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जे. पी. की सम्पूर्ण क्रान्तिः  एक विवेचन

धर्मराज सिंह यादव

सम्पूर्ण क्रान्ति के विविध आयाम

सम्पूर्ण क्रान्ति की उद्घोषणा के साथ साथ तथा अन्य भाषणों व लेखों म जे. पी. ने क्रान्ति के व्यापक परिदृश्य या आयाम का संकेत दिया है। उन्होंने स्पष्ट किया कि उनका आन्दोलन केवल छात्र-संघर्ष समिति की मात्र १०-१२ माँगों की पूर्ति के लिए ही नहीं बल्कि भारतीय लोकतंत्र को वास्तविक और सुदृढ़ बनाना, जनता का सच्चा राज कायम करना, समाज से शोषण अन्याय आदि का अन्त करना, एक नैतिक, सांस्कृतिक तथा शैक्षणिक क्रान्ति करना, नया बिहार बनाना और अन्ततोगत्वा नया भारत बनाना है। ऐसा एक सम्पूर्ण क्रान्ति का आन्दोलन है।“ उल्लेखनीय है कि १९७० के दशक में जे. पी. ने बिहार के मुसहरी प्रखण्ड में नक्सलवादी आन्दोलन से सहमत न होकर भूमि-व्यवस्था में बदलाव और ग्रामीण समस्याओं के निराकरण हेतु गाँव-गाँव में कैम्प लगाकर एक अभियान चलाया और बिहार आन्दोलन के विविध कार्यक्रमों जैसे भ्रष्टाचार के विरुद्ध जेहाद, जनेऊ तोड़ो आन्दोलन, तिलक-दहेज का विरोध और अन्तर्जातीय विवाहों आदि के द्वारा सम्पूर्ण क्रान्ति की तस्वीर उभारने की कोशिश की।

जे.पी.ने सम्पूर्ण क्रान्ति के मुख्यतः सात आयाम निश्चित किये हैं- सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक, वैचारिक या बौद्धिक, शैक्षणिक और आध्यात्मिक। वैसे यह सूची सुझाव मात्र है। इसको बढ़ाया-घटाया जा सकता है। जिसका उन्होंने खुद सुझाव दिया है कि सांस्कृतिक क्रान्ति के अन्तर्गत शैक्षिक और वैचारिक दोनों आयाम रखे जा सकते हैं। उसी प्रकार सामाजिक व आर्थिक दोनों एक में लिये जा सकते हैं। माक्र्स के प्रतिपादन में सामाजिक क्रान्ति मूलतः एक आर्थिक क्रान्ति है। यूरोप के संदर्भ में यह न्यायसंगत है क्योंकि माक्र्स ने समाज को वर्ग के रूप में देखा और सामाजिक सम्बन्धों को उत्पादन के साधनों के आर्थिक स्वामित्व के आधार पर विश्लेषित किया। यूरोप में आर्थिक सम्बन्ध ही व्यक्ति के सामाजिक सम्बन्ध निर्धारित करते हैं। भारत में सामाजिक संदर्भ का एक विशिष्ट आयाम है। समाज यहाँ वर्गों के स्थान पर प्रमुखतः जाति आधारित है जो अलग रीति-रिवाज, शादी-व्याह, ऊँच-नीच के भेदों से ग्रसित है। सामाजिक क्रान्ति के अन्तर्गत जे.पी.ने समाज की कुरीतियों- छुआछूत, ऊँच-नीच, जाति-प्रथा, तिलक-दहेज आदि पर गहरा प्रहार किया और बहुत से क्रान्तिकारी कदम जैसे सामूहिक भोज, जनेऊ तोड़ो आन्दोलन, अन्तर्जातीय विवाह, दहेज बहिष्कार आदि कार्यक्रम चलाया। क्रान्ति के विविध आयामों को मुख्यतः तीन संभागों में बाँटा जा सकता है।


सांस्कृतिक और नैतिक क्रान्ति

संस्कृति के आधारभूत तत्त्व मूल्य हैं जो व्यक्ति के आदर्श एवं व्यवहार को निर्धारित करते हैं। आज का जागतिक संकट सांस्कृतिक या मूल्य संकट है। मानवीय और नैतिक मूल्यों का विशेष क्षरण हुआ है। गांधी ने सत्य, अहिंसा, प्रेम, सद्भाव आदि नैतिक मूल्यों को मानव सभ्यता के आधारभूत तत्त्व के रूप में मान्यता दी है। गांधी की साध्य-साधन की सुचिता और उनकी एकरूपता का सिद्धान्त जे.पी.के मूल्य मीमांसा का मुख्य आधार हे और उनके अनुसार जब साध्य-साधन की शुचिता स्वीकार की जाती है तो एक नई सैद्धान्तिक या वैचारिक क्रान्ति पैदा होती है। अपने चारों तरफ की चीजों को देखने की एक नई दृष्टि पैदा होती है। इसी सम्बन्ध में उन्होंने व्यक्ति और समाज के मूल्यों के पुनर्मूल्यांकन या अधिमूल्यांकन और नैतिक क्रान्ति का आह्वान किया है। विज्ञान, कला, साहित्य, दर्शन आदि सभी क्षेत्रों में नैतिक दृष्टि अपनाने की आवश्यकता पर बल दिया है और भूदान-ग्रामदान आन्दोलन में इन पक्षों पर विशेष ध्यान रहा।  उन्होंने उन विचारों, जीवन दृष्टियों और मूल्यों को जो गलत और हानिकारक सिद्ध हुए हैं, त्याग कर नये जीवन मूल्यों और विचारों को ग्रहण करने का आह्वान किया है। ऐसे मूल्यों का सम्बन्ध समाज की बड़ी समस्या से होना चाहिए, जिसके समाधान से समाज में मौलिक परिवर्तन की दिशा निर्धारित हो। ‘अपनी आवश्यकताओं को स्वेच्छया सीमित करना और सादा जीवन व्यतीत करना“ आज का बुनियादी नैतिक मूल्य है जो एक अहिंसक समाज रचना का मूलाधार हो सकता है। इसी सम्बन्ध में इको नैतिकता (Eco-ethics) नैतिक विमर्ष का एक दूसरा महत्त्वपूर्ण आयाम है जो आज की ज्वलन्त समस्या पर्यावरण विनाश का समाधान प्रस्तुत करता है। विज्ञान और कला के सम्बन्ध में जे.पी.का अपना एक विशिष्ट दृष्टिकोण है। वे विज्ञान के व्यवसायीकरण की जगह उसके मानवीकरण और नैतिकीकरण की बात करते हैं। वे विज्ञान को निर्लिप्त, निरपेक्ष या नैतिकता से असम्बद्ध नहीं मानते। विज्ञान भी एक उद्देश्य प्रेरित मानव प्रयास का ही परिणाम है। विज्ञान का उपयोग स्वतः विज्ञान पर निर्भर नहीं करता बल्कि समाज की प्रवृत्ति और गठन पर निर्भर करता है। वैज्ञानिक अनुसन्धन अपने में कोई ऐसी वस्तु नहीं जो भारीभरकम उद्योग, बड़ी मशीनरी, बड़े संहारक अस्रों की अनिवार्यता को स्वीकार करता हो। यदि समाज ने सत्ता, मुनाफा और युद्ध के लक्ष्यों को न अपनाकर शान्ति, सद्भावना, स्वावलम्बन, स्वतंत्रता आदि मूल्यों को अपनाया होता तो निश्चित ही यंत्र कला का तद्नुरूप विकास और उपयोग हुआ होता। जे.पी.ने स्वयं हक्सले का विचार उद्धृत किया है- ‘‘किन्तु हमें यह बात समझ लेनी चाहिए कि निर्लिप्त वैज्ञानिक अनुसन्धान अपने में कोई ऐसी वस्तु नहीं है जो केन्द्रित अर्थ-व्यवस्था, उद्योग और सत्ता के लाभ के लिए अपने उपयोग को अनिवार्य बनाती है। यदि आविष्कारक और यंत्रज्ञ लोग चाहें तो शुद्ध विज्ञान के निष्कर्षों को स्वतन्त्र रूप से या सहकारी मण्डलों में काम करने वाले छोटे-छोटे कारोबार के मालिकों के आर्थिक स्वालम्बन और राजनीतिक स्वातन्त्र्य को बढ़ाने में उतने ही उपयोगिता के साथ इस्तेमाल कर सकते हैं।“

जे.पी.ने वर्तमान शिक्षा में भी क्रान्तिकारी परिवर्तन की आवश्यकता की बात की, ‘‘वर्तमान सड़ी हुई व्यर्थ की शिक्षा-पद्धति के विरुद्ध जेहाद छेड़ना होगा। क्योंकि यह शिक्षा व्यवस्था एक ओर तो हमारे अधिकतर बच्चों को अशिक्षित छोड़ देती है और दूसरी ओर वह बच्चों को गलत ढंग से शिक्षित करती है।" जे.पी.के अनुसार शिक्षा जीवनोपयोगी, रोजगारपरक और मूल्यपरक होनी चाहिए। उनके शब्दों में शिक्षा ऐसी हो जो जीवनोपयोगी हो, जिस शिक्षा को प्राप्त करने विद्यार्थी अपने पैरों पर खड़ा हो सके, कुछ कर सके। माओ ने चीन में युवकों से कहा था कि कारखानों में, खेतों में जाओ, वहाँ जाकर सीखो-समझो। वही आपका विश्व-विद्यालय है। गांधी जी ने भी यही कहा था कि विद्यार्थी स्वावलम्बी बनें, उनका आत्म-विश्वास बढ़े, ऐसी शिक्षा होनी चाहिए।“ ऐसी शिक्षा के लिए उन्होंने कुछ ठोस सुझाव दिये हैं- जैसे डिग्री को योग्यता का प्रमाण-पत्र न मानना, श्रममूलक न्यूनतम शिक्षा सभी को, ‘हाफ-हाफ“ स्कूल या एक घण्टे की पाठशाला शिक्षा, स्कूलों में मूल्य-शिक्षा का व्यापक अध्ययन-अध्यापन आदि।


आर्थिक क्रान्ति

जे.पी.ने गांधी के आधारभूत आर्थिक सिद्धांतों को स्वीकार करते हुए एक अहिंसक समतामूलक सामुदायिक अर्थ-व्यवस्था की कल्पना की है।  यह एक कृषि-औद्योगिक अर्थ-व्यवस्था (Agro-Industrial Economy) है। जो मुख्यतः न्यायोचित भूमि संयोजन, जमीन जोतने वाले की हो, किसी भी परिवार के पास अपने भरण-पोषण करने से अधिक जमीन न हो, लघु व मध्यवर्ती उद्योगों, कुटीर ग्राम-उद्योगों पर आधारित हो। वास्तव में सर्वोदय आन्दोलन का प्रारम्भ तो भूमि व्यवस्था में आमूल परिवर्तन के लिए हुआ और विनोबा की प्रतिभा ने एक अहिंसक आन्दोलन का रूप दिया।  आन्दोलन में जे.पी.का असाधारण योगदान था। उन्होंने भूमि वितरण की समस्या को प्रमुखता से लिया और उसके नये आयाम प्रस्तुत किए। बिहार में कुछ क्षेत्रों में सीलिंग से अधिक जमीन रखने वालों का एक सर्वे कराकर सरकार का ध्यान आकर्षित किया और भूदान-ग्रामदान में प्राप्त जमीन बँटवारे का कानून भी पास हुआ। उन्होंने ग्राम या क्षेत्र स्तर पर भू-समितियों का गठन किया ओर पूरे आन्दोलन को ‘भू-क्रान्ति“ का स्वरूप देने का प्रयास किया।

भूदान-ग्रामदान के परिप्रेक्ष्य में जे.पी. ने स्वामित्व का प्रश्न गम्भीरता से लिया और जमीन के ‘ग्राम्य-स्वामित्व“ का कार्यक्रम भी लिया गया और कुछ गाँवों में कार्यान्वित भी हुआ। फिर भी इस योजना को विशेष सफलता नहीं मिली।  उद्योगों में श्रमिकों की भागिदारी का प्रश्न भी सामने आया और देश स्तर पर उस विषय पर गोष्ठियाँ, मालिकों या उद्योगपतियों से वार्ता का आयोजन किया गया। स्वामित्व के पाँच प्रकार निश्चित किये गये हैं- व्यक्तिगत व पारिवारिक स्वामित्व, स्वावलम्बी उत्पादकों का स्वामित्व, सामुदायिक ग्रामीण सहयोगी और निजी लाभमूलक लघु प्रबन्धकीय स्वामित्व। जे.पी.ने ट्रस्टशिप सिद्धान्त की एक नई आख्या प्रस्तुत की है और बड़े-बड़े औद्योगिक प्रतिष्ठानों में श्रमिक स्वामित्व की जगह ‘श्रमिक ट्रस्टी“ प्रबन्धक को सर्वोत्तम माना है। जहाँ श्रमिक स्वहित का ही नहीं, बल्कि उपभोक्ताओं और समाज हित का ट्रस्टी है। वैश्वीकरण के सम्बन्ध में जो उस समय उतना भयावह नहीं था और नव उपनिवेभवाद और शोषण का एक नया रूप है, गहराई से विचार करने को कहा।

जे.पी.एक ग्राम या क्षेत्र आधारित स्वावलम्बी, रोजगारपरक औद्योगिक अर्थव्यवस्था के पोषक हैं। स्थानीय संसाधनों के आधार पर लघु-स्तरीय और मध्यवर्ती उद्योगों की स्थापना पर जोर देते हैं। उत्पादन में बृहद् तकनीक और बड़े केन्द्रित उद्योगों की अनिवार्यता को उन्होंने बिल्कुल अस्वीकार किया है। जैसा ऊपर कहा गया है कि उन्होंने युद्ध, विज्ञान और उपयोगी विज्ञान में विभेद करते हुए यह स्पष्ट किया कि ‘बड़ी-बड़ी मशीनों द्वारा बड़े-बड़े पैमाने पर उत्पादन करना मुनाफाखोरों या पूँजीपतियों और सरकारों दोनों के लिए लाभदायक था। इसलिए यन्त्र-कला ने उस विशिष्ट प्रकार के उत्पादन का मार्ग अपनाया।“


राजनैतिक क्रान्ति

जयप्रकाश जी एक व्यावहारिक आदर्शवादी थे। उनका स्वतंत्रता सेनानी, समाजवादी और सर्वोदय के रूप में एक लम्बा राजनीतिक अनुभव था। विश्व की राजनीतिक प्रणालियों और विचारों, खास करके क्रान्तियों का विशेष अध्ययन था। उनके आदर्श राज्य-व्यवस्था की कल्पना समाज, गांधी के स्वराज्य और ग्रामराज, माक्र्स के राज्यविहीन और विनोबा की लोकनीति पर आधारित है। यह व्यवस्था मनुष्य की स्वतंत्रता, समानता और बन्धुत्व के उच्चादर्शों को साकार करती है। और व्यक्ति के सर्वोत्तम नैतिक, भौतिक और शारीरिक विकास का अवसर प्रदान करती है। माक्र्स के राजविहीन साम्यवादी व्यवस्था में व्यक्ति की स्वतंत्रता पूर्ण अभिव्यक्ति की कल्पना की गयी थी परन्तु यह व्यवस्था एक तानाशाही में परिवर्तित हुई। समानता पर स्वतंत्रता का हनन हुआ और अन्ततः उस व्यवस्था का पतन भी हुआ। जे.पी.ने राज्य की उत्तरोत्तर बढ़ती प्रतिष्ठा को भय और आशंका की दृष्टि से देखा।  सभी प्रकार की राज्य व्यवस्थायें चाहे साम्यवादी हों या लोकतांत्रिक, फासिस्ट या निरंकुशवादी या कल्याणवादी हो, सत्तावादी हैं और सत्ता के माध्यम से अपने ही ढंग का सत्य के युग का निर्माण करना चाहती हैं।  गांधी ने तो राज्य की केन्द्रित सत्ता को मनुष्य की स्वतंत्रता का सबसे बढ़ा बाधक माना था और वे उसे हिंसा और आतंक का पर्याय बन चुकी हैं। परन्तु वह एक व्यावहारिक व्यक्ति थे और जानते थे कि राज्य का पूर्ण निरसन सम्भव नहीं, एक व्यावहारिक सुझाव दिये जो जे.पी.का मूल मंत्र है ‘वही सरकार सर्वोत्तम होती है जो न्यूनतम शासन करती है।“ स्वराज्य में ग्रामस्वराज्य की कल्पना मनुष्य के स्वराज्य की कल्पना की गयी। इसी आदर्श के तहत गांधी ने राज सत्ता की जगह जनशक्ति या लोकसत्ता को पैदा करने के लिए कांग्रेस का विघटन कर लोक सेवक संघ के रूप में परिवर्तित करना चाहा था। जे.पी.के शब्दों में ‘‘गांधी जी क्रान्तिकारी कार्यकर्ताओं के समूह को लेकर जनता की सेवा करने, उनको शिक्षित व संगठित करने और अपने पैरों पर खड़ा होने परिवर्तन और निर्माण कार्य में प्रत्यक्ष भागीदारी हेतु, जनता के बीच जाने की तैयारी कर रहे थे, परन्तु विधि-विधान ने गांधी को हमारे बीच से उठा लिया और उसी विरासत को विनोबा की प्रतिभा ने भूदान-ग्रामदान के रूप में आगे बढ़ाया और उसे लोकनीति की संज्ञा दी। यदि राजनीति राजसत्ता का विज्ञान है तो लोकनीति जनसत्ता का विज्ञान है। जे.पी.ने राज व्यवस्था के दोनों आयामों राजनीति और लोकनीति के विभिन्न पहलुओं पर गहराई से विचार करते हुए दोनों के बीच द्वन्द्वात्मक और परस्पर संश्लेषणीय रूपान्तरकारी सम्बन्ध स्थापित करते हुए दो स्तरीय तन्त्रों की कल्पना है। राज्य व्यवस्था का आदर्श तो लोकतंत्र है, एक सच्चा लोकतंत्र जिसको जे.पी.प्रायः सामुदायिक लोकतंत्र (Communitarion Democracy) कहते हैं, परन्तु वर्तमान संसदीय प्रणाली की अपेक्षा उनके भावी सच्चे लोकतंत्र की कल्पना अधिक व्यापक और गहरी है। सम्पुर्ण क्रान्ति में तो लोकतंत्र के एक सर्वथा नये स्वरूपकी कल्पना है। जब लोग समाज जीवन के कार्यों में प्रत्यक्ष हिस्सा ले सकें और तन्त्र लोक की अनुमति और सहमति से काम करता हो, सच्चा लोकतंत्र तो तभी सम्भव होगा।“ उन्होंने दोनों तन्त्रों के नये स्वरूपों की न केवल कल्पना की है बल्कि उनको साकार रूप देने का प्रयास भी किया था तथा तदनुरूप संस्थाएँ और परम्पराएँ भी कायम किया।  उनका उद्देश्य था लोकतंत्र की बुनियाद को मजबूत करने का और उसके स्थायी-प्रहरी के रूप में बनी रहने वाली लोक संस्थाएँ और परम्पराएँ खड़ी करना। जे.पी.के मानस पटल पर गांधीवादी दॅष्टि कितनी गहरी थी कि स्वतंत्रता प्राप्ति के ठीक पहले जब वह माक्र्सवाद के प्रभाव में थे, भावी भारत की एक संक्षिप्त रूपरेखा और उसकी योजना गांधी के सम्मुख प्रस्तुत किये और गांधी ने पूरू योजना को एक ऐसे आदर्श के रूप में अनुमोदित किया जो स्वतंत्रता के बाद यथाशीघ्र व्यवहार में लायी जाय। गांधी ने ‘हरिजन' में उक्त योजना को प्रकाशित किया।  प्रस्तावित प्रारूप के मुख्य बिन्दु निम्नलिखित हैं- ‘‘राज्य का राजनैतिक और आर्थिक ढ़ाँचा स्वराज्य के सिद्धांतो पर आधारित होगा। जहाँ एक तरफ यह ढ़ाँचा समाज के प्रत्येक व्यक्ति की सामाजिक जरूरतों को सन्तुष्ट करने का आश्वासन देगा, भौतिक सन्तुष्टि ही इसका एक मात्र उद्देश्य नहीं होगा। व्यक्ति के स्वस्थ जीवन और नैतिक, भौतिक विकास भी इसका उद्देश्य होगा। सामाजिक न्याय हेतु राज्य सभी व्यक्तियों के समान लाभ हेतु व्यक्ति या सहकारी प्रयास से संचालित लघु-स्तरिय उत्पादन को बढ़ावा देने का प्रयास करेगा।  ग्रामीण जीवन को पुनर्स्थापित किया जायेगा और गाँवों को स्वशासित इकाई के रूप में विकसित करना होगा जो यथासम्भव अधिक से अधिक आत्म-निर्भर होंगे। देश की भूमि व्यवस्था कानून में इस सिद्धान्त पर आमूल परिवर्तन किया जायेगा कि जमीन असली जोतने वाले की होगी और कोई भी किसान उतनी ही जमीन रखेगा जो उसके परिवार के उचित जीवन स्तर को कायम रखने के लिए आवश्यक हो। राज्य विभिन्न वर्गों के हितों की रक्षा करेगा, लेकिन जब यह हित गरीब और पददलितों के हित का अतिक्रमण करेगा, यह गरीबों का पक्ष लेगा और इस प्रकार सामाजिक न्याय का सन्तुलन कायम रखेगा। सभी राज्य संचालित अभिक्रमों में कार्यकर्ताओं का अपने चुने हुए प्रतिनिधियों के माध्यम से प्रतिनिधित्व होगा।“

जे.पी. अपने सम्पूर्ण जीवन में देश में एक उचित न्यायपूर्ण राजनैतिक संरचना विकसित करने के लिए उपरोक्त आदर्शों की दिशा में लगातार सोचतए और कार्य करते रहे। और जब उन्होंने समाजवादी पार्टी से सम्बन्ध विच्छेद कर, सर्वोदयी मार्ग पर चलने का निश्चय किया तो उन पर समाजवादी आन्दोलन को कमजोर करने का आरोप लगा। परन्तु जैसा हम देखते हैं कि सामाजिक और आर्थिक ढ़ाँचे में आमूल परिवर्तन के प्रश्न पर वे कभी चुप नहीं बैठे रहे और सामाजिक विषमता, ऊँच-नीच, आर्थिक शोषण, सामन्ती भूमि व्यवस्था, शैक्षणिक पिछड़ेपन, भ्रष्टाचार आदि के खिलाफ गांधीवादी अहिंसक परम्परा के अन्तर्गत अभियान चलाते रहे।  विनोबा के भूदान-ग्रामदान आन्दोलन में शामिल होने के बाद इन्होंने ग्रामस्वराज्य के नये-नये रूप तथा उसे नयी दिशा देने का काम किया।  उनका सारा कार्यक्रम राज्य केन्द्रित सत्ता के अलग सत्ता के विकेन्द्रीकरण और उसके अशासकीय रूपों को स्थापित करने और मजबूत करने का था।  भूदान ग्रामदान कमेटियों का गठन, ग्रामसभा का निर्माण, जन-संघर्ष समिति, छात्र-संघर्ष समितियाँ, जनता सरकार का गठन आदि उसी लोकसत्ता के निर्माण के कार्यक्रम थे।

जे.पी.ने लोकतंत्र की संसदीय प्रनाली में सुधार के पक्षधर थे। चुनाव प्रक्रिया को इस प्रकार परिवर्तित करना चाहते थे ताकि अच्छे, ईमानदार तथा कर्मठ लोग विदान सबाओं के सदस्य बन सकें। उन्होंने जन-प्रतिनिधियों को वापस बुलाने की बात की तथा विधान सभा क्षेत्रों में अच्छे लोगों के चुनाव में खड़ा करने के लिए कमेटियों का गठन किया गया। स्थानीय स्वशासन व्यवस्था पंचायत राज्य पर जे.पी.का गहरा चिन्तन था और वह पंचायत को सबसे सशक्त बुनियादी स्वशासित इकाई के रूप में देखना चाहते थे और पंचायतों को अधिक से अधिक अधिकार व संसाधन देने के पक्षधर थे।  पंचायत लोकतंत्र के प्रयोग की एक प्राथमिक नर्सरी है, ऐसी उनकी मान्यता है।


सम्पूर्ण क्रान्ति की पद्धति

सम्पूर्ण क्रान्ति की पद्धति लगभग वही है जो गांधी का परम्परागत तरीका था-जनसेवा और रचनात्मक कार्यक्रम, जनान्दोलन और आवश्यक हो तो सत्याग्रह- अहिंसक प्रतिकार और असहयोग। जनता की सर्वांगीण चेतना को जागृत करना, क्रान्ति का पहला चरण है। इस कार्य के लिए निःस्वार्थ जनसेवकों, सामाजिक और रचनात्मक कार्यकर्ताओं की जमात खड़ी करना और संस्थाओं और संगठनों की स्थापना आवश्यक है। इन संस्थाओं का उद्देश्य आर्थिक लाभ या रोजगार प्रदान करना नहीं है। बल्कि इनका आदर्श सामाजिक परिवर्तन और अहिंसक समाज निर्माण है। स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान गांधी द्वारा स्थापित रचनात्मक खादी या अन्य ग्रामोद्योगी संस्थाओं का उद्देश्य भी यही था।  गांधी के लोकसेवक संघ की कल्पना भी इंी से मिलती-जुलती है। वास्तव में यह सम्पूर्ण क्रान्ति की पूर्व तयारी का मंच या उसकी सीढ़ी है, एक अनुशासनात्मक स्तर है। जे.पी.ने जनता के बीच व्यापक सम्फ, जन-शिक्षण और जन-जागरण, नैतिक और सामाजिक मान्यता या साख बनाने के लिए इस प्रकार समर्पित जन-सेवकों के समूह को आवश्यक माना है। कार्यकर्ताओं के कतिपय नैतिक नियमों का पालन करना भी होगा जैसे गांधी के अहिंसा दर्शन में विश्वास, अनुशासित जीवन, स्वैच्छिक गरीबी का जीवन आदि। जे.पी.ने ऐसे ही निष्ठावान कार्यकर्ताओं को आन्दोलन में शामिल होने का आह्वान किया और बिहार में अनेक रचनात्मक, समाजसेवी संस्थाओं और संघटनों की स्थापना हुई।

समाज के किसी खास मुद्देपर जनान्दोलन खड़ा करना सम्पूर्ण क्रान्ति की पद्धति का दूसरा चरण है। इस प्रक्रिया का जे.पी.ने स्पष्टीकरण करते हुए लिखा हैः ‘‘आपने व्यक्तिगत सम्फ कायम कर लिया है। आपने लोगों का विश्वास हासिल कर लिया है, तब उस समय यह आवश्यक है कि लोगों के सामने एक अहिंसक जनाधारित आन्दोलन के लिए कार्यक्रम प्रस्तुत किया जाय। समाज टुकडों में नहीं बदल सकता। उसके लिए तो जनक्रान्ति (mass revolution) और बृहत् परिवर्तन (mass change) आवश्यक है।“ जे.पी.ने गांधी के त्रिविध बहिष्कार का दृष्टान्त दिया है जो देशव्यापी कार्यक्रम था।  दस वर्ष बाद ‘नमक आन्दोलन“ छेड़ा। इस प्रकार के आन्दोलनों में गांधी जी के कार्य करने की एक विशिष्ट पद्धति थी। सभी प्रकार के स्वैच्छिक क्रिया-कलापों और उनसे उत्पन्न शक्ति और सामर्थ्य किसी ऐसे बिनदु या मुद्दे पर संकेन्द्रित होना चाहिए जिसके आधार पर जनाधारित आन्दोलन खड़ा किया जा सके।  नमक आन्दोलन, विदेशी वस्त्र बहिष्कार आदि कार्यक्रम ऐसे उदाहरण हैं। सम्पूर्ण क्रान्ति के दौरान भ्रष्टाचार, भूमि व्यवस्था, निरंकुश शासन आदि ऐसे ही मुद्दे थे जिस पर बिहार आन्दोलन खड़ा किया गया।

क्रान्ति का अन्तिम और सबसे सशक्त माध्यम है सत्याग्रह, जिसको जे.पी.‘ब्रह्मास्त्र“ कहते हैं। वैसे जे.पी. इस साधन को उतना महत्त्व देने के पक्ष में नहीं हैं जिनका प्रायः दिया जाता है। राजनैतिक पार्टियों द्वारा या व्यक्तिगत हितों में भी इसका व्यापक प्रयोग किया जाता है, वह स्तुत्य नहीं है। प्रायः इस अस्त्र का दुरुपयोग होता है। निःसन्देह सत्याग्रह एक अचूक अस्त्र है परन्तु इसका प्रयोग अपवाद परिस्थितियों में ही होना चाहिए जैसा कि महाभारत में उसके प्रयोग की पद्धति है। जब तमाम नैतिक, वैधानिक या सामाजिक तरीके असफल हो जायें तभी इसका प्रयोग होना चाहिए। सत्याग्रह के प्रयोग के पहले इसके लिए उचित वातावरण, नैतिक औचित्य और आध्यात्मिक पृष्ठभूमि पैदा करना आवश्यक है।

सर्वोदय अभ्युदय और निश्रेयस मूल्यों का मानव जीवन में सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय की उदात्त भावना से सन्तुलित सर्वोच्च विकास और उसकी अनुभूति तथा तदनुरूप एक स्वनियन्त्रित समरस समाज का आदर्श है तो सम्पूर्ण क्रान्ति उस आदर्श को प्राप्त करने का एक त्वरित सर्वांगीण चिरस्थायी परिवर्तन और नवनिर्माण की अहिंसक विधा या सन्मार्ग है। वास्तव में सर्वोदय और सम्पूर्ण क्रान्ति एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। सम्पूर्ण क्रान्ति का आदर्श और पूर्व में हुआ इसका एक संक्षिप्त प्रयोग मानव-जाति के इतिहास की एक अमूल्य निधि और स्वर्णिम अध्याय है, जो मनुष्य के अहं, निरंकुश राज्यसत्ता और मानव-परतन्त्रता के विरुद्ध सतत् संघर्ष के लिए प्रेरणा दान करता रहेगा। 

स्त्रोत : (सौजन्यः गांधी विचार- गवेषणा, संयुक्तांकः वर्ष-४ जुलाई-दिसम्बर. २००४ अंक २
एवं वर्ष-५ जनवरी-जून, २००५ अंक १)
 

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