सितम्बर
सितम्बर 1
दरिद्र-नारायण उन लाखों नामोंमें से एक नाम है, जिनके द्वारा मनुष्य-जाति ईश्वरीको जानती-पहचानती है । ईश्वरको बास्तवमें कोई नाम नहीं दिया जा सकता; और मानव-बुध्दिके लिए ईश्वरको समझना कठिन है । दरिद्र-नारायणका अर्थ है दरिद्रोंका, गरीबोंका, ईश्वर; गरीबोंके हृदयमें बसने और प्रकट होनेवाला ईश्वर । यं.इं.,4-4-’29 |
सितम्बर 2
लाखों-करोडो मूक मानवोंके हृदयोंमें बसनेवाले ईश्वरके सिवा दूसरे किसी ईश्वरको मैं नहीं जानता । वे ईश्वरकी उपस्थितिको नहीं समझते, जब कि मैं उसे समझता हूँ । और मैं इन लाखों मूक मानवोंकी सेवाके जरिये ईश्वरकी – जो सत्य है – अथवा सत्य की – जो ईश्वर है – पूजा करता हूँ । ह., 11-3-’39 |
सितम्बर 3
गरीबोंके लिए चरखेका आर्थिक पहलू ही वास्तवमें आध्यात्मिक पहलू है । भूखों मरनेवाले उन लाखों लोगोंके सामने चरखेका दूसरा कोई पहलू आप रख ही नहीं सकते । उसका उन लोगों पर कोई असर नहीं होगा । लेकिन आप उनके पास खाना लेकर जाइये और वे आपको अपना ईश्वर समझेंगे । दूसरा कोई विचार करनेमें वे असमर्थ हैं । यं.इं.,5-5-’27 |
सितम्बर 4
अपने इसी हाथसे मैंने उन लोगोंसे वे जंग चढ़े मटमैले पैसे इकट्ठे किये हैं, जो उनके फटे चीथड़ोंमें कसकर बंधे हुए थे । आपका उनके सामने आधुनिक प्रगतिकी बात करना बेकार है । उनके सामने व्यर्थ ही ईश्वरका नाम लेकर आप उनका अपमान न करें । अगर आप और मैं उनसे ईश्वरके विषयमें बात करेंगे, तो वे हमें राक्षस कहेंगे । अगर वे किसी ईश्वरको जानते हों तो उसकी कल्पना उनके मनमें भयंकर और बदला लेनेवाले ईश्वरके रूपमें और निर्दय अत्याचारी ईश्वरके रूपमें ही है । यं.इं.,15-9-’27 |
सितम्बर 5
मैं आजके कृत्रिम भोग-विलास-प्रधान जीवनके खिलाफ प्रचार करता हूँ और पुरुषों तथा स्त्रियोंसे पीछे लौटाकर सादा जीवन अपनानेको कहता हूँ - चरखा जिसका छोटे रूपमें प्रतिनिधित्व करता है । ऐसा मैं इसलिए करता हूँ कि मैं जानता हूँ कि समझ-बूझकर सादगीकी ओर लौटे बिना हम उस स्थितिको पहुँचनेसे बच नहीं सकते, जो पशुताकी स्थितिसे भी नीची है । यं.इं.,21-7-’21 |
सितम्बर 6
पश्चिमसे आपके पास जो तड़क-भड़क आती है, उससे आप चौंधिया न जायँ । इस क्षणिक दिखावेके मोहमें फँसकर आप अपने मूल आधारको न छ़ेडे, जिस पर आप खड़े हैं। बुध्द भगवानने कभी न भुलाये जाने लायक शब्दोंमें आपसे कहा है कि यह अल्प मानव-जीवन अनित्य छायाके सिवा, क्षणभर उड़ जानेवाली वस्तुके सिवा और कुछ नहीं है । और अगर आप अपनी ऑंखाके सामने दिखाई देनेवाली हर वस्तुकी अनित्यता और शून्यताकी समझ लें, हमारी आँखोके सामने सतत बदलते रहनेवाले इस पार्थिव शरीरकी क्षणभंगुरताको पहचान लें, तो ऊपर स्वर्गमें आपके लिए सुख और शान्तिका भंडार भरा रहेगा और यहाँ इस जगतमें आपको ऐसी शांति मिलेगी जो हमारी समझसे परे है और ऐसा सुख प्राप्त होगा जिससे हम बिलकुल अपरिचित हैं । यह तभी होगा जब आपमें आश्चर्यजनक श्रघ्दा, दिव्य श्रध्दा होगी और आप सारी दृश्य वस्तुओंका त्याग कर देंगे । यं.इं.,8-12-’27 |
सितम्बर 7
बुध्दने क्या किया? ईसाने क्या किया? और मुहम्मदने भी क्या किया? उनके जीवन आत्म-बलिदान और त्यागके जीवन थे । बुध्दने संसारके सारे सुखोंको त्याग कर दिया, क्योंकि वे अपने उस सुखमें सारे जगतको साझेदार बनाना चाहते थे, जो सत्यकी शोधके लिए त्याग करनेवाले और कष्ट भोगनेवाले मनुष्यों द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता था । यं.इं.,8-12-’27 |
सितम्बर 8
अगर गौरीशंकर पर्वतकी ऊँचाई नापने और उसके शिखर पर चढ़ कर कुछ सामान्य निरीक्षण करनेके लिए बहुमूल्य जीवनोंका बलिदान देना अच्छी बात हो, अगर पृथ्वीके दूरसे दूरके छोरों पर – उत्तरी और दक्षिणी धुर्वों पर – झंडा रोपनेके लिए अनेक मनुष्योंका प्राणोत्सर्ग करना भव्य वस्तु हो, तो अत्यन्त शक्तिशाली और अनश्वर अमर सत्यकी शोधके लिए एक मनुष्यका नहीं लाखों मनुष्योंका जीवन उत्संर्ग करना भी कितना अधिक भव्य होगा? यं.इं.,8-12-’27 |
सितम्बर 9
ऐसा समय आ रहा है जब वे लोग, जो आज पागलोंकी तरह अपनी जरूरतें बढ़ानेकी तेज दौडमें लगे हुए हैं और अहंकारसे यह सोचते हैं, कि ऐसा करके वे दुनियाकी सच्ची सम्पत्तिको बढ़ाते हैं, दुनियाके सच्चे ज्ञानमें वृध्दि करते हैं, अपने कदम पीछे लौटायेंगे और कहेंगेः “ हमने क्या किया है?” यं.इं.,8-12-’27 |
सितम्बर 10
सभ्यतायें आई हैं और चली गई हैं; और हमारी सारी अहंकारपूर्ण प्रगतिके बावजूद मेरा बार बार यह पूछनेका मन होता है कि “इस सारी प्रगतिका उद्देश्य क्या है?” डार्विनके समकालीन वॉलेसने भी यही बात कही है । उन्होंने कहा है कि पिछले पचास वर्षोंके भव्य आविष्कारों और शोधोंने मानव-जातिकी नैतिक ऊँचाईमें एक इंचकी भी वृध्दि नहीं की है । ऐसा ही टॉल्स्टॉयने भी कहा है, जिन्हें आप चाहें तो स्पप्नद्रष्टा और कल्पना-जगतमें विहार करनेवाला कह सकते हैं । और यही बात अपने अपने समयमें ईसाने, बुध्दने और मुहम्मदने भी कही थी – जिनके धर्मके आज मेरे ही देशमें इनकार किया जा रहा है और जिसे मेरे ही देशमें झुठलाया जा रहा है । यं.इं.,8-12-’27 |
सितम्बर 11
गिरी-प्रवचनमें दिये गये ईसाके उपदेशामृतका आप लोग जी भर कर पान कीजिये। लेकिन तब आपको अपने पापोंके लिए पश्चात्ताप तथा त्याग और तपस्याका जीवन अपनाना होगा । गिरी-प्रवचनका उपदेश हममें से हरएक के लिए है । आप ईश्वरकी और धनकी सेवा साथ साथ नहीं कर सकते । ईश्वर करुणा, दया और सहिष्णुताका अवतार है। वह धनको अपनी ‘चार दिनकी चांदनी’ मनाने देता है । लेकिन मैं आपसे कहाता हूँ “ आप धनके स्वयं अपना नाश करनेवाले और दूसरोंका नाश करने और दूसरोंका नाश करनेवाले आडम्बर और दिखावेसे दूर भागिये ।” यं.इं.,8-12-’27 |
सितम्बर 12
भारतका भविष्य पश्चिमके हिंसक मार्ग पर निर्भर नहीं करता, जिस पर चल कर पश्चिम स्वयं थका हुआ दिखाई देता है; भारतका भविष्य ऐसे शांतिके मार्ग पर निर्भर करता है, जो सादे और पवित्र ईश्वर-परायण जीवनका परिणाम है । आज भारतके सामने अपनी आत्माको खोनेका खतरा पैदा हो गया है । वह अपनी आत्माको खोकर जिन्दा नहीं रह सकता । इसलिए उसे निष्क्रिय और लाचार बनकर यह नहीं कहना चाहियेः “ मैं पश्चिमके आक्रमणसे बच नहीं सकता।” उसे स्वयं अपने खातिर और सारी दुनियाके खातिर इस आक्रमणका सामना करनेकी पर्याप्त शक्ति पैदा करना चाहिये । यं.इं.,7-10-’26 |
सितम्बर 13
मेरा यह विश्वास जरूर है कि भारत कष्ट-सहनकी आगामें से पार होनेके लिए तथा अपनी सभ्यता पर – जो निसन्देह अपूर्ण होते हुए भी कालके विनाशकरी प्रभावके सामने आज तक टिकी रही है – होनेवाले किसी भी अनुचित आक्रमणका विरोध करनेके लिए यदि पर्याप्त धीरज रखे, तो वह संसारकी शांति और ठोस प्रगतिमें स्थायी मदद कर सकता है । यं.इं.,11-8-’27 |
सितम्बर 14
मुझे ऐसा लगता है कि भारतका मिशन – जीवन-कार्य - दूसरे देशोंसे भिन्न है । भारतमें दुनिया पर धार्मिक प्रभुता भोगनेकी क्षमता है । इस देशने स्वेच्छासे आत्मशुध्दिके लिए जो प्रयत्न किया है, उसकी मिसाल संसारमें और कहीं नहीं मिलती । स्पी. रा.म., पृ. 405 |
सितम्बर 15
भारत भोगभूमि नहीं है; वह तो मूलत कर्मभूमि है । यं.इं.,5-2-’25 |
सितम्बर 16
भारतने किसी भी देशके खिलाफ कभी युध्द नहीं छेड़ा । कभी कभी उसने शुध्द आत्मरक्षाके लिए कुसंगठित या अर्ध-संगठित विरोध जरूर किया है । इसलिए उसे शांतिकी अभिलाषाका विकास नहीं करना है । यह अभिलाषा उसके पास विपुल मात्रामें है, भले वह इस बातको जानता हो या न जानता हो । यं.इं.,4-7-’29 |
सितम्बर 17
मैं चाहता हूँ कि भारत इस बातको समझ ले कि उसके पास एक ऐसी आत्मा है, जिसका नाश नहीं हो सकता, जो हर प्रकारकी शारीरिक कमजोरी पर विजय प्राप्त कर सकती है तथा जो सारे संसारके भौतिक संगठनका विरोध कर सकती है । यं.इं.,11-8-’20 |
सितम्बर 18
मैं पूरी नम्रतासे यह कहनेकी हिम्मत करता हूँ कि अगर भारत सत्य और अहिंसाके जरिये अपना लक्ष्य सिध्द कर ले, तो वह विश्वशांतिकी स्थापनामें बहुत बड़ा सहायता करेगा, जिसके लिए आज दुनियाके सारे राष्ट्र तरस रहे हैं । उस स्थितिमें भारत उस सहायताका थोड़ा बदला भी चुका सकेगा, जो दुनियाके राष्ट्र स्वेच्छासे उसे देते रहे हैं । यं.इं.,12-3-’31 |
सितम्बर 19
भारतकी स्वंतत्रता संसारके शांति और युध्दसे सम्बन्धित दृष्टिकोणमें जड़मूलसे परिवर्तन कर देगी । उसकी निर्बलता सारी मानवजाति पर बुरा असर पड़ता है । यं.इं.,17-9-’25 |
सितम्बर 20
हमारी राष्ट्रीयता दुनियाके दूसरे राष्ट्रोंके लिए खतरा नहीं बन सकती; क्योंकि जिस तरह हम किसी राष्ट्रको अपना शोषण नहीं करने देंगे, उसी तरह हम दूसरे किसी राष्ट्रका शोषण भी नहीं करेंगे । अपने स्वराज्यके जरिये हम सारी दुनियाकी सेवा करेंगे । यं.इं.,16-4-’31 |
सितम्बर 21
अगर हथियारोंके लिए आजकी पागलपनभरी दौड़ - स्पर्धा - जारी रही, तो निश्चित रूपसे उसका परिणाम ऐसे मानव-संहारमें आयेगा जैसा संसारके इतिहासमें पहले कभी नहीं हुआ । अगर कोई विजेता बचा रहा तो जिस राष्ट्रकी विजय होगी, उसके लिए वह विजय ही जीवित मृत्यु जैसी बन जायगी । ह., 12-11-’38 |
सितम्बर 22
सर्वनाशका जो खतरा दुनियाके सिर पर झूल रहा है, उससे बचनेका इसके सिवा दूसरा कोई मार्ग नहीं है कि अहिंसाकी पध्दतिको, उसमें समाये हुए सारे भव्य अर्थोंके साथ, साहसपूर्वक और बिना किसी शर्तके स्वीकार कर लिया जाय । ह.,12-11-’38 |
सितम्बर 23
अगर दुनियामें लोभ नहीं होता, तो हथियारोंके लिए कोई गुजाइश ही नहीं रह जाती । अहिंसाके सिंध्दान्तका यह तकाजा है कि हम किसी भी प्रकारके शोषणसे पूरी तरह दूर रहें । ह., 12-11-’38 |
सितम्बर 24
शोषणकी भावना मिटते ही हथियारोंका विशाल संग्रह निश्चित रूपसे असह्य बोझ मालूम होने लगेगा । हथियारोंका सच्चा त्याग तब तक संभव नहीं हो सकता, जब तक दुनियाके राष्ट्र एक-दूसरेका शोषण बन्द नहीं करते । ह., 12-11-’38 |
सितम्बर 25
दुनियाके अधिक सयाने और समझदार लोग आज ऐसे पूर्ण स्वतंत्र राज्योंकी स्थापना नहीं चाहते जो एक-दूसरेसे लड़ते हैं, बल्कि ऐसे परस्परावलम्बी राज्योंका संघ स्थापित करना चाहते हैं जो एकदूसरेके मित्र हों । यं.इं.,26-12-’24 |
सितम्बर 26
स्वावलम्बन और आत्म-निर्भरताकी तरह परस्परावलम्बन भी मनुष्यका आदर्श है और होना चाहिये । मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है । समाजके साथ आन्तर-सम्बध स्थापित किये बिना वह सारे विश्वके साथ एकरूपता अनुभव नहीं कर सकता या अपने अहंकारको दबा नही सकता । यं.इं.,21-3-’29 |
सितम्बर 27
मनुष्यका सामाजिक परस्परावलम्बन उसे अपनी श्रध्दाकी परीक्षा करने तथा यथार्थताकी कसौटी पर खरा सिध्द होनेकी क्षमता प्रदान करता है । अगर मनुष्य ऐसी स्थितिमें रखा गया होता अथवा अपनेको वह ऐसी स्थितिमें रख सका होता कि उसे अपने मानव-बन्धुओं पर जरा भी निर्भर न रहना पड़ता, तो वह इतना अभिमानी और इतना मदोन्मत्त हो जाता कि दुनियाके लिए सच्चे अर्थमें वह एक भार और आफत बन जाता । यं.इं.,21-3-’29 |
सितम्बर 28
समाज पर मनुष्यकी निर्भरता उसे नम्रताका पाठ सिखाती है । यह तो स्पष्ट है कि मनुष्यको अपनी अधिकतर बुनियादी जरुरतें स्वयं ही पूरी करने योग्य बनना चाहिये; लेकिन यह भी मेरे मनमें उतना ही स्पष्ट है कि जब स्वावलंबनकी वृत्तिको समाजसे बिलकुल ही अलग हो जानेकी हद तक ले जाया जाता है, तब वह लगभग पापका रूप ले लेती है । यं.इं.,21-3-’29 |
सितम्बर 29
मनुष्य जब तक राष्ट्रवादी नहीं होता तब तक उसके लिए आन्तर-राष्ट्रवादी बनना असम्भव है । आन्तर-राष्ट्रवाद तभी संभव होता है जब राष्ट्रवाद एक सत्य वस्तु बन जाता है – अर्थात् जब अलग अलग देशोंके लोग अपनेको संगठित कर लेते हैं और एक मनुष्यकी तरह कार्य करनेकी योग्यता अपनेमें पैदा कर लेते हैं । यं.इं.,18-6-’25 |
सितम्बर 30
राष्ट्रवाद बुरी वस्तु नहीं है; बुरी वस्तु है मनकी संकुचितता, स्वार्थ और बहिष्कारकी वृत्ति – जो आधुनिक राष्ट्रोंका अभिशाप है । आज प्रत्येक राष्ट्र दुसरेको नुकसान पहुँचा कर लाभ उठाना चाहता है और दूसरेका नाश करके ऊपर उठना चाहता है । यं.इं.,18-6ö’25 |