गांधीजी के
ही शब्दों में, वह "सम्मेलन का वास्तविक उद्देश्य पूरा कर रहे थे, जो था
लंदन के लोगों से मिलना और उन्हें समझाना।" कुमारी म्युरिअल लीस्टर के
निमंत्रण को स्वीकार कर वे लंदन की मजदूरगबस्ती ईस्ट एंड के किंग्सले हाल
में ठहरे थे, ताकि वह ऐसे लोगों के साथ रह सकें जिनकी सेवा के लिए उन्होंने
जीवन समर्पित किया था। प्रातः प्रार्थना के लिए वे ठीक चार बजे उठ जाते थे।
सवेरे ईस्ट एंड की प्रमुख गलियों में घूमने जाते। वहां वह अपने पड़ोसियों
से मिलने उनके घर चले जाते। उस क्षेत्र के सभी बच्चे उनके मित्र बन गये थे।
"गांधी चाचा" बड़े लोकप्रिय हो गये थे। वह बच्चों को ईस्ट एंड में ठहरने और
सिर्फ लुंगी-चादर पहनने का कारण समझाते और उन्हें सदा यही सिखाते कि बुराई
का जवाब भलाई से देना चाहिए। इस उपदेश का बड़ा रोचक परिणाम निकला और चाल
साल की एक लड़की के पिता को अपनी शिकायत लेकर गांधीजी के पास आना पड़ा।
गांधीजी द्वारा पूछे जाने पर उसने बतायाः "मेरी नन्ह जेन रोज मुझे मार कर
जगाती है और कहती है, अब तुम मत मारना क्योंकि गांधीजी कहते हैं कि हमें
बदले में नहीं मारना चाहिए।" 2 अक्तूबर को उनकी वर्षगांठ पर बच्चों ने
उन्हें ऊन के बने दो कुर्ते, जन्मदिवस-समारोह में जलाई जाने वाली तीन
गुलाबी मोमबत्तियां, टीन की एक तश्तरी, एक नीली पेंसिल और मुरब्बा भेंट
किया। गांधीजी ने इन वस्तुओं को बहुत संभाल कर रखा और अपने साथ भारत ले आए।
लंकाशायर के सूती मिल मजदूर जिस प्रेम और नम्रता से गांधीजी से मिले वह इस
लंदन-यात्रा की सर्वाधिक आीचर्यपूर्ण किन्तु सुखद बात थी। कांग्रेस के
विदेशी वस्त्र बहिष्कार-आन्दोलन की सीधी चोट इन्हप लोगों पर पड़ी थी। बेकार
हो जाने वाले लोगों की बातें गांधीजी ने बड़े ध्यान से और सहानुभूतिपूर्वक
सुनप। जब गांधीजी ने उनसे कहा कि, "आपके यहां तीस लाख बेकार हैं, लेकिन
हमारे यहां साल में छः महीने बीस करोड़ लोग बेकार रहते हैं। आप लोगों को
औसत सत्तर शिलिंग बेकारी-भत्ता मिलता है, हमारी औसत मासिक आमदनी सिर्फ
साढ़े सात शिलिंग है", तो भारत में विदेशी वस्त्राsं के बहिष्कार की
पृष्ठभूमि और आवश्यकता उन मजदूरों की समझ में बहुत अच्छी तरह आ गई।
जिन लोगों के सम्पर्क में गांधीजी आए, उनमें से कुछ पर तो उनके सीधे-सादे
तर्क और स्पष्ट निष्कपटता की अमिट छाप पड़ी। जिस आदमी की लुंगी और बकरी के
दूध के किस्से उछाल कर, इंग्लैंड के लोकप्रिय अखबार लोगों को मनोरंजन कर
रहे थे, कम-से-कम उसकी एक सही तस्वीर तो मिलने वालों के सामने अवश्य आ गई।
गांधीजी के विचार उनको अव्यावहारिक या क्रान्तिकारी लग सकते थे, लेकिन भेंट
कर चुकने के बाद उनको "बकवास" कह कर कोई उनकी अवहेलना नहीं कर सकता था।
गांधीजी के लिए इसी `उपाधि` का प्रयोग कर `ट्रूथ` अखबार ने उनके इंग्लैंड
पहुंचने की समाचार दिया था।
इसी बीच भारत से जो समाचार मिले वे चिन्ताजनक थे। गांधीजी के इंग्लैंड जाने
से पहले कांग्रेस और सरकार के बीच किसी तरह जो अस्थायी समझौता हुआ था, वह
वस्तुतः टूट चुका था। गांधीजी स्वदेश लौटने के लिए व्यग्र थे। वापसी में
यूरोप-भ्रमण में अधिक समय लगाने का प्रस्ताव और अमरीका-यात्रा का निमंत्रण
उन्होंने अस्वीकार कर दिया। लेकिन उन्होंने कुछ दिन स्विटजरलैंड में रोमा
रोलां के साथ, जिन्होंने उनका जीवन चरित्र लिखा, बिताने का निीचय किया। रोम
में गांधीजी ने ईसा मसीह और उनके अनुयायियों से संबंधित चित्र वीथिका
(वैटिकन गैलरी) देखी। सिस्टिन चैपेल (गिरजाघर) में तो वे ठगे से रह गए, "मैंने
वहां ईसा का एक चित्र देखा। बड़ा ही अद्भुत। वहां से हटने का तो मन ही नहीं
होता था। देखता रहा, आंखों में आंसू उमड़ आए पर मन नहीं भरा।" |