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उध्दरणोंके स्त्रोत

अक्तूबर

अक्तूबर 1

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अगर हम स्त्री और पुरुषके संबंधों पर स्वस्थ और शुध्द दृष्टिसे विचार करें और भावी पीढ़ियोंके नैतिक कल्याणके लिए अपनेको ट्रस्टी मानें, तो आजकी मुसीबतोंके एक बड़े भागसे हम बच सकते हैं ।

यं.इं.,27-9’28


अक्तूबर 2

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मनुष्य और पशुमें मुख्य भेद यह है कि मनुष्य स्वयं विवेक करने योग्य आयुको प्राप्त होता है, तभीसे सतत आत्म-संयमका जीवन बिताना शुरू करता है । ईश्वरने मनुष्यको ऐसी क्षमता दी है, जिससे वह अपनी बहन, अपनी माँ, अपनी लड़की और अपनी पत्नीके बीच भेद कर सकता है ।

वि.गां.सि.,पृ. 84


अक्तूबर 3

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मानव-समाज आध्यात्मिकताकी दिशामें निरंतर विकास साधनेवाला समाज है । यदि ऐसा हो तो शरीर या इन्द्रियोंकी मांगोंके दिनोंदिन बढ़नेवाले नियंत्रण पर उसका आधार होना चाहिये। उस प्रकार विवाहको एक धार्मिक संस्कार मानना चाहिये, जो पति-पत्नि पर अनुशासनका अंकुश लगाता है और यह मर्यादा बांधता है कि वे केवल अपने बीच ही संभोग कर सकते हैं, केवल संतान पैदा करनेके लिए ही संभोग कर सकते हैं और वह भी उसी हालतमें जब दोनों वैसी इच्छा रखते हों और संतान पैदा करनेके लिए तैयार हों ।

यं.इं.,16-9-’26


अक्तूबर 4

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काम-वासना, कामका आवेग, एक सुन्दर और उदात्त वस्तु है । उसमें शरमाने जैसी कोई बात नहीं है । लेकिन उसका उद्देश्य केवल संतानोत्पत्ति ही है । उसका दूसरा कोई उपयोग ईश्वरके खिलाफ और मानव-जातिके खिलाफ पाप है ।

ह., 18-3-’36


अक्तूबर 5

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शुध्द त्याग, शुध्द ब्रह्मचर्य, एक आदर्श स्थिति है । अगर आपमें उसका विचार करनेकी हिम्मत नहीं है, तो आप खुशीसे विवाह कर लिजिये । लेकिन विवाह करने पर भी आत्म-संयमका जीवन बिताइये ।

ह., 7-9-’35


अक्तूबर 6

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विवाह जीवनकी स्वाभाविक वस्तु है और उसे किसी भी अर्थमें पतनकारी या निन्दनीय समझना बिलकुल गलत है।...आदर्श यह है कि विवाहको धार्मिक संस्कार माना जाय, और इसलिए विवाहित स्थितिमें आत्म-संयमका जीवन बिताया जाय ।

ह., 22-3-’42


अक्तूबर 7

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ब्रह्मचर्य केवल यांत्रिक व्रत नहीं है; उसका अर्थ है सारी इन्द्रियोंका पूर्ण संयम तथा विचार, वाणी और कार्यमें विषय-वासनासे मुक्ति । यह मार्ग आत्म-साक्षात्कार अथवा ब्रह्मकी प्राप्तिका राजमार्ग है ।

यं.इं.,29-4-’26


अक्तूबर 8

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विवाहका हेतु पति-पत्नीके हृदयेंसे गन्दे काम-विकारको मिटाकर उन्हें शुध्द बनाना और दोनोंको ईश्वरके अधिक समीप ले ना जान है । पति और पत्नीके बीच काम-विकार-रहित प्रेमका होना असंभव नहीं है । मनुष्य पशु नहीं है । पशुसृष्टिमें असंख्य जन्म लेनेके बाद उसने अधिक ऊँची स्थिति प्राप्त की है । वह सीधा खड़ा होनेके लिए पैदा किया गया है, न कि पशुकी तरह चारों पाँवसे चलने या कीड़ोंकी तरह रेंगनेके लिए । मनुष्यतासे पशुता उतनी ही दूर है, जितनी आत्मासे जड़ प्रकृति दूर है ।

यं.इं.,29-4’26


अक्तूबर 9

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पत्नी पतिकी दासी नहीं है, परन्तु उसकी सहचारिणी और सहधर्मिणी है; दोनों एक-दूसरेके सुख-दुःखमें समान भाग लेनेवाले हैं और जितनी स्वतंत्रता भला-बुरा काम करनेकी पतिको है उतनी ही पत्नीको भी है ।

आ.क., पृ. 23


अक्तूबर 10

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आप अपनी पत्नीके सम्मानकी रक्षा करेंगे और उसके स्वामी नहीं किन्तु सच्चे मित्र बनेंगे । आप उसके शरीर और आत्माको उतना ही पवित्र समझेंगे जितना पवित्र, मेरा विश्वास है, वह आपके शरीर और आत्माको समझेगी । इस उद्देश्यको सिध्द करनेके लिए आपको प्रार्थनामय परिश्रमका, सादगीका और आत्म-संयमका जीवन बिताना होगा । आपमें से कोई दूसरेको काम-वासनाकी तृप्तिका साधन न समझे ।

यं.इं.,2-2-’28


अक्तूबर 11

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जिस प्रकार पुरुष और स्त्री बुनियादी तौर पर एक हैं, उसी प्रकार उनकी समस्या भी मूलमें एक ही होनी चाहिये । दोनोंके भीतर वही आत्मा है । दोनों एक ही प्रकाशका जीवन बिताते हैं। दोनोंकी भावनायें भी एकसी ही हैं । दोनों एक-दूसरेके पूरक हैं । दोनों एक-दूसरेकी सक्रिय सहायताके बिना जी ही नहीं सकते ।

ह., 24-2-’40


अक्तूबर 12

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परन्तु किसी न किसी प्रकार पुरुषने स्त्री पर अपनी सत्ता युगोंसे जमा रखी है । इसलिए स्त्रीमें हीनताका भाव विकसित हो गया है । उसने पुरुषकी इस स्वार्थपूर्ण शिक्षाकी सत्यतामें विश्वास कर लिया है कि स्त्रीपुरुषसे हीन है, घटिया है । लेकिन मनुष्योंमें जो लोग द्रष्टा थे, दीर्घदृष्टि रखनेवाले थे, उन्होंने स्त्रीके दरजेको पुरुषके समान ही माना है ।

ह., 24-2-’40


अक्तूबर 13

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परन्तु इसमें कोई शक नहीं कि किसी एक बिन्दु पर पहुँचकर स्त्री-पुरुष  दोनोंके कामका बँटवारी हो जाता है । दोनों मूलत एक ही हैं, परन्तु यह भी उतना ही सच है कि दोनोंकी रचनामें महत्त्व पूर्ण भेद है । इसलिए दोनोंके कार्य, दोनोंके धंधे, भी अलग होने चाहिये । माताका कर्तव्य पालजके लिए, जिसका स्त्रियोंकी विशाल संख्या सदा ही पालन करेगी, स्त्रीमें जिन गुणोंका होना जरूरी है, वे गुण पुरुषमें हों यह जरूरी नहीं है । स्त्री स्वभावसे स्थितिशील है; पुरुष गतिशील है । स्त्रीमुख्यत घरकी स्वामिनी है । पुरुष रोटी कमानेवाला है । स्त्री रोटीको संभाल कर रखनेवाली और उसका बँटवारा करनेवाली है । वह हर अर्थमें घरकी, परिवारकी, संरक्षिका है ।

ह., 24-2-’40


अक्तूबर 14

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स्त्रीपुरुषकी जीवन-संगिनी है; उसमें वैसी ही मानसिक शक्तियाँ हैं जैसी पुरुषमें हैं । उसे पुरुषकी प्रवृत्तियोंसे सम्बन्ध रखनेवाली सूक्ष्मसे सूक्ष्म बातमें भी भार लेनेका अधिकार है और पुरुषके साथ स्वाधीनता तथा स्वतंत्रताके उपभोगका समान अधिकार है ।

स्पी. रा.म.,पृ.425


अक्तूबर 15

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मेरे विचारसे मनुष्यने जिन जिन बुराइयोंके लिए अपनेको जिम्मेदार बनाया है, उन सबमें एक भी इतनी नीचे गिरानेवाली, मानको आघात पहुँचनेवाली और निर्दयतापूर्ण नहीं (hai jitana -----hatika nahi) – उसके द्वारा होनेवाला दुरुपयोग है । स्त्रीजाति पुरुष-जातिसे अधिक उदात्त और अधिक ऊँची है; क्योंकि वह आज भी त्यागकी, मूक कष्ट-सहनकी, नम्रताकी, श्रध्दाकी और ज्ञानकी जीवित मूर्ति है ।

यं.इं.,15-9-’21


अक्तूबर 16

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मेरा मत है कि स्त्रीआत्म-बलिदानकी मूर्ति है । लेकिन दुर्भाग्यसे आज वह अपने इस जबरदस्त लाभको नहीं समझती, जो पुरुषको प्राप्त नहीं है । जैसा कि टॉलस्टॉय कहा करते  थे, स्त्रियाँ पुरुषके जादुई प्रभावका शिकार बनी हुई हैं । अगर वे अहिंसाकी शक्तिको पहचान लें, तो वे अबला कहलाना स्वीकार नहीं करेंग ी।

यं.इं.,14-1-’32


अक्तूबर 17

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पुरुषने स्त्रीको अपनी कठपुतली मान लिया है । स्त्रीने उसकी कठपुतली बनना सीख लिया है, और अन्तमें अनुभवसे यह पाया है कि ऐसा बननेमें ही सुविधा और आराम है । क्योंकि जब एक व्यक्ति अपने पतनमें दूसरेको खींचता है, तो नीचे गिरना ज्यादा आसान हो जाता है ।

ह., 25-1-’36


अक्तूबर 18

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स्त्रीको चाहिये कि वह अपनेको पुरुषके काम-विकारकी प्रप्तिका साधन मानना बन्द कर दे । इसका उपाय पुरुषसे अधिक स्त्रीके हाथमें है । उसे पुरुषोंके लिए, यहाँ तक कि अपने पतिके लिए भी, सजने-धजनेसे इनकार कर देना चाहिये, अगर वह समानताके आधार पर पुरुषकी जीवन-संगिनी बनना चाहती है । मैं इसकी कल्पना नहीं कर सकता कि सीताने कभी अपने शारीरिक सौंदर्यसे रामको प्रसन्न करनेमें एक क्षणका भी समय बिगाड़ा होगा ।

यं.इं.,21-7-’21


अक्तूबर 19

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स्त्रियाँ जीवनमें जो कुछ पवित्र और धार्मिक है, उसकी विशेष संरक्षिकायें हैं, स्वाभावसे रक्षणशील होनेके कारण जिस प्रकार वे अन्धविश्वासपूर्ण आदतोंको धीरे धीरे छोड़ती हैं, उसी प्रकार जीवनमें जो कुछ पवित्र और उदात्त है उसे भी वे जल्दी नहीं छोड़तीं ।

ह., 25-3-’33


अक्तूबर 20

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स्त्रीअहिंसाका अवतार है । अहिंसाका अर्थ है असीम और अनंत प्रेम; दूसरे शब्देंमें इसका अर्थ है कष्ट सहनेकी अपार क्षमता। स्त्रीके सिवा जो पुरुषकी माता है, यह क्षमता अधिक से अधिक मात्रामें कौन दिखाता है? शिशुको नौ महीने तक अपने गर्भमें रखने तथा उसका पोषण करनेमें वह अपनी यह क्षमता प्रकट करती है और इसके लिए उसे जो कष्ट भोगने पड़ते हैं उसमें आनन्द मानती है । प्रसवकी जो पीड़ा वह भोगती है, उससे अधिक बड़ी पीड़ा दूसरी क्या हो सकती है? लेकिन शिशुजन्मके आनन्दमें वह इस पीड़ाको भूल जाती है । फिर, उसके बालकको पाल-पोसकर दिन-दिन बड़ा करनेके लिए प्रतिदिन कौन कष्ट उठाता है? अपने इस प्रेमका दायरा उसे सारी मानव-जाति तक फैलना चाहिये; उसे यह भूल जाना चाहिये कि वह पुरुषकी निर्मात्री और पुरुषकी मूक मार्गदर्शिकाके रुपमें पुरुषके साथ अपना गौरवपूर्ण पद प्राप्त करेगी। शांतिके अमृतकी प्यासी युध्दरत दुनियाको शांतिकी कला सिखानेकी क्षमता भगवानने उसीको प्रदान की है ।

ह.,24-2-’40


अक्तूबर 21

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पुरुषके लिए स्त्री-जन्म पानेकी कामना करनेके पीछे जितना कारण है, उतना ही स्त्रीके लिए पुरुष-जन्मकी कामना करनेके पीछे भी है । लेकिन यह कामना व्यर्थ है । हम जिस स्थितिमें पैदा हुए हों उसीमें सुख मानें और प्रकृतिने हमारा जो धर्म नियत कर दिया है उसीका पालन करें ।

ह., 24-2-’40


अक्तूबर 22

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शीलकी पवित्रता बाहरी प्रयत्नोंसे पनपनेवाली चीज नहीं है । उसकी रक्षा आसपास घिरी हुंई परदेकी दीवालसे नहीं की जा सकती । यह पवित्रता भीतरसे पैदा होनी चाहिये; और उसका तभी कोई मूल्य हो सकता है जब वह अनखोजे प्रलोभनका विरोध करनेकी शक्ति रखती हो ।

यं.इं.,3-12-’27


अक्तूबर 23

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लेकिन स्त्रीकी पवित्रताके बारोमें दूषित मनोवृत्तिका परिचय देनेवाली ये सारी चिन्ता किसीलिए है? क्या पुरुषकी पवित्रताके विषयमें स्त्रियोंको कुछ कहनेका मौका मिलता है? पुरुषकी पवित्रताके बारेमें स्त्रियोंकी चिन्ताकी बात हम कभी नहीं सुनते । पुरुषोंको स्त्री की पवित्रताके नियमनका अधिकार अपने हाथमें क्यों लेना चाहिये? वह पवित्रता बाहरसे नहीं लादी जा सकती । वह ऐसी वस्तु है जिसका विकास भीतरसे होता है और जिसके लिए व्यक्तिको स्वयं ही प्रयत्न करना होता है ।

यं.इं.,25-11-’26


अक्तूबर 24

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मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि जो निडर स्त्री यह जानती है कि उसकी पवित्रता उसकी मजबूतसे मजबूत ढाल है, उसकी आबरू कभी लूटी नहीं जा सकती । पुरुष कितना  भी लम्पट क्यों न हो, स्त्रीकी उज्ज्वल पवित्रताकी ज्योतिके सामने वह शरमसे अवश्य झुक जायगा ।

ह.,1-3-’42


अक्तूबर 25

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स्त्रीकी रक्षा करना पुरुषका विशेषाधिकार होना चाहिये । परन्तु पुरुषकी अनुपरिस्थितिमें या पुरुषके स्त्री-रक्षाका पवित्र कर्तव्य न पालने पर भारतकी किसी भी स्त्रीको असहाय महसूस नहीं करना चाहिये । जो स्त्रियाँ पुरुष मरनेकी कला जानता है, उसे अपने सम्मानको किसी भी प्रकारकी हानि पहुँचनेका डर कभी नहीं रखना चाहिये ।

यं.इं.,15-12-’21


अक्तूबर 26

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मनुष्यको दोमें से कोई एक मार्ग चुन लेना चाहिये - एक मार्ग ऊपर उठानेवाला है और दूसरा नीचे गिरानेवाला । परन्तु चूंकि उसके भीतर पशुका वास है, वह ऊपर उठानेवाले मार्गके बजाय नाचे गिरानेवाला मार्ग ज्यादा आसानीसे चुनेगा – खास तौर पर उस स्थितिमें जब नीचे गिरानेवाला मार्ग सुन्दर और आकर्षक रुपमें उसके सामने पेश किया जाय । जब पापको सदगुणका बाना पहनाकर मनुष्यके सामने प्रस्तुत किया जाता है, तब वह आसानीसे पापके सामने झुक जाता है ।

ह.,21-1-’35


अक्तूबर 27

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अपने कर्मोंके परिणामोंसे बचनेका प्रयत्न करना गलत और अनैतिक बात है । जो आदमी जरुरतसे ज्यादा खाता है, उसके लिए यह अच्छा है कि उसके पेटमें दर्द हो और उसे उपवास करना पड़े । जरूरतसे ज्यादा खाना और फिर शक्तिवर्धक या दूसरी दवाई लेकरअधिक खानेके परिणामोंसे बचना बुरी बात है । यह और भी ज्यादा बूरा है कि कोई व्यक्ति मनमाना विषय-भोग करे और बादमें अपने इस कामके परिणामोंसे बचे ।

यं.इं.,12-3-’25


अक्तूबर 28

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कुदरत बड़ी कठोर है और अपने कानूनोंके ऐसे किसी भंगके लिए वह पूरा बदला लेगी । नैतिक परिणाम केवल नैतिक नियंत्रणोंसे ही उत्पन्न किये जा सकते हैं । दूसरे सारे नियंत्रण उस हेतुको ही खतम कर देते हैं, जिसके लिए वे लगाये जाते हैं ।

यं.इं.,12-3-’25


अक्तूबर 29

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जगत अपने अस्तित्वके लिए प्रजननकी क्रिया पर निर्भर करता है । यह संसार ईश्वरकी लीलाका स्थान है, उसकी महिमाका प्रतिबिम्ब है । संसारकी सुव्यवस्थित वृध्दिके लिए ही रतिक्रियाका निर्माण हुआ है, ऐसा समझनेवाला व्यक्ति बड़ेसे बड़ा प्रयत्न करके भी विषय-वासनाको रोकेगा ।

. क., पृ. 186


अक्तूबर 30

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काम-वासनाकी विजय किसी पुरुष या स्त्रीके जीवनका सबसे उँचा पुरुषार्थ है । काम-वासना पर विजय प्राप्त किये बिना मनुष्य अपने पर शासन करनेकी आशा नहीं रख सकता ।...और आत्मशासनके बिना स्वराज्य या रामराज्यकी स्थापना नहीं हो सकती । आत्म-शासनके अभावमें सारे जगतका शासन भी रंगे हुंए नकली आमकी तरह धोखेमें डालनेवाला और निराशा पैदा करनेवाला ही सिध्द होगा । नकली आम बाहरसे देखनेमें तो आकर्षक मालूम होता है, लेकिन अन्दरसे खोखला और खाली होता है ।

यं.इं.,18-6ö’25


अक्तूबर 31

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विवाह जिस आदर्श तक पहुँचानेका लक्ष्य सामने रखता है, वह है शरीरोंके संयोग द्वारा आत्माका संयोग साधना । विवाह जिस मानवप्रेमको मूर्तरूप प्रदान करता है, उसे दिव्य प्रेम अथवा विश्वप्रेमकी दिशामें आगे बढ़नेकी सीढ़ी बन जाना चाहिये ।

यं.इं.,21-5-’31


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