हैं। टी.वी., कम्प्यूटर, मोबाइल तथा संचार की सुविधाओं ने हलचल मचा दी है। जनतंत्र में मतदान का प्रयोग वे जाति, सम्प्रदाय पर आधारित करके अनापेक्षित सुविधा प्राप्त करना चाहते हैं। अतः उनके जीवन में परम्परागत तथा आधुनिकतागत कर्मफलवादी नैतिकता का कोई स्वरूप नहीं दिखाई देता है। वे तो संस्कृत की उस पद्धति का आकलन करना चाहते हैं जिसमें किसी भी प्रकार से अपने को स्थापित करने का प्रयत्न किया जाता है।

घटं मिन्धात पटं मिन्घात् कुर्मात् रासभगर्जनम्।

येन केन प्रकारेण प्रसिद्धः पुरुषो भवेत्।।

यह प्रवृति सामाजिक अव्यवस्था तथा मत्स्यन्याय की ओर ले जा सकती है। विकसित समाज में यह प्राथमिक समाज की दृष्टि क्या रूप अख्तियार करेगी, समझ में नहीं आता। अतः सामाजिक विकास एवं समरसता के प्रशिक्षण की आवश्यकता है। यह घर-घर में इस प्रकार के प्रवृत्ति वाले लोगों के लिए किया जाना चाहिए। परिवार की जो संरचना परम्परामूलक होकर आधुनिकता की ओर जा रही है वहाँ पारम्पारिक नैतिक मानकों में विकासात्मक नैतिक मानकों की ओर लाने का प्रयत्न विकसित सदस्य को करना होगा, जो यह मानता है कि भारत की दृष्टि से वर्तमान विकास प्रक्रिया नहीं अपनायी गयी है। अब बुनियादी शिक्षा की जगह वैयक्ति घरेलू शिक्षा की आवश्यकता है और इसके लिए बाहरी शिक्षक नहीं आपने घर के ही जिम्मेदार तथा कार्यशील स्नातकों तथा नौकरीशुदा लोगों से समझने की आवश्यकता है। गांधीजी यदि होते तथा इस प्रकार की सामाजिक विसंगति देखते तो इस शिक्षा की ओर ध्यान आकृष्ट करते।

सबका विकास होना चाहिए पर विकास का स्वरूप क्या बनेगा इस पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए। हम फल खाना चाहते हैं पर वृक्ष के संतुलित विकास के लिए खाद-पानी वृक्ष की जड में नहीं देना चाहते हैं। यह प्रवृत्ति हमारे पारिवारिक विकास में बाधक बनेगी। साथ ही पारस्परिक प्रेम की जगह घृणा, द्वेष को उत्पन्न करेगी, स्पर्धा की जगह हिंसाभाव को पैदा करेगी। अतएव अब पारिवारिक प्रशिक्षण अपने परिवार के प्रशिक्षित सदस्यों से चलाया जाय और विकास की एक मॉडल पुस्तिका परिवार में वितरित की जाय। यद्यपि यह सुझाव उपहासात्मक लगेगा पर भारत को अपनी इयत्ता रखनी है और आधुनिक विकास प्रक्रिया के साथ कदम पर कदम मिलाना है तो इस योजना को लागू करना चाहिए।

मैंने ईश्वरीय सत्तात्मक कर्मफल व्यवस्था तथा राज्यनियन्त्रित कर्मफल व्यवस्था के अपारदर्शी आस्था एवं स्वातन्त्र्यकृत पारदर्शी व्यवस्था की ओर गांधीजी की दृष्टि से नैतिकता का विभाजन किया था। हमारे समाज में यह प्रश्न सदा खडा होता रहेगा और हमारे यहाँ से ईश्वरीय सत्तात्मक कर्मफल व्यवस्था तुरन्त नहीं समाप्त होगी। अतः राज्यनियन्त्रित कर्मफल व्यवस्था पर ध्यान न भी दिया जाय तो नैतिक दृष्टियों पर महत्त्व अवश्य दिया जाना चाहिए। नैतिक दृष्टियों का हम जीवन में पालन करते हैं पर समझते नहीं हैं, यदि इनको समझते हुए पालते हैं तो हमारे में संतोष, शुचिता, आनन्द, मैत्री, करुणा तथा पारस्परिक सहयोग के गुण विकसित होंगे। यदि बिना समझे राज्य के दण्ड के डर से इसका पालन करेंगे तो उपर्युक्त गुण नहीं विकसित होंगे। अतएव परम्परागत यम, नियमों अर्थात् अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह के साथ, शौच, स्वाध्याय, संतोष और ईश्वरनिष्ठा को बनाये रखना आवश्यक है।

गांधीजी इसके पक्षधर थे और संतुलित जीवनदृष्टि विकसित करना चाहते थे। हमारा ध्यान इस ओर जाना चाहिए। एक बात की ओर पुनः ध्यान आकृष्ट करना चाहूँगा जो राज्यकृत विवशता से खडी हो गयी है। देश विभाजन के बाद एक अस्वाभाविक स्थिती पैदा हुई जो हममें नफरत पैदा कर देती है। यह नफरत भाव कैसे हटे इसकी ओेर ध्यान देना आवश्यक है। आधुनिक युग में धर्म पडोसी को ध्यान में रखकर खडा किया जाना चाहिए। पडोसी के यहाँ यदि बच्चे खाना खाये बिना तडपते रहें और हम अपने कुत्ते को दस प्रकार की सुविधाएँ दिलाते रहे तो यह जायज तथा उचित नहीं है। पडोस में हम देख सकते हैं कि पडोसी की हालत क्या है? ज्यादा से ज्यादा उसकी सहायता की जाय। वह सहायता भौतिक, आध्यात्मिक, धार्मिक तथा नैतिक भावों के संप्रेषण की हो सकती है। गांधीजी इसके हिमायती लगते हैं। किसी ने संक्षेप में धर्म का पर्याय अहिंसा माना है यदि अहिंसा हमारा जीनव वृत्त बन जाय तो हम किसी के साथ रह सकते हैं। गधीजी भी इसके हिमायती थे। आज की परिस्थितियों में गांधी चिन्तन के सन्दर्भ में भारतीत स्थिति का आकलन करते हुए इतना ही पर्याप्त होगा। पुनः अग्रिम लेख में इसकी विस्तृत व्याख्या की जायेगी। 

अगर स्वराज्य का अर्थ हमें सभ्य बनाना और हमारी सभ्यता को शुद्ध तथा मजबूत बनाना न हो, तो वह किसी कीमत का नहीं होगा। हमारी सभ्यता का मूल तत्त्व ही यह है कि हम अपने सब कामों में, फिर वे निजी हों या सार्वजनिक, नीति के पालन को सर्वोच्च स्थान देते हैं।

स्त्रोत : (सौजन्यः गांधी विचार- गवेषणा, संयुक्तांकः वर्ष-४ जुलाई-दिसम्बर. २००४ अंक २
एवं वर्ष-५ जनवरी-जून, २००५ अंक १)
 

| | |