फरवरी
फरवरी 1
जहां प्रेम है वहाँ ईश्वर है । स.सा.अ., पृ. 360 |
फरवरी 2
प्रेम कभी कुछ पानेका दावा नहीं करता, वह सदा देता ही है । प्रेम सदा सहन करता है; वह कभी विरोध नहीं करता, कभी बदला लेकर संतुष्ट नहीं होता । |
यं इं., 9-7ö’25
फरवरी 3
मेरा यह विश्वास है कि मनुष्य-जातिकी समग्र प्रवृत्ति हमें नीचे गिरानेके लिए नही परन्तु ऊपर उठानेके लिए है; और वह प्रेमके कानूनकी निश्चित प्रक्रियाका - भले वह अनजाने ही हो - परिणाम है । मनुष्य-जाति अनेक विघ्न-बाधाओंके बावजूद आज तक टिकी हुई है । यह सत्य बताता है कि छिन्न-भिन्न करनेवाली शक्तिसे मिलानेवाली शक्ति अधिक बड़ी है, केन्द्रबिन्दुसे दूर ले जानेवाली शक्तिकी अपेक्षा केन्द्रबिन्दुके पास ले जानेवाली शक्ति अधिक बलवती है । यं. इं., 12-11ö’31 |
फरवरी 4
वैज्ञानिक हमसे कहते हैं कि हमारी इस पृथ्वीकी रचना करनेवाले परमाणुओंकि बीच यदि मिलानेवाली शक्ति मौजूद न हो, तो यह पृथ्वी टूटकर टुकड़े टुकड़े हो जाय और हमारा अस्तित्व इस दुनियासे मिट जाय । और जिस प्रकार जड़ प्रकृतिमें मिलानेवाली शक्ति है, उसी प्रकार चेतन पदार्थोंमें भी वह शक्ति होनी चाहिये; और चेतन प्राणियांमें रही उस मिलानेवाली शक्तिका नाम है प्रेम । यं. इं.,5-5ö’20 |
फरवरी 5
उस शक्तिके दर्शन हम पिता-पुत्रके बीच, भाई-बहनके बीच तथा मित्र-मित्रके बीच करते हैं । परन्तु हमें सारे चेतन प्राणियोंके बीच उस शक्तिका उपयोग करना सीखना चाहिये । और उस शक्तिके उपयोगमें ही ईश्वरका हमारा ज्ञान समाया हुआ है । जहाँ प्रेम है वहाँ जीवन है; घृणा नाशकी - मृत्युकी दिशामें ले जाती है । यं. इं., 5-5ö’20 |
फरवरी 6
मैंने पाया है कि नाशके बीच भी जीवन टिका रहता है और इसलिए नाशके नियमकी अपेक्षा कोई अधिक ऊँचा, अधिक उदात्त नियम होना चाहिये । केवल उस नियमके अधीन ही सुव्यवस्थित समाजकी रचना संभव हो सकती है और जीवन जीने योग्य बन सकता है । यं.इं.,1-10-’31 |
फरवरी 7
यदि प्रेम जीवनका नियम नहीं होता, तों मृत्यु के बीच जीवन टिक नहीं सकता था । जीवन मृत्यु पर एक शाश्वत, सनातन विजय है । ह.,26-9-’36 |
फरवरी 8
यदि मनुष्य और पशुमें कोई बुनियादी भेद है, तो यही है कि मनुष्य इस प्रेमके नियमको उत्तरोत्तर अधिक समझता और स्वीकार करता रहा है और व्यवहारमें इस नियमाको अपने व्यक्तिगत जीवन पर लागू करता आया है । संसारके सभी प्राचीन और आधुनिक संत अपनी बुध्दि और क्षमताके अनुसार हमारे जीवनके इस उदात्त तथा सर्वोपरि नियमके जीते-जागते उदाहरण थे । ह.,26-9-’36 |
फरवरी 9
रूप तो अनेक है, परन्तु उन रूपोंको अनुप्रणित करनेवाली आत्मा एक ही है । जहाँ बाहरी विविधताके मूलमें सबको अपने भीतर समा लेनेवाली यह मूलभूत एकता काम करती हो, वहाँ ऊँच और नीचके भेदोके लिए गुंजाइश ही कैसे हो सकती है? क्योंकि यह एक ऐसा सत्य है, जिसका दैनिक जीवनमें कदम कदम पर हमें अनुभव होता है । समस्त धर्मोंका अंतिम लक्ष्य यह मूलभूत एकता सिध्द करना है । ह., 15-12-’33 |
फरवरी 10
हमें अपने प्रेमका दायरा इतना व्यापक कर देना चाहिये कि वह सारे गाँवको अपने भीतर समा ले; गाँवको अपने दायरेमें सारे जिलेका समावेश कर लेना चाहिये, जिलेको प्रान्तका और प्रान्तको समूचे देशका-यहाँ तक कि अंतमें फैलते फैलते हमारे प्रेमका दायरा सारे विश्व तक फैल जाना चाहिये । यं. इं., 27-6-’29 |
फरवरी 11
मानव-जातिका नियम घातक प्रतिस्पर्धा नहीं परन्तु जीवनदायी सहयोग है । भावनाकी उपेक्षा करनेका अर्थ यह भूल जान है कि मानव भावनाशील प्राणी है । यदि हम ‘ईश्वरकी प्रतिमूर्ति हैं ’, तो कुछ लोगोंकि हितके लिए नहीं, अधिक लोगोंके हितके लिए भी नहीं, किन्तु सब लोगोंके हितको-सर्वोदयको-बढ़ानेके लिए हम बनाये गये हैं । स्पी.रा.म.,पृ. 350 |
फरवरी 12
यह जानते हुए कि हम सब कभी एकसा विचार नहीं करेंगे और हम सब सत्यको सदा आंशिक रूपमें तथा अलग अलग दृष्टिकोणोंसे ही देखेंगे, मानव – व्यवहारका सुनहला नियम यही होगा कि हम परस्पर सहिष्णुताका विकास करें, एक-दूसरेके विचारों और मतोंको सहन करें । यं. इं., 23-9-’26 |
फरवरी 13
सत्यका शोधक, प्रेमके नियमका पुजारी, कलके लिए कोई चीज नहीं रख सकता । ईश्वर कलके लिए कभी व्यवस्था नहीं करता । प्रतिदिन निश्चित मात्रामें जितने अन्नकी जरूरत है, उससे अधिक वह कभी उत्पन्न नहीं करता । इसलिए यदि हम ईश्वरकी व्यवस्थामें श्रध्दा रखें, तो हमारा यह दृढ़ विश्वास होना चाहिये कि हमारी रोजकी रोटी वह हमें देगा ही, और हमारी आवश्यकताके अनुसार ही देगा । यं. इं., 4-9-’30 |
फरवरी 14
या तो हम ईश्वरके उस नियमको जानते नहीं या उसकी उपेक्षा करते हैं, जिसके अनुसार मनुष्यको केवल उसकी रोजकी रोटी ही दी गई है - उससे अधिक नहीं। हमारे इस अज्ञान या उपेक्षाके फलस्वरूप दुनियामें असमानतायें खड़ी होती हैं, जिनकी वजहसे दुनियाकी सारी मुसीबतें पैदा होती हैं । यं. इं., 4-9-’30 |
फरवरी 15
धनी लोगोके पास वस्तुओंका अतिरिक्त भंडार भरा रहता है, जिनकी उन्हें कोई आवश्यकता नहीं होती और इसलिए जिनकी उपेक्षा की जाती है और बरबादी होती हैं, जब कि लाखों-करोड़ों लोग अन्नके अभावसे भूखों मरते हैं और कपड़ोंके अभावमें ठंडसे ठिठुर कर मर जाते हैं । यदि हर आदमी उतनी ही वस्तु पर अपना अधिकार रखता जितनी उसके लिए जरूरी है, तो किसी मनुष्यको किसी वस्तुका अभाव नहीं रहता और सब लोग संतोषके साथ जीवन बिताते । यं. इं., 4-9-’30 |
फरवरी 16
आजकी स्थितिमें धनी लोग गरीबेंसे कम असंतुष्ट नहीं हैं । गरीब आदमी लखपति बनना चाहता है और लखपति कऱेडपति बनना चाहता है । गरीबोंको जब पेटभर खानेका मिल जाता है तब वे अकसर उससे सन्तुष्ट नहीं होते; लेकिन निश्चत रूपसे उन्हें पेटभर भोजन पानेका अधिकार है और समाजको यह ध्यान रखना चाहिये कि इतना उन्हें अवश्य मिल जाय । यं. इं., 4-9-’30 |
फरवरी 17
हमारी सभ्यता, हमारी संस्कृति और हमारा स्वराज्य अपनी जरूरतें दिनोंदिन बढ़ाते रहने पर - भोगमय जीवन पर निर्भर नहीं करते; परन्तु हमारी जरूरतेंको नियंत्रित रखने पर - त्यागमय जीवन पर निर्भर करते हैं । यं. इं., 6-10-’21 |
फरवरी 18
जब तक एक भी सशक्त पुरुष अथवा स्त्रीको काम या भोजन न मिले, तब तक हमें चैनसे बैठनेमें या भरपेट भोजन करनेमें लज्जा मालूम होनी चाहिये । यं. इं., 5-2-’25 |
फरवरी 19
मैं कहता हूँ कि हम एक तरहसे चोर हैं । यदि मैं ऐसी कोई वस्तु लेता हूँ जिसकी मुझे अपने तात्कालिक उपयोगके लिए जरूरत नहीं है और उसे अपने पास रखता हूँ, तो मैं दूसरे किसीसे उस वस्तुकी चोरी करता हूँ । स्पी. रा. म.,पृ 384 |
फरवरी 20
मैं यह कहनेका साहस करता हूँ कि प्रकृतिका यह बुनियादी नियम है - और इसमें अपवादकी जरा भी गुंजाइश नहीं है - कि प्रकृति हमारी आवश्यकताओंके लिए प्रतिदिन पर्याप्त मात्रामें उत्पन्न करती है; और यदि प्रत्यक मनुष्य उतना ही ले जितनेकी उसे आवश्यकता है और उससे अधिक न ले, तो इस दुनियामें गरीबी नहीं रहेगी और एक भी आदमी इस दुनियामें भूखसे नहीं मरेगा । स्पी. रा. म.,पृ 384 |
फरवरी 21
मै समाजवादी नहीं हूं और मैं सम्पत्तिवालोंसे उनकी सम्पत्ति छीनना नहीं चाहता । परन्तु मैं यह जरूर कहता हूं कि हममें से जो लोग व्यक्तिगत रूपमें अंधकारसे निकलकर प्रकाशकी ओर जाना चाहते हैं, उन्हें इस नियमका पालन अवश्य करना चाहिये । मैं किसीसे कोई वस्तु छीनना नहीं चाहता। ऐसा करके मैं अहिंसाके नियमका भंग करूँगा । यदि दूसरे किसीके पास मुझसे कोई चीज ज्यादा हो तो भले रहे । परन्तु जहाँ तक मेरे अपने जीवनको नियमित बनानेका सम्बन्ध हैं, मैं ऐसी कोई वस्तु रखनेका साहस नहीं कर सकता जिसकी मुझे आवश्यकता नहीं है । स्पी. रा. म.,पृ 384 |
फरवरी 22
भारतमें ऐसे तीस लाख लोग हैं, जिन्हें दिनमें एक बार खाकर संतोष कर लेना पड़ता है; और यह एक बारका खाना ऐसा होता है, जिसमें एक रोटी और चुटकी-भर नमकके सिवा दूसरा कुछ नहीं होता- घी तेलका तो उसमें एक छींटा भी नहीं होता । जब तक इन तीस लाख लोगोंको ज्यादा अच्छा भोजन और ज्यादा अच्छे कपड़े नहीं मिलते, तब तक अपने पासकी कोई भी चीज रखनेका आपको या मुझे अधिकार नहीं है । आपको और मुझे, जिन्हें यह बात अधिक अच्छी तरह जाननी चाहिये, अपनी जरूरतों पर अंकुश रखना चाहिये और स्वेच्छापूर्वक भूखा भी रहना चाहिये, ताकि इन लोगोंकी सार-संभाल हो, इन्हें पूरा खाना और पूरे कपड़े मिलें । स्पी. रा. म.,पृ.385 |
फरवरी 23
इस संबंधमें सुनहला नियम तो यह है कि जो चीज लाखों लोग नहीं पा सकते, उसे रखनेसे हमें दृढ़तापूर्वक इनकार कर देना चाहिये । इनकार करनेकी यह योग्यता हममें एकदम तो नही आ जायगी । इस दिशामें पहला कदम होगा ऐसी मनोवृत्तिका विकास करना, जो लाखों लोगोंको न मिल सकनेवाली साधन-सम्पत्ति अथवा सुविधायें रखना पसन्द न करे । इस दिशामें दूसरा तात्कालिक कदम होगा इस मनोवृत्तिके अनुरूप अपने जीवनमें अधिकसे अधिक तेजीसे परिवर्तन करना । यं. इं.,24-6-’25 |
फरवरी 24
मनुष्य रसनाकी तृप्तिके लिए नहीं परन्तु शरीरको टिकाये रखनेके लिए ही खाना चाहिये । प्रत्येक इन्द्रिय जब शरीरके लिए और शरीके द्वारा आत्माके दर्शनके लिए ही काम करती है, तब उसके रस शून्यवत् - लुप्त - हो जाते हैं और तभी वह स्वाभाविक रूपमें काम करती है ऐसा कहा जायगा । ऐसी स्वाभाविकता सिध्द करनेके लिए जितने प्रयोग किये जायँ उतने कम ही हैं । और ऐसा करते हुए अनेक शरीरोंका बलिदान भी देना पड़े,तो उसे भी हम तुच्छ मानें । आ. क., पृ.295 |
फरवरी 25
हमें शरीरके चिकित्सकोंके बजाय आत्माके चिकित्सकोंकी आवश्यकता है । अस्पतालें और डॉक्टरोंकी संख्यामें होनेवाली वृध्दि सच्ची सभ्यताका चिह्न नहीं है । हम और दूसरे लोग शरीरोंका जितना कम लाड़ लड़ायेंगे - उनके सुखभोगकी जितनी कम चिन्ता करेंगे - उतना ही अधिक हमारा और जगतका कल्याण होगा । यं. इं.,29-9-’27 |
फरवरी 26
शरीरका ईश्वरके मंदिरके रूपमें उपयोग करनेके बदले हम भोगविलासके साधनके रूपमें उसका उपयोग करते हैं; और भोग-विलासमें वृध्दि करने तथा मानव-देहका दुरुपयोग करनेके अपने प्रयत्नमें मदद मांगनेके लिए डॉक्टरोंके पास दौड़नोमें हमें लज्जा नहीं आती । यं.इं.,8-8-’29 |
फरवरी 27
मनुष्यका स्वभाव मूलत बुरा नहीं है । पशु भी प्रेमके प्रभावके सामने झुकते देखे गये हैं । इसलिए आपको मनुष्य-स्वाभावके बारेमें कभी निराश नहीं होना चाहिये । ह.,5-11-2-’38 |
फरवरी 28
मनुष्यका यह जीवन उसकी कसौटीका काल है । कसौटीके इस कालमें भली और बुरी शक्तियाँ उस पर अपना प्रभाव डालती हैं । किसी भी समय वह प्रलोभनोंका शिकार हो सकता है । इन प्रलोभनोंका विरोध करके और इनसे युध्द करके उसे अपना मनुष्यत्व सिध्द करना है । ह., 4-4-’36 |
फरवरी 29
आन्तर-राष्ट्रीय व्यवहारोंमे प्रेमका नियम स्वीकार करनेमें लम्बा समय लग सकता है । सरकारोके तंत्र ऐसा करनेमें बाधक बनते हैं और एक प्रजाके हृदयकी बात दूसरी प्रजासे छिपाते हैं । यं.इं.,23-6-’19 |