ग्रामस्वराज्य : अनिवार्य विकल्प |
डॉ. रामजी सिंह विश्वग्राम की कल्पना भारतीय संस्कृति का विश्व को एक अद्भुत अवदान है। इसमें गांव को केवल एक भौतिक और भौगोलिक खंड के रूप में नहीं मानकर इसे एक आध्यात्मिक और सांस्कृतिक प्रतीक माना गया है। यही कारण है कि वेद से लेकर गांधी-विनोबा तक सभी ने ग्राम-देवता की अर्चना की है। गांव को यदि हम संपूर्ण विश्व का एक छोटा स्वरूप मानें तो हमें एक स्वस्थ और सुंदर विश्व की अवधारणा भी मिल सकती है। यदि हम व्यष्टि में समष्टि को देखना भूल जायेंगे तो हमारा चिंतन अत्यंत अकिंचन हो जाएगा। वैदिक ऋषि सम्पूर्ण पृथ्वी की अर्चना करते हुए अपने को किसी देश विशेष का नहीं, बल्कि सम्पूर्ण पृथ्वी का पुत्र मानते हैं : माता भूमि पुत्रो अहम पृथ्विया :। अतीत में हमारा ग्राम्य-जीवन एक स्वयंपूर्ण, स्वावलंबी और समरस सामाजिक एवं आध्यात्मोन्मुख सांस्कृतिक जीवन का प्रतीक रहा है। शायद यही कारण है कि लगभग एक हजार वर्षों की गुलामी और विभिन्न विदेशी आक्रमणों के बावजूद भी भारत का सांस्कृतिक वैभव अक्षुण्ण रहा और इसकी सामाजिक एवं आर्थिक संरचना भी स्वतंत्र एवं सुरक्षित रही। बाहर के आक्रमणकारियों ने राजधानियों और नगरों के जीवन को भले ही अक्रांत किया हो, लेकिन गांव इस दुप्रभाव से प्राय: बचे रहे। गांव की व्यवस्था आर्थिक और प्रशासनिक रूप से स्वयंपूर्ण, सहकारी और स्वतंत्र थी, इसलिए उनकी अस्मिता और उनकी दृष्टि पर आक्रमणकारियों का कुप्रभाव नहीं पड़ सका। लेकिन जैसा दादाभाई नौरोजी ने अपनी एक पुस्तक में वर्णन किया है, उसमें हम ग्रामीण जीवन में एक गुणात्मक अंतर देखते हैं। अंग्रेजी शासन में गांव को भी न केवल आर्थिक, बल्कि सांस्कृतिक गुलामी में जकड़ दिया गया। मैकाले की शिक्षा-पद्धति और ब्रिटिश राजतंत्र ने भूमि के संबंध में चिरस्थायी प्रबंध की सामंती अर्थनीति द्वारा गांवों को निप्राण बनाने की कोशिश की। किंतु यह भी स्वीकार करना होगा कि सदियों से चली आ रही जाति पर आधारित ऊँच-नीच की परम्परा ने भी हमें आंतरिक रूप से तोड़ने में मदद की। गांधीजी ने अपनों सपनों के भारत के गांव को अस्पृश्यता और जातिवाद के जहर से मुक्त तो माना ही था, उसे स्वावलंबी अर्थव्यवस्था और स्वशासन का क्रेंद भी कहा था। इसलिए जब हम ग्रामस्वराज्य की चर्चा करते हैं तो हमारी कल्पना में तो भारत की प्राचीन स्वावलंबी और सहकारी व्यवस्था है, जिसमें अभाव, अन्याय और अशिक्षा का कोई स्थान नहीं है। दुर्भाग्य है कि विकास के भौतिकवादी और भोगवादी आयाम में हम गांवों का ही अस्तित्व मिटाना अपना पुनीत कर्त्तव्य मानते हैं। देश के वित्तमंत्री और प्रधानमंत्री भी यह गर्व से कहते हैं कि अगले कुछ वर्षों में भारत की 60-80 प्रतिशत आबादी नगरों में आ जाएगी और कृषि कार्य में केवल 10 प्रतिशत लोग ही रहेंगे। लोग भूल जाते हैं कि आधुनिक प्रौद्योगिकी के युग में जब देश की केवल 10 प्रतिशत आबादी कृषि कार्य में रहेगी तो शेष 90 प्रतिशत के लिए आजीविका के कौन से साधन ढूंढ़े जाएंगे? इस प्रक्रिया से हम बढ़ती हुई बेरोजगारी से उठते असंतोष की ज्वालामुखी का निदान नहीं कर सकते। उसी प्रकार आज भी महानगरों में भले ही 10 प्रतिशत लोग आधुनिक विज्ञान और विज्ञान प्रदत्त सुविधाओं का सुखोपभोग करते हों, लेकिन शेष नगरीय आबादी भी झुग्गी-झोपड़ियों या अस्वास्थ्यकर आवासों में रहने को बाध्य है। यह विषमता नगरों में बढ़ती हुई हिंसा का मूल कारण तो है ही, यह पर्यावरणीय संकट के लिए भी जिम्मेदार है। शहरों में विकास के लिए गांवों की अपेक्षा अत्याधिक राष्ट्रीय धन खर्च किया जाता है। यह ग्रामद्रोह का प्रत्यक्ष प्रमाण है। यही कारण है कि आज अपने देश में ग्रामीण भारत अभूतपूर्व संकट और शर्मनाक कृषक आत्म-हत्याओं के लिए विवश है। आज विकास की नई अवधारणा की दृष्टि से स्वावलंबी और स्वशासित ग्रामीण संरचना एक वैज्ञानिक अनिवार्यता है। बड़े-बड़े महानगर आधुनिक सभ्यता के शमशान एवं महाकुष्ठ रोग के समान हैं। इसलिए 20वीं शताब्दी में भारत के बाहर भी नई ग्राम-व्यवस्था को पुन: स्थापित करने का प्रयास किया गया। किंतु राजसत्ता के बल पर जोर-जबरदस्ती से किसी सृजनशील और सजीव व्यवस्था का निर्माण नहीं किया जा सकता है। भारत के नवनिर्माण की दृष्टि से आजादी के बाद सबसे बड़ी भूल यह हुई कि ग्रामस्वराज्य के बदले यहाँ सामुदायिक विकास खंड की योजना बनायी गई और संसदीय प्रजातंत्र की संरचना को पंचायत के नाम पर गांवों के माथे पर रख दिया गया। संसदीय प्रजातंत्र दल की राजनीति पर निर्भर है और दल मजबूत एवं मुट्ठीभर दलपतियों के इशारे पर नाचते हैं। उसी संसदीय प्रजातंत्र को ग्रामीण जीवन में लाना सांस्कृतिक दृष्टि से लोकजीवन के साथ खिलवाड़ साबित हुआ है। भारतीय ग्रामजीवन का आधार सहज सर्वानुमति या आमराय रही है। यह ग्रामस्वराज्य की संजीवनी है, जिसमें निर्णय की प्रक्रिया में ही एक मौलिक क्रांति है और क्षुद्र दबाव का निषेध है। निर्णय की प्रक्रिया में सर्वसम्मति या सर्वानुमति गांवों की एकता का एक अभेद्य कवच है। लेकिन ग्रामस्वराज्य केवल एक प्रशासनिक और राजनीतिक तंत्र नहीं, यह एक आर्थिक व्यवस्था भी है। जिसका पहला सूत्र है जमीन का ग्रामीकरण। जमीन किसी व्यक्ति की नहीं होगी। जमीन की व्यक्तिगत मिल्कियत होने से सामंतवाद को प्रोत्साहन मिलता हैं, यदि जमीन राज्य की होगी, तो राज्य का साम्राज्यवाद होगा। इसलिए जमीन पर राज्य का भी स्वामित्व नहीं होगा। जमीन गांव की हो, यही एक निरापद व्यवस्था है। लेकिन ग्रामस्वराज्य में कृषि के यंत्रीकरण और तथाकथित कृत्रिम खाद एवं बीज के विषय में भी नई सोच आवश्यक है। आज हम भूल गए हैं कि प्रकृति, वनस्पति, पशु-पक्षी और मनुष्य के बीच परस्पर संतुलित संबंध शाश्वत विकास के लिए परमावश्यक हैं। ट्रैक्टरों के अंधाधुंध प्रयोगों और रासायनिक खादों एवं कीटनाशकों के इस्तेमाल से अन्न ही नहीं, भूमि भी जहरीली हो रही है। जो धरती हजारों वर्षों तक हमें अन्न दान करती रही, उसे हमने अत्यधिक लाभ के लिए मशीन और रसायन का जहर देकर विषाक्त कर दिया। यही कारण है कि भूमि की उत्पादन क्षमता घटती जा रही हैं। अत: हमें परम्पागत मिश्रित-कृषि की ओर लौटाना होगा, क्योंकि कृषि के साथ पशुपालन और ग्रामोद्योग परस्पर जुड़े हुए हैं। 21वीं शताब्दी और 200 वर्षों की औद्योगिक सभ्यता की गतिशीलता अब समाप्त हो रही है। इसलिए इसके निवारण के लिए हमें नए विकल्प के रूप में ग्रामस्वराज्य का प्रयोग करना होगा। यह इस देश का सौभाग्य है कि इस ग्रामस्वराज्य की व्यावहारिक संरचना के रूप में ग्रामदान के विचार को 1957 में ही देश के सभी राजनीतिक दलों ने स्वीकार किया है। इसे हम राष्ट्र का संकल्प मानते हुए जमीनी स्तर पर लागू करें। आज जब विश्व आर्थिक और पर्यावरणीय संकट से जूझ रहा है और दुनिया में हिंसा एवं आतंक की ज्वाला तेज हो रही है तो हमें ग्रामीण भारत और ग्रामीण विश्व की संरचना के लिए ग्रामस्वराज्य को एक अवसर देना चाहिए। (प्रस्तुति : श्री सुधांशु शेखर) स्त्रोत : संस्थाकुल, फरवरी 2009 |