पर्यावरणीय आपदा और गांधी की प्रासंगिकता |
एम. आर. राजगोपालन (सचिव, गांधीग्राम ट्रस्ट, तामिलनाडू) पर्यावरण का दिनोंदिन क्षरण हो रहा है। इसके लिए धन्यवाद देना होगा। हमारी जीवन शैली और प्रगति-विकास की सतत आराधना को जिससे यह स्थिति बद से बदतर होती जा रही है। गांधीजी ने इस संबंध में विशिष्ट रूप से कुछ लिखा नहीं है क्योंकि पर्यावरण का क्षरण उस समय समस्या नहीं थी। पर इसे हम उनके लेखन में पा सकते है। एक बार जब उन्हें मानवता पर एक संदेश देने के लिए कहा गया तब उन्होने कहा, "मेरा जीवन ही मेरा संदेश है।" गांधीजी के लेखनों उनके भाषणों और उनके जीवन से हम जो भी चाहते है प्राप्त कर सकते है। मानव की प्रगति और सड़क के विकास ने प्रकृति के क्षरण में योगदान दिया है। मानव ने अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्रकृति का अत्याधिक शोषण-दोहन किया है। इस प्रकार का विकास प्रकृति के संरक्षण के लिए उपयुक्त नहीं है। जेम्स मॅकहाल के शब्दों में, इस ग्रह ने जिन जीवों की मेजबानी की है उन सभी में मानव सबसे घातक जीव साबित हो गया है। पर्यावरण के क्षरण के बारे में जागरूकता की शुरूआत दशक में होने लगी थी। पुस्तकों-सम्मेलनों आदि के माध्यम से इस जागरूकता के स्वरूप को विस्तार देने का काम होने लगा। यह महत्त्वपूर्ण है कि प्रत्येक जिम्मेदार व्यक्ति पर्यावरण के क्षरण को लेकर चिंतित व घबराया हुआ है। अब हमें एक अर्थपूर्ण समाधान दिखाई दे रहा है। यहां हम सभी को महात्मा के उपदेशों से कुछ आशा की किरण दिखलाई पड़ रही है। पश्चिमी परंपरा के अनुसार मानव को पृथ्वी के बाहर से आयी वस्तु माना गया है जिसे विजेता बनने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। वही भारतीय परंपरा के अनुसार पृथ्वी उसकी माता है और वह उसका आदर करता है। गांधीजी हमारी परंपरा से बहुत अधिक प्रभावित थे, इसलिए उन्होंने सत्य और अहिंसा पर जोर दिया। गांधीजी के शब्दों में "मानव के पास जीवन निर्माण की कोई शक्ति नहीं है इसलिए उसे जीवन को नष्ट करने का कोई अधिकार नहीं है। यदि पर्यावरण के क्षरण से बचाना है तो हमें मशीनों के प्रयोग को कम से कम या बंद करना होगा। स्वतंत्रता-संघर्ष के दौरान गांधीजी द्वारा प्रचारित खादी व ग्रामोद्योग आज भी प्रासंगिक है। हमें गांधीजी के रचनात्मक कार्यक्रमों को पढ़ना चाहिए। हरिजनों और महिलाओं को आज भी हमारे समाज में समानता का अधिकार नहीं मिला है। ग्रामीण भारत में अब भी स्वास्थ्य और पोषण की समस्या बनी हुई है। रचनात्मक कार्यक्रमों में जीवन के कई अन्य पहलूओं पर विचार किया गया है। इनमें से उनकी कुछ कल्पनाओं को आधार बनाकर पर्यावरण संरक्षण के पहले चरण की शुरूआत करनी चाहिए। गांधीजी के ग्यारह व्रत, अहिंसा, सत्य, चोरी न करना, ब्रह्मचर्य, लोभ न करना, शारीरिक श्रम, संयम, धार्मिक सौहार्द, निर्भयता, स्वदेशी तथा अस्पृश्यता निमूर्लन भी बहुत महत्त्वपूर्ण है। वास्तविकता में इन प्रत्येक व्रतों की विशिष्टताओं को पर्यावरण के संरक्षण से जोड़कर देखा जा सकता है। मैं यहां गांधीजी की उस प्रसिद्ध उक्ति को दोहराने का मोह छोड़ नहीं सकता हूँ "पृथ्वी के पास हमारी आवश्यकताओं के लिए ही पर्याप्त संपदा है, न कि हमारे लोभ के लिए क्या यह पर्यावरण की आपदाओं से इस पृथ्वी को सुरक्षित रखने के लिए महान संदेश नहीं है? स्त्रोत : स्मारिका, 24 सितंबर 2001 |