स्त्री-शिक्षा और गांधी विचार |
सुनीता श्रीवास्तव ‘एक आदमी को पढ़ाओगे तो एक व्यक्ति शिक्षित होगा। एक स्त्री को पढ़ाओगे तो पूरा परिवार शिक्षित होगा। “ - गांधीजी गांधीजी शिक्षा के माध्यम से महिलाओं कि मुक्ति में विश्वास रखते थे और उन्होंने भारतीय समाज के कायाकल्पकी दिशा में चलायी गयी राजनीतिक सामाजिक अथवा विकास सम्बन्धी गतिविधियों में महिलाओं के प्रति कोई भेदभाव नहीं रखा। सामाजिक निरंकुशता और पुरुष प्रधानता की वजह से महिलाओं की जो दुर्दशा हुई, उसका गांधीजी को भलीभाँति ज्ञान था। गांधीजी ने महिलाओं की शिक्षा को पर्याप्त महत्त्व दिया, किन्तु वे जानते थे कि अकेले शिक्षा से ही राष्ट्र निर्धारित लक्ष्य प्राप्त नहीं किये जा सकते। वे सिर्फ महिलाओं की ही नहीं, पुरुषों की भी मुक्ति के लिए समुचित कार्यवाही के पक्षधर थे। शिक्षा के बारे में उनके विचार अनेक समकालीनों से भिन्न थे और शिक्षा उनके ग्राम पुर्ननिर्माण तथा उसके माध्यम से राष्ट्र पुर्ननिर्माण का मात्र एक हिस्सा, एक प्रमुख घटना थी। उन्होंने एक बार कहा था कि महिलाओं की शिक्षा मात्र ही दोषी नहीं है, हमारी समूची शिक्षा-प्रणाली विगलित है। वे शहरों और कस्बों में रहने वालों की आलोचना करते थे जो जनसंख्या का कुल १०-१५ प्रतिशत हैं, और प्रत्येक चीज में लिंग सम्बन्धी भेदभाव को बढ़ावा देते हैं। यंग इन्डिया में २३ मई, १९२९ को लिखे गांधीजी के एक लेख से पता चलता है कि उन्हें निरक्षरता, स्कूल सुविधाओं का अभाव, भू-स्वामियों के शोषण का शिकार होने और ऐसी ही अन्य सामाजिक आर्थिक अक्षमताओं की कितनी जानकारी थी, जिनका सामना ग्रामीण महिलाओं को करना पड़ता है। उन्होंने लिखा था ‘जरूरी यह है कि शिक्षा प्रणाली को दुरुस्त किया जाये और उसे व्यापक जनसमुदाय को ध्यान में रखकर तय किया जाये। उनके अनुसार शिक्षा प्रणाली में बच्चों के साथ प्रौढ़ शिक्षा पर ही बल नहीं दिया जा सके।“ बच्चों के साथ प्रौढ़ शिक्षा पर उनके अनुसार जिस शिक्षा प्रणाली में बल नहीं दिया जायेगा, वह उपयुक्त नहीं हो सकती। भारत में जो गिनी-चुनी शिक्षित महिलाएँ हैं, उन्हें पश्चिमी ऊँचाइयों से नीचे उतरकर देश के मैदानों में आना होगा। उनकी उपेक्षा के लिए निश्चय ही पुरुष जिम्मेदार है, उन्होंने महिलाओं का अनुचित इस्तेमाल किया है किन्तु जो महिलाएँ अन्धविश्वासों से उपर उठ चुकी हैं, उन्हें सुधार के लिए रचनात्मक कार्य करने होंगे। गांधीजी के अनुसार शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो लड़के-लड़कियों को स्वयं के प्रति अधिक उत्तरदायी बना सके और एक-दूसरे के प्रति अधिक सम्मान की भावना पैदा कर सके। महिलाओं के लिए ऐसा कोई कारण नहीं है कि वे अपने को पुरुषों का गुलाम अथवा पुरुषों से घटिया समझें, उनकी अलग पहचान नहीं है बल्कि एक ही सत्ता है। अतः महिलाओं को सलाह है कि वे सभी अवांछित और अनुचित दबावों के खिलाफ विद्रोह करें। इस तरह के विद्रोह से कोई क्षति होने की आशा नहीं है। इससे तर्कसंगत प्रतिरोध होगा और पवित्रता आयेगी। हालाँकि भारतीय परम्परा में आमतौर पर महिलाओं को सम्मान मिला है और शायद भारत एक मात्र ऐसा देश है जहाँ करोड़ाें लोग अर्धनारीश्वर की पूजा करते हैं और जहाँ मनु ने यह घोहणा की कि जहाँ नारी का सम्मान होता है वहाँ देवता प्रसन्न रहते हैं। यह सत्य है कि भारतीय महिलाएँ आज भी कुल मिलाकर निरक्षर और अशिक्षित हैं तथा वांछित रूप में अपनी आवाज संसद या विधान मण्डलों में उठाने में असमर्थ हैं। ‘ग्रेट वोमेन ऑफ इण्डिया“ कि भूमिका में महान् चिन्तक और राजनेता, भूतपूर्व राष्ट्रपति डॉ. एस, राधाकृष्णन ने कहा है- ‘‘यह तथ्य अधिक महत्त्वपूर्ण है कि हम मनुष्य हैं न कि वे भौतिक विशेषताएँ जो हमें एक-दूसरे से अलग करती हैं।“ हमारी शिक्षा प्रणाली अत्यन्त विशाल है जहाँ १७.५ करोड़ विद्यार्थी और ३५ लाख शिक्षक हैं। प्रत्येक जिला मुख्यालय में कम-से-कम एक कला महिला कॉलेज (आर्ट कॉलेज) है। फिर भी ए.सी.फर्नाडो के अनुसार शिक्षा प्रणाली में लड़कों का पक्ष लिया जाता है। लडके-लड़कियों के विस्तृत भेदभाव इस तथ्य से स्पष्ट दिखायी देता है कि १९९३-९४ के दौरान प्राथमिक और मिडिल स्कूलों में कुल दाखिला १५ करोड़ बच्चों में लड़कों की संख्या लड़कियों के मुकाबले २.५ करोड़ अधिक थी। शहरी लड़कियाँ देश में उच्च शिक्षा का अधिकतम लाभ उठा रही हैं, क्योंकि वे उच्च और मध्यमवर्ग से सम्बन्ध*हैं। उनकी उपस्थिति उन क्षेत्रों में पर्याप्त मात्रा में बढ़ी है, जो लड़कों का गढ़ समझे जाते थे, जैसे- रसायन, इंजीनियरिंग, ऐयरोनाटिकल इंजीनियरिंग, इलेक्ट्राॅनिक्स, संचार और पत्रकारिता शिक्षा उत्पादन इंजीनियरिंग, चिकित्सा, व्यापार प्रबन्ध और कम्प्यूटर विज्ञान अनेक युवतियों के प्रवेश के बाद अथवा परीक्षा का परिणाम आने तक अन्त में घरेलू महिला बनना पड़ता है। वे जान-बूझकर अपनी शिक्षा और व्यावसायिक लक्ष्यों को परिवार के जीवन के लिए त्याग देती हैं। यह बड़ी ही दुर्भाग्यपूर्ण समाज वैज्ञानिक अवधारणा है, क्योंकि एक डॉक्टर इंजीनियर और व्यापार प्रबन्ध बनाने में कई लाख रुपये की लागत आती है अगर उसकी शिक्षा का इस्तेमाल समाज की बेहतरी के लिए नहीं होता, तो उस पर खर्च समूची धनराशि व्यर्थ जाती है। हालाँकि अनेक शादीशुदा प्रशिक्षित महिलाएँ जो घरों में रहती हैं वे बच्चों का पालन पोषण बड़ी दक्षता से करती हैं और घरेलू गतिविधियों का प्रबन्ध करती हैं, यह भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है। सरकारी और प्राइवेट संस्थानों की घरों मे रहने वाली व्यावसायिक रूप से प्रशिक्षित महिलाओं को सेवाओं का लाभ उठाने का प्रयास करना चाहिए। रोजगार, काम के घण्टे आदि परम्परागत नियमों को बदलना होगा ताकि काम की इच्छुक महिलाओं की विशेष आवश्यकताओं को पूरा किया जा सके। कार्यस्थलों पर शिशुओं को रखने के प्रबन्ध भी किये जा सकते हैं। ऐसी कामकाजी महिलाओं को लाने, ले जाने की सुविधाएँ भी प्रदान की जा सकती हैं। गांधीजी के विचारों को ध्यान में रखते हुए पहला उपाय यह करना होगा कि निचले स्तर पर शिक्षा को व्यावसायिक बनाया जाये। स्कूल स्तर पर महिलाओं को विशेष कौशल का प्रशिक्षण दिया जा सकता है। हमें कई लाख स्वास्थ्य कायकर्ताओं की आवश्यकता है। ऊपरी मिडिल स्कूल से लेकर वरिष्ठ माध्यमिक स्तर पर प्रशिक्षण का एक खास पाठ्यक्रम तैयार किया जा सकता है। कम्प्यूटर शिक्षा भी निचले स्तर से ही शुरू की जा सकती है। किसी लड़के या लड़की के हायर सेकेण्ड्री परीक्षा पास करने तक उन्हें रोजगार के लिए दक्ष बना दिया जाना चाहिए। माध्यमिक स्तर पर किताबी शिक्षा की मात्रा कम की जा सकती है, व्यासायोन्मुखी जानकारी और स्कूल के पुस्तकालय, प्रयोगशाला प्रशिक्षण का प्रबन्ध किया जा सकता है। अगर अधिक प्रशिक्षण सुविधाओं की आवश्यकता हो तो भावी कर्मचारियों को प्रशिक्षण सहायता देने के लिए स्थानीय निगम आगे आ सकते हैं। उन स्कूलों और कॉलेजों में जहाँ लड़कियों और महिलाओं की संख्या अधिक हों, वहाँ डिजाइनिंग, ड्राइंग, प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल, मिडवाइफरी, घरेलू अर्थ प्रबन्ध, पुस्तकालय, विज्ञान आँकड़ा, प्रोसेसिंग, बुजुर्गों की देखभाल, विज्ञापन कापीराइटिंग, सांख्यिकी, सेनेमाटोग्रैफी, बागवानी और असंख्य ऐसे ही अन्य पाठ्यक्रम अवश्य शुरू किये जाने चाहिए, जो खासतौर से महिलाओं और लड़कियों के लिए तैयार किये गये हों, इससे देश अगली शताब्दी की चुनौतियों का सामना कर सकेगा। इन नये प्रशिक्षणों को युक्तिसंगत ढंग से मानविकी, विज्ञान और सामाजिक विज्ञानों के परम्परागत पाठ्यक्रमों के साथ जोड़ा जाना चाहिए। भारतीय नारी की क्षमता और किसी भी उन्नतिशील देश की नारी से कम नहीं है। अन्तर केवल इतना ही है कि जहाँ उन्नतिशील देशों में नारियों की पुरुषों के समान लगभग प्रत्येक क्षेत्र में समान अवसर प्राप्त हैं, वहीं भारतीय नारियों के सामने व्यावहारिक रूप में अवसरों की कमी है। संविधान में यद्यपि सिद्धान्त रूप में और स्त्री और पुरुष को समान अधिकार दिये गये हैं, पर व्यवहार में वह बात नहीं है और अनेक सामाजिक बाधाएँ उनके विकास में बाधक हैं। अतः नारियों को व्यावहारिक रूप से समान अधिकार मिलना चाहिये। परन्तु साथ ही साथ हमें अपनी संस्कृति और सभ्यता की उपेक्षा नहीं करनी होगी। महिलाओं की शिक्षा में भी हमें उनकी उन व्यावहारिक कठिनाइयों पर ध्यान देना होगा जो शिक्षा के प्रत्येक स्तर पर आती हैं। इनकी शिक्षा, पाठ्यक्रम आदि के निर्धारण में नारी जाति की स्वाभाविक आवश्यकताओं का ध्यान रखना होगा। पुरुष और स्त्री के लिए एक ही प्रकार के पाठ्यक्रम के निर्धारण से उनका उचित विकास नहीं होगा। शिक्षा के क्षेत्र में यदि प्राथमिक शिक्षा स्तर तक सह-शिक्षा भी दी जा सकती है। परन्तु अधिक उत्तम हो कि देशभर में अधिक-से-अधिक बालिका विद्यालय खोले जायँ। अगस्त १९४७ में स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् यह परिवर्तन और भी तीव्रगति से हो रहे हैं तथा भारतीय नारी अपने परम्पराबद्ध स्वाभाविक विशेषता से मुक्त होने लगी। स्वतंत्र भारत में महिलाएँ आज अधिकाधिक संख्या में वैतनिक एवं लाभपूर्ण व्यवसायों और काम-धन्धों में आने लगी हैं। इस देश में समाज के निम्न वर्ग की औरतें तो हमेशा से ही मजदूरी करती रही हैं, किन्तु उच्च वर्ग की महिलाएँ अधिकतर अपने घरों तक ही सीमित रही हैं। स्वतंत्र भारत में अब महिलाएँ घर की चहारदीवारी से निकलकर इन धन्धों में जा रही हैं जिन पर अब तक पुरुषों का अधिपत्य था। यह एक अपूर्व घटना है और एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में भारत की विशेषता भी है। सन् १९९१ की जनगणना के अनुसार केवल ७.५८ प्रतिशत महिलाएँ ही केन्द्र सरकार में कार्यरत हैं। १९९५ के कुछ आँकडों के अनुसार निजी सार्वजनिक क्षेत्र में महिला कामगारों का प्रतिशत केवल १५.३६ है। अतः इससे पता चलता है कि पाँच वर्षों में इनमें दोगुनी वृद्धि हुई। इससे स्पष्ट होता है कि समाज के इतने विकास के बाद भी आज महिलाएँ कार्योजन के क्षेत्र में प्रगति बहुत कम कर पायी हैं। क्योंकि अभी भी उच्च शिक्षण-प्रशिक्षण प्राप्त युवतियों की तीन-चौथाई संख्या रोजगार क्षेत्र में नहीं उतर पाती। विशेष रूप से तकनीकी व्यावसायिक क्षेत्रों के लिए किये गये प्रशिक्षण का लाभ राष्ट्र को नहीं मिल पाता क्योंकि कुछ रुढ़यिाँ उनमें बाधक हैं और प्रशिक्षण और रोजगार क्षेत्रों में ठीक सामंजस्य नहीं बैठाया जा सका है। एक ओर तो बेरोजगारी है, दूसरी ओर रोजगार क्षेत्रों को योग्य व्यक्ति नहीं मिलते हैं। लड़कियों, महिलाओं के मामले में तो उनका प्रशिक्षण भी समाज के काम नहीं आता। भारत में महिलाओं की शिक्षा चूँकि ज्यादा नहीं हो पाती है इसलिए महिलाओं की ऐसी शिक्षा की व्यवस्था करनी चाहिए कि बालिकाओं को हाईस्कूल और इन्टरमीडिएट करने के साथ-साथ कोई ऐसी शिक्षा हो जो उनकी सभ्यता और संस्कृती से जुड़ी हुई हो और उस शिक्षा के द्वारा वह अपनी जीविका चला सके। जिससे उन्हें अपनी जरूरत की सभी चीजों के लिए किसी और के ऊपर निर्भर न होना पड़े। इसलिए प्रत्येक बालिका को शिक्षा के साथ ऐसी कला सिखायी जाय जो उसको अपने घर में रहकर ही स्वरोजगार करके अपनी तथा अपने परिवार की जीविका चला सके। हमारे आज के समाज की सबसे बड़ी माँग यही है कि हम दूसरे के ऊपर निर्भर न होकर स्वयं अपने देश के ऊपर निर्भर रहें। इसके लिए प्रत्येक व्यक्ति को शिक्षा के अनुसार रोजगार करने की जरूरत है, जिससे कि हमारा देश आगे बढ़ सके और अन्य देशों की तरह कन्धा से कन्धा मिलाकर हम भी विकसित देशों में अपना नाम कर सकेंगे। आज लड़कियों कि शिक्षा के नाम पर बस उसे साक्षर बनाया जाता है, लोगों का नजरिया अभी भी स्त्री शिक्षा के प्रति बहुत ही पिछड़ा हुआ है। लड़कियों को स्नातक या स्नातकोत्तर कराने के बाद उसकी शादी कर देते हैं, ये नहीं सोचते कि आगे चलकर क्या करेंगी। बचपन से ही उसकी शिक्षा का कोई उद्देश्य नहीं होता है, इसलिए आवश्यकता है समाज को स्त्री शिक्षा के बारे में सोचने के लिए कि स्त्रियों की शिक्षा रचनात्मक ढंग से होनी चाहिए, जिसके कारण वे परम्परागत शिक्षा की आवश्यकता को महसूस करें। जिससे वे आत्मनिर्भर बन जायेंगी और समाज में उनकी प्रतिष्ठा बढ़ेगी और समाज की भी प्रगति होगी। १९९१ की जनगणना के अनुसार पुरुषों में साक्षरता दर ६३.८६ प्रतिशत और महिलाओं में ३९.४२ प्रतिशत है। इस प्रकार महिला और पुरुषों की साक्षरता में दुगुने का अन्तर है। १९९३-९४ में प्राथमिक स्तर पर ४२.९ प्रतिशत बालिकाएँ पंजीकृत थीं जबकि १९५० में केवल २८.१ प्रतिशत पंजीकृत थीं। इसी प्रकार प्राथमिक स्तर पर (कक्षा १-५) पर केवल १९८०-८१ में ६२.५ प्रतिशत लड़कियाँ विद्यालय छोड़ देती थीं, जबकि १९९३-९४ में यह घटकर ३९ प्रतिशत हो गया। लेकिन यह विकास भी बहुत कम है। इसके पीछे कारण यह प्रतीत होता है कि वर्तमान शिक्षा स्त्रियों के लिए अनुपयोगी हो गयी है। साथ ही विद्यालयी शिक्षा में अरुचि माता-पिता की सहायता आर्थिक तंगी, विद्यालयों का अभाव आदि कारण भी स्त्री-शिक्षा में बाधक पाये गये हैं। इन तमाम समस्याओं को दूर करने के लिए हमें अपने सामाजिक परिवेश एवं अपनी संस्कृति की तरफ देखना होगा जिनसे ये स्त्रियाँ जुड़ी हुई हैं। महिलाओं द्वारा अनेक परम्परागत उत्पाद जैसे पत्तल, दोने, पापड़, ईंट, मिट्टी के बर्तन, बर्तनों पर फूल-पत्तियाँ बनाना तथा उनकी रंगाई करना, चटाई, कालीन, अचार, मुरब्बा आदि तैयार किये जा सकते हैं जिनको करने के बाद महिलाएँ अपनी स्थिती में सुधार ला सकती हैं। लोक विद्या की आवधारण स्त्रियों को इन्हीं समस्याओं को देखते हुए अत्यन्त समीचीन प्रतीत होती है। जिनके द्वारा वह अपनी हुनर व कलाओं, उद्योग आदि के द्वारा आर्थिक सम्पन्नता एवं शिक्षा भी प्राप्त कर सकती हैं। वैश्वीकरण के इस दौर में लोक विद्याओं की भूमिका और अधिक शसक्त प्रतीत होती है। जिसमें हमें अपनी ही प्रौद्योगिकी के द्वारा आत्म निर्भरता, स्वावलम्बन आर्थिक और विकास का अवसर प्राप्त हो सकेगा। जब देश में राष्ट्रीय पूँजी का अभाव हो और सभी को सरकारी नौकरी मुहैया नहीं की जा सकती, ऐसी स्थिती में भारतीय अतीत की खोज करने की आवश्यकता जान पड़ती है। आज हमने आटा-पिसाई, तेल-पेराई, चावल-कुटाई और फलों तथा सब्जियों को सुखाने की व्यवस्था को भी बड़ी-बड़ी मिलों और विदेशी कम्पनियों के जिम्मे सौंप दिया है, यह पराश्रिता हमें गरीबी, बेरोजगारी और गुलामी की ओर ले जा रही है। भारतीय नारी परिवार, समुदाय और समाज में तभी उत्साहपूर्वक अपनी भूमिका का निर्वाह कर सकती है, जबकि सामाजिक जीवन में उसके काम और जीवन की दशाओं में सुधार होगा, और वह स्वयं को सामाजिक, आर्थिक व मानसिक रूप से बन्धनमुक्त कर पायेगी। स्त्रियों को ऊँचा उठाने का दायित्व सम्पूर्ण व्यवस्था का है। इसके लिए सम्पूर्ण समाज को जागृत करने की आवश्यकता है, क्योंकि उनकी समस्याएँ एकांगी न होकर समस्त समाज से जुड़ी हुई हैं। तभी हमारा देश आगे बढ़ सकेगा। स्त्रोत : गांधी विचार, वर्ष-४ अंक २ व वर्ष-५ अंक १ |