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स्वतत्रता-पूर्व और स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी काव्य पर महात्मा गाँधी का प्रभाव

डॉ. सुशीला गुप्ता

महात्मा गाँधी भारत के मसीहा थे। उनमें इनसानी अच्छाइयाँ कूट-कूट कर भरी थीं। उन अच्छाइयों का प्रयोग वे अपने लिए नहीं, समाज के लिए और देश के लिए करते थे। उनकी अच्छाइयों की ख़ासियत यह थी कि वे सामान्य आदमी की समझ में आनेवाली और सामान्य आदमी के इर्द-गिर्द घूमनेवाली थीं। भारत देश को ही नहीं, समूचे संसार को अँधेरे से उजाले की ओर ले जानेवाले गाँधीजी का इनसानी अच्छाइयों से परिपूर्ण होना इस धरती के इतिहास की सबसे गाढ़ी स्याही से लिखी गयी उपलब्धि मानी जा सकती है।

गाँधीजी के बताये हुये रास्ते पर चलकर भारत  देश को स्वतत्रता मिली, इसलिए वे निश्चित रूप से राजनीति के पुरुष थे। उनकी राजनीति आदर्शों और उसूलों पर टिकी थी, जिसमें कहीं भी किसी प्रकार से डिगने की गुंजाइश नहीं थी। दक्षिण अ़फ्रीका के सत्याग्रह आन्दोलन के साथी हेनरी एस. एन. पोलक से एक बार उन्होंने कहा था, "लोग कहते हैं कि मैं संत हूँ, मगर राजनीति में फँसकर अपने आपको गँवा रहा हूँ। पर सच बात यह है कि मैं एक राजनीतिज्ञ हूँ और संत बनने का भगीरथ प्रयत्न कर रहा हूँ।''1 एक दूसरी जगह उन्होंने कहा है, "मेरा उद्देश्य धार्मिक है, परन्तु मानवता से एकाकार हुए बिना मैं धर्म-पालन का मार्ग नहीं देखता। इसी काम के लिए मैंने राजनीति का रास्ता चुना है, क्योंकि इस रास्ते में मनुष्यों से एकाकार होने की गुंजाइश है। मनुष्य की सारी कोशिशें, सारी प्रवृत्तियाँ एक हैं। समाज और राजनीति से धर्म अलग रखा जाय, यह मुमकिन नहीं। जो मनुष्य में क्रियाशीलता है, वही उसका धर्म भी है; जो धर्म मनुष्य के दैनिक कार्यों से अलग होता है, उससे मेरा परिचय नहीं है।2

मनुष्यों से एकाकार होनेवाली उनकी राजनीति छल-कपट और धोखाधड़ी तथा असत्य से भरी राजनीति से कोसों दूर थी। उनकी राजनीति के दो मुख्य तऱीके थे - सत्य और अहिंसा, जिसके बल पर उन्होंने दुनिया को दिखा दिया कि बिना ख़ून-ख़राबे के कैसे आज़ादी हासिल की जा सकती है। राजनीति का नाता धर्म और समाज से जोड़कर और धर्म की मौजूदगी मनुष्य के दैनिक कामों में देखकर ही उन्होंने साप्रदायिकता के ख़िलाफ़ अपनी आवाज़ बुलन्द की। उन्हें साप्रदायिक दंगों में अपने प्राणों की परवाह न करते हुए लोगों के बीच उनके दु:ख-दर्द का भागीदार बनते हुए अनेक भारतवासियों ने अपनी आँखो से देखा है। रामधारी सिंह दिनकर के अनुसार "वस्तुत: लगभग सौ वर्षो तक भारत देश ने जो आत्म-मंथन किया था, पराधीनता की ग्लानि को धोने के लिए अपनी श्रेष्ठ शक्तियों का चिन्तन और ध्यान किया था, गाँधीजी उसी तपस्या के वरदान बनकर प्रकट हुए थे। एक ओर भारत अपनी स्वतत्रता-प्राप्ति के लिए व्यग्र था, दूसरी ओर संसार अपनी समस्याओं के समाधान के लिए व्याकुल था, गाँधीजी दोनों की मनोकामना पूर्ण करने के लिए आये थे।3

एक बार गाँधीजी के एक मित्र ने उनसे 'अहिंसा के सिद्धांत' पर एक निबन्ध लिखकर देने के लिए कहा। उत्तर में गाँधीजी ने कहा "इस प्रकार से निबन्ध लिखकर किसी सिद्धांत का प्रचार करना मेरी शक्ति के बाहर की बात है। मेरा निर्माण शास्त्रीय रचनाओं के लिए नहीं हुआ है। अपनी दृष्टि से जिसे मैं अपना कर्तव्य समझता हूँ और जो मेरे सामने आता है, मैं कहता हूँ। आज उसे जिस वस्तु की अभिलाषा है और भविष्य में भी रहेगी, वह है सच्चा कर्म। जिस मनुष्य को इस भूख को मिटाने की लगन लग जायेगी, वह शास्त्र-रचना में अपना अमूल्य समय व्यर्थ नहीं गँवायेगा।4

गाँधीजी की विचार-धारा को एक प्रकार से आध्यात्मिक मानववाद कहा जा सकता है, जिसके मूल आधार हैं सत्य और अहिंसा। उनकी दृष्टि में "सत्य के साक्षात्कार से समबुद्धि प्राप्त होती है और समबुद्धि से सबके प्रति अहिंसा का भाव उत्पन्न होता है। उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया है कि अहिंसा सत्य का ही दूसरा पहलू है। उनके अनुसार अहिंसा सत्य का भाव-पक्ष है, इसका अर्थ केवल हिंसा का अर्थात् द्वेष-बैर का अभाव नहीं, वरन् प्रेम का भाव है। गाँधीजी की इस अहिंसा में द्वेष-बैर-त्याग, चराचर-प्रेम और पूर्ण निष्काम भाव की सेवा का समन्वय है।5 इस अहिंसा की भावना ने ब्रिटिश ह़ुकूमत के प्रति शत्रुता नहीं, असहयोग के सिद्धांत की नींव रखी। असहयोग आन्दोलन ने लोगों को देश-भक्ति की भावना से प्रेरित हो त्याग और बलिदान के लिए प्रोत्साहित किया। आत्मनिर्भरता की दृष्टि से स्वदेशी आन्दोलन को भी महत्त्व मिला।

महात्मा गाँधी के नेतृत्व में देशवासियों ने स्वराज्य-आन्दोलन शुरू किया। सन् 1942 में गाँधीजी ने 'करो या मरो' का नारा दिया था। प्रथम पंक्ति के नेताओं के बंदी होने पर जब गाँधीजी ने ऐलान किया कि प्रत्येक देशवासी अपना नेता ख़ुद है तो सबकी आत्मशक्ति से नयी-नयी पहचान हुई। गणेश शंकर विद्यार्थी के राष्ट्रीय पत्र 'प्रताप' के अंको में एक लम्बे समय से ऐसे गान प्रकट हो रहे थे, जो राष्ट्र के ओज और उत्साह के साथ सत्याग्रह के दर्शन की पूरी मुद्रा लिए हुए थे। इस आन्दोलन की रूपरेखा पूर्ण रूप से शान्तिमय थी, फिर भी वह केवल विरोध ही नहीं था। वह अन्याय के विरोध का एक निश्चित, किन्तु अहिंसात्मक रूप भी था। वह आत्मबल था और एक नि:शस्त्र राष्ट्र का अहंकार ही न होकर उसकी अजर-अमर आत्मा का जाग्रत् स्वाभिमान था।6 इस सत्याग्रह आन्दोलन की मूल प्रेरणा गाँधीजी के गीता-विषयक दृष्टिकोण से आयी थी, जिसके अनुसार अहिंसा पर आधारित आन्दोलन में प्राणों की बाज़ी लगाने की सबसे बड़ी ज़रूरत थी।

द्विवेदी-युग के जिन प्रारंभिक कवियों ने महात्मा गाँधी की राष्ट्रीय भावना से प्रभावित हो काव्य-सृजन किया, उनमें बंधु-द्वय मैथिलीशरण गुप्त और सियारामशरण गुप्त का नाम बड़े आदर से लिया जाता है। गाँधी जी के सिद्धांतो से प्रभावित हो खद्दरधारी मैथिलीशरण गुप्त ने काव्य-जगत् में उदात्त भावनाओं की स्थापना की। गाँधी जी स्वयं उनकी कृति 'भारत-भारती' से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने कहा, "गुप्त जी भारतीय भावनाओं का प्रतिनिधित्व करनेवाले कवि हैं, इसलिए मैं तो उन्हें राष्ट्रकवि कहकर पुकारूँगा।'' भारतवासियों के मन में राष्ट्रीय चेतना जगानेवाले कवि मैथिलीशरण गुप्त को पूरे राष्ट्र ने राष्ट्रकवि के रूप में स्वीकार कर लिया।

'भारत-भारती' के माध्यम से मैथिलीशरण गुप्त ने राष्ट्रीय चेतना जगाने का कार्य किया है। 'भारत-भारती' ऊँघते हुए अलसाये देश के लिए जागरण काव्य है, उद्बोधन काव्य है, आत्मकेन्द्रित मनुष्य में राष्ट्रीयता का भाव भरनेवाला काव्य है-

सुख और दु:ख में एक-सा सब भाइयों का भाग हो,

अन्त:करण में गूँजता राष्ट्रीयता का राग हो।

'विशाल भारत' के माध्यम से मैथिलीशरण गुप्त ने जन-जागृति लाने का प्रयास किया है। चारों ओर हाहाकार मचा है, पृथ्वी पर धर्म नहीं, धन के प्रति आकर्षण बढ़ता जा रहा है, ऐसे समय में गुप्त जी अधीर हो भारत को उसकी ज़िम्मेदारी का अहसास कराते हैं -

धर्म राम का, कर्म कृष्ण का, प्रेम बुद्ध का धार,

कौन सँभाल सकेगा तुमको स्वयं स्वरूप सँभाल,

और अहिंसा महावीर की, सर्व समन्वय सार,

उठ ओ, बृहद् विराट विशाल।

गुप्त जी की दृष्टि में भारत की एकता और अखंडता की रक्षा के लिए बलिदान का रास्ता ही ज़रूरी रास्ता है। भारत की मर्यादा की रक्षा हमें जैसे-तैसे नहीं, बलिदानी बनकर करना होगा -

उठो बन्धुगण करो विवेक, हो चाहे जितना बलिदान,

जैसे हो, हो जाओ एक। जिये हमारा हिन्दुस्तान।

राष्ट्रीय यज्ञ में वीरता और संयम का संदेश मिलता है गुप्तजी के 'जयद्रथ-वध' नामक खंड-काव्य से। अभिमन्यु बिना इस बात की चिन्ता किये कि चक्रव्यूह से वह बाहर कैसे निकलेगा, माता और पत्नी से विदा लेकर युद्ध-भूमि में प्रवेश करता है और न्याय-युद्ध करता है। अभिमन्यु के माध्यम से कवि ने बलिदानी युवकों को वीरता और संयम का अद्भुत सन्देश दिया है।

प्रकृति-विजय कर लेने से मनुष्य विजयी नहीं माना जा सकता, यदि उसके दिल में मानव-मात्र के लिए सद्भावना नहीं है। अनेक देशों पर विजय प्राप्त करनेवाला मनुष्य सफल नहीं माना जा सकता, यदि वह मनुष्यों के दिल नहीं जीत सकता। 'पृथिवीपुत्र' कविता पर स्पष्ट रूप से गाँधीवादी विचार-धारा का प्रभाव है, जिसमें मानव-धर्म-पालन को प्रमुख बताया गया है। पृथिवी-पुत्र दंभी है, वह युद्ध करना चाहता है और विश्व-विजय के लिए व्याकुल है। वह जब पृथिवी माता से अपने विकास की कथा कहता है तो वह उत्तर देती है -

मैं तो देखती हूँ लाख-लाख गुना तुझमें,

विकसित गृध वही साधनों के साथ हैं।

मानव ने प्रकृति पर विजय पा ली है, परन्तु केवल बाह्य प्रकृति पर। भीतर की प्रकृति - घृणा, ईर्ष्या, द्वेष, हिंसा, लोभ, मोह, मत्सर, मद - पर तो उसने विजय पायी नहीं है। अन्य मनुष्यों के प्रति दुर्भावना समाप्त किये बिना वास्तविक विकास कहाँ! वास्तविक विकास के लिए महात्मा गाँधी द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत है, 'जीओ और जीने दो'। आगे बढ़ो, ऊँचे चढ़ो, परन्तु अकेले नहीं, सबको लेकर -

उठ बढ़, ऊँचा चढ़ संग लिये सबको,

नाश में लगी जो बुद्धि, विलसे विकास में,

सबके लिए तू और तेरे लिए सब हैं।

गर्व करूँ मैं भी निज पुत्रवती होने का।

गुप्त जी ने बतलाया है कि सच्ची मनुष्यता का स्वरूप स्वार्थ-त्याग, समता, लोक-सेवा और निष्काम कर्म में है, उसका पालन करनेवाल स्वत: मुक्त है -

जहाँ स्वार्थ का सर्वथा त्याग है

जहाँ कामना छोड़के कर्म है,

सभी के लिए एक-सा भाग है।

जहाँ आप ही आप उद्धार है,

जहाँ लोक-सेवा महाधर्म है,

मनुष्यत्व ही मुक्ति का द्वार है।

गुप्त जी के `िदवोदास' में आत्म-संग्रह और त्याग का उपदेश देते हुए दिवोदास प्रजाजनों से कहते हैं -

किन्तु आत्म-संग्रह पहले है, पीछे कोई त्याग।

करके निज कर्तव्य स्वयं हम मानेंगे संतोष,

फल अपने हैं, किन्तु अफल में नहीं हमारा दोष।

अपने अग्रज की ही तरह सियारामशरण गुप्त भी खद्दरधारी थे और मन-प्राण से गाँधीजी के अनुयायी थे। गाँधीजी का मूल मंत्र है मानव-उपासना। सियारामशरण जी जीवन-पर्यन्त इसी  मानव-उपासना में लगे रहे, जिसकी अभिव्यक्ति 'मौर्य-विजय', 'अनाथ', 'आर्द्रा', 'दूर्वादल', 'आत्मोत्सर्ग' और 'बापू' में दिखायी देती है। सियारामशरण जी को सम्बोधित करते हुए 'बापू' की भूमिका में श्री महादेव देसाई ने लिखा है, "आपकी गगरी का पानी पीकर बड़ी प्रसन्नता हुई। आप ठीक कहते हैं कि बापू एक बड़ा तीर्थ हैं। उस तीर्थ के विपुल सलिल से जिसकी जितनी शक्ति हो, उतना ही ले सकता है।7

श्री सियारामशरण की दृष्टि में बापू तमिस्र-जाल को छिन्न-भिन्न करते हुए जिस ओर गये, वहीं नये मार्ग का निर्माण हुआ -

छिन्न-भिन्न करके तमिस्र जाल

तुम जिस ओर गये

निकल पड़े हैं वहीं मार्ग नये

दुर्गम दुरूह में से शंका-समाधान-सम।

कवि ने विनाश के कगार पर खड़े समाज की समस्याओं का निदान प्रेम में ढूँढ़ा है। प्रेम की महिमा अपार है -

प्रेम है स्वयं ही क्षेत्र,

प्रेम की ही अन्त में विजय है।

प्रेम-रत्न नित्य ही ज्योतिर्मय है,

फैला दो उसी का मृदु दीप्त हास।

हिंसा के तमिस्र का स्वयं हो ह्रास।

महात्मा गाँधी के सबन्ध में उन्होंने लिखा है -

"लाया है पराई पीर नरसी के घर से''।

गाँधीजी के अभिनंदन में सियारामशरण गुप्त ने प्रेम और अहिंसा के साधना-पथ का उल्लेख किया है -

भुवन हो प्रिय प्रेम दीक्षित,

आज नव निर्वैर पथ हो विश्व को गन्तव्य,

शुचि अहिंसा में परीक्षित,

आज का आनन्द हो चिरकाल का कर्तव्य।

महात्मा गाँधी ने अस्पृश्यता-निवारण के लिए घोर संघर्ष किया था। उन्होंने लिखा है, "मैं फिर से जन्म नहीं लेना चाहता, लेकिन यदि लेना भी पड़े तो मैं अस्पृश्य के रूप में पैदा होना चाहूँगा, जिससे मैं उनकी वेदनाओं, कष्टों और उनके साथ किये जानेवाले व्यवहारों में साझीदार हो सकूँ।8 'एक फूल की चाह' नामक कविता में सियारामशरण जी ने एक अछूत की वेदना और सामाजिक विडम्बना का बड़ा मर्मस्पर्शी वर्णन किया है।

अपनी कविता से जीवन की आराधना करनेवाले माखनलाल चतुर्वेदी की कविताओं में जहाँ ग़ुलामी की पीड़ा है, वहीं उत्सर्ग और बलिदान का आनंद है। मातृभूमि को पराधीनता से मुक्त कराने की प्रेरणा प्रदान करनेवालों में महात्मा गाँधी के सिद्धांतो के प्रति आस्थावान माखनलालजी का नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित है। उन्होंने बलिदान के कठिन मार्ग से काव्य की मधुरता का सीधा सम्बन्ध स्थापित करना ही अपना कवि-धर्म समझा। उनके अनुसार दान में प्रतिदान की कामना नहीं होनी चाहिए, भले ही वह बलिदान के स्तर का हो। प्रतिदान की कामना बलिदान को छोटा व तुच्छ बना देती है। बलिदानी ऐसा बलिदान दे कि उसकी हाज़िरी पहले लगे। उसके बलिदान में निष्काम भाव हो और उसे अपनी पहचान नहीं, देश के नवनिर्माण का आश्वासन मिले -

मैं पहला पत्थर मंदिर का, अनजाना पथ जान रहा हूँ,

गड़ूँ नींव में, अपने कंधे पर मन्दिर अनुमान रहा हूँ।

भीष्म-प्रतिज्ञा, लव-कुश-कौशल और पार्थ-पुत्र-बल का स्मरण करते हुए चतुर्वेदी जी भविष्य के प्रति आशान्वित थे। उन्हें विश्वास था कि भारत के भावी विद्वान भारत का दु:ख हरेंगे। वे सूरज को सावधान करते हैं और मातृभूमि को धीरज प्रदान करते हैं, पश्चिम को चेतावनी देते हैं कि वह अपनी नीति बदले और गंभीरता धारण करे, क्योंकि -

कर्मक्षेत्र में आते हैं अब

कई करोड़ दुखों से व्याकुल

करने को जननी का त्राण

भारत के भावी विद्वान।

कर्म-क्षेत्र की दुहाई देते हुए कवि ने भावी विद्वानों पर कितनी बड़ी ज़िम्मेदारी डाल दी!

माखनलाल जी ने वाणी-अभिव्यक्ति में बाधक प्रेस एक्ट का ज़ोरदार विरोध किया था। उन्होंने कहा कि 'सन् 1857 में हमारे बाप-दादा लड़े, वे बहादुर थे, कायर कभी नही लड़ सकते'।9 ब्रिटिश सत्ता द्वारा बंदी बनाये जाने पर अपने म़ुकदमे की पैरवी करते हुए माखनलाल जी ने कहा था, "मैं इस या किसी भी ब्रिटिश कोर्ट से न्याय कराने के लिए ज़रा भी उत्सुक नहीं हूँ। इस बयान को पेश करने की मेरी यह आन्तरिक प्रेरणा है कि मैं इस शासन-प्रणाली की नैतिक दुष्टता को प्रकट करने के पवित्र कर्तव्य का और भी अधिक पालन करूँ। मैं अपनी मातृभूमि को पराधीनता से मुक्त कराने के लिए इससे और अच्छी सेवा नहीं कर सकता कि उसके लिए ख़ुशी से, धैर्य से कष्ट सहूँ। मैं अपने देशवासियों को इसी मार्ग का अवलम्बन करने की सिफ़ारिश करता हूँ।10 कर्म-मार्ग पर चलने का इससे अच्छा उदाहरण और क्या हो सकता था! उनकी स्वयं की कोई आकांक्षा नहीं - निष्काम कर्म ख़ुशी से, धैर्य से कष्ट सहन करने की प्रेरणा देता है। महात्मा गाँधी ने उनकी गिरप़्तारी की चर्चा करते हुए 'यंग इंडिया' में लिखा, "पंडित माखनलाल स्वतंत्र रहने की अपेक्षा अपनी आत्मा के लिए जेल जाकर अपने देश की अच्छी सेवा कर रहे है।11 गणेश शंकर विद्यार्थी ने उनकी गिरप़्तारी का विरोध करते हुए लिखा, ''हिन्दी साहित्य के कवीन्द्र और भारत के हेनरी फ्ऱेडरिक को पकड़ लेना हृदयहीनता नहीं तो क्या है!12 ब्रिटिश सत्ता ने भले की हृदयहीनता का परिचय दिया हो, चतुर्वेदी जी तो स्वयं को राष्ट्र का सैनिक समझते थे -

हूँ राष्ट्रीय सभा का सैनिक

उसकी ध्वनि पर मर मिटने में

छोटा-सा अनुगामी हूँ।

मैं ख़ुद अपना स्वामी हूँ।

नि:स्वार्थ बलिदान का उदात्त स्वरूप दिखायी देता है कर्म-मार्ग के पथिक पुष्प की अभिलाषा में -

मुझे तोड़ लेना वनमाली,

मातृभूमि पर शीश चढ़ाने,

उस पथ पर देना तुम फेंक;

जिस पथ जावें वीर अनेक।

यह पुष्प चतुर्वेदी का ही हृदय-पुष्प है, जो अपना अभीष्ट मार्ग वहीं देखता है, जहाँ से बलिदानी पुरुष गुज़रते हैं। उन बलिदानियों के पैरों का वह स्पर्श कर सके, उनके पैरों-तले रौंदा जाये, कुचला जाये, भले ही नष्ट हो जाये, ऐसी चाहत, नि:स्वार्थ बलिदान और निष्काम कर्म का ऐसा बेजोड़ उदाहरण कहाँ मिलेगा! 'मरण-ज्वार' की भूमिका में इस बात का उल्लेख है कि "देश-प्रेम और बलिदान की जो उदात्त भावना इस कविता को चिरस्मरणीय बनाये हुए है, वह मात्र किसी एक राष्ट्र की भावना नहीं है, न वह किसी सामयिक स्वतत्रता-संग्राम की प्रसूति-मात्र है, अपितु वह एक सार्वभौमिक सार्वकालिक वस्तु है, जो अपनी ज्योति से सतत ज्योतिष्मान है।13

गाँधी जी की अहिंसा-नीति के कारण स्वतत्रता-संग्राम की वीरता में बलिदानी की भावना कवियों की लेखनी द्वारा लगातार ज़ोर पकड़ती रही। स्वतत्रता-संग्राम के निर्भीक वीर सैनिक बालकृष्ण शर्मा 'नवीन' ने देश के बलिदानी का शिखर पर चढ़ने के लिए आह्वान किया। बलि-पथ के सुन्दर जीव को थकने का नाम नहीं लेना है, उसे जीवन के कुंज के समस्त आकर्षण को छोड़कर नृत्य-गीत के साथ ताल मिलाना है और माँ की मुंडमाला में अपना शीश पिरोना है। बलिदानी के जीवन का मोहक बन्ध कट जाने देकर पूजा सम्पन्न करने के लिए मरण का सुप्रबन्ध कर लेना है -

है जीवन अनित्य, कट जाने दे तू मोहक बन्ध,

कर दे पूजा आज मरण का तू अपना सुप्रबन्ध।

जन-सामान्य से सीधे जुड़ने की गाँधीवादी भावना से प्रेरित हो 'नवीन' भरत-खंड के जन-गण का आह्वान करते हैं, देश की इस धरती का शृंगार करने के लिए और जननी का भंडार करने के लिए -

आमंत्रण यह तुम्हें कि इस माटी का शृंगार करो तुम,

युग कहता है कि इस भूमि का यह दरिद्रता भार हरो तुम,

आह्वान है तुम्हें कि अपनी जननी का भंडार भरो तुम।

स्नायु-तन्तु-सारंगी में हो सहश्रम वृन्द वाद्य की झनझन

भरत खंड के तुम हे जन-गण।

सुभद्राकुमारी चौहान देश की पुकार से विह्वल हो देश के इतिहास को पानी-चढ़े दुधारों से बनने देने की कामना करती हैं। देशवासियों की लाली से माँ का मस्तक लाल होगा, तभी काली जंजीरें टूटेंगी -

आज तुम्हारी लाली से माँ के मस्तक पर हो लाली।

काली ज़ंजीरें टूटें, काली जमना में हो लाली।

कवि सोहनलाल द्विवेदी का अटूट विश्वास है कि बिना शीश-दान के माँ की कड़ियाँ नहीं टूटेंगी -

आँसू बिखराते बीतेंगी, जलती जीवन-घड़ियाँ।

बिना चढ़ाये शीश, नहीं टूटेंगी माँ की कड़ियाँ।

महात्मा गाँधी के स्वतत्रता-आन्दोलन से छायावाद कवि भी अछूते नहीं रहे। छायावाद-युगीन साहित्य में देश-प्रेम और लोक-कल्याण की कविताएँ मिलती हैं। वास्तव में वह युग ही राजनीतिक हलचल का युग था। स्वतत्रता के महायज्ञ में प्राणों की आहुति और असंतोष की आग का भड़कना निरन्तर जारी था। जयशंकर प्रसाद की लेखनी से देश का जो गुणगान हुआ है, वह इतने व्यापक धरातल पर है कि किसी भी देश का वासी उस गीत को गाकर आत्म-विभोर हो सकता है -

अरुण यह मधुमय देश हमारा,

जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा।

प्रसाद के 'हमारा भारतवर्ष' गीत में आत्मगौरव का परम ओजस्वी उद्बोधन मिलता है -

वही है रक्त, वही है देह, वही साहस है वैसा ज्ञान।

वही है शांति, वही है शक्ति, वही हम दिव्य आर्य सन्तान।

जियें तो सदा उसी के लिए, यही अभिमान रहे यह हर्ष।

निछावर कर दें हम सर्वस्व, हमारा प्यारा भारतवर्ष।

महादेवी वर्मा व्यक्तिगत पीड़ा से नहीं, समष्टिगत व्यथा से दुखी हैं -

मेरे गीले पलक छुओ मत

संसृति की कड़ियाँ देखो

मुरझाई कलियाँ देखो।

निराला जी ने भारतमाता को मूर्त स्वरूप प्रदान कर उसकी विजय-कामना की है। इस विजय-गीत का स्वर युगों तक गूँजता रहेगा -

भारति, जय विजय करे

गर्जितोर्मि सागर-जल

कनक शस्य कमल।

धोता शुचि चरण युगल

लंका पदतल शतदल

स्तव कर बहु अर्थ भरे।

सुमित्रानन्दन पंत भी अपने देश भारत का जयगान करते हैं -

ज्योति भूमि,

ज्योति चरण धर जहाँ सभ्यता

जय भारत देश।

उतरी तेजोन्मेष।

गाँधी विचारधारा से प्रभावित हो पंत जी भारत देश को सत्य-अहिंसा का सन्देश-वाहक और मानवता का निर्माता मानते हैं। भारतमाता की वन्दना करते हुए वे कहते हैं -

जय नव मानवता निर्माता,

प्रयाण तूर्य बज उठे

सत्य अहिंसा दाता।

 पटह तुमुल गरज उठे

जय हे जय हे शांति अधिष्ठाता।

विशाल सत्य सैन्य, लौह भुज उठे।

शक्ति स्वरूपिणी, बहुबल धारिणी,

वंदित भारतमाता।

छायावादोत्तर काल के कवियों ने मानवतावादी भावना में सहज तरंग पैदा करने का गुरुतर कार्य किया। उन्होंने मृत्यु या अगति से साक्षात्कार तो किया, परन्तु उसकी उपासना नहीं की। जीवन का अर्थ है जीना। निराशा के गर्त में गिरे हुए समाज को कवि बच्चन अग्निपथ पर चलने की क़सम दिलाते हैं -

तू न थकेगा कभी!

तू न मुड़ेगा कभी! कर शपथ, कर शपथ, कर शपथ!

तू न थकेगा कभी!

अग्निपथ! अग्निपथ! अग्निपथ!

कवि अंचल इस बात का ऐलान करते हैं कि उनके सामने जो नया कठिन पथ है, उसमें वे अकेले नहीं हैं -

मैं निस्संग नहीं, मुझमें है जीवन के असंख्य कोलाहल,

पीछे घूम नहीं देखूँगा कुटी, ज़िन्दगी का बीता सुख,

साथ चल रही मेरे कोटि-कोटि भूखे-नंगों की हलचल।

पीछे उल्कानाद, तुम्हारा होगा नया कठिन पथ सम्मुख।

कवि दिनकर के चिन्तन की दिशा यही धरती, इसी धरती का कर्म और यही ज़िन्दगी थी। 'रश्मिरथी' में कवि ने धर्म की व्याख्या इस प्रकार की है -

है धर्म पहुँचना नहीं, धर्म तो

फैलाकर पथ पर स्निग्ध ज्योति

जीवन भर चलने में है।

दीपक-समान जलने में है।

महात्मा गाँधी गीता द्वारा प्रतिपादित इस सिद्धांत के समर्थक थे कि हमारा साध्य ही नहीं, साधन भी निष्कलुष होना चाहिए। 'रश्मिरथी' का कर्ण इसी सिद्धांत का साकार रूप है।

कवि की दृष्टि में आदमी बड़ा वह है, जो कर्म-पथ का पथिक है -

बड़ा वह आदमी जो ज़िन्दगी-भर काम करता है।

नयी पीढ़ी को कवि यही सन्देश देना चाहता है -

श्रम है केवल सार, काम करना अच्छा है।

स्वतत्रता-पूर्व का युग गाँधी-युग था। गाँधी-युग में 'जो कथनी है, वही करनी हो' का सन्देश जन-जन तक सहज ही पहुँच रहा था। साध्य और साधन दोनों की पवित्रता अपरिहार्य हो, कर्म-मार्ग ही जीवन का असली मार्ग हो, धरती की मिट्टी से जुड़े रहकर ही देश-सेवा हो और सबसे बढ़कर बलिदानी बनकर ही स्वतत्रता-संग्राम में सहभागिता हो, इन नीतियों को कवियों की लेखनी द्वारा सीधी और पैनी अभिव्यक्ति मिली। प्रत्येक जन भारत देश का प्रतीक है, उसकी आज़ादी ही देश की आज़ादी होगी, इन मंत्र को जन-जन में फूँकनेवाले गाँधीजी ने अपने युग में सब देशवासियों का नेतृत्व किया और उनसे प्रेरणा ग्रहणकर हिन्दी के कवियों ने जीवन-मूल्यों की पवित्रता का अपनी कृतियों में मान रखा।

स्वतत्रता-प्राप्ति के पश्चात् देश का परिदृश्य बदला। जो अपने को बलिदानी कहते थे, उनमें से अनेक के हाथ में देश की सत्ता आयी। एक युग का पटाक्षेप हुआ और दूसरे युग का उदय हुआ। लोकनेताओं की प्राथमिकताएँ धीरे-धीरे बदलने लगीं। 'जो कथनी, वही करनी' का सिद्धांत फीका पड़ने लगा। कर्ममय जीवन का इतना महत्त्व न रहा। जिस कांग्रेस के विसर्जन की बात गाँधीजी कह गये थे, उसके केन्द्र में व्यक्ति प्रधान बन गया, देश गौण हो गया। उनके सिद्धांतों की दिन-दहाड़े हत्या होने लगी। गाँधी इतिहास-पुरुष बन गये, देश-नेता का ख़िताब औरों ने झटक लिया। कवियों का मोह-भंग हुआ। जो कवि नवीन बौद्धिक वातावरण से क्षुब्ध थे, उन्होंने देश के कर्णधारें की और उनकी नीतियों, आचरणों और सिद्धांतों की खुलकर आलोचना की।

स्वातंत्र्योत्तर काल के क्षुब्ध कवियों में माखनलाल चतुर्वेदी भी थे। दिनकर जी यदा-कदा देश की दुर्दशा पर आँसू बहाते रहे, दिल्ली के इठलाने पर व्यंग्य कसते रहे, जनता के लिए सिंहासन खाली करने की गुहार लगाते रहे, परन्तु अन्त में अध्यात्म की ओर मुड़ गये और उर्वशी-लोक में विचरण करने लगे, परन्तु माखनलाल चतुर्वेदी की न वाणी मंद हुई, न लेखनी थमी। कहते हैं, उन्होंने एक बार हरी घास पर लेटे-लेटे सामने दूर से गुलाब की झाड़ के चारों ओर एक मंत्रमुग्ध साँप के जोड़े को चक्कर लगाते हुए देखा। उस जोड़े ने उन्हें सिखाया कि मुसीबतों में जो मौन रह सके, वही साहित्य की सेवा कर सकता है।14 उन्होंने अपनी कठिनाइयों का ढिंढोरा नहीं पीटा, लेकिन स्पष्टोक्ति से भी परहेज़ नहीं किया। स्वतत्रता-प्राप्ति के बाद जब उन्होंने वह सब घटते हुए देखा, जिसकी उन्हें अपेक्षा नहीं थी, तो उनकी लेखनी का तिलमिलाना स्वाभाविक था -

अधनंगे अब भी कुछ हैं, सेवा-ग्रामों में,

पर देश-भक्त 'पद ले' कीर्ति निचोड़ चले।

शपथें रावी के तट पर खायीं,

यमुना के तट पर तोड़ चले।

पदों पर गर्व करनेवालों का उन्होंने खुलकर तिरस्कार किया -

तेरी हर बात पर रीझे, न तू उस वाह का स्वर सुन,

तड़पते हार खाते, सिर चढ़े गुमराह का स्वर सुन।

पद-लोलुप देश-भक्तों के वर्तमान असन्तोष को देख माखनलाल चतुर्वेदी अतीत की चुनौतियों का स्मरण करते हैं और वर्तमान पीढ़ी को दो टूक सुना देते हैं -

मेरी पीढ़ी जागृत-बलि थी, फूली थी,

तो देश सहस्रों युग ठीकरें उठाता।

प्रभुता के घर तो सिर्फ़ एक सूली थी।

अब तुम पद-लोलुप देश-भक्त अनदेखे।

युग अगर ठीकरा लेने से बच जाता

कुछ हुआ नहीं हो भले तुम्हारे लेखे।

पुरुषार्थ हमारा बाना है, हम मरने से नहीं डरते, मरते तो कायर-लोलुप पशु हैं, पौरुष के दूत नहीं मरते, लेकिन माखनलाल चतुर्वेदी को गाँधी-जयन्ती के दिन कुछ और ही असलियत का सामना करना पड़ता है -

महँगे हो गये पदों से अपने साथी सब,

चलती हैं मिल की ठाठ-बाट से दूकानें

महँगी रेलें, महँगे जहाज़, महँगी दुनिया,

रोता है बस माधो कोरी, रहमत धुनिया।

कवि नागार्जुन और उनके साथी प्रगतिवादी कवि भी यही महसूस करते हैं कि स्वतत्र देश के जिस स्वरूप से उनका सामना हो रहा है, उससे तो उनके सारे सपने चकनाचूर हो गये हैं। उनके संवेदनशील हृदय ने अनुभव किया कि उनके सपनों को साकार करनेवाली स्वतत्रता का आगमन अभी नहीं हुआ है, उसका आगमन अभी शेष है। नागार्जुन ने देखा कि स्वतत्रता की वास्तविक प्राप्ति देश को नहीं, वरन् कुछ मुट्ठी भर लोगों को ही हुई है -

घर-बाहर भर गया तुम्हारा

व्यर्थ हुई साधना, त्याग कुछ काम न आया

रत्ती भर भी हुआ नहीं उपकार हमारा,

कुछ ही लोगों ने स्वतत्रता का फल पाया।

स्वतत्रता-प्राप्ति के बाद भी ग़रीब, भूखे, नंगे और बेसहारा जहाँ थे, वहीं पड़े हैं। नागार्जुन प्रश्नों के ढेर लगा देते हैं-

इसीलिए क्या हमने तुमको इन दुर्बल कंधों पर ढोया?

इसीलिए क्या हमने तुमको रंग-विरंगी वे मालाएँ पहनायी थीं?

इसीलिए क्या परम पवित्र तिरंगा झंडा तुमको हमने दिया थामने?

इसीलिए क्या तुमको हमने अपने आगे खड़ा किया था?

प्रश्न उठता है, आधुनिक युग का कवि-धर्म केवल आक्रोश उगलना ही है? और उस आक्रोश में उसकी गाँधी-दर्शन पर कितनी आस्था शेष है? नागार्जुन भूखे रहकर, गंगा में घुटने-भर धँसकर, तिल और जल से वृद्ध पितामह का तर्पण करके उन्हें ठगना नहीं चाहते, क्योंकि यह तो अपने आपको ठगना होगा। वे गाँधीजी के अनगनित सपनों को तो साकार करने में विश्वास करते हैं, परन्तु सत्य और अहिंसा की खोल ओढ़कर शत्रुओं की दाल नहीं गलने देना चाहते।

झूठ को बेऩकाब करने के काम में अग्रणी दिखायी देते है भवानी प्रसाद मिश्र। आपातकाल के दौरान अनेक कवियों की वाणी स्पष्टोक्ति से परहेज़ करती रही। नागार्जुन को जेल में डाल दिया गया। हाँ, महादेवी वर्मा अपनी निर्भीक वाणी में सदा बोलती रहीं। भवानीप्रसाद जी ने 'मंगल प्रभात' का 'लय-विलय' के रूप में रूपान्तर किया। वे प्रतिदिन तीन कविताएँ लिखते रहे। उन्हीं दिनों उन्होंने 'चार कौए उर्फ़ चार हौए' कविता लिखी थी -

कभी कभी जादू हो जाता है दुनिया में,

ये औगुनिए चार बड़े सरताज हो गये,

दुनिया-भर के गुण दिखते हैं औगुनिया में,

इनके नौकर चील, गरुड़ और बाज हो गये।

संवेदनशील लोगों के लिए, विशेष करके कवियों के लिए हर क्षण, हर पल कोई-न-कोई युद्ध चल रहा है, परन्तु वह युद्ध ऐसा है, जो वर्तमान विसंगतियों पर करारा प्रहार करते हुए गाँधीजी के बताये रास्ते की ओर ले जाता है। सर्वेश्वरदयाल सक्सेना की दृष्टि में -

कितने छोटे हैं वे मोर्चे

उस लड़ाई के आगे

वे सामरिक चालें

जो इनसानियत के सन्दर्भ में इनसान लड़ता है।

कवि इनसानियत को ज़िन्दा रखना चाहता है, इसलिए वह लड़ता है, किसी-न-किसी युद्ध में शऱीक होता है। अनागत पथ का रास्ता निकालना है तो वहीं से निकलेगा और निकालेगा हमारा कवि। धर्मवीर भारती को कवि की वाणी पर अगाध आस्था है -

भटके हुए व्यक्ति का संशय,

ऐसे किसी अनागत पथ का

इतिहासों का अन्धा निश्चय,

पावन माध्यम-भर है

दे दोनों जिसमें पा आश्रय

मेरी आकुल प्रतिभा

बन जायेंगे सार्थक समतल

अर्पित रसना, गैरिक वसना, मेरी वाणी।

कवि की आशा जीवित है, यह राष्ट्र के लिए शुभ लक्षण है। महात्मा गाँधी ने अपनी नीतियों में यह स्पष्ट कर दिया था कि सत्य और अहिंसा का परित्याग करके हमें देश की आज़ादी भी नहीं चाहिए। उनकी इस नीति का संकेत नरेश मेहता 'संशय की एक रात' में करते हैं -

व्यक्तिगत मेरी समस्याएँ

क्यों ऐतिहासिक कारणों को जन्म दें।

राम सीता को मुक्त कराने के लिए नर-संहार नहीं चाहते थे। आखिर में लक्ष्मण और विभीषण ने उन्हें कर्म के लिए प्रेरित किया था। स्वर्ग लोक से पधारे दशरथ ने भी उन्हें समझाया कि संशय या शंका की कोई बात नहीं, प्रस्तुत परिस्थिति का उत्तर कर्म ही हो सकता है और यश जिसकी छाया है, तुम्हें उसी कर्म को स्वीकार करना चाहिए। नरेश मेहता का यह प्रयोग और मूल्य-प्रतीति युगोपयोगी है।

वर्तमान युग की सचाई यह है कि आर्थिक, सामाजिक, नैतिक और राजनीतिक विषमताओं के कारण भारत की मूल्य-आधारित छवि धूमिल हो रही है। महात्मा गाँधी ने जो स्वराज्य हमें दिलाया था, उसे सुराज्य में परिवर्तित करने का कार्य वे अधूरा छोड़ गये थे। उनके निधन के पश्चात् धीरे-धीरे अवसरवादिता का बोलबाला होता गया। जिस राजनीति का गाँधी जी पवित्रता के साथ गठबंधन करना चाहते थे, उसका सम्बन्ध अपराधीकरण से हो चला। परिणाम यह हुआ कि गाँधी-युग की उदात्त संस्कृति उन्हीं के देश में विकृति संस्कृति के रूप में पनप रही है, जिसे देखकर देश के विचारवान् लोग अत्यंत क्षुब्ध है। जार्ज बर्नाड शॉ ने गाँधी जी के निधन पर कहा था, "बहुत अच्छा होना कितना ख़तरनाक होता है!'' उस दिन कम-से-कम गाँधीजी के विचारों की प्रतिष्ठा को कोई आँच नहीं आयी थी। आज उनके विचारों में भी लोग अनास्था प्रगट करते हैं और वह भी केवल अपनी सस्ती लोकप्रियता के लिए। आलोचनाओं की आग में तपकर आज महात्मा गाँधी के सिद्धांत तथा उनकी नीतियाँ और प्रखर साबित हो रही हैं। महात्मा गाँधी के विषय में सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक आइन्स्टाइन ने कहा था कि आनेवाली पीढ़ियाँ मुश्किल से यह विश्वास कर सकेंगी कि हमारे बीच हाड़-मांस का ऐसा चलता-फिरता आदमी पैदा हुआ था। आनेवाली पीढ़ियों का यह विश्वास जीवित रखने का उत्तरदायित्व हमारे देश के प्रबुद्ध कवियों और लेखकों का है, जो अपनी रचनाओं के माध्यम से यह काम बख़ूबी कर सकते हैं।


संदर्भ संकेत :

1.  हेनरी एस. एन. पोलक : गाँधीजी का उपदेश (गाँधी अभिनंदन ग्रंथ, संअ डॉ. एस. राधाकृष्णन, पृष्ठ 218)

2.  रामधारी सिंह दिनकर : संस्कृति के चार अध्याय, पृष्ठ 533

3.  रामधारी सिंह दिनकर : संस्कृति के चार अध्याय, पृष्ठ 532

4.  हरिजन, 6 मई 1933 के अंक से उद्धृत

5.  डॉ. नगेन्द्र : आधुनिक हिन्दी कविता की मुख्य प्रवृत्तियाँ, पृष्ठ 40-44

6.  डॉ. सुधीन्द्र : हिन्दी कविता में युगान्तर, पृष्ठ 201

7.  सियारामशरण गुप्त : बापू, पृष्ठ 5

8.  लुई फ़िशर : गाँधी की कहानी, पृष्ठ 58

9.  श्रीकान्त जोशी (संपादक), माखनलाल चतुर्वेदी - यात्रा पुरुष, पृष्ठ 65

10.  श्रीकान्त जोशी (संपादक), माखनलाल चतुर्वेदी - यात्रा पुरुष, पृष्ठ 72

11.  श्रीकान्त जोशी (संपादक), माखनलाल चतुर्वेदी - यात्रा पुरुष, पृष्ठ 65

12.  श्रीकान्त जोशी (संपादक), माखनलाल चतुर्वेदी - यात्रा पुरुष, पृष्ठ 65

13.  माखनलाल चतुर्वेदी : मरण-ज्वार, प्रवेश, पृष्ठ 4

14.  श्रीकान्त जोशी (संपादक) : माखनलाल चतुर्वेदी - यात्रा पुरुष (नर्मदेश्वर उपाध्याय : माखनलाल चतुर्वेदी - व्यक्तित्व और विचार), पृष्ठ 98

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