दिसम्बर
दिसम्बर 1
लोकतंत्रका सारभूत अर्थ वह कला और वह विज्ञान होना चाहिये, जो राष्ट्रकी प्रजाके समस्त वर्गोंकी सम्पूर्ण शारीरिक, आर्थिक तथा आध्यात्मिक साधन-सम्पत्तिका उपयोग सब लोगोंके समान कल्याणकी सिध्दिमें करते हैं। ह., 27 – 5 - ’39 |
दिसम्बर 2
जन्मजात लोकतंत्रवादी जन्मसे ही अनुशासन पालनेवाला होता है। लोकतंत्रकी भावना कुदरती तौर पर उसीमें विकसित होती है, जो सामान्यत समस्त मानवीय अथवा ईश्वरीय कानूनोंको स्वेच्छासे पालनेका आदि हो जाता है। ह., 27 – 5 - ’39 |
दिसम्बर 3
सम्पूर्ण समाजके भलेके लिए स्वेच्छापूर्वक सामाजिक मर्यादाओंको स्वीकार करनेसे व्यक्ति और समाज – जिसका व्यक्ति एक सदस्य है – दोनोंकी उन्नति होती है और दोनोंका जीवन समृध्द बनता है। ह., 27 – 5 - ’39 |
दिसम्बर 4
लोकतंत्रकी भावना कोई यांत्रिक वस्तु नहीं है, जिसका विकास (शासनके बाहरी) रूपोंका अंत करनेसे हो जाय। उसके लिए हृदय-परिवर्तन आवश्यक होता है। यं. इं., 16 – 3 -’27 |
दिसम्बर 5
आतंक और त्रासके बीच – भले उसका कारण सरकार हो या जनता – किसी देशमें लोकतंत्र की भावना स्थापित नहीं की जा सकती। कुछ बातोंमें प्रजाकीय आतंकवाद सरकारी आतंकवादकी अपेक्षा लोकतंत्रकी भावनाके विकासमें अधिक रुकावट डालता है; क्योंकि सरकारी आतंकवाद लोकतंत्रकी भावनाको मजबूत बनाता है, जब कि प्रजाकीय आतंकवाद उस भावनाको मार देता है। यं.इं., 23 -2 -’31 |
दिसम्बर 6
अनुशासनबध्द और जाग्रत लोकतंत्र संसारकी सुन्दरसे सुन्दर वस्तु है। पूर्वग्रहोंसे जकड़ा हुआ, अज्ञानमें फॅँसा हुआ तथा अन्धविश्वासोंका शिकार बना हुआ लोकतंत्र अराजकता और अन्धाधुन्धीके दलदलमें फॅँस जायगा और खुद ही अपना नाश कर लेगा। यं.इं., 30 –7 -’31 |
दिसम्बर 7
मेरी कल्पनाके लोकतंत्रका पशुबलके उपयोगके साथ बिलकुल मेल नहीं बैठता। अपनी इच्छाका पालन करानेके लिए वह कभी पशुबलका उपयोग नहीं करेगा। ए.फा.,पृ.102 |
दिसम्बर 8
बाहरी नियंत्रणोंके तनावसे लोकतंत्र टूट जायगा। वह केवल विश्वासके बल पर ही टिक सकता है। दि.डा.,पृ.136 |
दिसम्बर 9
स्वतंत्रताके सर्वोच्च रूपके साथ बड़ेसे बड़ा अनुशासन और नम्रता जुड़ी होती है। जो स्वतंत्रता अनुशासन और नम्रतासे आती है, उससे इनकार नहीं किया जा सकता। निरंकुश स्वच्छन्दता अशिष्टता और असभ्यताकी निशानी है, जो हमें भी नुकासान पहुँचाती है और हमारे पड़ोसियोंको भी नुकासान पहुँचाती है। ह., 11-1-’36 |
दिसम्बर 10
जब लोगोंके हाथमें राजनीतिक सत्ता आ जाती है, उस समय उनकी स्वतंत्रतामें हस्तक्षेप कमसे कम हो जाता है। दूसरे शब्दोंमे, जो राष्ट्र राज्यके ऐसे हस्तक्षेपके बिना अपना कारबार सुचारु रूपसे और असरकारक ढँगसे चलाता है, वह सच्चे अर्थमें लोकतांत्रिक राष्ट्र है। जब ऐसी स्थिति नहीं होती तब सरकारका रूप केवल नामके लिए ही लोकतांत्रिक होता है। ह., 11-1-’36 |
दिसम्बर 11
लोकतंत्र और हिंसा कभी एकसाथ चल ही नहीं सकते। जो राज्य आज केवल नामके लिए ही लोकतांत्रिक हैं, उन्हें या तो खुले तौर पर सर्वसत्ताधारी राज्य बन जाना चाहिये; अथवा यदि वे सच्चे अर्थमें लोकतांत्रिक बनना चाहें, तो हिम्मतके साथ उन्हें अहिंसक बन जाना चाहिये। यह कहना बिलकुल गलत है कि केवल व्यक्ति ही अहिंसाका आचरण कर सकते हैं, राष्ट्र कभी नहीं - जो व्यक्तियोंके ही बने होते हैं। ह., 12-11-’38 |
दिसम्बर 12
वही मनुष्य सच्चा लोकतंत्रवादी है, जो शुध्द अहिंसक साधनों द्वारा अपनी स्वतंत्रताकी रक्षा करता है और इसलिए जो अपने देशकी तथा अन्तमें सारी मानव-जातिकी स्वतंत्रताकी भी अहिंसक साधनोंसे रक्षा करता है। ह., 15-4-’39 |
दिसम्बर 13
जिन बातोंका संबंध अन्तरात्माके साथ होता है, उनमें बहुमतके कानूनके लिए कोई स्थान नहीं होता। यं. इं., 4-8-’20 |
दिसम्बर 14
हम बहुमतके आदेशके सिध्दान्तको खींचकर हास्यास्पद स्थिति तक न ले जायँ और बहुमत द्वारा पास किये गये प्रस्तावोंको गुलाम न बन जायँ। ऐसा करना पशुबलको अधिक प्रचंड रूपमें पुन जीवित करना होगा। अगर अल्पमतके अधिकारोंको आदर करना हो, तो बहुमतको अल्पमतवालोंकी रायका और कार्यका आदर करना चाहिये। ...यह देखना बहुमतका फर्ज होगा कि अल्पमतवालोंकी बात अच्छी तरह सुनी जाय और अन्य किसी प्रकारसे उनका अपमान न हो। यं. इं., 8-12-’21 |
दिसम्बर 15
बहुमतके शासनका संकुचित उपयोग है, अर्थात् मनुष्यको तफसीलकी बातोंमें बहुमतके सामने झुकना चाहिये। लेकिन बहुमतके चाहे जैसे निर्णयोंके अनुकूल बननेका अर्थ होगा गुलामी। यं. इं., 2-3-’22 |
दिसम्बर 16
लोकतंत्रके सिध्दान्तों पर चलनेवाले राज्यमें लोग भ़ेडोंकी तरह व्यवहार नहीं करते। लोकतंत्रमें व्यक्तिके मत और कार्यकी स्वतंत्रताकी सावधानीसे रक्षाकी जाती है। इसलिए मेरी यह मान्यता है कि अल्पमतको बहुमतसे भिन्न आचरण करनेका पूरा अधिकार है। यं. इं., 2-3-’22 |
दिसम्बर 17
किसी छोटे बच्चेको मौसमके असरसे बचानेके लिए आप रूईमें लपेटकर रखेंगे, तो उसका विकास रुक जायगा या वह मर जायगा। अगर आप उसे मोटा-ताजा और तगड़ा आदमी बनाना चाहते हैं, तो सारे मौसमोंमें उसके शरीरको खुला रहने दीजिये और उसे मौरसमोंका सामना करना सिखाइये। ठीक इसी प्रकार किसी भी सच्ची सरकारको चाहिये कि वह राष्ट्रकी प्रजाको अपने ही सामूहिक प्रयत्नों द्वारा अभावोंका, बुरे मौसमोंका और जीवनकी दूसरी कटिनाइयोंका सामना करना सिखाये; न कि उसे निष्क्रिय बनाकर किसी न किसी तरह जिवित रहनेमें उसकी मदद करे। दि. डा., पृ.242 |
दिसम्बर 18
सत्ता हाथमें आनेसे मनुष्य अंधे और बहरे दोनों बन जाते है। अपनी आंखोंके सामने होनेवाली बातोंको वे देख नहीं सकते और अपने कानों पर आक्रमण करनेवाली बातेंको वे सुन नहीं सकते। इस प्रकार यह कहना कठिन है कि सत्ताके नशेमें चूर सरकार क्या नहीं करेगी। इसलिए ...देशभक्तोंको मृत्युके लिए, जेलके लिए और ऐसे अन्य संभव परिणामोंके लिए तैयार रहना चाहिये। यं. इं., 13-10-’21 |
दिसम्बर 19
ईमानदारीसे की गई सेवाके फलस्वरूप जो सत्ता मिलती है, वह मनुष्यको ऊँचा उठाती है। जो सत्ता सेवाके नाम पर प्राप्त करनेकी कोशिश की जाती है और केवल बहुंसंख्यक मतोंके बल पर ही प्राप्त की जा सकती है, वह निरा घोखा और भ्रमजाल है, जिससे बचना चाहिये। यं. इं., 19-9-’24 |
दिसम्बर 20
सत्ता दो तरही होती है। एक दंडका भय दिखाकर प्राप्त की जाती है और दूसरी प्रेमकी कलासे प्राप्त की जाती है। प्रेम पर आधार रखनेवाली सत्ता दंडके भयसे प्राप्त होनेवाली सत्ताके बनिस्वत हजार गुनी ज्यादा स्थायी होती है। यं. इं., 8-1-’25 |
दिसम्बर 21
ऊपरसे लादी हुई सत्ताके सदा पुलिस और सेनाकी सहायताकी गरज होती है, जब कि भीतरसे पैदा होनेवाली सत्ताके लिए पुलिस और सेनाका बहुत थोड़ा या जर भी उपयोग नहीं होता। यं. इं., 4-9-’37 |
दिसम्बर 22
जो लोग आम जनताका नेतृत्व करनेका दावा करते हैं, उन्हें आम जनता द्वारा बताये गये मार्ग पर चलनेसे दृढ़तापूर्वक इनकार कर देना चाहिये – अगर हम भ़ीडके कानूनसे बचना चाहते हैं और देशकी व्यवस्थित प्रगति साधनेकी अभिलाषा रखते हैं। मैं मानता हूँ कि नेताओंके लिए केवल अपनी राय ही दृढ़तासे जाहिर करना काफी नहीं है; परन्तु अत्यन्त महत्त्वके मामलोंमें नेताओंको आम लोगोंकी रायके खिलाफ जाकर भी काम करना चाहिये, यदि लोगोंकी राय उनकी विवेक-बुध्दिको न जॅंचे। यं. इं.,23-2-’22 |
दिसम्बर 23
प्रेम और अहिंसा अपने असरमें बेजोड़ और बेमिसाल हैं। परन्तु उनके कार्यमें किसी प्रकारकी भाग-द़ैड, दिखावा, शोर-गुल या विज्ञापनबाजी नहीं होती। वे आत्म-विश्वासको पहलेसे ही मानकर चलते हैं, और आत्म-विश्वास आत्मशुध्दिको पहलेसे मानकर चलता है। निष्कलंक चरित्र तथा आत्मशुध्दिवाले मनुष्य आसानीसे लोगोंमें विश्वास पैदा करेंगे और अपने आसपासके वातावरणको अपने आप शुध्द कर देंगे। यं. इं., 6-9-’28 |
दिसम्बर 24
सुधारकके मार्ग पर गुलाबके फूल नहीं बिछे रहते, बल्कि कांटे बिछे होते है; और उस मार्ग पर उसे साधानीसे चलना पड़ता है। वह कांटोवाले मार्ग पर धीरे धीरे लंगड़ाते हुए ही चल सकता है, कभी कूदने या छलांग मारनेकी हिम्मत नहे कर सकता। यं. इं., 28-11-’29 |
दिसम्बर 25
सुधारका मार्गदर्शक करनेवाला नियम अन्तमें तो उसकी अन्तरात्माका आदेश ही है। ...अगर लोकमतने पहले ही किसी कानूनमें सुधार न करवा लिया हो अथवा उसे रद न करवा दिया हो, तो कुछ लोगोंका शुध्द और पवित्र कष्ट-सहन उसे सुधरवा लेगा। यं. इं., 7-2-’29 |
दिसम्बर 26
अगर आप अपने प्रति सच्चे और इमानदार हैं, तो बाहर हर तरहकी गड़बड़ी दिखाई देने पर भी आप स्वस्थ और शान्त रहेंगे। इसके बिपरीत, यदि आप अपने प्रति सच्चे और ईमानदार नहीं हैं, तो बाहर सब कुछ ठीक और व्यवस्थित दिखाई देने पर भी आपको शांति और स्वस्थता का अनुभव नहीं होगा। ह.,20-5-’39 |
दिसम्बर 27
मेरा देशप्रेम दूसरोंका बहिष्कार नहीं करता। वह सारे जगतको अपने भीतर समा लेनेवाला है। ऐसे देशप्रेमको मुझे स्वीकार नहीं करना चाहिये, जो दूसरे राष्ट्रोंकी मुसीबतोंसे लाभ उठाना चाहता है या दूसरे राष्ट्रोंका शोषण करना चाहता है। देशप्रेमकी मेरी कल्पनाका कोई अर्थ नहीं है, अगर वह हमेशा हरएक मामलेमें बिना किसी अपवादके सम्पूर्ण मानव-जातिके व्यापकसे व्यापक कल्याणके साथ सुसंगत न हो। यं. इं., 4-4-’29 |
दिसम्बर 28
मेरा इस बातमें विश्वास नहीं है...कि कोई व्यक्ति तो आध्यात्मिक दुष्टिसे लाभ प्राप्त करे और उसके आसपासके लोगोंको वह लाभ न मिले। मैं अद्वैतमें विश्वास रखता हूँ; मेरा मान-जातिकी मूल एकतामें और इसलिए सारे प्राणियोंकी मूल एकतामें विश्वास है। इसलिए मेरा यह विश्वास है कि अगर एक मनुष्यको आध्यात्मिक लाभ हो, तो उसके साथ सारे जगतको लाभ होता है; और अगर एक मनुष्य आध्यात्मिक दृष्टिसे नीचे गिरता है, तो उस हद तक सारा जगत नीचे गिरता है। यं. इं., 4-12-’24 |
दिसम्बर 29
यह देखते हुए कि सब मनुष्य समान रूपसे नैतिक कानूनके अधीन हैं, हम यह कह सकते हैं कि मानव-जाति एक है। ईश्वरकी दृष्टिमें सब मनुष्य समान हैं। बेशक, मानव-समाजमें जातिके, दरजेके और ऐसे ही दूसरे भेद रहेंगे; परन्तु मनुष्यका दरजा जितना ज्यादा ऊँचा होगा, इतनी ही बड़ी उसकी जिम्मेदारी होगी। ए.रि.,पृ. 57 |
दिसम्बर 30
जिस प्रकार देशभक्तिका धर्म आज हमें सिखाता है कि व्यक्तिको परिवारके लिए मरना चाहिये, परिवारको गाँवके लिए मरना चाहिये, गाँवको जिलेके लिए,जिलेको प्रतिके लिए और प्रांतको देशके लिए मरना चाहिये, उसी प्रकार देशको इसलिए स्वतंत्र होना चाहिये कि जरूरत पड़ने पर वह जगतके कल्याणके लिए मर सके। गां. इं.वि.,पृ.170 |
दिसम्बर 31
जो राष्ट्र अमर्यादित त्याग और बलिदान करनेकी क्षमता रखता है, वही अमर्यादित ऊँचाई तक उठनेकी क्षमता रखता है। बलिदान जितना अधिक शुध्द होगा, प्रगति उतनी ही अधिक तेज होगी। यं. इं., 25-8-’20 |