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कितने भूमण्डल...?

डॉ. वन्दना

“It took Britain resources of this planet to achieve its prosperity. How many planet will India require for development” -Mahatma Gandhi

"ब्रिटेन को अपनी समृद्घी को पाने के लिए पूरी पृथ्वी के आधे संसाधनो की जरूरत है तो भारत को उस स्तर की समृद्धी को पाने के लिए कितनी पृथ्वियों की जरूरत होगी।"

गांधी जी ने यह बात तब कही जब उनसे पूछा गया कि क्या भारत, औद्योगिक विकास के ब्रिटिश मॉडल को अपना सकेगा? यह बात उनसे आजादी की पूर्व संध्या पर पूछी गयी थी। गांधीजी ने अपने इस विचार के माध्यम से न केवल विकास की सीमाओं को रेखाकिंत किया बल्कि विकास एवं पर्यावरण के संबंधों को भी उजागर किया। प्राकृतिक संसाधनों के प्रयोग की सीमाएं एवं उनके दुष्परिणाम भी ध्यान में रखना होगा। सभ्यताओं का विकास इस बात से जुड़ा रहा है कि ऊर्जा के स्त्राsत क्या रहे हैं और उनका उपयोग कैसे होता रहा है। प्रारम्भ में मानव श्रम एवं पशुओं की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी, बाद में इनके साथ ही जलावन की लकड़ी भी ऊर्जा का महत्त्वपूर्ण स्त्राsत बनी। आधुनिक औद्योगिक समाज के ऊर्जा के मुख्य स्त्राsत खनिज ईंधन (कोयला, पेट्रोलियम पदार्थ एवं गैस) एवं बिजली बन गये। खनिज ईंधन और बिजली का उपयोग कई सौ गुना बढ़ गया है।

सवाल यह है कि कोई भी भोगवादी सभ्यता कब तक टिकी रह सकती है। यह तभी तक संभव है जब तक खनिज ईंधन व बिजली का उपयोग अपनी उस चरम सीमा तक न पहुँच जाये कि पृथ्वी भी उसका पुनर्भरण न कर सके और पूरी की पूरी मानव जाति की उत्पत्ति व उसका भरण-पोषण ही खतरे में पड़ जाये।

एक बड़ा सवाल यह भी उठता है कि औद्योगिक विकास के संयंत्रों यानी खनिज ईंधन एवं बिजली से चलने वाले संयंत्रों एवं साधनों पर जो खर्च आ रहा है व जितने संसाधनों की जरूरत पड़ रही है वह अभी से ही पृथ्वी की क्षमता के अनुकूल नहीं है। इनके निर्माण पर प्राकृतिक स्त्राsतों का दोहन एवं मानव श्रम का शोषण इतने व्यापक स्तर पर हुआ है जितना पिछले पाँच दशक में नहीं हुआ है।

विकास के लिए दोहन की इस बेलगाम प्रक्रिया में एक पहलू यह भी है कि राष्ट्रों के बीच व राष्ट्रों के अन्दर भी प्रति व्यक्ति आय में बहुत ही गैर बराबरी है और तेजी से बढ़ भी रही है। पूरे विश्व के एक चौथाई लोग विश्व संपदा क तीन चौथाई हिस्सा उपभोग में ला रहे हैं। कोयला, कच्चा तेल, प्राकृतिक गैसों एवं बिजली आदि ऊर्जा संसाधनों का 80 प्रतिशत से अधिक हिस्सा विकसीत देशों द्वारा इस्तेमाल किया जा रहा है। औद्योगिक रूप से विकसीत, दुनिया के 10 देश (जो कुल देशों की संख्या का 7 प्रतिशत ही है।) दुनिया के 70 प्रतिशत ऊर्जा की खपत करते हैं।

ऊर्जा की इस खपत में एक बड़ी असमानता यह भी है कि जहाँ गरीब अधीकांशत: अभी भी जैविक ऊर्जा स्त्रोत जैसे जलावन की लकड़ी, जानवरों के गोबर आदि पर निर्भर करते हैं, वहीं सम्पन्न वर्ग खनिज ऊर्जा एवं बिजली का अधिक उपयोग करते हैं। गरीबों के यहाँ ईंधन इकट्ठा करना उनकी महिलाओं एबं बच्चों का एक बड़ा काम होता है।

ऊर्जा उपयोग का यह स्वरूप विकास के वर्तमान मॉडल से जुड़ा हुआ है और इससे दो महत्त्वपूर्ण प्रश्न भी उभरते हैं। पहला यह कि विकास के इस मॉडल में 20 प्रतिशत लोगों के विकास के लिए पृथ्वी की 80 प्रतिशत सम्पदा का दोहन किया गया अर्थात यदि 100 प्रतिशत लोगों का विकास करना है तो पृथ्वी की 400 प्रतिशत सम्पदा का उपयोग करना होगा। इसका सीधा सा एक अर्थ यह हुआ कि कम से कम चार पृथ्वियों की जरूरत होगी, तभी सबका विकास हो पायेगा। इस विकास मॉडल का दूसरा पक्ष यह है कि प्रकृति के दोहन और ऊर्जा खपत का परिणाम क्या होगा।

गांधीजी ने जो सवाल विकास के संसाधन की सीमितता को लेकर किया था वह सवाल और अधिक भयावह रूप से जलवायु परिवर्तन के प्रभाव एवं इसके परिणामस्वरूप पृथ्वी की सहन क्षमता के सन्दर्भ में भी जा सकता है।

जलवायु परिवर्तन का सबसे महत्त्वपूर्ण संकेतक है - भूमण्डल के तापमान में वृद्धि। वैज्ञानिकों का मानना है कि 6 लाख वर्षों में उतने परिवर्तन नहीं हुए, जितने अब होने की संभावना बढ़ गयी है। भूमण्डलीय तापमान में हिमयुग काल से अब तक जितनी वृद्धि हुई है, उतनी वृद्धि निकट भविष्य में आसन्न है। वैज्ञानिकों का यह मानना है कि यदि भूमण्डलीय तापमान 2ºC तक बढ़ गया तो मानव का विकास न होकर, ह्रास शुरू हो जायेगा। इसके साथ ही पृथ्वी की पारिस्थितिकी (इकोलोजी) की ऐसी क्षति होगी जिससे प्रकृति के स्त्राsतों के बीच का संतुलन पूरी तरह बिगड़ जायेगा। औद्योगीकरण के पिछले 200 वर्षों में भूमण्डल का तापमान 0.7ºC बढ़ चुका है। पिछले कुछ दशकों से तापमान बढ़ने की दर में भी वृद्धि हुई है।

ऊर्जा के उपयोग में अपरिमित वृध्दि के कारण जितनी कार्बन-डाई आंक्साइड (CO2) गैस का उत्सर्जन होता है, उसका एक हिस्सा वातावरण में बना रह जाता है। क्योंकि पेड़-पौधे, जमीन, सागर आदि एक सीमा तक ही इसका विघटन कर इसे पुन: प्रकृति के चक्र में समावेशित कर पाते हैं। लेकिन वैज्ञानिकों के अनुसार आज CO2 गैस का उत्सर्जन कहीं अधिक हो रहा है। यू.एन.डी.पी. की एक रिर्पोट के अनुसार अमीर देश, जहाँ विश्व की जनसंख्या का मात्र 15 प्रतिशत हिस्सा निवास करता है, कुल CO2 गैस का 50 प्रतिशत उत्सर्जन करते हैं।

अध्धयन बताते हैं कि यदि 21वीं सदी में CO2 के उत्सर्जन को इस सीमा के अन्दर बनाये रखना है कि जलवायु परिवर्तन खतरनाक स्तर तक नहीं पहुँचे, तो मोटे तौर पर CO2 का प्रतिवर्ष उत्सर्जन 14.5 गीगा टन से अधिक नहीं होना चाहिए ( 1गीगा टन = 101 टन= 100 करोड़ टन) जबकि वास्तविक CO2 उत्सर्जन की वर्तमान मात्रा लगभग 29 गीगा टन प्रति वर्ष है। यदि किसी प्रकार CO2 के उत्सर्जन को इस स्तर से न बढ़ने दिया जाय, तो भी इस स्तर के उत्सर्जन से खतरनाक स्थिती न बने, इसके लिए एक नहीं दो पृथ्वियों की जरूरत पड़ेगी।

पृथ्वी अपनी स्मपोषणीयता बनाये रखे एवं इसकी भोजन व अन्य सुविधाएं प्रदान करने की क्षमता बरकरार रहे, इसमें कुछ देशों की भूमिका अधिक महत्त्वपूर्ण होगी। विशेषकर ऐसे देशों की जो कहीं अधिक CO2 का उत्सर्जन कर रहे हैं। जितनी मात्रा CO2 में गैस का उत्सर्जन पृथ्वी को खतरनाक स्तर तक ले जा सकता है, उसका 90 प्रतिशत दोहन अमीर देशों द्वारा किया जा रहा है। इन अमीर देशों में कुल 15 प्रतिशत जनसंख्या रहती है। यह सोचा जा सकता है कि यदि विकासशील देश भी विकसीत देशों के बराबर CO2 का उत्सर्जन करने लगे, तो उस उत्सर्जन को खतरनाक बनने से रोकने के लिए कितनी पृथ्वियों की जरूरत पड़ेगी

यदि विकासशील देशों द्वारा भी प्रति व्यक्ति उत्सर्जन उतना ही हो, जितना विकसीत देशों द्वारा प्रति व्यक्ति उत्सर्जन हो रहा है तो CO2 उत्सर्जन की मात्रा 85 गीगा टन हो जायेगी-इस स्तर के उत्सर्जन को खतरनाक बनने से रोकने के लिए 6 पृथ्वियों की जरूरत होगी। कनाडा या अमरीका द्वारा प्रति व्यक्ति जितना CO2 उत्सर्जित की जा रही है यदि उतनी विकासशील देशों द्वारा भी की जाने लगी तो 9 पृथ्वियों की जरूरत पड़ेगी।

स्त्रोत : सर्वोदय जगत, 01-15 मार्च 2009

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