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उध्दरणोंके स्त्रोत

जून

जून 1

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यदि हम स्पष्ट रूपसे यह समझ लें कि हम जो कुछ कहते हैं और करते हैं, उसे सुनने और देखनेके लिए ईश्वर सदा साक्षीके रूपमें मौजूद रहता है, तो इस दुनियामें हमारे लिए किसीसे कुछ भी छिपानेको नहीं रह जायगा । क्योंकि जब हम अपने सरजनहार पिताके सामने मलिन विचार नहीं करेंगे, तब वाणी द्वारा उन्हें व्यक्त करनेकी तो बात ही कैसे उठ सकती है? मलिनता ही वह चीज है, जो गुप्तता और अंधकारको खोजती है ।

यं.इं.,22-12-’20


जून 2

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मनुष्यका स्वभाव ही ऐसा है कि वह गंदगीको हमेशा छिपाता है । हम गंदी चीजोंको देखना या छूना नहीं चाहते । हम उन्हें अपनी दृष्टिसे दूर रखना चाहते हैं । यही बात हमारी वाणी पर भी लागू होनी चाहिये । मैं तो यह कहूँगा कि हमें ऐसे विचार भी मनमें नहीं लाने चाहिये, जिन्हें हम दूसरोंसे छिपाना चाहें ।

यं.इं.,22-12-’20


जून 3

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आप जो कुछ भी करें, उसेमें अपने प्रति और दुनियाके प्रति सच्चे और प्रामाणिक रहें अपने विचारोंको कभी न छिपायें। अगर अपने विचार प्रकट करनेमें आपको शरम मालूम हो, तो उन्हें मनमें तो और भी अधिक शरम मालूम होनी चाहिये ।

ह., 24-4-’37


जून 4

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सारे पाप छिपाकर ही किये जाते हैं । जिस क्षण हमें यह प्रतीति हो जायेगी कि ईश्वर हमारे विचारोंका भी साक्षी रहता है, उसी क्षण हम पापोंसे मुक्त  हे जायेंगे ।

ह., 17-1-’39


जून 5

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विचार पर नियंत्रण रखना एक लम्बी, दुःखद और कठिन परिश्रमकी प्रक्रिया है । लेकिन मेरा यह विश्वास है कि इस भव्य और सुन्दर परिणामको प्राप्त करनेके लिए खर्च किया जानेवाला कितना  भी समय, उठाया जानेवाला कितना भी परिश्रम और भोगा जानेवाला कितना भी दुःख अधिक नहीं होगा। विचारकी शुध्दि निश्चित अनुभव जैसी दृढ़ ईश्वर-श्रध्दाके बिना कभी संभव ही नहीं है ।

यं.इं.,25-8-’27


जून 6

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जब काम, क्रोध आदि आवेग तुम पर सवारी करनेकी धमकी दें, तब घुटनेकि बल झुककर ईश्वरकी शरणमें जाओ और उससे सहायताकी भीख माँगो । रामनाम मेरा अचूक सहायक है ।

से.रे.से.इं.,भा. 2,पृ.9


जून 7

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पवित्र जीवनकी आकांक्षा रखनेवाला हर मनुष्य मेरी इस बात पर विश्वास रखे कि अपवित्र विचार अकसर उसी तरह शरीरको हानि पहुँचानेकी शक्ति रखता है, जिस तरह कि अपवित्र कार्य ।

यं.इं.,25-8-’27


जून 8

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मुक्त किन्तु अमूर्त विचारकी शक्ति मूर्त अर्थात् कार्यरुपमे परिणत विचारकी शक्तिसे कहीं ज्यादा बड़ी होती है । और जब कार्य पर उचित अंकुश प्राप्त कर लिया जाता है तब विचार पर उसकी प्रतिक्रिया होती है और वह स्वयं विचारका नियमन करता है । इस प्रकार कार्यरूपमें परिणत विचार बन्दी बन आता है और वशमें कर लिया जाता है ।

यं.इं.,2-9-’26


जून 9

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आपको विचार, वाणी और कार्यका सुमेल साधनेका ध्येय सदा अपने सामने रखना चाहिये । आप सदा अपने विचारोंको शुध्द करनेका ध्येय रखिये;  इससे सारी बातें ठीक हो जायेंगी। विचारसे अधिक बलवान कोई  वस्तु  दुनियांमें नहीं है । कार्य वाणीके पीछे चलता है और वाणी  विचारके पीछे चलती है। यह दुनिया शक्तिशाली विचारका ही परिणाम है । और जहाँ विचार बलवान तथा शुध्द होता है, वहाँ परिणाम भी हमेशा बलवान और शुध्द ही होता है ।

ह., 24-4-’37


जून 10

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मनुष्य अकसर वैसा ही बन जाता है जैसा वह अपने आपको मानता है । अगर मैं अपने आपसे यह कहता रहूँ कि मैं अमुक काम नहीं कर सकता, तो यह संभव है कि अन्तमें सचमुच मैं वह काम करनेमें असमर्थ हो जाऊँ तो मैं आवश्य ही उसे करनेकी क्षमता प्राप्त कर लूँगा - भले आरंभमें वह  क्षमता मुझमें न भी हो ।

ह., 1-9-’40


जून 11

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प्रार्थनाकी  भावनासे ओतप्रोत कोई भी शुभ आशयवाला प्रयत्न कभी व्यर्थ नहीं जाता और मनुष्यकी सफलता केवल ऐसे प्रयत्नमें हीं निहित होती है । परिणाम अथवा फल तो ईश्वरके ही हाथोंमें रहता है ।

यं.इं.,17-6-’31


जून 12

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‘तू विश्वास रख, मुझमें भरोसा रखकर चलनेवाले मनुष्यका कभी नाश नहीं हो सकता’ (न मे भक्त प्रणश्यति), यह प्रभुका वचन है । लेकिन इसका अर्थ यह नहीं समझना चाहिये कि कोई प्रयत्न किये बिना केवल प्रभुमें विश्वास रखनेसे ही हमारे पाप धुल जायेंगे । सान्त्वना और शांति केवल उसीको प्राप्त होगी जो इन्द्रियोंकि विषयेंके प्रलोभनेके खिलाफ कठोर संघर्ष करता है और आँखोंमें आँसू लिये दुःखी तथा सन्तप्त मनसे प्रभुकी शरण लेता है ।

यं.इं.,12-1-’28


जून 13

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यह कहना बहुत सरल है कि ‘मैं ईश्वरमें विश्वास नहीं करता ।’ क्योंकि ईश्वर मनुष्यको, किसी दंड या हानिकारक परिणामके भयके बिना, अपने विषयमें रह तरहकी बातें कहने देता है । वह हमारे कार्योंको देखता है ।  उसके नियमके किसी भी भंगके साथ सजा तो अनिवार्य रूपमें जुड़ी ही होती है; परन्तु उस सजाके पीछे द्वेष या बदलेकी भावना नहीं होती, वह मनुष्यके हृदयको पवित्र बनानेवाली, सुधारके लिए उसे बाध्य करनेवाली होती है ।

यं.इं.,23-9-’26


जून 14

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आत्मशुध्दिका मार्ग बड़ा बिकट है । पूर्ण शुध्द बननेका अर्थ है मनसे, बचनसे और कायासे निर्विकार बनना; राग-द्वेषादिके परस्परविरोधी प्रवाहोंसे ऊपर उठना ।

आ. क., पृ. 433


जून 15

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मैं मानता हूँ कि स्वस्थ आत्माका निवास स्वस्थ शरीरमें होना चाहिये । अत: आत्मा जितनी स्वस्थ और काम-क्रोधादि आवेगोंसे मुक्त बनेगी, उतना ही शरीर भी इस उच्च अवस्थाको प्राप्त करेगा ।

यं.इं.,5-6-’24


जून 16

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पवित्राके बाद दूसरा स्थान स्वच्छता और शुध्दताका आता है । जिस प्रकार अशुध्द मनसे हम र्हश्वरका आशीर्वाद प्राप्त नहीं कर सकते, उसी प्रकार अशुध्द शरीरसे भी हम ईश्वरका आशीर्वाद प्राप्त नहीं कर सकते । शुध्द शरीर अशुध्द और अस्वच्छ नगरमें नहीं रह सकता ।

यं.इं.,19-11-’25


जून 17

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संयम कभी हमारे स्वास्थ्यका नाश नहीं करता । हमारे स्वास्थ्यका नाश संयम नहीं करता, बल्कि वाहरी दमन करता है । जो मनुष्य सच्चे अर्थमें आत्म-संयमी होता है, वह प्रतिदिन अधिकाधिक शक्ति प्राप्त करता है और अधिकाधिक शान्ति अनुभव करता है । विचारोंका संयम आत्म-संयमकी पहली सीढ़ी है ।

., 28-10-’37


जून 18

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निर्दोष यौवन ऐसी अमूल्य सम्पत्ति है, जिसे क्षणिक उत्तेजनाके लिए, झूठे आनन्दके लिए नष्ट नहीं करना चाहिये ।

ह., 21-9-’35


जून 19

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भाप तभी प्रचण्ड शक्तिका रूप लेती है जब वह अपने आपको एक मजबूत छोटेसे भंडारमें कैद होने देती है; ओर उसमें से अत्यन्त अल्प तथा निश्चित मात्रामें बाहर निकल कर ही वह जबरदस्त गति पैदा करती है और बड़े बड़े बोझ उठाकर ले जाती है । इसी प्रकार देशके नौजवानोंको स्वेच्छापूर्वक अपनी अखूट शक्तिको संपत तथा नियंत्रित होने देना चाहिये और अत्यन्त परिमित और आवश्यक मात्रामें ही उसे मुक्त होने देना चाहिये ।

यं.इं.,30-10-’29


जून 20

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जिस प्रकार कोई भव्य और सुन्दर महल अपने निवासियों द्वारा छोड़ दिये जाने पर वीरान खंडहर जैसा दिखाई देता है, उसी प्रकार चरित्रके अभावमें मनुष्य भी टूटे-फूटे खंडहर जैसा दिखाई देता है - भले उसके पास भौतिक सम्पत्ति कितनी ही बड़ी मात्रामें क्यों न हो ।

स.सा.अ., पृ. 355


जून 21

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हमारी सारी विद्या या वेदोंका पाठ, संस्कृत-लेटिन-ग्रीक भाषाका शुध्द ज्ञान और दुनियाकी दूसरी बड़ीसे सिध्दि भी तब तक हमारे लिए किसी उपयोगकी नहीं है, जब तक वह हृदयकी पूर्ण शुध्दिका विकास करनेमें हमें समर्थ नहीं बनाती । समस्त ज्ञानका अंतिम लक्ष्य चरित्रका निर्माण ही होना चाहिये ।

यं.इं.,8-9-’27


जून 22

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चरित्रके अभावमें ज्ञान केवल बुराईको जन्म देनेवाली शक्ति बन जाता है, जैसा कि संसारके अनेक ‘प्रतिभाशाली चोरों ’ और ‘सभ्य दुष्टों’ के उदाहरणोंमें देख जाता है ।

यं.इं.,21-2-’29


जून 23

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मादक पदार्थ और मदिरा शैतानकी दो भुजायें हैं, जिनके प्रहारसे वह अपने लाचार बने हुए शिकारोंकी बुध्दि हर लेता है और उन्हें मतवाला बना देता है ।

यं.इं.,12-4-’26


जून 24

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जब शैतान स्वतंत्रता, सभ्यता, संस्कृति और इसी प्रकारकी अन्य शुभ वस्तुओंके संरक्षकका जामा पहन कर सामने आता है, तब वह अपने आपको इतना बलवान और विश्वसनीय बना लेता है कि उसका विरोध करना लगभग असंभव हो जाता है।

यं.इं.,11-7-’29


जून 25

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मैं मदिरा-पानको चारी और संभवत वेश्यागमनसे भी अधिक निन्दनीय मानता हूँ । कया वह अकसर इन दोनों का जनक नहीं होता?

यं.इं.,23-2-’22


जून 26

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लोग अपनी परिस्थितियोंके कारण शराब पीते है । कारखानेके मजदूर और ऐसे ही दुसरे लोग शराब नशा करते हैं । वे लोग परित्यक्त और उपेक्षित हैं, समाज उनकी बिलकुल परवाह नहीं करता; इसीलिए अपनी उस दशाको भूलनेके लिए वे शराबकी शरण लेते हैं । जिस प्रकार मादक पदार्थोंका त्याग करनेवाले मनुष्य स्वाभावसे सन्त नहीं होते, उसी  प्रकार  शराबी आदमी स्वभावसे दुष्ट और पापी नहीं होते । अधिकतर लोगों पर उनके वातावरणका प्रभाव और नियंत्रण होता है ।

यं.इं.,8-9-’27


जून 27

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जो राष्ट्र मदिरा-पानके व्यसनका शिकार हो गया है, उसका सर्वनाश निश्चित है । इतिहासमें इसके प्रमाण मौजूद हैं कि इस दुर्व्यसनमें फँसनेवाले राष्ट्र नष्ट हो गये हैं ।

यं.इं.,4-4-’29


जून 28

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मदिरा-पान पर प्रतिबन्ध लगानेवाला कानून लोगोंके अधिकारमें हस्तक्षेप करता है - इस दलीलमें है कि चोरी पर प्रतिबन्ध लगानेवाले कानून लोगोंके चोरी करनेके अधिकारमें हस्तक्षेप करते हैं । चोर धन-दौलत और दूसरी भौतिक  वस्तुएँ चुराता है, जब कि शराबी खुद अपने और अपने पड़ोसीके सम्मानकी चोरी करता है ।

यं.इं.,6-1-’27


जून 29

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मदिराकी तरह धूम्रपानको भी मैं भयंकर वस्तु मानता हूँ । धूम्रपान मेरी दृष्टिमें एक दुर्व्यसन है। वह मनुष्यकी अन्तरात्माको जड़ बना देता है; और अकसर मदिरा-पानसे ज्यादा  बुरा होता है, क्योंकि वह अदृष्य रूपमें काम करता है। वह ऐसी लत है कि जब एक बार मनुष्य पर वह अपना अधिकार जमा लेती है तो उससे पिंड छुड़ाना कठिन होता है । वह खर्चीला दुर्व्यसन है । वह श्वासको गन्दा बनाता है, दांतोंकी चमकको नष्ट करता है और कभी कभी केंसर जैसे भयंकर रोगको जन्म देता है। धूम्रपान एक गन्दी लत है ।

यं.इं.,12-1-’21


जून 30

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धूम्रपान एक दृष्टिसे मदिरा-पानसे अधिक बढ़ा अभिशाप है, क्योंकि उसका शिकार समय रहते उसकी बुराईको समझ नहीं पाता । धूम्रपानको जंगलीपनका चिह्न नहीं माना जाता; सभ्य लोग तो उसकी प्रशंसा भी करते हैं और उसके गुणगान करते हैं । मैं केवल इतना ही कह सकता हूँ कि जो लोग धूम्रपानका व्यसन छोड़ सकते हैं, वे उसे छोड दें और दूसरोंके सामने उदाहरण पेश करें ।

यं.इं.,4-2-’26


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