अगस्त
अगस्त 1
जो अर्थशास्त्र किसी व्यक्ति अथवा किसी राष्ट्रके नैतिक कल्याणको हानि पहुँचाता है, वह अनैतिक है और इसलिए पापपूर्ण है । इसी तरह जो अर्थशास्त्र एक देशको दूसरे देशका शोषण करने और उसे लूटनेकी इजाजत देता है वह अनैतिक है । शोषणके शिकार बने हुए मजदूरोंकी तनत़ेड मेहनसे तैयार की गई चीजें खरीदना और उनका उपयोग करना पाप है । यं.इं.,13-10-’21 |
अगस्त 2
जो अर्थशास्त्र नैतिकताकी और मानव-भावनाओंकी उपेक्षा करता है, वह मोमके उन पुतलोंकी तरह है जो जीवित-जैसे दिखायी देने पर भी जीवधारी मानवोंकी तरह प्राणवान नहीं होते । गहरा चिन्तन किये बिना ईजाद किये हुए आजके ये नये आर्थिक कानून कसौटीके हर मौके पर व्यवहार में निष्फल और व्यर्थ सिध्द हुए हैं । और जो राष्ट्र या व्यक्ति इन कानूनोंको अपने मार्गदर्शक स्वयंसिध्द सत्योंकि रूपमें स्वीकार करते हैं उनका नाश निश्चित है । यं.इं.,27-10-’21 |
अगस्त 3
अर्थशास्त्रके क्षेत्रमें अहिंसाके कानूनको ले जानेका अर्थ है उस क्षेत्रमें नैतिक मूल्योंको दाखिल करना । आन्तर-राष्ट्रीय व्यापारका नियमन करनेमें इन नैतिक मूल्योंका ध्यान रखना जरूरी है । यं.इं.,26-12-’24 |
अगस्त 4
एक स्थानसे दूसरे स्थानकी दूरी और समयके भेदको मिटाने, भोग-विलासकी भूखको बढ़ाने तथा उसकी प्राप्तिके साधनोंकी खोजमें धरती के एक छोरसे दूसरे छोर तक जानेकी इस पागलपनभरी इच्छासे मैं पूरे दिलसे नफरत करता हूँ । यदि आधुनिक सभ्यता इन्हीं सबकी प्रतीक हो, और मैं स्वयं तो इसे ऐसी ही मानता हूँ, तो मैं इस सभ्यताको शैतानी सभ्यता कहूँगा । यं.इं.,13-3-’27 |
अगस्त 5
मेरा लक्ष्य रेलों और अस्पतालोंको नष्ट करनेका नहीं हैं, यद्यपि वे स्वाभाविक रूपमें नष्ट हो जायँ तो मैं निश्चित ही उसका स्वागत करूँगा । रेलें अथवा अस्पतालें ऊँची और शुध्द सभ्यताकी कसौटी या मापदण्ड नहीं हैं । अधिकसे अधिक उनके पक्षमें कहा जाय तो वे एक आवश्यक बुराई हैं । दोनोंमें से एक भी किसी राष्ट्रकी नैतिक ऊँचाईमें एक इंचकी भी वृध्दि नहीं करती । यं.इं.,26-1-’21 |
अगस्त 6
एक स्थानसे दूसरे स्थान तक जानेके तेज साधनोंकी वजहसे दुनियाकी स्थितिमें क्या थोड़ा भी सुधार हुआ है? ये साधन मनुष्यकी आध्यत्मिक प्रगतिको किस प्रकार आगे बढ़ाते है? क्या वे अन्तमें इस प्रगतिको रोकते नहीं हैं? और क्या मनुष्यकी महात्त्वाकांक्षाकी कोई सीमा है? एक समय ऐसा था जब एक घंटेमें कुछ मीलकी यात्रा करके हम सुंतुष्ट रहते थे; आज हम एक घंटेमें सैकड़ों मीलका फासला तय करना चाहते हैं। एक दिन ऐसा भी आयेगा जब हम अंतिरिक्षमें उड़ना चाहेंगे । लेकिन इसका परिणाम क्या होगा? अव्यवस्था,अन्धाधुन्धी । यं.इं.,21-1-’26 |
अगस्त 7
मेरा यह पक्का विश्वास है कि यूरोप आज ईश्वरकी भावनाका या ईशाई धर्मकी सच्ची भावनाका नहीं, परन्तु शैतानकी भावनाका प्रतिनिधित्व करता है । और शैतानकी सफलता तब अपनी चरम सीमा पर पहुँच जाती है, जब वह अपने होठें पर ईश्वरका नाम लेकर सामने आता है । यूरोप आज केवल नामको ही ईसाका अनुयायी है । वास्तवमें वह धनकी ही पूजा कर रहा है । यं.इं.,8-9-’20 |
अगस्त 8
‘ब्रह्माने यज्ञके कर्तव्यके साथ अपनी प्रजाको उत्पन्न किया और कहाः ‘यज्ञकी सहायतासे तुम फलो-फूलो । वह तुम्हारी सारी कामनायें पूर्ण करे ।’ जो मनुष्य यह यज्ञ किये बिना खाता है, वह चोरीका अन्न खाता है ” - ऐसा गीता कहती है ।* ह., 29-6-’35 * गीताके जिन श्लोकोमें यह विचार व्यक्त किया गया है, वे इस प्रकार हैं :
सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्रवा पुरोवाच प्रजापति । (अ. 3, श्लो.10, 12) |
अगस्त 9
‘अपना पसीना बहाकर रोटी कमाओं’ यह बाइबलका वचन है । यज्ञ अनेक प्रकारके हो सकते हैं । उनमें से एक शरीर-श्रम अथवा रोटीके लिए श्रम भी हो सकता है । अगर सब लोग अपनी रोटी कमाने जितना ही श्रम करें, तो भी इस जगतमें सबके लिए पर्याप्त अन्न होगा और सबको काफी फुरसत मिलेगी । ह., 29-6-’35 |
अगस्त 10
उस स्थितिमें न तो आवश्यकतासे अधिक जनसंख्याका हल्ला मचेगा, न कोई रोग रहेगा और न ऐसा कोई दुःख-दर्द रहेगा जैसा आज हम अपने चारों ओर फैला हुआ देखते हैं । ऐसा श्रम यज्ञका उत्तम रूप होगा। बेशक, मनुष्य अपने शरीरों अथवा मस्तिष्कोंकी सहायतासे दूसरे अनेक काम करेंगे, परन्तु वह सब जन-साधारणके भलेके लिए किया जानेवाला प्रेमका श्रम होगा । उस हालतमें न तो दुनियामें अमीर और गरीब होंगे, न कोई ऊँचे और नीचे होंगे और न कोई स्पृश्य और अस्पृश्य होंगे । ह., 29-6-’35 |
अगस्त 11
यदि हम यज्ञके सम्पूर्ण नियमका – अर्थात् अपने जीवनके नियमका – पूरी तरह पालन न कर सकें और केवल अपनी रोजकी रोटीके लिए ही पर्याप्त शरीर-श्रम करें, तो भी हम इस आदर्शकी दिशामें काफी आगे बढ़ जायेंगे । अगर हम ऐसा करें तो हमारी आवश्यकताएँ कमसे कम हो जायँगी और हमारा भोजन सादा हो जायगा । तब हम जीनेके लिए खायेंगे, खानेके लिए नहीं जियेंगे । जिस किसीको इस कथनकी सचाईमें शंका हो, वह अपनी रोटीके लिए पसीना बहानेका प्रयत्न करे; वह अपने श्रमसे उत्पन्न की हुई चीजोंमें बड़ेसे बड़ा स्वाद और आनन्द प्राप्त करेगा, उसकी श्रध्दा शरीर-श्रममें बढेगी और उसे इस बातका पता चलेगा कि जो बहुतसी चीजें वह खाता था वे अनावश्यक थीं । ह., 29-6-’35 |
अगस्त 12
मैं ऐसे किसी समयकी कल्पना नहीं कर सकता जब कोई आदमी दुसरोंसे ज्यादा धनी नहीं होगा । लेकिन मैं ऐसे समयकी कल्पना अवश्य करता हूँ जब धनी लोग गरीबोंको नुकासान पहुँचा कर अपनी सम्पत्ति बढ़ानेसे नफरत करेंगे और गरीब लोग धनिकेंसे ईर्ष्या करना छोड़ देंगे । अधिकसे अधिक पूर्ण जगतमें भी हम असमानताओंको टाल नहीं सकेंगे । परन्तु हम संघर्ष और कड़वाहटको अवश्य टाल सकते हैं और हमें टालना चाहिये । यं.इं.,7-10-’26 |
अगस्त 13
मैं जो स्वप्न सिध्द करना चाहता हूँ वह मालिकोंकी व्यक्तिगत संम्पत्तिको लूटनेका नहीं है; वह तो सम्पत्तिके उपयोग पर अंकुश लगानेका स्वप्न है, जिससे सारी गरीबी टले, गरीबीसे पैदा होनेवाला असंतोष दूर हो तथा आज अमीरों और गरीबोंके जीवन और वातावरणमें जो भयंकर तथा अशोभन विरोध दिखाई देता है उसका अन्त हो । यं.इं.,21-11-’29 |
अगस्त 14
जड़ यंत्रोंको उन लाखें कऱेडो यंत्रोंकी बराबरी में नहीं खड़ा करना चाहिये, जो भारतके सात लाख गांवोंमें ग्रामवासियोंके रूपमें फैले हुए हैं । ह., 14-9-’35 |
अगस्त 15
यंत्रका अच्छा उपयोग यही होगा कि वह मनुष्यके श्रममें मदद करे और उसे आसान बनाये । आज यंत्रका जैसा उपयोग होता है वह लाखों पुरुषों और स्त्रियोंके मुँहकी रोटी छीन लेता है और उनकी बिलकुल परवाह न करके मुट्ठीभर लोगोंके हाथोंमें अधिकाधिक मात्रामें दौलत इकट्ठी करता है । ह., 14-9-’35 |
अगस्त 16
यंत्रके उपयोगका विचार करते समय हमारी दृष्टिमें प्रमुख स्थान मनुष्यका होना चाहिये । यंत्रके उपयोगका परिणाम मनुष्यके अंगोंको कमजोर और अपंग बनानेके रूपमें नहीं आना चाहिये । यं.इं.,13-11-’24 |
अगस्त 17
मैं यंत्रोंका विरोध नहीं करता, परन्तु यंत्रोंके लिए दिखाये जानेवाले पागलपनका विरोध करता हूँ । आज यह पागलपन उन यंत्रोंके लिए है, जिन्हें मेहनत बचानेवाले यंत्र कहा जाता है। मनुष्य तब तक ‘मेहनत बचाते चले जाते हैं ’ जब तक हजारों लोग बेकार नहीं हो जाते और खुले रास्तों पर भूखों मरनेके लिए नहीं फेंक दिये जाते । यं.इं.,13-11-’24 |
अगस्त 18
लेकिन यह प्रश्न पुछा जाता है कि लाखों लोगोंकी मेहनत बचा कर उन्हें साहित्य, संगीत, कला आदि बौध्दिक विषयोंके अध्ययन और विकासके लिए अधिक फुरसत क्यों न दी जाय? फुरसत एक हद तक ही अच्छी और जरूरी है । ईश्वरने मनुष्यको अपने पसीनेकी रोटी खानेके लिए उत्पन्न किया है । इस संभावनाके विषयमें सोच कर मैं डरजाता हूँ कि कहीं हम अपनी जरुरतकी सारी चीजें, जिनमें हमारे खाद्य-पदार्थ भी आ जाते हैं, जादूका मंत्र फूंककर पैदा करनेकी शक्ति न प्राप्त कर लें । ह., 16-5-’36 |
अगस्त 19
मैं कुछ लोगोंके लिए नहीं बल्कि सारी मानव-जातिके लिए समय और मेहनत बचाना चाहता हूँ । मैं कुछ लोगोंके हाथमें नहीं बल्कि सब लोगोंके हाथोंमें दौलत इकट्ठी करना चाहता हूं । आज यंत्र मुट्ठीभर लोगोंको लाखें मनुष्योंकी पीठ पर सवार होनेमें ही मदद करते हैं । इस सबके पीछे मेहनत बचानेके लिए मानव-दयाकी प्रेरणा काम नहीं करती, बल्कि मनुष्यका लोभ काम करता है । इसी परिस्थितिके खिलाफ मैं अपनी सारी शक्ति लगाकर लड़ रहा हूं । यं.इं.,13-11-’24 |
अगस्त 20
चरखेका आन्दोलन कुछ लोगोंके हाथमें धन और सत्ताका केन्द्रीकरण करने तथा अधिक लोगोंका शोषण करनेके स्थानसे यंत्रोंको हटाकर उनके उचित स्थान पर उन्हें बैठानेका संगठित प्रयत्न है । इसलिए मेरी योजनामें यंत्रोंका संचालन करनेवाले मनुष्य केवल अपना या अपने राष्ट्रका ही विचार नहीं करेंगे, परन्तु सारी मानवजातिका विचार करेंगे । यं.इं.,17-9-’25 |
अगस्त 21
चरखेके लिए मैं इस सम्मानका दावा करता हूं कि वह आर्थिक कष्टकी समस्याके अत्यन्त स्वाभाविक, सादे, सस्ते और व्यावहारिक रूपमें हल करनेकी क्षमता रखता है । इसलिए चरखा न केवल निकम्मा ही नहीं है...बल्कि वह हर घर और हर परिवारके लिए एक उपयोगी और अनिवार्य वस्तु है । वह हमारे राष्ट्रकी समृध्दिका प्रतीक है और इसलिए हमारी स्वतंत्रताका प्रतीक है । वह व्यापारिक युध्दका नहीं, परन्तु व्यापारिक शान्तिका प्रतीक है । यं.इं.,8-12-’21 |
अगस्त 22
चरखेमें दुनियाके राष्ट्रोंके लिए दुर्भावनाका नहीं, परन्तु सद्भावना और आत्म-सहायताका सन्देश समाया हुआ है । चरखेके संरक्षणके लिए विशाल जहाजी बेड़े और जलसेनाकी जरूरत नहीं होगी, जो विश्वकी शांतिके लिए एक खतरा बन जाती है और उसकी साधन-सामग्रीका शोषण करती हैं; चरखेके लिए जरूत है लाखों स्त्री-पुरुषों द्वारा अपने घरोंमें ही अपना सूत कातनेका धार्मिक संकल्प करनेकी, जिस तरह आज वे अपना भोजन अपने घरोंमें ही तैयार कर लेते हैं । यं.इं.,8-12-’21 |
अगस्त 23
जब मैं रूसको देखता हूँ, जहाँ उद्योगवादकी देवताकी तरह पूजा होने लगी है, तो वहाँका जीवन मुझे पसन्द नहीं आता । बाईबलकी भाषाका उपयोग किया जाय तो “अगर मनुष्यको सारी दुनियाका राज्य मिल जाय और वह अपनी आत्माको खो दे, तो दुनियाका राज्य उसके लिए किस कामका” आधुनिक भाषामें कहा जाय तो अपना व्यक्तित्व खोकर मशीनका एक पुर्जा बन जान मानव-प्रतिष्ठाके विरुध्द है । मैं चाहता हूं कि हर मनुष्य समाजका प्राणवान और पूर्ण विकसित सदस्य बने । ह., 28-1-’39 |
अगस्त 24
अंतिम विश्लेषणमें साम्यवादका क्या अर्थ है? उसका अर्थ है वर्ग-विहीन समाज। यह एक ऐसा आदर्श है, जिसकी प्राप्तिके लिए प्रयत्न किया जाना चाहिये । मैं तभी उससे अपना सम्बन्ध तोड़ता हूँ, जब उसे सिध्द करनेके लिए पशुबल – हिंसा – की सहायता ली जाती है । हम सब समान उत्पन्न हुए हैं; लेकिन हमने इन सारी शताब्दियोंमें ईश्वरकी इच्छाका विरोध किया है । असमानताका विचार, ‘ऊंच और नीच’ का भाव एक बुराई है; लेकिन मनुष्यके हृदयसे इस बुराईका उच्छेद तलवार या बन्दूककी मददसे करनेमें मेरा विश्वास नहीं है । मानव- हृदयको बदलनेमें ये साधन उपयोगी सिध्द नहीं होते । ह., 13-3-’37 |
अगस्त 25
हर मनुष्यको जीवनकी जरूरतें हासिल करनेका समान अधिकार है, जिस प्रकार पक्षियों और पशुओंको है । और चूंकि हरएक अधिकारके साथ उसके अनुरूप कर्तव्य जुड़ा रहता है तथा उस परहोनेवाले आक्रमण विरोध करनेके लिए अनुरूप उपाय भी ज़ुडा रहता है, इसलिए प्राथमिक मूलभूत समानताकी स्थापना करनेके लिए केवल उसके साथ जुड़े हुए कर्तव्यों और उपायोंका पता लगाना ही बाकी रह जाता है । उसके साथ जुड़ा हुआ कर्तव्य है अपने हाथ-पैरोंसे श्रम करना; और उपाय है उस मनुष्यके साथ असहोग करना, जो हमें अपने श्रमके फलसे वंचित है । यं.इं.,26-3-’31 |
अगस्त 26
अधिकारोंका सच्चा स्त्रोत कर्तव्य है । अगर हम सब अपने कर्तव्योंका पालन करें, तो अधिकारोंको खोजने बहुत दूर नहीं जाना पड़ेगा । अगर अपने कर्तव्योंका पालन किये बिना हम अधिकारोंके पीछे द़ैडते हैं, तो वे मृगजलके समान हमसे दूर भागते हैं । हम जितना ज्यादा उनका पीछा करते हैं, उतने ही ज्यादा वे हमसे दूर भागते हैं । यही उपदेश भगवान कृष्णके इन अमर श्ब्दोंमे समाया हुआ हैः ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन’ - केवल कर्म पर ही तेरा अधिकार है, उसके फल पर कभी नहीं । इस वाक्यमें कर्म कर्तव्यका सूचन है और फल अधिकारका । यं.इं.,8-1-’25 |
अगस्त 27
मजदूर-वर्गको अपना गौरव और अपनी शक्ति पहचाननी चाहिये । मजदूरोंकी तुलनामें पूंजीपातियोंमें न तो गौरव है और न शक्ति है । ये दोनों चीजें सामान्य मनुष्यके पास भी होती हैं । किसी सुव्यवस्थित समाजमें अराजकता या हडतालोंके लिए कोई अवकाश या मौका ही नहीं है। ऐसे समाजमें न्याय प्राप्त करनेके लिए काफी कानूनी साधन होते हैं । उसमें छिपी या खुली हिंसाके लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिये । दि. डा., पृ. 381 |
अगस्त 28
पूजीपति मजदूरों पर नियंत्रण रखते हैं, क्योंकि वे मेल या संयोजनकी कला जानते हैं । पानीकी बूँदे अलग अलग रहती हैं तो वे सूख जाती हैं; वे ही बूँदें अपसमें मिल करमहासागरको बनाती हैं, जो अपने विशाल पट पर बड़े बड़े जहाज ले जाता है । इसी प्रकार दुनियाके किसी भी भागमें अगर सारे मजदूर मिलकार संगठित हो जायँ, तो वे ऊँची तनखाहोंके लोभमें नहीं फँसेंगे, या लाचार बनकर थोड़ेसे भत्तेकी ओर आकर्षित नहीं होंगे । ह., 7-9-’47 |
अगस्त 29
मजदूरोंका सच्चा और अहिंसक संगठन सारी आवश्यक पूंजीको अपनी ओर खींचनेमे चुम्बकका काम करेगा । उस हालतमें पूंजीपति केवल ट्रस्टियोंकी तरह ही रहेंगे । कोई फर्क नहीं रह जायेगा। उस समय मजदूरोंको पूरा खाना मिलेगा, अच्छे और हवा-प्रकाशवाले साफ-सुथरे मकान मिलेंगे, उनके बच्चोंको सारी आवश्यक शिक्षा मिलेगी, उन्हें अपने आपको शिक्षा देनेके लिए पूरा समय मिलेगा और उपयुक्त डॉक्टरी मदद मिलेगी । ह., 7-9-’47 |
अगस्त 30
अमेरिका आज बड़े बड़े उद्योगोंकी दृष्टिसे दुनियाका सबसे आगे बढ़ा हुआ देश है । फिर भी वह गरीबी और नैतिक पतनको देशनिकाला नहीं दे पाया है । इसका कारण यह है कि अमेरिकाने सब जगह उपलब्ध मानव-शक्तिकी उपेक्षा की और मुट्ठीभर लोगोंके हाथोंमें सत्ताको केन्द्रित कर दिया, जिन्होंने अनेक लोगोंको चूस कर और दुःखी बनाकर सम्पत्ति जमा कर ली । नतीजा यह है कि अमेरिकाका अद्योगीकरण उसके अपने गरीबोंके लिए और बाकीकी दुनियाके लिए एक भारी संकट बन गया है । ह., 9-3-’47 |
अगस्त 31
अगर भारतको ऐसे सर्वनाश और बरबादीसे बचना हो, तो उसे अमेरिका और दूसरे पश्चिमी देशोंकी उत्तम बातोंका अनुकरण करना चाहिये और उनकी ऊपरसे आकर्षक दिखाई देनेवाली परन्तु वास्तवमें नाशकारी अर्थिक नीतियोंसे अलग रहना चाहिये । इसलिए भारतकी दृष्टिसे सच्ची योजना यह होगी कि उसकी सम्पूर्ण मानव-शक्तिका उत्तम उपयोग किया जाय और भारतके कच्चे मालको विदेशोंमे भेजनेका बजाय उसके असंख्य गाँवोंमे ही बाँटा जाय; क्योंकि कच्चा माल विदेशोंमें भेजनेका अर्थ होगा उससे बनी तैयार चीजोंको भारी दाम चुकाकर खरीदना । ह., 23-3-’47 |