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'हिन्द स्वराज' और क्रेजी सभ्यता

डॉ. मनोज कुमार राय

‘हिन्द स्वराज’ की रचना तो मात्र दस दिन में हुई, परन्तु इसका गर्भकाल बहुत लंबा अर्थात् बीस वर्ष का है। इसीलिए उसका जन्म शुकदेव की तरह पूर्ण यौवन में हुआ है। इसका प्रमाण यह है कि जन्मते ही उसकी अभीव्यक्ति में एक सामाजिक दायित्वबोध, प्रश्नानुकूलता, वैज्ञानिकता और भविष्यद्रष्टा होने के जितने परिपक्व अभिप्राय प्रकट होने थे, हुए, या कम से कम उनकी नींव पड़ी। इसके पीछे का रहस्य यह है कि 'हिन्द स्वराज’ने अपनी पूर्ववर्ती संपूर्ण सभ्याताओं के गुण-दोष, अनुभव और शिक्षा को अपने भीतर समावेश कर घोर आधुनिक युग के बीच में अपनी आँख खेली थी। इसके साथ तीन-तीन महाद्वीपों (आशिया,यूरोप और अ़फ्रीका) का प्रत्यक्ष संस्कार जुड़ा हुआ था, जिसने अब तक की तमाम उपलब्धियों को अपनी शब्दावली, परंपरा और तर्क के उपादानों से एक नए सर्वस्वीकृत रूप में रचा। तभी तो 20 वीं सदी के प्रसिध्द लेखक मिडल्टन मेरी को कहना पड़ा, ''मूझे लगता है कि आधुनिक ज़माने में लिखी गई पुस्तकों में 'हिन्द स्वराज' सबसे महान् पुस्तक है। मैं इसे दुनिया के आध्यात्मिक महाग्रन्थों में एक महाग्रन्थ मानता हूं ’’।

जिस समय गाँधी 'हिन्द स्वराज ’ की प्रसव-पीड़ा से गुजर रहे थे, उनके सामने पिछले दो सौ वर्षों का आनुनिक सभ्यता का विस्तार अपने नग्न रूप को लेकर उपस्थित था। वे क़ेजी सभ्यता के आक्टोपसी स्वरूप को लेकर ख़ासे सतर्क थे। दरअसल गाँधी की लड़ाई दो स्तर पर चल रही थी। एक थी बाहरी बनाम भीतरी और दूसरी थी स्वयं की खोज। ध्यान देने की बात है कि गाँधी के लिए ये दोनों एक दूसरे के विरोधी नहीं, पूरक हैं। उनके लिए सबसे महत्त्वपूर्ण था अपने  भीतर का सत्य। वे अपने भीतर के 'नीरव निभृत स्वर’ को सुनने की चेष्टा करते थे, पुःन अपने निर्णयों पर पहुँचते थे। आधुनिक सभ्यता के सन्दर्भ में भी यही सत्य है।

सभ्यता के सन्दर्भ में उन्होंने ख़ूब चिन्तन-मनन किया। तब उन्होंने कहा कि आधुनिक सभ्यता में 'मैं अपने बीस बरस के अनुभव के बाद कहता हूँ कि नीति के नाम से अनीति सिखलायी जाती है।’ ऐसा कहना अकारण नहीं है। यह उनहोंने विचारों को अपने अनुभव की आँच में पका करके और अपने पूर्ववर्ती विचारों को आत्मसात करके कहा है। रोमा रोला के प्रशन का उत्तर देते हुए उन्होंने कहा था,  ''मैं अपने जीवन में जिन निर्णयों पर पहुँचा हूं, उन्हें मैंने इतिहास से नहीं पाया-मेरे विचार-चिंतनों पर इतिहास का प्रभाव बहुत थोड़ा ही है। मेरी कार्यप्रणाली की नींव अभिज्ञता पर है, अर्थात् मेरे सभी निर्णय अपनी व्यक्तिगत अभिज्ञता से प्राप्त हुए हैं।’’ इसी अभिज्ञता ने गाँधी को सभ्यता के गुण-दोष को समझने में मदद दी है।

आधुनिक सभ्यता की आलोचना तो अनेक लोगों ने की है, पर जो आलोचना गाँधी ने संग्रह और त्याग के विवेक के साथ की है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। वे इसके दोषों को परत-दर-परत उघाड़ते चलते हैं। ऐसा करना उनकी मजबूरी भी है। 'हिन्द स्वराज’ में गाँधी दोहरी भूमिका में हैं। इस संवाद में संपादक और पाठक दोनों वे स्वयं हैं। अर्थात् जो 'पाठ’ है, वह महज वक्तव्य भर ही नहीं है, जिनसे गाँधी को टकराना पड़ रहा है। ज्ञान के विकास की यह सहज प्रक्रिया है। इससे व्यक्ति के भीतर बैठा उसका समीक्षक मन कोंच कोंचकर प्रश्न उठाता है और 'संपादक’ मन अपने अनुभव, चिंतन, मनन और प्रज्ञा के द्वारा उसका सटीक उत्तर देने का प्रयास करता है। आत्म संवाद की इस औपनिषदीय परम्परा में गाँधी गहरे निपुण थे। सवाल उठाने की भी गाँधी की अपनी शैली है। उत्तर से पहले शंका। फिर उत्तर पर शंका। सभ्यता पर विस्तृत सवाल-जवाब के अध्याय से पूर्व के अध्याय की अन्तिम पंक्ति जो उत्तर के रूप में है, वहाँ गाँधी कहते हैं, ''वह सभ्यता नुकसानदेह है और उससे यूरोप की प्रजा मालामाल होती जा रही है।’’ इसके बाद नया अध्याय 'सभ्यता का दर्शन' प्रश्न से शुरू होता है।

आधुनिक सभ्यता द्वारा फैलाई गई चतुर्दिक बीमारी की  'संक्षिप्त विस्तार’ से चर्चा करते हुए गाँधी उसकी जड़ पर चोट करते हैं। वे इस अध्याय में कुछ महत्त्वपूर्ण व शाश्वत बिन्दुओं को उठाते हैं, जिनकी प्रासंगिकता आज कुछ ज्यादा ही समझ में आ रही हैं। मसलन 'इस सभ्यता की सच्ची पहचान तो यही है कि इसमें मनुष्य बाह्य खोजों में और शरीर के सुख में धन्यता-सार्थकता और पुरुषार्थ मानते हैं। ...शरीर-सुख कैसे मिले, यही आज की सभ्यता ढूँढ़ती है और यही देने की वह कोशिश करती है। परन्तु वह सुख भी उन्हें नहीं मिल पाता।  ''अब यदि हम इस सूत्र की ओर आँख गडाकर इसके निहितार्थ को जानने का प्रयास करें तो सारी चीजें ख़ुद-ब-ख़ुद स्पष्ट हो जायेंगी।

'हिन्द स्वराज' की रचना के बाद लगभग सौ वर्ष बीतने को हैं। जो सवाल  'सभ्यता के सन्दर्भ’ में तब उठाये गये थे, वे आज उससे कहीं ज्यादा शिद्दत से महसूस किये जा रहे हैं। बीसवीं सदी के प्रारम्भ में ही गाँधी ने देख लिया था कि यह 'आधुनिक सभ्यता’ व्यक्ति के व्यक्तित्व को ही खा रही है। वह सब कुछ के त्याग पर बस प्रदर्शन और भोग का हा चिन्तन करता है। जो चिन्ता गाँधी की बीसवीं सदी के अन्तिम दशक की है...''आधुनिकीकरण का आकर्षण जीवन के  अन्य क्षेत्रों में भी अभिव्यक्ति पा रहा है। एक छोटा-सा वर्ग, जो सम्पन्न था और विकास-क्रम के लाभों से जिसकी स्थिति और सुदृढ़ हो गई थी,आधुनिकता का प्रतिरूप बना। उसकी जीवन-शैली बदली, विचार-शैली नहीं।  यह छद्म आधुनिकता थी, जो अहं के साथ वहम पाल रही थी। यह अभिजात्य और सम्पन्नता की झीनी परत पश्चिमीकरण को ही आधुनिकता मान बैठी थी। विवेक के तर्क और परानुभूति की भूमिकाओं की सचलता और सक्रियता आदि गुण, जो आधुनिकता के आधार-लक्षण हैं, उसने नहीं अपनाये। भोगवादी और प्रदर्शनावादी जीवन-शैली ज़रूर अपना ली।" कहना न होगा कि जिसकी चिन्ता समाज-विज्ञानियों को आज हो रही है, उसे गॉंधी ने बहुत पहले ही भूप लिया था।

पैसा ही सब कुछ है- 'सर्वे गुणाः कांचन आश्रयन्ते' का संकेत गाँधी ने 'हिन्द स्वराज’ में किया है। वे यह देख सके थे कि आधुनिक सभ्यता का पुरुषार्थ शरीर-सुख है और इसमें उसका सहायक है अर्थ(पैसा)। मनुष्य दिन-रात नशे में होकर  'हाय पैसा, हाय पैसा’ का जप करता रहता है । वह इसके लिए किसी भी सीमा तक जाने के लिए तैयार है । दरअसल यह सब 'सुख कहाँ है', इसको न समझने के कारण ही पैदा हुआ है । चूँकि वह ‘एकान्त में बैठ नहीं सकता’, अतः उसे समय ही नहीं मिलता कि वह अपने अन्दर झाँक कर देख सके। वहाँ झाँकने में उसे भय भी लगता है। अतः वह अपने को बाहरी दुनिया में भुलाये रखने की चेष्टा करता है। इस प्रकार वह अपने को धोखा देने की चतुराई करता है। और यह विशुध्द रूप से आत्मपलायन को संकेत है। इसका उदाहरण हमें शुतुरमुर्ग के उस कृत्य में दिखता है, जब वह बालू में अपनी गर्दन को घुसेड़ कर अपने को सुरक्षित समझता है।

वर्तमान समय में भोग-विलास की प्रधानता का असर इतना बढ़ गया है कि जीवन-स्तर के मूल्यांकन का यह मानक बन चुका है। पर क्या इससे तथाकथित समृध्द देश के लोगों के आनन्द में वृध्दि हुई है? इसका उत्तर 'नहीं ’ में है। आज उन देशों में लूट, हत्या, आत्महत्या, बच्चों के द्वारा सहपाठियों की हत्या, बलात्कार आदि जैसी समस्या अपने विकराल रूप में है। टी.वी., शराब सिनेमा, बार, पार्टी के बिना वे एक क्षण भी नहीं रह  सकते हैं। उन्हें एकान्त काटता है। इससे बचने के लिए वे नशे का सहारा तेले हैं। यह उनके लिए नयी बीमारियों को दावत देता है। इस प्रकार वह इनके मकड़जाल में इस कदर फॅंस जाता है कि उससे बाहर निकलने का प्रयास आत्मवंचना बन कर रह जाता है। और हम जानते है कि आत्मवंचना नैतिक पतन की पहली सीढ़ी है । अवसर आने पर यह आत्मवंचक परिवार, समाज, राष्ट्र सबका वंचक हो जाता हैं।

गॉंधी मानव-जाति के इस पतन से दुखी थे इसीलिए उन्होंने अपनी बात 'अनेक रूपों में, अनेक शब्दों में पुनरुक्ति दोष (कुछ लोगों को दिखता है) मोल लेकर भी अच्छी तरह से स्थापित किया है। 'हिन्द स्वराज’’ में ही वह एक जगह लिखते हैं, ''पैसा मनुष्य लो लाचार बना देता है। ऐसी दूसरी च़ीज विषय-भोग है। ये दोनों विषय विषमय हैं। उनका डंक साँप के डंक से ज्यादा ज़हरीला है। जब साँप काटता है तो हमारा शरीर लेकर हमें छोड़ देता हे। जब पैसा या विषय काटता है, तब वह शरीर, प्राण, मन (देह, मन और आत्मा) सब कुछ ले लेता है; तब भी हमारा छुटकारा नहीं होता।’’  परिणाम स्पष्ट है। सबसे समृध्द देश में स्नायविक अशांति सबसे अधिक है। इससे मुक्ति के लिए वे अब दूसरे रास्ते की तलाश में हैं, जिसका संकेत गांधी ने  'हिन्द स्वराज’  में किया है, '' इसलिए हमारे पुरखों ने भोग की हद बॉंध दी।’’

आधुनिक सभ्यता की एक और ज़बर्दस्त बुराई है, वह है यंत्रवाद और और औद्योगिकीकरण। इसके लिए गॉंधी पर समय-समय पर आरोप भी लगाया जाता रहा कि वे यंत्रों के खिलाफ थे। परन्तु यह सब हिन्द स्वराज के 'स्पिरिट' को न समझ पाने के कारण ही है। कुबेरनाथ राय लिखते हैं,  ''हमें उन बातों के पीछे अन्तर्निहित विचारधारा को देखना चाहिए। गॉंधी यंत्र नहीं, आधुनिक सभ्यता के सर्वग्रासी यंत्रवाद का विरोध कर रहे थे, भारी उद्योगों के विरोधी थे। स्वयं गॉंधी ने अपने को स्पष्ट करते हुए लिखा हैः ''मेरा विरोध यंत्रों से नहीं है, परन्तु यंत्रों के पीछे जो पागलपन है, उससे हे।’’ कहने की ज़रूरत नहीं कि यंत्र –समर्थकों के बड़े-बड़े दावे, जिनमें वे पृथ्वी को स्वर्ग बनाने की चाहत रखते हैं, कितने खोखले साबित हुए हैं। मूल्य –वृध्दि के साथ-साथ शोषण की भी वृध्दि हुई हैं, जिसकी वजह से इनकी पूँजी की भूख सदा विकासमान बनी रहती है। परिणामस्वरूप केन्द्र से मनुष्य बेदखल होता चला जाता है। एक उदाहरण से असे आसानी से समझा जा सकता है-

हम जानते हैं कि वृहत्तर यंत्र-चालन के लिए बिजली की आवश्यकता होती है और बिजली पैदा करने के लिए बॉंध की ज़रूरत होगी। जब बाँध बनेंगे तो मनुष्य विस्थापित होंगे। मतलब साफ है कि विकास तो दिख रहां है, पर किसके बिना पर। ये बड़े-बड़े बाँध, कल-कारखाने सभी तो पर्यावरण की ही कीमत पर स्थापित किये जाते हैं। इस प्रकार हम यह आसानी से देख पा रहे हैं कि इस यंत्र-उद्योग-क्रान्ति के कारण न केवल पर्यावरण का नैसर्गिक संतुलन नष्ट हुआ है,  अपितु प्रदूषण भी खतरानाक स्थिति तक पहुँच गया है। विकासित देशों में शुध्द जल, हवा, मिट्टी भी दुर्लभ होती जा रही है। धुआँ, राख, रासायनिक कचरा तो था ही, अब 'ई-कचरा'  तो सबका बाप बन कर उभरा है। प्रख्यात भौतिकविद्  Fritjof Capra की टिप्पीणी देखनेलायक है- “Today, we are becoming painfully aware that nuclear power is neither safe nor clean, nor cheap… Even discounting the threat of a nuclear catastrophe, the global ecosystem and the further evolution of life on earth are seriously endangered and may well end in a large-scale ecological disaster.”

कवियों को सब सुनाई (दिखाई) पड़ता है-'कवयः सर्वश्रुतयः। गाँधी जी कवि थे- उपनिषदों के अर्थ में। इसीलिए वे यत्र के बारे में निर्भ्रान्त होकर कह सकते थे, ''यंत्र तो दीमक का ऐसा बिल है, जिसमें एक नहीं, बल्कि सैकड़ो साँप होते हैं। एक के पीछे दूसरा लगा ही रहता है।’’ गाँधी की आशंका कितनी सही थी, यह कहने की ज़रूरत नहीं है।  'हिन्द स्वराज’ में एक अन्य जगह अपनी बात को स्पष्ट करते हुए गाँधी लिखते हैं, ''मशीनें यूरोप को उजाडने में लगी हैं और वहाँ की हवा अब हिन्दुस्तान में चल रही है। यंत्र आज की सभ्यता की मुख्य निशानी है और वह महापाप है, ऐसा तो मैं साफ देख सकता हूँ।’’ पिछले सौ वर्षों के विकास और विनाश का यदि हम तुलनात्मक अध्ययन करें तो हमें यह स्वीकार करना पड़ेगा कि सचमुच में यंत्र ने इस सभ्यता को विनाश पर ले जाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है।

''समय और श्रम की बचत मैं भी चाहता हूं, परन्तु वह किसी एक वर्ग की ही नहीं, पूरी मानव जाति की होनी चाहिए।’’ जो यह कहकर कि यंत्र से समय और श्रम की बचत होती है, गाँधी का विरोध करने की सोचते थे, हिन्द स्वराज में उन्हें निरुत्तर कर दिया गया। वे जानते थे कि 'यंत्रों के उपयोग के पीछे पेरक कारण श्रम बचाने का न होकर धन का लोभ है।’ मनुष्य के बिना पर यंत्र उन्हें कतई स्वीकार्य नहीं थे। हाँ, यदि उसके पीछे सहयोग की भावना हो तो वे यंत्र को स्वीकार करने के लिए तैयार थे। बस वे यह चाहते थे कि यंत्र-विज्ञान आदि के उपयोग के पीछे लोभ न होकर पेम का भाव रहे। इसीलिए वे सिंगर मशीन की प्रशंसा करते हैं। वे कहते हैं “अपनी पत्नी को सिंगर में सीने और बखिया लगाने के उकताने वाले काम करते देखा। पत्नी के प्रति पेम ने गैरजरूरी मेहनत से उसे बचाने के लिए सिंगर को ऐसी मशीन बनाने की प्रेरणा दी।’’ यंत्र की पैठ वह उतनी चाहते थे, जितनी कि आवश्यक है। यंत्र यदि व्यक्ति के काम को छीनकर पंगु बनाता है तो वह गाँधी को स्वीकार्य नहीं।

वृहद यंत्र केन्द्रीकरण का साधन होता है। गाँधी इससे परिचित थे। वे जानते थे कि मानव समाज की भलाई केन्द्रीकरण में नहीं, विकेन्द्रीकरण में है। यहाँ अधिक से अधिक हाथो को काम मिलता है। इससे व्यक्ति –विशेष के गुणों का लाभ समाज को मिलता है। उसके स्वयं के व्यक्तित्व में निखार आता है, जिससे पास-पड़ोस के लोगों को भी लाभ मिलता है। इसके विपरीत केन्द्रीकरण में शोषण की भूमिका चरम पर होती है। सन् 1928 में गाँधी ने यंग इण्डिया में लिखा था कि एक ही छोटे से द्वीप राज्य (इंग्लैंड) का आर्थिक साम्राज्यवाद आज सारे संसार को गुलामी की ज़ंजीरों में जकड़े हुए है। यदि तीस करोड़ आदमियों का सारा राष्ट्र इसी तरह आर्थिक शोषण आ़ख्तियार कर ले, तो वह टिड्डी दल की तरह संसार को चट कर जायेगा।’’ बात स़ाफ है। गाँधी चाहते थे कि हर हाथ को काम मिले, न कि बेकारी है। इसी बात को अपनी काव्य-शैली में गाँधी कहते हैं, ''म़जदूरों को अच्छी म़जदूरी मिले, इतना ही नहीं, परन्तु वे कर सकें तो ऐसा काम उन्हे हर रोज मिलना चाहिए।’’

स्काटलैण्ड में हाथ के बुनाई-उद्योग के पतन पर खेद व्यक्त करते हुए बर्टेण्ड रसेल ने लिखा है, ''आजाद बुनकर विशाल, बीभत्स और अस्वास्थ्यकर मानव बाबियों की इकाई मात्र बन जाता है। फिर उनकी आर्थिक सुरक्षा का आधार उनकी अपनी कार्यकुशलता और प्राकृतिक शक्ति पर नहीं रहता, बल्कि कुछ बड़े संगठनों में विलुप्त हो जाता हे, जिनमें एक निष्फल हो, तो सभी निष्फल हो जाते है।’’ आगे चलकर शूमाखर ने भी अनुभव किया, ''लोग जहाँ रहते हों, वहीं उन्हें काम मिलना चाहिए। लोगों की अपनी परंपरागत जीवन-पध्दति, रहन-सहन, संस्कृति, मूल्यों आदि के साथ तकनालाजी का मेल बैठना चाहिए।...उत्पादन की प्रक्रिया सरल हो, जिससे बाहर के विशेषज्ञों पर अथवा ब़ाजार पर निर्भर न रहना पड़े, उत्पादन  मुख्यतः स्थानिक उपयोग के साथ सुसंगत होनी चाहिए। उसका स्वरूप सौम्य, अहिंसक, लालित्यपूर्ण एवं शोभनीय हो।’’ रसेल हों अथवा शूमाखर या कोई अन्य मानवता-पेमी, सभी कहीं न हीं 'हिन्द स्वराज’ के मूल स्वर हो ही अपने देश, काल,  पात्र के अनुरूप तान देते हैं।

आधुनिक समाज की एक और गंभीर बुराई की तऱफ गाँधी ने संकेत किया है। वह है स्वार्थपरकता। स्वार्थ की स्थिति यह है कि व्यक्ति अपनी लिप्सा की शान्ति के लिए किसी भी हद तक जा सकता है। सुबह से लेकर शाम तक किसी न किसी काम में जुता रहताहै। लेकिन यह जुते रहना उसकी मानसिक अशांति का ही परिणाम होता है।

आधुनिक सभ्यता के सन्दर्भ में ही गाँधी ने...डाक्टर, वकील आदि की भी बुराई की है। यहाँ हमें तनिक ठहरकर इसके पीछे के भाव को समझना होगा। कवल सतही ज्ञान से गाँधी के साथ अन्याय ही होगा। 'हिन्द स्वराज’ के कुछ प्रसंगो को देखें-''लोग दूसरों का दुःख दूर करने के लिए नहीं, बल्कि पैसा पैदा करने के लिए वकील बनते हैं। वह एक कमाई का रास्ता है।’’

''वकील का स्वार्थ झगड़ा बढ़ाने में है’’

''यूरोप के डाक्टर तो हद करते हैं कि स़िर्फ शरीर की ही गलत सँभाल के लिए लाखों जीवों को हर साल मारते हैं, जिंदा जीवों पर प्रयोग करते हैं। ऐसा करना किसी भी धर्म को मंजूर नहीं।’’

''हम डाक्टर क्यों बनते हैं, यह भी सोचने की बात है। उसका सच्चा कारण तो आबरूदार और पैसा कमाने का धंधा करने की इच्छा है। उसमें परोपकार की बात ही नहीं है।’’

       ''गाँधी ने यह सब सन् 1909 में लिखा। अब लगभग एक सदी गुजरने को है। हमारी स्वयं की मुलाकात प्राय ऱोज डाक्टर और वकीलों से होती है। इनके नये-नये कारनामों की जानकारी अखबार और टी.वी.चैनलों से मिलती रहती है। कहना न होगा कि मात्र इन्हीं व्यवसायों में नहीं, अपितु अन्य व्यवसायों में भी बराबर की गिरावट आयी है। नीति को एक तऱफ करके, स़िर्फ मुऩाफे की दृष्टि से चलाये जा रहे इन व्यवसायों को 'हिन्द स्वराज' में खुली चुनौती दी गयी है। गाँधी का सीधा सवाल है- ''वे म़जदूर से ज़्यादा रोजी क्यों माँगते है? उनकी ज़रूरतें म़जदूर से ज्यादा क्यों है? उन्होंने म़जदूर से ज्यादा देश का क्या भला किया है? क्या भला करने वालों को ज़्यादा पैसा लेने का हक है? और अगर पैसे की खातिर उन्होंने भला किया हो, तो उसे भला कैसे कहा जाय? ’’

       सर्वोदय के जो तीन मूल सिध्दान्त गाँधी ने गिनाए हैं, उनमें से एक है-वकील और हज्जाम, दोनों के काम की क़ीमत एक समान होनी चाहिए। क्योंकि आजीविका का ह़क दोनों को समान है-इसकी स्पष्ट झलक यहाँ है। दरअसल गाँधी ने 'हिन्द स्वराज ’ में चालू व्यवस्था की जड़ पर ही प्रहार किया है।

       कढहते हैं, सच्चे प्रेम से सच्ची व्याकुलता उत्पन्न होती है। गाँधी जब हिन्द स्वराज की प्रसव प्रक्रिया से गुजर रहे थे तो वे संपूर्ण अर्थ में व्याकुल थे समाज के अधःपतन को देखकर, वे व्याकुल थे मनुष्य जाति के विनाशकारी रास्तों को देखकर, वे व्याकुल थे मानव जाति द्वारा प्रकृति के साथ बीभत्स बलात्कार को देखकर। और हम जाने हैं कि जिसे सच्ची व्याकुलता है, वह विधि-निषेध के बंधन में नहीं बँधा रहता। उसे लोक-लाज और शास्त्र के प्रति निष्ठा भी अपने मार्ग से विचलित नहीं कर सकती। वह तो 'एकला चलो रे’ का पथिक होता है। उसे न किसी के साथ की ज़रूरत होती है, न संगति की। वह तो अपनी साधना और अभ्यास के द्वारा ऐसी दृष्टि प्राप्त कर लेता है, जिससे आर-पार दिखाई देने लगता है।

कबीर ने कहा है-

बिरहा बुरहा जिन कहौ, बिरहा है सुलतान।

जिस घटि बिरह न संचरै, सो घट सदा समान।

गाँधी के कन में मनुष्य-प्रेम ने अकथनीय व्याकुलता पैदा कर दी थी। वे यह देख पा रहे थे कि पाश्चात्य  सभ्यता दरअसल मनुष्य जाति के विनाश के लिए ही अवतरित हुई है। उनका व्याकुल मन कराह उठता है। वे 'हिन्द स्वराज’ में कहते हैं-

''यह सभ्यता तो अधर्म है।’’

''पैगम्बर मुहम्मद साहब की सीख के मुताब़िक यह शैतानी सभ्यता है।’’

       ''हिन्दु धर्म इसे निरा कलयुग कहता है।’’

''यह सभ्यता दूसरों का नाश करने वाली और खुद नाशवान है। ’’

गाँधी को यह सभ्यता किसी क़ीमत पर स्वीकार नहीं है। 'हिन्द स्वराज’ के पन्ने-पन्ने पर इस आसुरी सभ्यता के खिलाफ गाँधी खड़े दिखाई देते हैं।

भारतीय गाँव के प्रति गाँधी के मन में अपार श्रध्दा है। गाँव के रहन-सहन, शरीर-श्रम, आपसी सद्भाव और रिश्ते, मर्यादित जीवन, खेतों में अभय होकर रहना, सोना, प्रकृति के प्रति असीम प्यार आदि ने उनके मन को मोह लिया था। गाँधी का इतिहास-बोध प्रखर था। उनके अपने अध्ययन और विवेक ने गाँव के आन्तरिक सौन्दर्य को स़ाफ तौर भोलेपन पर वे मुग्ध थे। उन्होंने देख लिया था कि तीव्र गति से बढ़ रहे इस सभ्यता के पाँव भोले-भाले भारतीय गाँव को पूरी तरह अपनी चपेट में ले लेंगे। आसन्न सर्वनाश की कल्पना से गाँधी सिहर उठे। उनका कोमल हृदय चीत्कार कर उठा। वे कहते हैं-''जहाँ यह चांडाल सभ्यता नहीं पहुँची है, वहाँ हिन्दुस्तान आज भी वैसा ही है।'' अर्थात् भारतीय गाँव अपने-अपने कामां में व्यस्त हैं। परन्तु सतर्क न रहने पर इस आसुरी  सभ्यता का आक्रमण उन पर भी हो सकता है। सन् 1909 में गाँधी इसके प्रभाव के प्रारभ्भ को इंगित करते हैं, ''हिन्दुस्तानी सागर के किनारे ही मैल जमा है। उस मैल से जो गंदे हो गये हैं, उन्हें स़ाफ होना है।’’

आधुनिक सभ्यता को सुधार-शुमार करने वाले विचार को वे सिरे से खारिज कर देते हैं,''यह सुधार नहीं, कुढधार है और इनसे यूरोप की प्रजा बरबाद हो रही है।’’

''सुधार एक तरह की बीमारी है।’’

''यह एक अदृश्य बीमारी है, उससे बचना।’’

''ये सुधार तो आम जनता को नीचे गिराने वाले हैं।’’

''ये सुधार-कुधार क्यों है? इसे गाँधी-चिंतन के सूक्ष्म तत्त्वदर्शी कुबेरनाथ राय ने स्पष्ट कर दिया है- '' आधुनिक मनुष्य भीतर-भीतर दरिद्र होता जा रहा है। क्योंकि बाहर-बाहर वह अत्याधिक अबनार्मल रूप में 'सक्रिय’ है । विराम, क्षमा, शान्ति, ध्यान-सूख, दस मिनट अकेले बैठकर अन्तर्मुखी होने का सुख, आत्मचिंतन का सुख, एकान्त सेवन का सुख, ये सब उसे फालतू लगते है और इन्हें ग्रहण करने की उसकी क्षमता का ही लोप होता जा रहा है। संक्षेप में वह एक तरह से ग्रस्त या बिमार है। उसके भीतर छरिपु बैठे हैं और वे रिपु उसकी वात-प्रकृति से निरन्तर व्यभिचार में लीन हैं। यह तो दो ही बातें समझता है। एक है उसका प्रकृति-विजेता होने का अहंकार और दूसरी है उसकी असीम रमण-तृषा। चाहे वह धरती हो, नारी हो, प्रकृति हो या पास-पड़ोस का समाज हो, जिसमें वह रहता है, सर्वत्र ही वह अलाउद्दीन खिलजी है। बलात्कार-मुखी होना ही उसकी आधुनिकता है, उक्त चारों सत्ताओं के सन्दर्भ में उसकी आँखों, उंगलियों और स्नायुमण्डल के निरन्तर चीता-बाघ घूमते रहते हैं।’’ गाँधी इसी बिना पर आधुनिक सभ्यता के प्रबल विरोधी हैं। लंदन गाँधी के लिए दार्शानिकें, शिक्षाविदों और सभ्यता का गढ़ था। लंदन पहुँचने पर गाँधी उसकी चकाचौंध पर मुग्ध थे,''When I first saw my room in Victoria Hotel, I thought I could pass a life time in that room 1(83)” वे वहाँ के सुसज्जित युक्त भवनों, सड़क की दोनों तरफ की चमचमाती रोशनी (ध्यान रहे, बिजली का प्रसार हिन्दुस्तान में सीमित था), स्वेजनहर और जिब्राल्टर के खाका आदि पर मुग्ध थे। परन्तु यह चमक-दमक ज्यादा दिन तक उन्हें नहीं बाँध सकी। जल्दी ही वे लंदन के मायाजाल से मुक्त हुए, ''This crazy civilization… London has gone mad over… We have trains running underground, there are telegraphs already hanging over us and outside on the roads, there is deafening noise of trains… Looking at this land, I at any rate have grown disillusioned with Western Civilization… it is beyond my understanding what good the discovery of the North Pole has done to the world… I for one regard all these trains as a symptom of mental derangement.”  जरा इसकी तुलना कीजिए पाश्चात्य विद्वान Vinson Brown के इस कथन से, जिसमें उन्होंने कहा है, This civilization has put the whole earth in terrible danger by its over exploitation of living things, by its burning of fuels that pollute the air,by its poisoning of the vaters, its exertion of erosion and deserts by its corruption of  govt. and men. Are automobiles, airplanes, super highways and all the other fancy gadgets that have seemed so important to us, reality worth more… than a livable beautiful earth…?  'हिन्द स्वराज’ के द्वार पर पहुँचने से पूर्व गांधी की दिव्य दृष्टि से कुछ बच नहीं पाया था। वे यह देख पा रहे थे कि आनेवाली पीढ़ी को आधुनिक सभ्यता की सबसे बड़ी देन 'शरीर की प्रतिष्ठा के लिए सर्वस्व का समर्पण’ होगी। गाँधी को यह पच ही नहीं रहा था, ''बड़े-बड़े नगर स्वतत्रता के नहीं, दासता के सूचक हैं। यातायात के आधुनिक साधनों ने हमारे तीर्थों-पवित्र स्थानों को अपवित्र बना दिया है। ...में तो यह हरगिज नहीं कह सकता कि हमें कभी भी यह सभ्यता (आधुनिक) अपनानी चाहिए।’’

गाँधी वस्तुत उस नयी सभ्यता के खिल़ाफ थे, जो आत्मवंचना पर टिकी हुई है। वे पश्चिम और विकसित के नाम पर विश्व पर छा जाने की कामना रखने वाली उस सभ्यता और जीवन-पध्दति में बुनियादी परिवर्तन लाना चाहते थे, जो अबाध भोग, घोर हिंसा, आतंकवाद, क्रूरता, शोषण, रंगभेद, स्वार्थपरता आदि की भवना पर आश्रित थी। तमाम सुख-सुविधाओं की उपलब्धता के बावजूद आज मनुष्य अपने को जितना असहाय पाता है, उतना शायद ही उसने कभी अनुभव किया हो। गाँधी इससे बेखबर नहीं थे।

संपर्कः  व्याख्याता, अहिंसा और शान्ति अध्ययन विभाग, महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा महाराष्ट्र

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