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उध्दरणोंके स्त्रोत

नवम्बर

नवम्बर 1

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मनुष्यका यह कर्तव्य नहीं है कि वह अपनी सारी मानसिक शक्तियोंका पूर्णता तक विकास करे । उसका कर्तव्य यह है कि ईश्वरकी दिशामें ले जानेवाली अपनी सारी शक्तियोंका वह पूर्णता तक विकास करे और जो शक्तियाँ उसे ईश्वर-विमुख बनायें उनका पूरी तरह दमन करे ।

यं.इं.,24-6-’26


नवम्बर 2

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मनुष्य न तो केवल बुध्दि है, न केवल स्थूल शरीर है और न केवल हृदय अथवा आत्मा है । सम्पूर्ण मानवके निर्माण के लिए इन तीनोंका यथायोग्य और सुन्दर समन्वय होना आवश्यक है; इसीमें शिक्षाका सच्चा अर्थशास्त्र समाया हुआ है ।

ह.,11-9-’37


नवम्बर 3

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मेरा यह मत है कि बुध्दिका सच्चा शिक्षण, सच्चा विकास तभी हो सकता है जब शरीरके अवयवोंको - यानी हाथ, पैर, आँख कान, नाक आदिको - सही ढंगकी कसरत और तालीम मिले । दूसरे शब्दोंमें, बालकके हाथ-पैर, आँख, कान आदिका ज्ञानपूर्वक उपयोगकिया जाय, तो उसकी बुध्दिका उत्तम और अतिशीघ्र विकास होता है ।

ह., 8-3-’37


नवम्बर 4

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लेकिन जब तक मन और शरीरका विकास साथ साथ नहीं होता और उसीके साथ आत्माका भी विकास और जागृति नहीं होती, तब तक केवल बुध्दिका विकास एकतरफा और अधूरा सिध्द होगा । आध्यात्मिक शिक्षासे मेरा मतलब है हृदयकी शिक्षा । इसलिए बुध्दिका उचित और सर्वांगीण विकास केवल उसी स्थितिमें हो सकता है, जब वह बालककी शारीरिक और आध्यात्मिक शक्तियोंके विकासके साथ आगे बढ़े। तीनों शक्तियोंका विकास एक अखंड और अविभाज्य वस्तु है ।

ह., 17-4-’37


नवम्बर 5

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शिक्षाकी मेरी योजनामें हाथ अक्षरोंकी आकृति खींचने या अक्षर लिखनेके पहले औजार चलायेगा । बालककी आँखे जैसे जीवनमें दूसरी चीजें देखेंगी, उसी तरह वे अक्षरों और शब्दोकि चित्र देखेंगी और पढ़ेंगी; कान वस्तुओंके नाम और वाक्योंके अर्थ सुनेंगे और उन्हें पकडेंगे । सारी तालीम स्वाभाविक और रसप्रद होगी और इसलिए दुनियामें सबसे सस्ती तथा अधिकसे अधिक तेज गतिवाली होगी ।

., 28-8-’37


नवम्बर 6

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अक्षर-ज्ञानकी शिक्षा हाथकी शिक्षाके पीछे चलनी चाहिये । हाथ मनुष्यको प्राप्त हुई ईश्वरकी ऐसी देन है, जो स्पष्ट रूपमें उसे पशुसे अलग करती है । यह सोचना निरा भ्रम है कि पढ़ने और लिखनेकी कलाके ज्ञानके अभावमें मानवका पूर्णतम विकास कभी हो ही नहीं सकता । बेशक वह ज्ञान जीवनकी शोभाको बढ़ाता है, लेकिन वह मानवकी नैतिक, शारीरिक या भौतिक उन्नतिके लिए किसी भी तरह अनिवार्य नहीं है ।

ह.,8-3-’35


नवम्बर 7

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शिक्षामें हाथ-उघोगको दाखिल करनेसे हमारे भारत जैसे गरीब देशमें दुहरा हेतु सिध्द होगा । उससे हमारे बालकोंकी शिक्षाका खर्च निकलेगा और उन्हें एक ऐसा धन्धा सीखनेको मिलेगा, जिसकी वे चाहें तो बादके जीवनमें अपने गुजारेके लिए आधार ले सकते हैं । ऐसी शिक्षा-पध्दति हमारे बालकोंको अवश्य ही स्वावलम्बी बनायेगी । हम शरीर-श्रमसे नफरत करना सीखेंगे, तो उससे हमारे राष्ट्रका जितना नैतिक पतन होगा उतना और किसी बातसे नहीं होगा ।

यं.इं.,1-9-’26


नवम्बर 8

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हमारे देशमें विदेशी शासनने जो अनेक बुराईयाँ पैदा की हैं, उनमें देशके नौजवानों पर हानिकारक विदेशी माध्यम लादनेकी जो बुराई है, उसे इतिहास बड़ीसे बड़ी बुराइयोंमें से एक मानेगा । इस माध्यमने राष्ट्रकी शक्तिको चूस कर उसे कमजोर बना दिया है; इसने विद्यार्थियोंके जीवनको घटा दिया है । इस माध्यमने विद्यार्थियोंको आम जनतासे अलग कर दिया है और शिक्षाको अकारण महँगा बना दिया है । अगर यह प्रक्रिया आगे भी चालू रहेगी, तो उस बातकी बहुत बड़ी संभावना है कि हमारा राष्ट्र अपनी आत्माको खो देगा ।

यं.इं.,5-7-’28


नवम्बर 9

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अगर हमें इस दुनियामें सच्ची शांति प्राप्त करनी है और अगर हमें युध्दके खिलाफ सच्चा युध्द लड़ना है, तो हमें बालकेंसे इसका आरम्भ करना होगा; और अगर बालक अपनी स्वाभाविक निर्दोषतामें बड़े होंगे, तो हमें संघर्ष नहीं करना पड़ेगा; हमें निष्फल और निरर्थक प्रस्ताव पास नहीं करने पड़ेंगे । परन्तु हम प्रेमसे अधिक प्रेमकी ओर तथा शांतिसे अधिक शांतिकी ओर बढ़ेंगे - यहाँ तक कि अन्तमें दुनियाके चारों कोने उस प्रेम और उस शांतिसे भर जायँगे, जिसके लिए आज सारी दुनिया जाने या अनजाने तरस और तड़प रही है ।

यं.इं.,19-11- ’31


नवम्बर 10

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सच्ची शिक्षा वह है जो हमारे भीतरके उत्तम तत्त्वोंको बाहर लाकर प्रकट करती है । मानवताकी पुस्तकसे बढ़कर दुसरी कौनसी पुस्तक हो सकती है?

ह., 30-3 -’34


नवम्बर 11

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राष्ट्र-निर्माण का कोई भी कार्यक्रम राष्ट्रके किसी भी भागको अछूता नहीं रख सकता । विद्यार्थियोंको देशके लाखों मूक मानवों पर असर डालना होगा । उन्हें प्रान्त, नगर, वर्ग या जातिकी दृष्टिसे नहीं, बल्कि एक महाद्वीप और लाखों-करोड़ों लोगोंकी दृष्टिसे विचार करना सीखना होगा । इनमें अछूत, शराबी, गुंडे और वेश्यायें भी शामिल हैं – हमारे बीच जिनके अस्तित्वके लिए हममें से हरएक व्यक्ति जिम्मेदार है ।

य.इं.,9 – 6 - ’27


नवम्बर 12

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प्राचीन कालमें हमारे विद्यार्थी ब्रह्मचारी – अर्थात् ईश्वरके मार्ग पर और ईश्वरसे डर कर चलनेवाले – कहे जाते थे । राजा-महाराजा और समाजके बड़े-ब़ूडे उनका सम्मान करते थे । राष्ट्र स्वेच्छासे उनके पालन-पोषणकी जिम्मेदारी अपने सिर लेता था और वे लोग बदलेमें राष्ट्रको सौगुनी बलवती आत्माएँ, सौगुने शक्तिशाली मस्तिष्क और सौगुनी बलवती भुजायें अर्पण करते थे ।

यं.इं.,9 – 6 - ’27


नवम्बर 13

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समग्र सच्ची कला आत्माकी अभिव्यक्ति है । बाहरी रूपोंका केवल इतना ही मूल्य है कि वे मनुष्यकी आन्तरिक भावनाको अभिव्यक्त करते हैं ।

यं.इं., 13 – 11 - ’24


नवम्बर 14

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जब मैं ऊपर असंख्य चमकते तारोंसे भरे आकाशको देखता हूँ तब जो सुन्दर और भव्य कुदरती दृश्य मेरी आँखोके सामने खुलते हैं, वैसे दृश्य मनुष्य द्वारा निर्माण की हुई कौनसी कला मेरे सामने प्रस्तुत कर सकती है? परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि मैं सामान्यत इस रूपमें मान्य की जानेवाली कलाकृतियोंके मूल्य और महत्त्वको स्वीकार नहीं करता; इसका अर्थ इतना ही है कि ये कलाकृतियाँ व्यक्तिगत रूपमें मुझे प्राकृतिक सौन्दर्यके शाश्वत प्रतीकोंकी तुलनामें अत्यन्त अधूरी मालूम होती हैं । मनुष्यकी इन कलाकृतियोंका उसी हद तक मूल्य है जिस हद तक कि वे मनुष्यको आत्म-साक्षात्कारकी दिशामें आगे बढ़नेमें सहायता करती हैं ।

यं. इं., 13 – 11 - ’24


नवम्बर 15

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सच्चे कलाकारकी दृष्टिमें केवल वही चेहरा सुन्दर है जो, अपने बाहरी रुपसे बिलकूल अलग, आत्मामें बसे हुए सत्यकी ज्योतिसे चमकतर है । सत्यसे अलग कोई सौन्दर्य नहीं है । दूसरी ओर, सत्य ऐसे स्वरूपोंमे अपनेको प्रकट कर सकता है, जो बाहरसे देखनेमें जरा भी सुन्दर न हों ।

यं. इं.,13 – 11 - ’24


नवम्बर 16

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मैं सत्यमें या सत्यके द्वारा सौन्दर्यको देखता और अनुभव करता हूँ । समग्र सत्य – न केवल सत्यमय विचार किन्तु सत्यमय चेहरे, सत्यमय चित्र या सत्यमय गीत उच्च कोटिका सौन्दर्य रखते हैं। लोग सामान्यत सत्यमें सौन्दर्यका दर्शन नहीं कर पातें; सामान्य मनुष्य सत्यमें निहित सौन्दर्यसे दूर भागता है और उसकी ओर ध्यान नहीं देता । सच्ची कलाका जन्म तभी होगा जब मनुष्य सत्यमें सौन्दर्यको देखने लगेंगे ।

यं.इं.,13-11-’24


नवम्बर 17

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जब मैं सूर्यास्तके अनुपम सौंदर्यकी अथवा चन्दमाकी अनोखी शोभाकी प्रशंसा करता हूँ, तब मेरी आत्मा सरजनहार प्रभुकी पूजामें तल्लीन हो जाती है । इन सारे सर्जनोंमें मैं उस प्रभुको और उसकी दयाको देखनेका प्रयत्न करता हूँ । परन्तु ये सूर्यास्त और सूर्योदय भी केवल बाधक बन जायँगे, यदि वे उस प्रभुका विचार करनेमें मेरी मदद न करें । ऐसी कोई भी वस्तु, जो आत्माकी उड़ानमें बाधक बनती है, माया और भ्रमजाल है – उस शरीरकी तरह जो सचमुच मोक्षप्राप्तिके आपके मार्गमें अकसर बाधक बनता है ।

यं. इं.,13 – 11 - ’24


नवम्बर 18

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जीवन समग्र कलासे भी अधिक महान है । मैं इससे भी आगे बढ़कर यह घोषणा करूँगा कि जिस मनुष्यका जीवन पूर्णताके निकटसे निकट पहुँचता है वह सर्वोच्च कलाकार है; क्योकि उच्च और उदात्त जीवनकी निश्चित बुनियाद और आधारके अभावमें कलाका क्या मूल्य है?

ले. गां., पृ. 210


नवम्बर 19

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अन्तमें सच्ची कला उन जड़ मशीनोंके जरिये अभिव्यक्त नहीं की जा सकती, जो भाप और बिजलीकी शक्तिसे चलती हैं और विशाल पैमाने पर माल तैयार करनेके लिए बनाई गई हैं; सच्ची कला तो केवल स्त्री-पुरुषोंके हाथके कोमल और प्राणवान स्पर्शके द्वारा ही अभिव्यक्त हो सकती है ।

यं.इं.,14 – 3 - ’29


नवम्बर 20

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सच्ची कला केवल आकारकी ओर ध्यान नहीं देती, बल्कि उसके पीछे जो कुछ होता है उस पर भी ध्यान देती है । एक कला ऐसी होती है जो मनुष्यको जीवन देती है और दूसरी कला ऐसी होती है जो उसे मारती है । सच्ची कला अपने सर्जकोंके सुख, सन्तोष और शुध्दिका प्रमाण होनी चाहिये ।

यं.इं., 11 – 8 - ’21


नवम्बर 21

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जीवनकी शुध्दि सबसे ऊँची और सबसे सच्ची कला है । तालीम पाई हुई आवाजसे मधुर संगीतको जन्म देनेकी कला जो अनेक लोग सिध्द कर सकते हैं, परन्तु शुध्द जीवनके स्वरोंके सुमेलसे मधुर संगीतको जन्म देनेकी कला बिरले ही लोग सिध्द कर सकते हैं ।

ह., 19 – 2 - ’38


नवम्बर 22

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जो संस्कृति सबसे अलग-थलग रहनेका प्रयत्न करती है वह जी नहीं सकती। आज भारतके शुध्द आर्य-संस्कृति जैसी कोई संस्कृति अस्तित्वमें नहीं है । आर्य लोग भारतके मूल निवासी थे या बाहरसे  भारतमें आनेवाले अवांछनीय लोग थे, इस प्रश्नमें मेरी बहुत दिलचस्पी नहीं है । मेरी दिलचस्पी तो इस सत्यमें है कि मेरे अति प्राचीन कालके पूर्वज अधिकसे अधिक स्वतंत्रतासे एक-दूसरे के साथ घुलमिल गये थे और वर्तमान पीढीके हम लोग उस सुमेलके ही परिणाम हैं । यह तो केवल भविष्य ही बतायेगा कि हम आपनी जन्मभूमिकी और हमें धारण करनेवाली इस छोटीसी पृथ्वीकी कोई सेवा कर रहे हैं या उस पर बोझ बन कर जी रहे हैं ।

ह., 9 – 5 - ’36


नवम्बर 23

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‘प्राचीन’ के नामसे पहचानी जानेवाली हर वस्तुकी मैं बिना सोचे-विचारे अन्धपूजा नहीं करता । जो कुछ बुरा है या नीतिकी दृष्टिसे नीचे गिरानेवाला है, उसके नाशका प्रयत्न करनेमें मैं कभी हिचकिचाया नहीं, भले वह कितना ही प्राचीन क्यों न हो । लेकिन इस एक अपवादके साथ मुझे आपके सामने स्वीकार करना चाहिये कि मैं प्राचीन संस्थाओंका प्रशंसक और पूजक हूँ और यह सोचकर मुझे दुःख होता है कि लोग हर आधुनिक वस्तुके पीछे पागलेंकी तरह तेजीसे द़ैडनेकी धुनमें अपनी सारी प्राचीन परम्पराओंसे नफरत करते हैं और अपनेजीवनमें उनकी उपेक्षा करते हैं ।

वि.गां.सि., पृ. 105


नवम्बर 24

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हमें इसका निर्णय करना होगा कि क्या हम बिना सोचे-विचारे इस आधुनिक सभ्यताकी नकल करेंगे पश्चिमसे समय समय पर जो भयंकर बातें हमारे पास तक पहुँचती हैं, उन्हें देखते हुए अच्छा होगा कि हम कुछ देर के लिए रुकें और अपने आपसे यह पूछेः ‘क्या सब-कुछ जाननेके बाद यह अधिक लाभप्रद नहीं है कि हम अपनी ही सभ्यताको पकड़े रहें और जो तुलनात्मक ज्ञान हमें प्राप्त है उसके प्रकाशमें अपनी सभ्यताके जाने हुऐ दोषोंको दूर करके उसे सुधारनेका प्रयत्न करें?’

यं.इं., 2 – 6 -’27


नवम्बर 25

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इन दो सभ्यताओंके गुण-दोषोंकी तुलना करना निरर्थक न हो तो भी शायद अनावश्यक है । संभव है पश्चिमने अपने जलवायु और वातावणके अनुकूल सभ्यताका विकास किया हो और उसी तरह अपनी परिस्थितियोंके अनुकूल सभ्यताका हमने विकास किया हो और दोनों अपने अपने क्षेत्रमें अच्छी और लाभदायी हों ।

यं. हं., 2 – 6 - ’27


नवम्बर 26

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शांतिकी तालीमसे अकसर पैदा होनेवाली कायरतासे तथा प़ाढियोंसे चले आ रहे नियंत्रणके कारण पैदा होनेवाली गुलामीसे हमें किसी न किसी तरह बचना होगा, यदि प्राचीन सभ्यताको आधुनिकताके पागलपनभरे आक्रमणके सामने नष्ट नहीं होना है ।

यं.इं., 2 – 6 -’27


नवम्बर 27

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आधुनिक सभ्यताका विशिष्ट लक्षण मानवकी जरूरतोंको बिना किसी मर्यादाके बढ़ाते जान है । प्राचीन सभ्यताका लक्षण इन जरूरतों पर आवश्यक मर्यादा लगाना और इनका कठोर नियमन करना है ।

यं.इं., 2 – 6 - ’27


नवम्बर 28

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आजका या पश्चिमका असन्तोष वस्तुत परलोकमें और इसलिए ईश्वरमें जीवित श्रध्दा न होनेके कारण पैदा होता है । प्राचीन अथवा पूर्वी सभ्यताका संयम, अकसर हमारे न चाहने पर भी, परलोकमें और ईश्वरीय शक्तिमें हमारी श्रध्दासे पैदा होता है ।

यं.इं., 2 – 6 -’27


नवम्बर 29

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आधुनिक आविष्कारोंके कुछ तात्कालिक और भव्य परिणाम मनुष्यको पागल बना देनेवाले हैं; उनके प्रलोभनको वह रोक नहीं सकता । लेकिन मेरा यह निश्चित मत है कि ऐसे प्रलोभनोंका विरोध करनेमें ही मनुष्यकी विजय है । आज  हमारे सामने यह खतरा है कि हम क्षणिक सुखके लिए स्थायी कल्याणका त्याग कर रहे हैं ।

यं. इं., 2 – 6 - ’27


नवम्बर 30

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 मैं अपने मकानको चारो ओर दीवालें खड़ी करके बन्द नहीं करना चाहता और न मेरी खिड़कियोंको ही बन्द करना चाहता हूं । मैं चाहता हूँ कि समस्त देशोंकी संस्कृतियाँ मेरे मकानके आसपास अधिकसे अधिक स्वतंत्रतासे अपना प्रभाव फैलाती रहें । लेकिन मैं किसी संस्कृतिके प्रभावमें आकर अपनी संस्कृतिका आधार छ़ेडनेसे इनकार करता हूँ । मैं दूसरे लोगोंके घरोंमे अनधिकारी व्यक्तिके रूपमें, भिखारीके रूपमें या गुलामके रूपमें रहनेसे इनकार करता हूँ ।

यं.इं., 1 – 6 - ’21


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