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उध्दरणोंके स्त्रोत

अप्रैल

अप्रैल 1

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दुनियाके समस्त धर्म उसी एक बिन्दु पर पहुँचनेवाले अलग अलग मार्ग है। जब तक हम एक ही लक्ष्य पर पहुँचते हो तब तक यदि हम अलग अलग मार्ग ग्रहण करें तो उसकी क्या चिन्ता है?

हिं स्व.,पृ.65


अप्रैल 2

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एक ईश्वरमें विश्वास हर धर्मका आधार है। लेकिन मैं भविष्यमें ऐसे किसी समयकी कल्पना नहीं करता, जब इस धरती पर व्यवहारमें केवल एक ही धर्म रहेगा।  सिध्दान्तकी दृष्टिसे चूंकि ईश्वर एक है, इसलिए धर्म भी एक ही हो सकता है। परन्तु व्यवहारमें ऐसे कोई दो मनुष्य  मेरे जाननेमें नहीं आये, जो ईश्वरके विषयमें एकसी ही कल्पना करते हों। इसलिए मनुष्यकि विभिन्न स्वाभावों तथा विभिन्न भौगोलिक परिस्थितियोंकी जरूरतें पूरी करनेके लिए शायद धर्म भी सदा भिन्न ही रहेंगे।

ह., 2-2-’34


अप्रैल 3

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मैं जगतके समस्त महान धर्मोंके मूलभूत सत्यमें विश्वास रखता हूँ। मेरा यह विश्वास है कि वे सब ईश्वर-प्रदत्त हैं और मेरा यह भी विश्वास है कि वे धर्म उन प्रजाओंकि लिए आवश्यक थे,  जिनके बीचमें उनका प्रकटीकरण हुआ था। मैं मानता हूँ  कि अगर हम सब विभिन्न  धर्मोके धर्मग्रन्थोंको उन धर्मोंकि अनुयायियेंकि दृष्टिकोणण्से पढ़ सकें, तो हमें पता चलेगा कि बुनियादमें वे सब एक हैं और सब एक-दूसरेके सहायक हैं।

ह., 16-2-’34


अप्रैल 4

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मेरा यह विश्वास है कि दुनियाके समस्त महान धर्म  लगभग सच्चे हैं। ‘लगभग’ मैं इसलिए कहता हूँ कि मेरा ऐसा विश्वास है कि मनुष्यका हाथ जिस किसी वस्तुको छूता है वह अपूर्ण हो जाती है; इसका कारण यह सत्य है कि मनुष्य स्वयं अपूर्ण है।

यं.इं.,22-9-’27


अप्रैल 5

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पूर्णता एकमात्र ईश्वरका गुण है। और वह गुण अवर्णनीय है, शब्दोंमे उसे समझाया नहीं जा सकता। मेरा यह विश्वास अवश्य है कि प्रत्येक मानवके लिए  ईश्वरके समान पूर्ण बनना संभव है। उस पूर्णताकी आकांक्षा रखना हम सबके लिए आवश्यक है। परन्तु जब वह दिव्य आनन्दमय स्थिति प्राप्त होती है, तब उसका वर्णन करना और उसकी व्याख्या करना असंभव होता है।

यं.इं.,22-9-’27


अप्रैल 6

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यदि हमें सत्यका पूर्ण दर्शन हो जाय तो फिर हम केवल सत्यशोधक नहीं रहेंगे, बल्कि ईश्वरके साथ एकरूप हो जायेंगे, क्येंकि सत्य ही ईश्वर है। परन्तु केवल शोधक होनेके कारण हम अपनी शोधको आगे बढ़ाते हैं और अपनी अपूर्णताका हमें भान रहता है। और यदि हम स्वयं अपूर्ण हों, तो हमारे द्वारा कल्पित धर्म भी  अपूर्ण ही होना चाहिये।

यं.इं.,प्रक. 10


अप्रैल 7

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जिस प्रकार हमने ईश्वरका साक्षात्कार नहीं किया है, उसी प्रकार हमने धर्मका भी उसके पूर्ण रूपमें साक्षात्कार नहीं किया है। हमारी कल्पनाका धर्म इस प्रकार अपूर्ण है, इसलिए वह सदा विकासकी प्रक्रियाके अधीन रहेगा और बार बार उसका नया अर्थ किया जायेगा। केवल ऐसे विकासके  कारण ही सत्यकी ओर, ईश्वरकी ओर, प्रगति करना हमारे लिए संभव है। और यदि मनुष्यों द्वारा योजित सारे धर्म अपूर्ण हों, तब तो यह प्रश्न ही नहीं उठता कि उनमें  से कौनसा अधिक अच्छा है और कौनसा कम अच्छा है।

य. मं., प्रक.10


अप्रैल 8

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सारे धर्म सत्यको प्रकट करते हैं, परन्तु सभी अपूर्ण हैं और सबमें दोष हो सकते हैं। दूसरे धर्मोंके प्रति आदर-भाव रखनेका यह मतलब नहीं कि हम उनके दोषोके प्रति ध्यान न दें। हमें अपने धर्मके दोषोंके प्रति भी अत्यन्त जाग्रत रहना चाहिये। परन्तु  दोषोंके कारण उसका त्याग नहीं करना चाहिये, बल्कि उन दोषोंको मिटानेका प्रयत्न करना चाहिये।  सब धर्मोंके प्रति समभावसे देखने पर हम दूसरे धर्मोंके प्रत्येक स्वीकार करने योग्य तत्त्वका अपने धर्ममें समन्वय करनेमें कभी संकोच नहीं रखेंगे, बल्कि ऐसा करना अपना धर्म समझेंगे।

य.मं.,प्रक.10


अप्रैल 9

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जिस  प्रकार किसी वृक्षका तना एक होता है, परन्तु शाखायें और पत्ते अनेक होते है; उसी प्रकार सच्चा और पूर्ण धर्म तो एक ही है, परन्तु जब वह मानवके माध्यमसे व्यक्त होता है तब अनेक रुप ग्रहण कर लेता है।

य. मं.,प्रक.10


अप्रैल 10

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प्रार्थनापूर्ण शोध ओर अध्ययनके आधार पर तथा सथासंभव अधिकसे अधिक लोगोंके साथ चर्चा करनेके बाद मैं आजसे बहुत पहले इस निर्णय पर पहुँच चुका था कि संसारके सभी धर्म सच्चे हैं और उन सबमें कुछ दोष भी है; और अपने धर्मका दृढ़तासे पालन करते हुए मुझे दूसरे सब धर्मोंको हिन्दू धर्मके समानही प्रिय समझना चाहिये। इससे उचित रूपमें ही यह निष्कर्ष भी निकतला है कि सब मनुष्योंको हमें अपने निकटतम स्वजनोंकी तरह ही प्रिय मानना चाहिये और उनके बीच हमें कोई भेद नहीं करना चाहिये।

यं.इं.,19-1-’28


अप्रैल 11

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ईश्वरका दिया हुआ एक धर्म अगम्य है – वाणीसे परे है। अपूर्ण मानव उसे अपनी अपनी भाषामें रखते हैं और उनके शब्दोंका अर्थ दूसरे मनुष्य करते हैं, जो स्वयं उतने ही अपूर्ण हैं। ऐसी स्थितिमें किसके अर्थको सही माना जाय? प्रत्येक मानव अपने दृष्टिकोणसे सच्चा है, परन्तु यह असंभव नहीं  कि प्रत्येक मानव गलत हो। इसीलिए सहिष्णुताकी जरूरत पैदा होती है। इस सहिष्णुताका अर्थ यह नहीं कि हम अपने धर्मकी उपेक्षा करें, परन्तु यह है कि अपने धर्मके प्रति हम अधिक ज्ञानमय, अधिक सात्त्विक और अधिक निर्मल प्रेम रखें।

य.मं.,प्रक.10


अप्रैल 12

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सहिष्णुता हमें आध्यात्मिक अन्तर्दृष्टि  प्रदान करती है, जो धर्मान्धतासे उतनी ही दूर है जितना उत्तरी धुवसे दक्षिणी धुव। धर्मका सच्चा ज्ञान एक धर्म और दूसरे धर्मके बीचकी दीवालोंको तोड़ देता है।

य.मं., प्रक.10


अप्रैल 13

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सहिष्णुताके लिए यह जरूरी नहीं है कि जिस चीजको मैं सहन करता हूँ उसका मैं समर्थन भी करूँ। मद्यपान, मांसाहार और धूम्रपानको मैं बिलकुल पसन्द नहीं करता; लेकिन मैं हिन्दुओं, मुसलमानों और ईसाइयोंमें इन बुराइयोंको सहन करता हूँ – जिस प्रकार मैं इन चीजोंके अपने त्यागको सहन करनेकी उनसे आशा रखता हूँ, भले ही वे मेरे इस त्यागको नापसन्द करें।

यं.इं.,25-2-’20


अप्रैल 14

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जो धर्म व्यावहारिक बातोंका विचार नहीं करता और उनकी समस्याओंको हल करनेमें सहायक नहीं बनता, वह धर्म ही नहीं है।

यं.इं.,7-5-’25


अप्रैल 15

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मैं मानवोचित आचरणसे अलग किसी धर्मको नहीं जानता। धर्म दूसरी सब प्रवृत्तियोंको नैतिक आधार प्रदान करता है, जो अन्य किसी प्रकारसे उन्हें प्राप्त नहीं होता। और जिन मानव-प्रवृत्तियोंके पीछे कोई नैतिक आधार नहीं होता, वे जीवनको ‘िनरर्थक शोर-गुल और तीव्र भाग-दौड़ ’ की भूल-भुलैया बना देती हैं।

ह.,24-12-’38


अप्रैल 16

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मेरी दृष्टिसे धर्मसे कोई सम्बन्ध न रखनेवाली राजनीति बिलकुल कूड़ा-करकट जैसी है, जिससे हमें सदा दूर ही रहना चाहिये। राजनीतिका सम्बन्ध राष्ट्रोंसे होता है; और जिसका सम्बध राष्ट्रोंके कल्याणके साथ होता है, वह धर्मनिष्ठ मनुष्यके जीवनका – दूसरे शब्दोंमें ईश्वर और सत्यकी शोध करनेवाले मनुष्यके जीवनका एक विषय होना ही चाहिये।

यं.इं.,18-6-’25


अप्रैल 17

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मेरी दृष्टिमें ईश्वर और सत्य एक-दूसरेका स्थान ले सकनेवाले शब्द हैं। और यदि कोई  मुझेसे  कहे कि ईश्वर असत्यका देवता है अथवा त्रासका देवता है, तो मैं उसकी पूजा करनेसे इनकार कर दूँगा। इसलिए राजनीतिमें भी हमें दैवी राज्यकी स्थापना करनी होगी।

यं.इं.,18-6-’25


अप्रैल 18

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एक अच्छे हिन्दू या अच्छे मुसलमानको अपने देशका प्रेमी होनेका कारण अधिक अच्छा हिन्दू अथवा अधिक अच्छा मुसलमान  होना चाहिये। हमारे देशके सच्चे हित और हमारे धर्मके सच्चे हितके बीच कभी कोई संघर्ष हो ही नहीं सकता। जहाँ ऐसा कोई संघर्ष दिखाई देता है, वहाँ हमारे धर्ममें अर्थात् हमारी नीतिमें कोई दोष होना चाहिये। सच्चे धर्मका अर्थ है अच्छे विचार और अच्छा आचरण। सच्चे देश प्रेमका अर्थ भी अच्छे विचार और अच्छा आचरण होता है। दो समानार्थक वस्तुओंके बीच तुलना करना गलत है।

यं.इं.,9-1-’30


अप्रैल 19

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मानव-परिवारके हम सब सदस्य तत्त्वज्ञानी नहीं हैं। हम धरतीके प्राणी हैं। हम अदृश्य ईश्वरका ध्यान धरकर अन्तुष्ट नहीं होते। किसी न किसी प्रकार हम ऐसी कोई वस्तु चाहते हैं, जिसे हम छू सकें, जिसे हम देख सकें और जिसके सामने हम घुटनांके बल नम्रभावसे झुक सकें। फिर भले वह कोई ग्रंथ हो, या पत्थरका खाली मकान हो, या अनेक मूर्तियोंसे भरा काई पत्थरका मकान हो। कुछ लोगोंको ग्रंथसे संतोष हो जायगा,  दूसरे कुछको खाली मकानसे सन्तोष होगा और दूसरे बहुतसे लोगोंको तब तक सन्तोष नहीं होगा जब तक वे इन खाली मकानोंमें किसी मूर्तिको स्थापित हुई नहीं देखते।

ह., 23-1-’37


अप्रैल 20

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मन्दिरोंमें जानेसे हमें कोई लाभ होता या नहीं होता, यह हमारी मानसिक स्थिति पर निर्भर करता है। इन मंदिरोंमें हमें नम्रताकी और पश्चात्तापकी भावनासे जाना चाहिये। वे सब ईश्वरके निवास हैं। बेशक, ईश्वर हर मुनष्यमें रहता है, उसकी सृष्टिके हर परमाणुमें उसका वास है, इस पृथ्वीकी हर वस्तुमें उसका निवास है। परन्तु क्योंकि हम अत्यंत प्रमादी मानव इस सत्यको नहीं समझते कि ईश्वर सर्वत्र विद्यमान है, इसलिए हम मंदिरों पर विशिष्ट पवित्रताका आरोपण करते हैं और मानते हैं कि ईश्वर उन मंदिरेंमें रहता है।

ह.,23-1-’37


अप्रैल 21

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जब हम इन मंदिरोंमें जायँ तब हमें अपने शरीर, अपने मन और अपने हृदय स्वच्छ और शुध्द कर लेने चाहिये। हमें प्रार्थनामय वृत्तिसे मंदिरोमें प्रवेश करना चाहिये; और ईश्वरसे प्रार्थना करनी चाहिये कि वह वहाँ आनेके फलस्वरूप हमें अधिक पवित्र पुरुष और अधिक पवित्र स्त्री बनावे। और यदि आप इस बूढ़े आदमीकी सलाह मानें, तो मैं कहूँगा कि आपने जो शारीरिक मुक्ति – अस्पृश्यतासे मुक्ति – प्राप्त की है, यह आत्माकी मुक्ति सिध्द होगी।

ह.,23-1-’37


अप्रैल 22

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कड़वे अनुभवने मुझे यह सिखाया है कि सारे मन्दिर ईश्वरके निवास नहीं होते। वे शैतानके निवास भी हो सकते हैं। पूजाके ये स्थान तब तक कोई मूल्य नहीं रखते जब तक उनका पुजारी ईश्वरका भक्त न हो।  मन्दिर, मसजिद और गिरजाघर वैसे ही होते हैं जैसे मनुष्य उन्हें बनाता है।

यं.इं.,19-5-’27


अप्रैल 23

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यदि किसीको भगवानकी असीम दयामें शंका हो, तो वह इन तीर्थस्थानेंको देखे। वह महायोगी इन पवित्र स्थानोंमे अपने नाम पर चलनेवाला कितना  ढोंग, अधर्म और पाखंड सहन करता है?

आ.क., पृ.222


अप्रैल 24

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जब हम विशाल नीले आकाशके नीचे निरन्तर नया रूप लेनेवाले उस मन्दिरको देखते हैं, जो  धर्मके नाम पर झगड़ा कर ईश्वरके नामका दुरुपयोग करनेके बजाय ईश्वरकी सच्ची पूजाके लिए हमें आमंत्रण देता है, तो इतने ढोंग और पाखंडको आश्रय देनेवाले तथा गरीबसे गरीबको अपने भीतर प्रवेश न करने देनेवाले ये गिरजाघर, मसजिद और मन्दिर ईश्वरका और उसकी पूजाका केवल मजाक उड़ानेवाले स्थल मालूम होते हैं।

ह., 5-3-’42


अप्रैल 25

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अस्पृश्यता हिन्दू धर्मको उसी प्रकार विषैला बनाती है, जिस प्रकार जहरका एक बूँद दूधको विषैला बना देता है।

यं.इं.,20-12-’27


अप्रैल 26

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आजके हिन्दू धर्मको  कलंक लगानेवाला यह ‘मुझे-न-छूओ’ - वाद एक प्रकारका रोग है। वह केवल मनकी जड़ताको और अंधे मिथ्याभिमानको ही प्रकट करता है। धर्मकी भावना और नीतिमत्ताके साथ उसका बिलकुल मेल नहीं बैठता।

ह., 20-4-’34


अप्रैल 27

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मेरे विचारसे अस्पृश्यता हमारे जीवनको लगा हुआ एक अभिशाप है। और जब तक वह अभिशाप हमारे साथ रहता है तब तक मेरे खयालसे हमें यही मानना पड़ेगा कि इस पवित्र भूमि पर जो भी दुःख हम भोगते हैं, वह हमारे इस घोर और कभी न मिट सकनेवाले अपराधका उचित और उपयुक्त दंड ही है।

स्पी. रा. म., पृ. 384


अप्रैल 28

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क्या इस बातको देखनेकी दृष्टि हममें नहीं आयेगी कि अपने छठे भागको (या जो भी संख्या हो ) दबाकर हमने अपने आपको दवा दिया है, नीचे गिरा दिया है? कोई मनुष्य दूसरेको खड्डेमें नहीं उतरता और ऐसा करके पापका भागी नहीं बनता। दबे हुए लोग पाप नहीं करते। पापी तो दबानेवाला है, जिसे अपने उस अपराधका उत्तर देना होगा, जो वह उन लोगोंकि प्रति करता है जिन्हें वह दबाता है।

यं.इं.,29-3-’28


अप्रैल 29

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ईश्वर ‘'\सीधी सजा नहीं देता। उसके तरीके गूढ़ होते हैं। कौन जानता है कि हमारे सारे दुःख-दर्द और मुसीबतें इस एक काले पापके कारण नहीं हैं?'

यं.इं.,29-5-’24


अप्रैल 30

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स्वराज्य बिलकुल निरर्थक शब्द है, यदि हम भारतके पाँचवे भागके लोगोंको हमेशा गुलामीमें रखना चाहें और जान-बुझकर उन्हें राष्ट्रीय संस्कृतिके फलोंका उपभोग करनेसे वंचित रखें। आत्मशुध्दिके इस महान आन्दोंलनमें हम ईश्वरकी सहायता चाहते हैं, परन्तु उसके प्राणियोंमें सबसे योग्य मनुष्योंको हम मानवताके अधिकारोंसे वंचित रखते हैं। स्वयं कूर और निर्दय होते हुए हम दूसरोंकी कूंरतासे अपनेको मुक्त रखनेकी प्रार्थना भगवानके  सिंहासनके सामने जाकर नहीं कर सकते

यं.इं.,25-25-’21


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