मार्च
मार्च 1
सत्य एक विशाल वृक्ष है । मनुष्य उसकी जितनी सेवा, जितनी सार-संभाल करता है उतने ही अधिक उसमें से फल पैदा होते देखे जाते हैं । उसके फलोंका अंत ही नहीं होता । जैसे हम सत्यमें गहरे उतरते जाते हैं वैसे वैसे उसमें से रत्न मिलते रहते हैं, सेवाके अवसर प्राप्त होते रहते हैं । आ.क.,पृ.199 |
मार्च 2
सत्यके शोधकको रजकणसे भी छोटा बनकर रहना पड़ता है । सारा जगत रजकणको पाँव तले कुचलता है, परन्तु सत्यका पुजारी जब तक इतना अल्प न बन जाय कि रजकण भी उसे कुचल सके, तब तक उसे स्वतंत्र सत्यकी झाँकी भी होना दुर्लभ है । आ. क., प्रस्ता. पृ.6 |
मार्च 3
सत्यकी भक्ति ही हमारे अस्तित्वका एकमात्र कारण है । हमारी समस्त प्रवृत्तियाँ सत्यमें ही केन्द्रित होनी चाहिये । सत्य हमारे जीवनका मूल आधार होना चाहिये । जब एक बार जीवनकी पवित्र यात्रामें हेम इस मंजिल पर पहुँच जायेंगे, तो उसके बाद सही और शुध्द जीवनके दूसरे सारे नियम बिना किसी प्रयत्नके हमारे जीवनमें आ जायेंगे और उनका पालन बिलकुल स्वाभाविक हो जायगा। परन्तु सत्यके बिना जीवनमें किसी भी सिध्दान्त अथवा नियमका पालन असंभव होगा । यं.इं.,30-7-’31 |
मार्च 4
हमारे विचारमें सत्य होना चाहिये, हमारी वाणीमें सत्य होना चाहिये और हमारे कर्ममें भी सत्य होना चाहिये । जिस मनुष्यने इस सत्यको पूर्णतया समझ लिया है, उसके लिए दूसरा कुछ जाननेको बाकी नहीं रह जाता; क्योंकि सारा ज्ञान आवश्यक रूपमें इस सत्यमें ही समा जाता है । जिस ज्ञानका इसमें समावेश नहीं होता, वह सत्य नहीं है और इसलिए वह सच्चा ज्ञान नहीं हे; और सच्चे ज्ञानके अभावमें आंतरिकि शांति प्राप्त नहीं हो सकती । अगर हम एक बार सत्यकी इस अचूक कसौटीका प्रयोग करना सीख लें, तो हम तुरन्त यह जान सकेंगे कि हमें क्या बनना चाहिये, क्या देखना चाहिये और क्या पढ़ना चाहिये । यं. इं.,30- 2-’31 |
मार्च 5
सत्यकी शोधके लिए तप - स्वयं कष्ट सहना - आवश्यक होता है । कभी कभी आमरण तप भी करना पड़ता है । इसमें स्वार्थके लिए तो लेशमात्र भी गुंजाइश नहीं हो सकती । सत्यकी ऐसी स्वार्थरहित शोधमें कोई भी मुनष्य लम्बे समय तक अपनी सच्ची दिशाको भूल नहीं सकता । ज्यों ही शोधक गलत मार्ग पकड़ता है त्यों ही वह ठोकर खाता है । और इस तरह पुन सही मार्गकी ओर मोड़ दिया जाता है । यं.मं.,प्रक.1 |
मार्च 6
सम्पूर्ण और समग्र सत्यको जानना मनुष्यके भाग्यमें नहीं बदा है । उसका कर्तव्य यही है कि वह सत्यको जिस रूपमें देखता-समझता है उसीके अनुसार अपना जीवन बिताये; और ऐसा करनेमें शुध्दतम साधन - अर्थात् अहिंसा-का आश्रय ले । ह., 24-11-’33 |
मार्च 7
यदि सत्यका पालन गुलाबकी कोमल सेज होता, यदि सत्यके लिए मनुष्यको कोई कीमत नहीं चुकानी पड़ती और यदि वह सुखमय और आनन्दमय ही होता, तो उसके पालनमें कोई सौंदर्य नहीं रह जाता । यदि हम पर आसमान टूट पड़े, तो भी हमें सत्य पर डटे रहना चाहिये । यं. इं., 27-9-’28 |
मार्च 8
केवल सत्य ही असत्यका शमन करता है, प्रेम क्रोधका शमन करता है और कष्ट-सहन ही हिंसाका शमन करता है । यह शाश्वत सनातन नियम केवल सन्तोंके लिए ही नहीं है, परन्तु सब मनुष्योंके लिए है । इसका पालन करनेवाले भले ही थोड़े लोग हों, परन्तु वे पृथ्वीके रत्न है । वे ही समाजको एक सूत्रमे बाँधते हैं, उसे संगठित रखते हैं, ऐसे लोग नहीं जो विवेक-बुध्दि और सत्यके विरुध्द पाप करते हैं । ह., 1-2-’42 |
मार्च 9
अमूर्त सत्यका तब तक कोई मूल्य नहीं है जब तक वह ऐसे मानवोंमे मूर्तरूप ग्रहण नहीं करता, जो उसके लिए प्राणार्पण करने तककी तैयारीका प्रमाण देकर उसका प्रतिनिधित्व करते हैं । हमारे दोष इसलिए जीवित रहते हैं कि हम अपने आदर्शोंके जिवित प्रतिनिधि होनेका महज ढोंग करते हैं । सौंपे हूए कर्त्यव्यको पूरा करनेमें कष्टसहनके लिए तैयार रहा कर ही हम अपना सत्य-पालनका दावा सिध्द कर सकते है । यं.इं., 22-12-’21 |
मार्च 10
सत्यके उपासकको सदा विश्वास रखना चाहिये, यद्यपि उसके जीवनमें विश्वास न रखनेकी, अपनी बात पर शंका रखनेकी, भी उतनी ही जरूरत होती है । सत्यकी उसकी भक्ति उससे पूर्णतम विश्वास रखनेका तकाजा करती है । मानव-स्वभावका जो ज्ञान उसे है उससे सत्यभक्तको नम्र बनना चाहिये और इसलिए अपनी भूलका पता चलते ही उसे सुधारनेके लिए-सत्यभक्तको सदा तत्पर रहना चाहिये । यं.इं., 6-5-’26 |
मार्च 11
सीमित (शक्तिवाले) मानव सत्य और पेमको उनके समग्र रूपमें कभी नहीं जान पायेंगे, क्योंकि ये अपने अनन्त और असीम हैं । परन्तु अपने मार्गदर्शनके लिए हम इन्हें पर्याप्त मात्रामें जानते हैं । इनका प्रयोग करनेमें हम गलतियाँ करेंगे; और कभी कभी तो भयंकर गलतियाँ करेंगे। परन्तु मनुष्य स्व-शासन करनेवाला प्राणी है; और स्व-शासनमें जैसे बार बार गलतियाँ करनेकी सत्ताका समावेश होता है, वैसे ही गलतियाँ सुधारनेकी सत्ताका भी जरूरी तौर पर समावेश होता है । यं.इं., 21-4-’27 |
मार्च 12
मेरा यह विश्वास है कि बड़ी सावधानीके बावजूद यदि मनुष्यसे गलतियाँ हो जायँ, तो उन गलतियोंसे संसारको सचमुच कोई हानि नहीं होती, और न किसी व्यक्तिको हानि पहुँचती है । जो मनुष्य ईश्वरसे डरते हैं उनकी जान-बूझकर न की गई गलतियोंके परिणामोंसे ईश्वर हमेशा संसारको बचा लेता है । यं.इं., 3-1-’29 |
मार्च 13
गलती करना, भयंकर गलती करना भी, मनुष्यके लिए स्वाभाविक है। परन्तु वह स्वाभाविक तभी है जब उस गलतीको सुधारने और उसे दुबारा न करनेका हमारा दृढ़ संकल्प हो । यदि किये हुए संकल्पका पूर्ण रूपसे पालन किया जाय, तो उस गलतीको दुनिया भूल जायगी । इं., 6-2-’37 |
मार्च 14
अनिवार्यको अनिच्छासे स्वीकार करने पर ईश्वर प्रसन्न नहीं होता । वह तो पूर्ण हृदय-परिवर्तनसे ही प्रसन्न होता है । यं.इं., 2-2-’22 |
मार्च 15
इस दुनियामें निर्दोष कोई नहीं है - यहाँ तक कि ईश्वरके मक्त भी निर्दोष नहीं हैं । वे ईश्वरके भक्त इसलिए नहीं हैं कि वे निर्दोष हैं, बल्कि इसलिए हैं कि वे अपने दोषोंको जानते हैं, दोषेंसे बचनेका प्रयत्न करते हैं, अपने दोषोंको कभी छिपाते नहीं और सदा अपने आपको सुधारनेके लिए तैयार रहते हैं । ह., 28-1-’39 |
मार्च 16
गलतीका इकरार उस झाडूके समान है, जो कूड़े-कचरेको बुहार कर हटा देती है और जमीनकी सतहको पहलेसे ज्यादा साफ-सुथरी बना देती है । यं.इं., 16-2-’22 |
मार्च 17
सत्य केवल इसलिए सत्य नहीं है कि वह प्राचीन है । और न आवश्यक रूपमें उसके बारेमें इसलिए शंका रखनी चाहिये कि वह प्राचीन है । जीवनके कुछ ऐसे बुनियादी तत्त्व होते हैं, जिन्हे गंभीर विचार किये बिना सिर्फ इसलिए नहीं छोड़ा जा सकता कि जीवनमें उन पर अमल करना कठिन होता है । ह., 14-3-’36 |
मार्च 18
बुध्दिवादी लोग प्रशंसाके पात्र हैं । परन्तु बुध्दिवाद जब अपने लिए सर्व-शक्तिमान होनेका दावा करता है, तब वह भयंकर राक्षस बन जाता है । बुध्दि पर सर्व-शक्तिमत्ताके गुणका आरोपण करना उतनी ही बुरी मूर्तिपूजा है, जितनी जड़ पदार्थको ईश्वर मानकर उसकी पूजा करना । यं.इं., 14-10-’26 |
मार्च 19
परिवर्तन प्रगतिकी एक शर्त है । जब मन किसी चीजको गलत मानकर उसके खिलाफ विद्रोह करता है, तब कोई ईमानदार आदमी यांत्रिक सुसंगतताका पालन नहीं कर सकता । यं.इं., 19-12-’29 |
मार्च 20
मै सुसंगतताके पालनको हौवा नहीं बना लेत ा। यदि मैं प्रत्येक क्षण अपने प्रति सच्चा और ईमानदार रहूँ तो मैं आपने सामने दोषके रूपमें रखी जानेवाली अपनी असंगतताओंकी जरा भी परवाह नहीं करूँगा । ह., 9-11-’34 |
मार्च 21
एक सुसंगतता ऐसी है जो बुध्दिमत्तापूर्ण होती है; और दूसरी सुसंगतता ऐसी है जो मूर्खतापूर्ण होती है । जो मनुष्य सुसंगत बननेके लिए भारतकी कड़ी धूपमें और नारवेकी कड़ाकेकल सरदीमें खुले शरीर जायगा, वह मूर्ख माना जायेगा; साथ ही उसे प्राणोंसे भी हाथ धोने पड़ेंगे । यं.इं., 4-4-’29 |
मार्च 22
मानव-जीवन समझौंतोंकी एक दीर्घ परम्परा है; और जिस बातको हमने सिध्दान्तके रूपमें सत्य पाया है, उसे व्यवहारमें सिध्द करना हमेशा आसान नहीं होता । ह., 18-11-’39 |
मार्च 23
कुछ सिध्दान्त ऐसा शाश्वत और सनातन होते हैं, जिनमें समझौंतेके लिए कोई अवकाश ही नहीं होता; और ऐसे सिध्दान्तों पर अमल करनेके लिए मनुष्यको प्राणोंका बलिदान देनेके लिए भी तैयार रहना चाहिये । यं.इं.,5-9-’36 |
मार्च 24
मेरे विचारसे ‘सत्यं ब्रूयात् प्रियं बूसरत्, न बूयात् सत्यं अप्रियम्।’ संस्कृतके इस बचनका अर्थ यही है कि मनुष्यको सत्य बात भी नम्र भाषामे कहनी चाहिये । यदि हम नम्र भाषामें सत्य बात न कह सकें तो अधिक अच्छा यही होगा कि हम ऐसी बात न कहें । इसका अर्थ यह हुआ कि जो मनुष्य अपनी वाणी पर नियंत्रण नहीं रख सकता, उसमें सत्य हो ही नहीं सकता । यं.इं.,17-9-’25 |
मार्च 25
प्रकृतिने हमें ऐसा बनाया है कि हम अपनी पीठ नहीं देख पाते; दूसरे लोग ही हमारी पीठको देख सकते हैं । इसलिए वे जो कुछ देखते हैं उससे लाभ उठाना हमारे लिए बुध्दिमानीकी बात होगी । दि. डा.,पृ.224 |
मार्च 26
सत्यकी शोध सच्ची भक्ति है । वह ऐसा मार्ग है, जो हमें ईश्वरके समीप ले जाता है । और इसलिए उसमें कायरताके लिए, पराजयके लिए कोई स्थान ही नहीं होता । वह एक ऐसा तावीज है, जिसके द्वारा स्वयं मृत्यु शाश्वत जीवनका प्रवेश-द्वार बन जाती है । य.मं., प्रक. 1 |
मार्च 27
शुध्द सत्यकी दृष्टिसे यह शरीर भी एक परिग्रह है । यह सत्य ही कहा गया है कि भोगोंकी वासना आत्माके लिए शरीरों को जन्म देती है । जब इस वासनाका लोप हो जाता है तब शरीरकी और अधिक जरूरत नहीं रह जाती; और मनुष्य जन्म तथा मृत्युके दुश्चक्रसे मुक्त हो जाता है । य. मं. प्रक. 6 |
मार्च 28
कितना सुन्दर हो, यदि हम सब, स्त्री-पुरुष, जाग्रत अवस्थामें ही जानेवाली अपनी समस्त क्रियाओंमें - चाहे हम काम करते हों, खाते हों, पीते हों या खेलते हों - अपने आपको तब तक पूर्णतया सत्यकी उपासनामें लगाये रखें, जब तक हमारे शरीरका क्षय हमें सत्यके साथ एकरूप नहीं बना देता । य.मं.,प्रक.1 |
मार्च 29
जहाँ सत्य नहीं है वहाँ सच्चा ज्ञान नहीं हो सकता । इसीलिए चित् अथवा ज्ञान शब्द ईश्वरके साथ जोड़ा जाता है । और जहाँ सच्चा ज्ञान है वहाँ सदा आनन्दका वास रहता है । दुःख या शोकके लिए वहाँ कोई स्थान नहीं होता । और जैसे सत्य शाश्वत है वैसे ही उससे उत्पन्न आनन्द भी शाश्वत है । इसीलिए हम ईश्वरको सत्-चित्-आनन्दके रूपमें मानते है । यं.इं.,30-7-’31 |
मार्च 30
जहाँ सत्य नहीं है वहाँ सच्चा ज्ञान नहीं हो सकता । इसीलिए चित् अथवा ज्ञान शब्द ईश्वरके साथ जोड़ा जाता है । और जहाँ सच्चा ज्ञान है वहाँ सदा आनन्दका वास रहता है । दुःख या शोकके लिए वहाँ कोई स्थान नहीं होता । और जैसे सत्य शाश्वत है वैसे ही उससे उत्पन्न आनन्द भी शाश्वत है । इसीलिए हम ईश्वरको सत्-चित्-आनन्दके रूपमें मानते है । मौन सत्यके शोधकके लिए बड़ा सहायक होता है । मौनकी स्थितिमें आत्मा अपना मार्ग अधिक स्पष्ट रूपसे देख पाती है और जो समझमें नहीं आता या कूछ भ्रममें डालनेवाला होता है वह स्फटिकके समान स्पष्ट हो जाता है । हमारा जीवन सत्यकी एक लम्बी और कठिन शोध है; और आत्मा अपनी सम्पूर्ण उच्चताको प्राप्त कर सके, इसके लिए उसे आंतरिक शांतिकी आवश्यकता होती है । ह.,10-12-’38 |
मार्च 31
अनुभवने मुझे सिखाया है कि सत्यके पुजारीको मौनका सेवन करना चाहिये । जाने-अनजाने भी मनुष्य बहुत बार अतिशयोक्ति करता है, अथवा जो कहने लायक हो उसे छिपाता है, अथवा उसे बदलकर कहता है । ऐसे संकटोंसे बचनेके लिए भी सत्यके पुजारीका अल्पभाषी होना जरूरी है । कम बोलनेवाला मनुष्य कभी बिना सोचे-विचारे नहीं बोलेगा; वह अपना प्रत्येक शब्द तौलकर बोलेगा । आ.क., पृ.59 |