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हिन्दी उपन्यास और गाँधीवाद

डॉ. चंद्रकांत बांदिवडेकर

किसी भी विचारधारा एवं व्यक्तित्व का साहित्य पर प्रभाव परोक्ष और अपरोक्ष रूप में पड़ता है और उसको निश्चित रूप में संकेतित करना मुश्किल कार्य होता है। महात्मा गाँधी इतने बड़े व्यक्तित्ववान नेता थे कि ऐसा कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि गौतम बुद्ध के बाद भारत में गाँधीजी ही एक ऐसे व्यक्ति थे, जिनका प्रभाव भारतीय जीवन-दृष्टि, विचारधारा, संवेदना, जीवन-रीतियाँ, समाज-मानस, व्यक्ति-मानस इत्यादि पर पड़ा और यह भी कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि आज फिर से गाँधी जीवन-दर्शन महत्त्वपूर्ण होने लगा है। विश्व अणुशक्ति की संहारक छाया में काँपता हुआ जी रहा है। पारस्परिक संशय, भय और शंका किसी भी बौद्धिक निर्णय को स्वीकृति देने में ज़बरदस्त संकोच कर रही है, उपभोक्तावाद की अप-संस्कृति सम्मोहक मायाजाल में समूचे विश्व को फँसाकर निगलने को तैयार हो रही है, अपनी ज़रूरतों को संयत करने में मनुष्य ऩाकामयाब हो रहा है, राजनीति सत्ताकेन्द्रित होकर भ्रष्टाचार और अपराधीकरण से सड़ रही है, एद्रिय भोग पर रोक लगाना मुश्किल होता जा रहा है, बड़े-बड़े उद्योग और मशीनीकरण प्रकृति को भस्म कर पर्यावरण की समस्याएँ पैदा कर रहे हैं, समृद्धि पर मुठ्ठी-भर लोगों का नियंत्रण जन-जीवन को विकृत कर रहा है, मनुष्य की आत्मा और उसके व्यवहार के बीच दरार बढ़ती जा रही है और मनुष्य भयावह छद्म का सहारा ले रहा है। ये स्थितियाँ स्पष्ट कर चुकी हैं कि दुनिया के लिए गाँधी-मार्ग ही एक विकल्प है। अत गाँधीजी का व्यक्तित्व, विचारधारा, जीवन-दृष्टि और कृतित्व पर अधिकाधिक विचार आज एक ज़रूरत बन गयी है।

गाँधीजी के जीवन-काल में ही गाँधीजी के समग्र दर्शन से भारतीय जनजीवन, साहित्य और दर्शन प्रभावित हुआ था। बीच में मार्क्सवादी यूटोपिया का आकर्षण बढ़ा और सोविएत विघटन से वह स्वप्न टूट भी गया। अमेरिकी पूँजीवाद और प्रतियोगिता के दर्शन की सीमाएँ भी स्पष्ट हो गयी हैं। इसलिए पुन गाँधीजी अधिक प्रासंगिक होते जा रहे हैं।

सन् 1915 में गाँधीजी भारत लौटे और उन्होंने राष्ट्रीय, सामाजिक और सांस्कृतिक स्तर पर तुंत अपना प्रभाव डालना प्रारंभ किया था। भारतीय साहित्य भी इससे अलग नहीं रहा। हिंदी कविता पर और हिंदी उपन्यास पर गाँधीजी का प्रभाव पड़ा। यह प्रभाव अनेक तरह से पड़ा। गाँधीजी के विचारों एवं जीवन-दृष्टि के आधार पर औपन्यासिक चरित्रों का प्रतिरूप बनाया गया, गाँधीजी के जीवन की घटनाओं का प्रतिबिंब प्रस्तुत किया गया, गाँधीजी द्वारा प्रवर्तित राष्ट्रीय आन्दोलनों का चित्ररूप दर्शन कराया गया, गाँधीजी के कुछ सिद्धांतों की मीमांसा करने के लिए कथाओं की संरचना की गयी। (उदाहरणस्वरुप हृदय-परिवर्तन, अहिंसक प्रतिरोध, सत्य का स्वरूप-विवेचन, ट्रस्टीशिप की परिकल्पना, औद्योगिक विकास के दौरान बढ़ने वाली अनैतिकता, दलित, पीड़ित, पतित, शोषित समाज के प्रति सहानुभूति आदि) कहीं गाँधीवाद को शेष मान कर उसकी परीक्षा के प्रयास भी हुए, गाँधीजी की ब्रह्मचर्य की कल्पना का मज़ाक भी उड़ाया गया, गाँधीजी के जीवन-दर्शन को अव्यावहारिक मान कर खिल्ली भी उड़ायी गयी। जीवन की जटिलता के सम्मुख गाँधीवादी सादगी, सरलता और पवित्रता को अपर्याप्त मानकर व्यंग्य भी किया गया। इसमें संदेह नहीं कि गाँधीजी ने अपने व्यक्तित्व और कृतित्व से, विचारों और शील से साहित्यकारों को पर्याप्त मसाला प्रदान किया।

यहाँ हिंदी उपन्यास पर गाँधीवादी प्रभाव के सकारात्मक पक्ष को देखना अभीष्ट है। 'रंगभूमि' के सूर के नैतिक विचार, उसका संयम,शत्रु के प्रति भी निर्दोष आत्मीयता, प्रबल आशावाद, ईश्वर में प्रगाढ़ श्रद्धा, मृत्यु के प्रति निर्भयता, विशुद्ध भावना से परिहास, मज़ाक करने की खिलाड़ी वृत्ति, दान के प्रति वितृष्णा, अपनी ज़मीन को गाँव के गोरुओं को चरने के लिए रखने की ट्रस्टी की मानसिकता, बड़े-से-बड़े अधिकारी के सामने निर्भय होकर बात करने की क्षमता, ज़बरदस्त आत्मविश्वास आदि गुणों को प्रेमचंद ने साकार रूप दिया है। लगता है, प्रेमचंद का यह सूर महात्मा गाँधी का ही प्रतिरूप है, परंतु विलक्षण कल्पनाशक्ति का परिचय इसके सृजन में प्रेमचंद ने दिया है।

प्रेमचंद की गोदान-पूर्व प्रमुख कृतियाँ गाँधीवाद से प्रभावित जान पड़ती हैं। 'प्रेमाश्रम', 'रंगभूमि', 'कायाकल्प', 'कर्मभूमि' - इन उपन्यासों पर गाँधीवाद की स्पष्ट छाप दिखायी देती है। 'निर्मला' और 'ग़बन' में भी गाँधीवाद के सिद्धांत ढ़ूँढने पर आसानी से मिल जाते हैं।

प्रेमचंद के उपन्यासों पर जो राष्ट्रीय वातावरण का प्रभाव परिलक्षित होता है, उसका मूल कारण तत्कालीन राजनैतिक और आर्थिक परिस्थितियाँ कही जा सकती हैं। प्रेमचंद के प्रथम कहानी-संग्रह 'सोज़े वतन' (सन 1908) की उग्रता देखकर सरकार ने उसे ज़ब्त कर लिया था। गाँधी-युग में प्रेमचंद का राष्ट्रीय प्रेम का स्वर अधिक प्रबल हुआ और कुछ काल तक गाँधी के जादुई व्यक्तित्व का प्रभाव प्रेमचंद पर भी पड़े बिना न रहा। 'प्रेमाश्रम' में जमींदारों और किसानों के परस्पर सम्बन्धों का और वर्गगत विशेषताओं का चित्रण प्रेमचंद ने यथार्थ दृष्टि से किया है। परन्तु गाँधी की भाँति प्रेमचंद ने भी विश्वास व्यक्त किया है कि किसानों और ज़मींदारों के सम्बन्ध प्रेम और सहयोगपूर्ण हो सकते हैं। प्रेमशंकर और मायाशंकर जैसे जमींदार-वर्ग के व्यक्ति किसानों की सेवा में अपने जीवन को पूर्णतया समर्पित कर सकते हैं।1 प्रेमशंकर उसी का भूमि पर अधिकार मानता है, जो उसे जोतते हैं। मायाशंकर भी 'सबै भूमि गोपाल की' ही स्वीकार करता है तथा किसान और सरकार के बीच किसी अन्य वर्ग या श्रेणी की सत्ता एवं अधिकार को वर्तमान समाज का कलंक समझता है।2 प्रेमचंद 'प्रेमाश्रम' में लखनपुर गाँव में आदर्श राज्य की स्थापना करते हैं; जहाँ सेवा, प्रेम, सत्य, अहिंसा, त्याग, शारीरिक श्रम इत्यादि की प्रतिष्ठा दिखायी गयी है। हृदय-परिवर्तन के सिद्धांत को भी स्वीकार किया गया है।

'रंगभूमि' के गाँधीवादी नायक सूर का व्यक्तित्व अनेक दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। सूर का साधन-शुद्धि का आग्रह, मशीनीकरण का विरोध, पूँजीवादी संस्कृति की उपेक्षा, प्राचीनकाल से चली आयी सामन्तवादी संस्कृति के प्रति आकर्षण आदि विचार गाँधीवाद का प्रभाव सूचित करते हैं। सरकार और जन-सेवक के विरोध में सूर की लड़ाई भी अहिंसक ढंग से चलती है। 'काया कल्प' में मनुष्य ऐश्वर्य और विलास के पीछे पड़कर किस प्रकार पतित हो जाता है, इसकी चर्चा की गयी है। 'ग़बन' में भी विलासप्रियता और शारीरिक सुख के पीछे पड़ने के भीषण पर्यवसान की ओर संकेत कर सेवा और त्यागमय जीवन की महिमा गायी गयी है। यह निश्चित करना कठिन है कि इन उपन्यासों से प्रेमचंद के ख़ुद के कुछ विचारों का प्रभाव कितना है और उस समय के गाँधी-युग का कितना है। इतका अवश्य कहा जा सकता है कि प्रेमचंद के उपर्युक्त उपन्यास गाँधी-युग के विशेष अनुकूल सिद्ध होते हैं।

'कर्मभूमि' में गाँधी के व्यावहारिक कार्यक्रमों का गाँवों में प्रचार दिखाया गया है। सूत-कताई, बुनाई, हरिजनोद्धार, शराबबंदी, मुर्दा जानवरों का मांस-भक्षण न करना, विभिन्न जातियों में रोटी-व्यवहार, मंदिर-प्रवेश का आन्दोलन इत्यादि को पढ़ते समय गाँधी-युग का वातावरण साकार होता जान पड़ता है। सरकारी नौकर सलीम एवं घोर धन-लोभी सेठ अमरकान्त का हृदय-परिवर्तन और उनका सम्पत्ति-दान तथा सुखदा का विलास-मार्ग को त्याग कर सेवा-मार्ग को ग्रहण करना, बूढ़ी पठानिन, नैना इत्यादि नारियों का राष्ट्र-सेवा के लिए तत्पर होना गाँधी-युगीन प्रभाव को व्यक्त करता है।

विशेष ध्यान रखने की बात है कि आगे चलकर यथार्थ के गहरे निरीक्षण ने इस जनवादी कलाकार की गाँधीवाद के प्रति आस्था को कुछ विचलित कर दिया मालूम होता है और 'गोदान' में आकर वे समाजवाद की ओर क़दम बढ़ाते दिखायी पड़ते हैं। लेकिन गाँधीवादी तत्त्व प्रेमचंद के व्यक्तित्व से विलुप्त नहीं हुआ। ब्राह्मण मातादीन सिलिया चमारिन को अपनाता है, उसका हृदय-परिवर्तन होता है। मालती और मेहता के संबंधों में निर्विषय प्रेम का उद्भव होता है और दोनों जन-सेवा को समर्पित होते हैं। मालती की तितली-वृत्ति पूर्णत समाप्त होती है।

गाँधीवाद से प्रभावित दूसरे लेखक हैं 'जैनेन्द्र'। 'परख' में गाँधीवाद का प्रभाव 'सत्यधन' पर दिखाया गया है, परन्तु ढुलमुल वकील सत्यधन ने इस प्रभाव को बाह्य रूप में ग्रहण किया था। अतएव नारी, धन तथा प्रतिष्ठा के मोह को वह त्याग नहीं सका। इसके विपरीत बिहारी का व्यक्तित्व गाँधीवादी आदर्श से अनुप्राणित जान पड़ता है। जैनेन्द्र सम्भवत दिखाना चाहते थे कि गाँधीजी का आदर्श सामान्य व्यक्ति के बस की बात नहीं है, बल्कि वह बिहारी जैसे व्यक्ति के लिए ही उपयुक्त है, जिसके व्यक्तित्व का लंगर गहराई में पड़ा हुआ है। नन्ददुलारे वाजपेयी का कथन है कि 'सुनीता' तथा बाद की रचनाओं में जैनेन्द्र ने गाँधीवाद और मनोविज्ञान का समन्वय करने का असफल प्रयास किया है।3 'सुनीता', 'सुखदा', 'व्यतीत' और 'विवर्त' में जैनेन्द्र नारी के पर-पुरुष से प्रेम करने की मनोवैज्ञानिक समस्या का समाधान गाँधीवादी दृष्टिकोण से - हृदय-परिवर्तन के सिद्धांत से - ढूँढ़ने का प्रयत्न करते हैं। वाजपेयीजी इस सम्बन्ध में लिखते हैं, ''ये पात्र अपनी पत्नियों को प्रत्येक दशा में पूरी छूट देते हैं और इस प्रणाली के द्वारा इनके हृदय-परिवर्तन की प्रतीक्षा करते हैं। गाँधीजी ने हृदय-परिवर्तन का आदर्श राजनीतिक स्तर पर प्रतिष्ठित किया था। पारिवारिक व्यवहारों में गाँधीजी हृदय-परिवर्तन जैसी वस्तु को स्वीकार करते थे। कदाचित् जैनेन्द्र ने यह तथ्य गाँधी-दर्शन से ही ग्रहण किया है।''4 इसी प्रकार 'त्याग-पत्र' की मृणाल भी समाज द्वारा दिया गया कष्ट मौन भाव से सहन करती है। नगेन्द्र उसके बारे में लिखते हैं, ''कष्ट के कारणों से घृणा न करते हुए, कष्ट की अनिवार्यता से त्रास न खाकर, उसमें आनंद की भावना करना अहिंसा है और अहिंसा यह सिखाती है कि अमुक्त वासना का वितरण करना ही उसकी सफलता है।''5 जैनेन्द्र बुद्धि से दुश्मनी करते हुए दिखायी देते हैं और उनके प्रमुख पात्र भी समस्याओं के समाधान के लिए बुद्धि पर निर्भर रहने की अपेक्षा हृदय और श्रद्धा में विश्वास करते जान पड़ते हैं। गाँधीजी बुद्धि से अधिक श्रद्धा में आस्था रखते थे।6 जैनेन्द्र के उपन्यासों में बुद्धि को प्राय तुच्छ माना गया है।

जैनेन्द्र ने गाँधीवाद के प्रभाव को सीमित क्षेत्र में ही प्रस्तुत किया। जहाँ तक राष्ट्रीय आन्दालनों और नारी की राष्ट्रीय आकांक्षाओं का प्रश्न है, जैनेन्द्र के उपन्यासों में उसका प्रभाव विचित्र रूप में दिखायी पड़ता है। 'सुनीता' में हरिप्रसन्न और स्वयं सुनीता का देश-प्रेम तथा अन्य उपन्यासों में किया गया राष्ट्रीय समस्याओं का क्षीण उल्लेख सीधा नहीं जान पड़ता। लगता है, जैनेन्द्र का यह आंतरिक चित्रण है कि गाँधीवाद विचारों के धरातल पर अपनाया जाय तो प्रसंग-विशेष में उसकी स्थिति बड़ी दयनीय हो सकती है। गाँधीवाद को अधिक आन्तरिकता से अपने समूचे व्यक्तित्व के साथ आपन्न करना आवश्यक है। हो सकता है, स्वयं जैनेन्द्र जी के मन में भी गाँधीवाद को लेकर कुछ शंकाएँ विद्यमान हों।

इसके विपरीत गाँधीवाद के प्रति पूर्णत तादात्म्य परिलक्षित होता है सियारामशरण गुप्त के व्यक्तित्व में। आलोचकों ने सियारामशरण गुप्त को भी गाँधी-लेखक माना है। जैनेन्द्र और सियारामशरण गुप्त के जीवनादर्श के सम्बन्ध में नगेन्द्र सही लिखते हैं, ''दोनों व्यक्तियों का जीवनादर्श एक है - पूर्ण अहिंसा की स्थिति प्राप्त कर लेना, अर्थात् अपने अहं को पूर्णत धुला देना। इस साध्य के लिए सियारामशरण गुप्त की साधना अधिक हार्दिक है, नैतिक दमन का अभ्यास उनको अधिक है और उनका अहं सचमुच काफ़ी धुल चुका है। अहिंसा बहुत-कुछ उनके व्यक्तित्व का अंग बन चुकी है।''7 देवराज उपाध्याय भी सियारामशरण गुप्त के कथा-साहित्य पर अहिंसा का पूर्ण प्रभाव देखते हैं।8

सियारामशरण गुप्त के उपन्यासों पर गाँधीवाद का बाह्य प्रभाव नहीं है, परन्तु उनके व्यक्तित्व में गाँधीवाद के सिद्धांत-पक्ष का पूर्णत पालन हुआ है। सियारामशरणजी सामाजिक मान्यताओं के नीचे कुचले गये निरीह व्यक्ति के प्रति सहानुभूति दर्शाते हैं। 'गोद' में दुर्भाग्य से प्रताड़ित निरीह किशोरी को कठोर दण्ड भुगतना पड़ा। शोभाराम की मानवता भाभी के वात्सल्यपूर्ण आत्मीय-भाव का अवलम्बन पाकर जाग ही नहीं उठती, सक्रिय भी हो जाती है। वह अपने भाई के ख़िलाफ़ विद्रोह का झण्डा उठाती है। परन्तु यह विद्रोह दयाराम के हृदय-परिवर्तन के उपरान्त पारस्परिक प्रेम की प्रगाढ़ अनुभूति में बदल जाता है। 'अंतिम आकांक्षा' का नायक एक निम्न जाति का स्वामी-भक्त और सत्यनिष्ठ व्यक्ति है, जिसके हाथ से एक डाकू की हत्या हो गयी है। लेखक रामलाल के विशाल हृदय का चित्रण करने में तल्लीन हो गया है। 'नारी' में जमुना और अजीत के निष्कलुष स्नेह-भाव को चित्रित करने में लेखक सफल हुआ है। जमुना अपने पुत्र से कहती है, ''सह ले इसे,सह ले। कमज़ोर क्यों पड़ता है? जितना ही अधिक सह सकेगा, उतना ही तुम बड़ा होगा।...'' इस वाक्य में गाँधी के सन्देश की ध्वनि स्पष्ट सुनायी पड़ती है। सियारामशरण गुप्त के पात्रों में सामाजिक अन्याय के प्रति तीव्र विद्रोह-भाव नहीं है, आक्रोश का भाव भी नहीं दिखायी देता; परन्तु इनकी पीड़ा दुर्बल की मोटी हाय है, जो लोहे को भी भस्म कर देती है। सियारामशरण गुप्त के कथा-साहित्य के प्रभाव के बारे में माचवेजी ने ठीक ही लिखा है, ''रस की सृष्टि इनके निकट अधिक सार्थक है, बनिस्बत ब्रह्म-जिज्ञासा के। परिणामत उनके दो ही उपन्यास 'देखन में छोटे लगें, घाव करत गम्भीर।'9

इस प्रकार कह सकते हैं कि गाँधी-युग के समग्र प्रभाव को प्रेमचंद ने अभिव्यक्ति दी, जैनेन्द्र ने पारिवारिक क्षेत्र के अन्तर्गत विशिष्ट समस्या का विश्लेषण करने में गाँधीवाद के अहिंसा, प्रेम और हृदय-परिवर्तन के सिद्धांतों का उपयोग किया और सियारामशरण गुप्त ने गाँधी के सिद्धांतों को अपने व्यक्तित्व में पूर्णत आत्मसात् कर राजनैतिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक परिस्थितियों से अलग (यथा संभव) रहकर गाँधी के सैद्धांतिक पक्ष को कतिपय पात्रों के माध्यम से मूर्त करने का प्रयत्न किया।

गाँधीजी के विरोध में मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित लेखकों ने काफ़ी लिखा। ब्रह्मचर्य, हृदय-परिवर्तन, काम-दमन या संयम, आर्थिक कृषि-केन्द्रित नीति, बड़े उद्योगों के प्रति गाँधीजी का दृष्टिकोण, अहिंसा पर बल आदि मुद्दों पर करारे आघात किये गये। लेकिन वह सब इतिहास की वस्तु बन गया है, क्योंकि गाँधीवाद का मखौल उड़ाना आसान है, उनकी मूलभूत दृष्टि, तत्त्व और आचरणगत व्यवहार पर टिकाऊ विरोध करना कठिन है।    

गाँधीजी की हत्या के बाद उनके प्रिय शिष्य नेहरूजी के नेतृत्व में भारत आर्थिक प्रगति की राह पर चलने लगा। बढ़ती उद्योग-व्यवस्था और मशीनीकरण ने आंशिक रूप में बाह्य सभ्यता को लेकर प्रगति अवश्य की, परन्तु भारत की आत्मा में घुन लग गया। आंतरिक आत्मानुशासन, श्रेय मूल्यों के प्रति समर्पित भावना, सादगी और सरल जीवन के प्रति रुझान, ट्रस्टी की महत्त्वपूर्ण भूमिका, शोषण, हिंसा और असत्य के प्रति वितृष्णा, भोगवाद की अंधी दौड़ के प्रति सजगतापूर्वक विरोध-भावना, अंतशुद्धि पर बल इत्यादि गाँधीवादी मूल्यों के प्रति हमारी राजनीति ने और समाज-गति ने भयावह उपेक्षा-भाव बरता है। सत्ता और सत्याग्रह के समन्वय पर हमने कभी गंभीरतापूर्वक विचार नहीं किया। परिणामत हमारे समाज में शोषण और हिंसा अनेक रूपों में बढ़ रही है, समाज के विभिन्न वर्गों में दरारें पैदा हो गयी हैं। शिक्षा-व्यवस्था समाज के छोटे सम्पन्न वर्ग के स्वार्थ की रक्षा में लगी हुई है। हमारे जीवन में छद्म फैल गया है। यह पक्षाघात की स्थिति है, क्योंकि हमने अर्थ के पीछे हृदय की, आत्मा की उपेक्षा की है।

यह सत्य आज के साहित्य में व्यक्त हो रहा है - गाँधीवाद का नाम नहीं लिया जाता है, परन्तु है वह कहीं गाँधी की आत्मा की पुकार।

गाँधी साहित्य के द्वार खटखटा रहा है, हम सजग नहीं होंगे तो देवता कूच कर सकता है। सवाल हमारी ही सार्थक अभिव्यक्ति का है।


संदर्भ संकेत :

1. 'प्रेमाश्रम', पृ. 142

2. वही, पृ. 382

3. नया साहित्य : नये प्रश्न : नन्ददलारे वाजपेयी, पृ. 194

4. नया साहित्य : नये प्रश्न : नन्ददुलारे वाजपेयी, पृ. 198

5. विचार और अनुभूति : नगेन्द्र, पृ. 139

6. See Indian Political Thought, Page 414 : Sharma ‘Reason is poor thing in midst of temptation, Faith that transcends reason is our only Rock of Age.’

7.  विचार और अनुभूति : नगेन्द्र, पृ. 141

8. सियाराम शरण गुप्त, पृ. 106

9. सन्तुलन : प्रभाकर माचवे, पृ. 173

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