मनोभावों के सन्दर्भ में महात्मा गांधी |
मनोज कुमार राय बीते युग की अपेक्षा हम आज ढेर सारी समस्याओं से जूझ रहे हैं। यह ठीक है कि समस्यायें सदैव से मनुष्य के साथ लगी रही है और मनुष्य इन समस्याओं से निजात पाने के लिए सतत प्रयत्नशील भी रहा है। परन्तु विज्ञान व सूचना-तकनीक के क्षेत्र में हुई आश्चर्यजनक प्रगति ने मनुष्य के विवेक पर `चैनल` व `डॉट कॉम` का पर्दा डाल दिया है। परिणामस्वरूप मनुष्य दिग्भ्रमित हो रहा है। हमारे सूचना स्रोत जिन्हें हम अपना मालिक मान चुके हैं, हिंसा और भय, क्रूरता व हत्या, आतंक व तनाव, उग्र उपभोक्तावाद और निर्लज्ज संबंधों के आधार बन चुके हैं। वर्तमान पीढी की संवेदनाओं को ये खत्म करने का काम कर रही है। इसका मतलब यह नहप कि हमारे पास बुद्धि या आध्यात्मिकता का अकाल है। वस्तुतः हमारे पास अकाल है, प्रज्ञा और विवेक का। यदि हममें प्रज्ञा व विवेक जागृत हो तो विश्व के कोने-कोने के शाश्वत मूल्यों को नई पहचान के साथ समाज के सामने रख सकते हैं, जो सबके लिए लाभदायी होगा। परन्तु समस्या यह है कि यह कार्य कैसे हो। एक कहावत है - चैरीटी बिगिंस एट होम। यदि मनुष्य वाकई विश्वकल्याण के लिए गंभीर है तो शुरुआत स्वयं से करनी होगी। गांधीजी ने कहा भी है कि यदि हम स्वयं पर विजय प्राप्त करते हैं तो हम विश्व पर विजय प्राप्त कर सकते हैं। ऐसा इसलिए कि दुनिया बाहर नहप, अन्दर है। यही कारण है कि हमारे बीच महान वही लोग हुए हैं जिन्होंने स्वयं पर विजय प्राप्त की, न कि वे जिन्होंने खून की नदियां बहाकर विश्व विजय किया। मजे की बात यह है कि यूनेस्को के संविधान के प्रस्तावना में भी यही चीज कही गयी है। तो यह कैसे संभव है। गांधी ने रास्ता भी दिखला दिया है स्वयं के मनोभावों अथवा मनोविकारों पर नियंत्रण के जरिये। महात्मा जी ने मनोभावों को कैसे नियंत्रित किया, इसको समझने के कई दृष्टिकोण हो सकते हैं। समाजशास्त्राh इस पर अपने ढंग से विचार कर सकता है और मनोवैज्ञानिक अपने ढंग से। दर्शन का विद्वान दार्शनिक दृष्टिकोण से इसे स्पष्ट कर सकता है और योगी योग की दृष्टि से। औषधि विज्ञान में भी इस पर प्रचुर सामग्री मिलती है, पर विषय को स्पष्ट करने में वे कितनी सहायक हो सकती है कहा नहप जा सकता। आज के बहस-मुबाहिसे का सबसे सबल पक्ष यह है कि वक्ता ``मैं ऐसा मानता हूं`` से शुरू करता है। पर निर्बल पक्ष यह है कि उसका आधार क्या है, उसे नहप बता पाता है। अस्पष्ट होने से सारी बात त्रिशंकु जैसे अधर में लटकती नजर आती है। जिससे कर्मनाशा तो निकलती है पर भागीरथी का विकास अवरुद्ध हो जाता है। शब्द के द्वारा तत्व तक पहुंचने के मार्ग में भी अनेक कठिनाइयां हैं। शब्द बुद्धि प्रसूत होता है, पर तत्व बुद्धि की सीमा का अतिक्रमण करता है। व्यावसायत्मिका बुद्धि लोक के कार्य़ों में दिशा निर्देश का कार्य कर सकती है, पर जो थोडा इसकी सीमा से परे है, उसका स्पष्टीकरण संभव नहप हो पाता है। गांधीजी ने स्वयं अपने को बौद्धिक माना है। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में इसकी घोषणा की है कि जो बात मुझे तर्कसंगत नहप लगेगी उसे स्वीकार कर पाना मेरे लिए संभव नहप होगा। बुद्धिवादी लोग गांधीजी के इस उक्ति का अपने हित में उपयोग करते हैं और कहते हैं कि उन्होंने स्वयं बुद्धि को महत्व दिया है। बात भी सही है। पर उसी के साथ उन्होंने आत्मा की आवाज की बात उठाकर के बुद्धि के एकाधिपत्य पर अंकुश भी लगा दिया है। आरंभिक जीवन में जब गांधीजी में आत्मा की आवाज का विकास नहप हुआ था, तो उन्होंने बुद्धि का निर्देश ग्रहण करके तरहगतरह की त्रुटियां की हैं, जिसकासंकेत उन्होंने अपनी जीवन में स्पष्ट रूप से किया है। चेतना के परिष्कार के क्रम में उन्होंने अपने दृष्टिकोण में परिष्कार किया है और बुद्धि के साथ हृदय का मणिकांचन योग किया है। गांधीजी की बुद्धि ने अगर उन्हें अंध परंपरा और अंध श्रद्धा के जाल में फंसने से बचाया है तो उनके हृदय ने बुद्धि के द्वारा प्राप्त निष्कर्ष़ों को समाज में प्रयोग की सार्थक भूमिका पर कस कर उनकी सार्थकता और निरर्थकता पर विचार करने की शक्ति प्रदान किया है। हर कार्य उनके लिए शिक्षा का साधन रहा है। उनमें किसी सिद्धान्त के प्रति रागद्वेष का भाव नहप रहा है। जीवन में सीखने की प्रक्रिया में ज्यों-ज्यों विकास होता गया है, त्यों-त्यों उनका दृष्टिकोण व्यापक और प्रशस्त होता गया है। ऐसा महान व्यक्ति किसी सिद्धान्त विशेष से निर्देशित न होकर अपने मार्ग का अनुगमन करते हुए अपने प्रशस्त राजपथ रूपी सिद्धान्त का निर्माता होता है। उसमें खोजने पर सबका कुछ न कुछ मिल जाता है, पर अपनी समग्रता में जो बात उभरती है, उस पर उसके व्यक्तित्व की अमिट छाप होती है। अतएव वह उसका अपना पथ होता है। ऐसे क्रान्तिौष्टा महापुरुष को किसी मानदण्ड से नापने का प्रयत्न बहुत सफल नहप हो पाता है। उसका महत्व केवल इस बात में होता है कि हम अपनी दृष्टि से उसे याद करते हैं; जो भी हमारी चिन्तन-परिधि में आता है, उससे उसे समझने का प्रयत्न करते हैं। यह प्रयत्न ही स्वयं में लाघनीय है। गांधीजी का लेखन बडा ही व्यापक और विशाल है। उसे समग्रता में समझने में समर्थ हो पाना सरल कार्य नहप है। जो अनुशासन प्रिय नहप है वह तो उसे ठीक से समझ भी नहप सकता है। कारण कि अनुशासन को बात से नहप अपने अन्तःकरण के संस्कार से समझा जाता है। उस पर चलने से ही उत्पन्न होता है। गांधीजी ने व्यष्टि के विकास को समष्टि के विकास का साधन माना है। इस पवित्र साध्य को पवित्र साधन द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। इसलिए गांधीजी ने आत्मशुद्धि को सबसे महत्वपूर्ण साध्य की संज्ञा दी। उनका संपूर्ण जीवन इस दिशा में अग्रसर होने के संघर्ष का ऐतिहासिक दस्तावेज है। महात्माजी ने सर्वप्रथम मनोविकारों के घातक और अमानवीय प्रभावों पर विचार किया। फिर उन्हें इस बात का बोध हुआ कि इन्हप के वश में होने से व्यक्ति गलत कार्य करता है। कोई भी मनोविकार जब व्यक्ति पर हावी होता है तो सबसे पहले वह उसकी मानवीय दृष्टि को धूमिल करता है। इसे लोभ के उदाहरण से उन्होंने समझाया है। लोभ के उत्पन्न होने पर धन-तृष्णा बढ जाती है। व्यक्ति पैसा प्राप्त करने के लिए साधनों की पवित्रता को छोड देता है। इसी से शोषण का जन्म होता है। जो लोग इसमें बाधक होते हैं, धनी उन्हें सहन नहप कर पाता। यहप से क्रोध, हिंसा आदि को प्रोत्साहन मिलता है। व्यक्ति धन के संरक्षण को लेकर बेतहाशा चिन्तित रहता है। इससे उसमें अशान्ति उत्पन्न होती है, अपने को अधिक से अधिक संपन्न बनाने के प्रयास में उसका अहं स्फीत हो जाता है। अशान्ति से बचने के लिए वह दुर्व्यसन के जाल में फंसता है। इस तरह उसका संपूर्ण जीवन नारकीय बन जाता है। गांधीजी ने अपने मनोविकार के विवेचन में इस बात पर गंभीरता से प्रकाश डाला है कि एक मनोविकार के भोगकाल में अन्य मनोविकार दबे रहते हैं। वे उचित आलंबन और उद्दीपन को पाने पर स्वयंमेव प्रकट हो जाते हैं। इस तरह गांधीजी के अनुसार कोई भी एक मनोविकार अनेक मनोविकारों का जनक बनता रहता है। जैसे वटवृक्ष एक छोटे से बीज से पैदा होता है, पर विकसित होने पर वह सबको आच्छादित कर लेता है। ठीक यही मनोविकार भी करता है। उसका पहला काम विवेक पर परदा डालना है, दूसरा काम अहम् की वृद्धि करना है। तीसरा काम रावण की दसकंधरी मुौा को अपना कर व्यक्ति को असामाजिक कार्य़ों में लिप्त करना है। मनोविकारों का वेग इतना प्रबल होता है कि व्यक्ति उनसे पराभूत होकर असामाजिक कार्य संपादित करता है। अतएव व्यक्ति और समाज की शान्ति के लिए यह आवश्यक है कि व्यक्ति उन पर नियंत्रण करना सीखे। प्रश्न यह है कि उन्होंने विकारों पर नियंत्रण का क्या मार्ग बतलाया है ? उस पर प्रकाश डालने से पूर्व यह बतला देना आवश्यक है कि गांधीजी ने इन पर नियंत्रण करने के प्रचलित तरीकों का भी यथास्थान उल्लेख किया है और उनकी सार्थकता और निरर्थकता को भी अपने ढंग से रेखांकित कर दिया है। साहित्य, संगीत, कला और मनोरंजन के साधनों से भी मनोविकारों को नियंत्रित किया जा सकता है। पर उनकी दृष्टि में इनमें यशलिप्सा की भावना से लगाव के कारण अहं के स्फीत होने का खतरा निहित रहता है इसीलिए इन साधनाओं में अनुरक्त व्यक्ति मनोविकारों से मुक्त नहप हो पाता है। गांधीजी इसका कारण कार्य की अवैज्ञानिक पद्धति को मानते हैं। वे कहते हैं कि ये लोग लोकगहित को ध्यान में न रखकर स्वहित को ध्यान में रखकर चलते हैं। इसीलिए वे द्वद्व में फंस जाते हैं जो मनोविकार को बढाता है। `योग` शब्द का प्रयोग आज सीमित अर्थ में रूढ हो गया है। यह बडी विडंबना है। कुछ लोग केवल हठयोग को योग मानते हैं। तो कुछ लोग उसे आसन और प्राणायाम तक सीमित कर देते हैं। यह उसका अर्थ नहप अनर्थ है। योग तो असल में जीवन की ऐसी पद्धति है जो उसे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य प्रदान करती है। पर यही उसका लक्ष्य नहप है। वह तो असल में लोक से लोकोत्तर को जोडकर जीवन में लोकोत्तर की प्रतिष्ठा का प्रमुख साधन है। इस दृष्टि से गांधीजी योगी थे। उनके इस योग के दो पार्श्व थे। एक था ज्ञान योग और दूसरा था भक्तियोग। इन्हप दो कूलों के बीच उनके योग की सरिता बहती है। वे जिस कार्य को करते थे पूरी तल्लीनता और सामर्थ्य के साथ करते थे। वहां पर `अगर-मगर` के लिए कोई स्थान नहप था। इस स्थिति में हर साधक की तरह उन्हें भी संघर्ष के बीच गुजरना पडा था। उन्होंने अपने जीवन में देवासुर संग्राम किया था। बारगबार उठे, गिरे, अपमानित हुए, शारीरिक और मानसिक यातना के बीच गुजरे, फिर भी अपने मनोयोग से पीछे नहप हटे। इसी मनोयोग से उनको निष्काम कर्मयोग का आदर्श मिला था। गीता को वे मां की संज्ञा देते थे और आवश्यकता पडने पर शंका के समाधान के लिए उसकी शरण में जाते थे। निष्काम कर्मयोग की साधना में रत होने से ही उन्हें आत्मा के स्वरूप का ज्ञान हुआ। इसके विषय में वे पहले से जानते थे, पर वह पढा लिखा ज्ञान था। यह ज्ञान स्वयं में अनुभव प्रसूत था। वे उससे सान्निध्य का अनुभव करने लगे जिसमें समत्व को ही आत्मसाक्षात्कार का साधन कहा गया है। स्थितप्रज्ञ पर गंभीरता से विचार किया गया है और आत्मशुद्धि को समाधि का जनक कहा गया है। चिन्तन और अनुभूति का यह विकास-क्रम उनके जीवन में क्रान्तिकारी परिवर्तन का साधन सिद्ध हुआ। इसी क्रम में गांधीजी को समर्पण-योग के महात्म्य की पूर्ण अनुभूति हुई, जिसका अभ्यास अनासक्तियोग के साथ शुरू हो गया थाऔर क्रमशः विकसित हो रहा था। समर्पण योग की सिद्धि ही असल में योग की कुंजी है। इसमें साधक खुद को भगवान के हाथ का खिलौना मान लेता है। वह जैसा कराता है, वैसा करता है। वह जैसे रखता है वैसे रहता है। "कबीर कूता राम का मुतिया मेरा नाव। गले राम की जेवडी जित खैंचे तित जाव।" संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि गांधीजी ने मनोभावों को सही रूप में देखा व परखा था। वे उनकी प्रकृति के साधक और बाधक कारकों से अवगत थे। वे व्यक्ति और समाज दोनों के लिए उनका नियंत्रण आवश्यक मानते थे। यह नियंत्रण का प्रयास व्यक्तिगत धरातल से शुरू होता है और विकसित होने पर समष्टिगत आदर्श में बदल जाता है। इनके नियंत्रण के लिए गांधीजी ने यम-नियम की साधना, भगवान की सत्य के रूप में उपासना, निष्काम कर्मयोग और नाम जप को विशेष महत्व दिया है। |