| 
      
       
		
		
		आचार्य
		
		
		महाप्रज्ञ 
		
		
		अहिंसा के क्षेत्र में काम करने वाली संस्थाओं और व्यक्तियों के लिए क्या 
		शिक्षा प्रणाली पर पुनर्विचार करना आवश्यक 
		नहीं 
		
		है?
		
		
		यदि है तो हमें वर्णमाला के साथ-साथ अहिंसा की वर्णमाला भी पढनी चाहिए
		
		। 
		इस आधार पर विश्व मानस को अहिंसा से प्रशिक्षित किया जा सकता है। 
		प्रशिक्षित मानस ही हिंसा को चुनौती दे सकता है और उसकी चुनौती को झेल भी 
		सकता है
		
		। 
		
		अहिंसा शब्द 
		नकारात्मक है, यह स्वीकार करने में किसी भी अहिंसावादी को कठिनाई 
		नहीं हो 
		सकती । धर्म का मूल आधार समतायोग अथवा साम्ययोग है । हिंसा समतायोग का बाधक 
		तत्त्व है। अहिंसा का साधक तत्त्व है समतायोग । प्रकृति की दृष्टी से विचार 
		करने पर इस सच्चाई को विनम्रतापूर्वक स्वीकार करना चाहिए कि हिंसा प्राणी 
		की जीवनशैली के साथ जुडी हुई है । अहिंसा मानवीय चेतना का सर्वोत्तम विकास 
		है । उस विकास के लिये हिंसा के दो रूपों पर विचार किया गया है : एक, 
		अनिवार्ये हिंसा; दो, वार्य हिंसा । 
		
		जीवन यात्रा 
		चलाने के लिए हिंसा होती है, वह अनिवार्य कोटि की है । प्रमादजनित हिंसा, 
		कलह, संघर्ष तथा युद्ध और शस्त्र निर्माण के लिए होने वाली हिंसा वार्य 
		हिंसा है । शांति की संस्कृति के लिये जरूरी है, वार्य हिंसा को रोकने के 
		उपायों की खोज, उन पर विचार तथा उनकी क्रियान्विति । वार्य हिंसा के मूल 
		कारण हैं - पदार्थ के प्रति आसक्ति और आकर्षण, प्रभुसत्ता स्थापित करने की 
		मनोवृत्ति, सबसे बडा बनने की महत्वाकांक्षा, सुविधावादी और अमीरी का 
		दष्टिकोण, क्रोध और अहंकार का आवेश । इनका परिष्कार किए बिना शांति की 
		संस्कृति का सपना, सपना ही रहता है । 
		
		अहिंसा और 
		शांति की कल्पना करते समय हमें तर्कशास्त्र के उपादान और निमित्त इन दो 
		शब्दों को नहीं भूलना चाहिए। हिंसा का उपादान मूल कारण है, मनुष्य के 
		अंतःकरण में पनपने वाली आवेशात्मक वृत्ति । परिस्थिति, वातावरण, गरीबी, 
		शोषण आदि उसके निमित्त कारण हैं, उपादान को उत्तेजना देने वाले कारण है । 
		वर्तमान में अहिंसा और शांति की स्थापना के लिए किए जाने वाले प्रयत्न 
		निमित्तों को बदलने के लिए होने वाले प्रयत्न हैं । उनकी अपेक्षा को नकारा 
		नहीं जा सकता। साथ-साथ इस सच्चाई को भी नहीं नकारा जा सकता कि उपादान का 
		परिवर्तन हुए बिना निमित्तों का परिवर्तन स्थायी 
		नहीं बनता। हिंसा के स्थान 
		पर अहिंसा, अशांति के स्थान पर शांति की स्थापना के लिए द्विआयामी प्रयत्न 
		जरूरी हैं । एक ओर परिस्थिति को बदलने का प्रयत्न, दूसरी ओर अंतःकरण में 
		विद्यमान हिंसा और 
		
 अशांति के मूल कारण के परिष्कार का प्रयत्न । 
		
		पदार्थ के 
		प्रति आकर्षण रखने वाले व्यक्ति शोषण से मुक्त कैसे हो सकते हैं? कानूनी 
		नियंत्रण शोषण को रोकने में कितने सफल हुए हैं, इसका अध्ययन सुगमता से किया 
		जा सकता है । नियंत्रण की विफलता, हृदय परिवर्तन अथवा चेतना के रूपान्तरण 
		की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करती है । कानूनी नियंत्रण को सर्वथा मूल्यहीन 
		नहीं माना जा सकता । साथ-साथ उसे समस्या को सुलझाने का एकमात्र साधन भी नहीं 
		माना जा सकता । 
		
		भगवान 
		महावीर के द्वारा प्रतिपादित अहिंसा के सिद्धांत का प्राणतत्व है संयम । 
		भगवान बुद्ध द्वारा प्रतिपादित अहिंसा के सिद्धान्त का प्राण तत्व है 
		करुणा। गीता के अहिंसा सिद्धांत का प्राण तत्व है अनासक्ति। महाप्रभु ईसा 
		ने मैत्री के सिद्धांत को बहुत प्रतिष्ठित किया। मोहम्मद साहब ने भाईचारे 
		की प्रतिष्ठा की ।  
		
		महावीर की 
		अहिंसा के आधार पर महाव्रती और व्रती समाज की संरचना हुई जिसने मानवीय एकता 
		के सिद्धांत का दृढ़ता से प्रतिपादन किया। सांप्रदायिक मतभेदों में अनेकांत 
		के द्वारा समन्वय स्थापित किया। व्रती समाज गृहस्थ वर्ग था । उसने अनावश्यक 
		और आक्रामक हिंसा का परित्याग किया। बुद्ध की करुणा के आधार पर जातिवाद का 
		दृढ़ता के साथ प्रतिवाद किया गया । अनासक्ति की साधना के लिए भी 
		हजारों-हजार व्यक्तियों ने अपना समर्पण किया था । सत्याग्रह, सविनय अवज्ञा 
		आंदोलन, हृदय परिवर्तन और साध्य-साधन शुद्धि के बिना महात्मा गांधी की 
		अहिंसा की व्याख्या नहीं की जा सकती । अहिंसा की व्यापकता अनेक सिद्धांत 
		सूत्रों और उनके व्यावहारिक प्रयोगों में देखी जा सकती है । 
		
		वर्तमान में 
		हिंसा की समस्या और अधिक जटिल हो रही है । अहिंसा के सिद्धांत और 
		व्यावहारिक प्रयोग काफी महत्वपूर्ण है । सभी धर्म-मनीषियों ने उनके महत्व 
		का प्रतिपादन किया है फिर भी हिंसा अधिक प्रभावी हो रही है। इसका एक प्रमुख 
		हेतु है कि अहिंसा के व्यावहारिक प्रयोगों का प्रशिक्षण 
		नहीं हो रहा है । 
		हिंसक उपकरणों के लिए जितने प्रशिक्षण की व्यवस्था है उसके अल्पांश में भी 
		अहिंसा के प्रशिक्षण की व्यवस्था नहीं है । उसके बिना अहिंसा को प्रभावी 
		नहीं बनाया जा सकता । 
		
		हिंसक 
		अस्त्र-शस्त्रां की संहारक शक्ति बढाने मात्र से हिंसा सफल नहीं होती। उसकी 
		सफलता हिंसक के मन में क्रूरता पैदा करने पर निर्भर है । युद्ध, संघर्ष, 
		आतंकवाद और उग्रवाद को क्रूरता से अलग करके नहीं देखा जा सकता । अहिंसा की 
		सफलता के लिए मनुष्य के मन में मैत्री, करुणा, प्राणी जगत की एकता की 
		अनुभूति उत्पन्न करना जरूरी है। यह कार्य प्रशिक्षण और प्रयोग के द्वारा 
		संभव है । इस दिशा में कोई उल्लेखनीय प्रयत्न नहीं हो रहा है । हिंसा के 
		निमित्तों से बचने के लिए प्रयोग किए जा रहे हैं । 
		
		उनकी 
		उपयोगिता को अस्वीकार भी नहीं किया जा सकता । निमित्त को बदलने के साथ-साथ 
		उपादान-मूल कारण को भी बदलने की दिशा में हमारे कदम आगे बढने चाहिए । 
		
		हिंसा का 
		मूल कारण वृत्तियां हैं, भाव हैं । उनका परि-कार किए बिना अहिंसा को जीवंत 
		नहीं बनाया जा सकता । संघर्ष और पारस्परिक कलह का इतिहास बहुत पुराना है । 
		समय-समय पर संघर्ष की परिस्थितियां बदलती रही हैं, कारण बदलते रहे हैं 
		लेकिन उनका मूल कारण 
		नहीं बदला है । परिस्थिति की एक चिनगारी वृत्ति को 
		उत्तेजित कर देती है । और उत्तेजित वृत्ति परिस्थिति को और अधिक जटिल बना 
		देती है । यह प्रश्न सरल 
		नहीं है कि पहले कौन बदले ? परिस्थिति बदले या अंतर 
		की वृत्ति बदले । परिस्थिति के बदलने में बाधा है अंतर की वृत्ति, और अंतर 
		की वृत्ति के परिवर्तन होने की बाधा है परिस्थिति । इस चक्र को कैसे तोडा 
		जाए ? विश्व के विभिन्न अंचलों में अहिंसा के अनेक प्रयोग चल रहे हैं - 
		मानवाधिकार, निःशस्त्रकरण, व्यक्ति-सुधार, समाज-सुधार, ग्राम-सुधार, 
		अणुव्रत, सर्वोदय, चिपको आंदोलन, ग्रामोद्योग आदि । उनका अपना-अपना प्रभाव 
		क्षेत्र भी है । किन्तु वे एक अहिंसक शक्ति के रूप में विश्व मानस को 
		आंदोलित नहीं कर रहे हैं । शिक्षा के साथ अहिंसा के प्रशिक्षण को जोडे बिना 
		उसे विश्व स्तर पर प्रतिष्ठित 
		नहीं किया जा सकता । 
		
		अहिंसा के 
		प्रशिक्षण की प्रक्रिया उभयात्मक होनी चाहिए । उसमें सिद्धांत और प्रयोग - 
		दोनों का संतुलन होना चाहिए । सिद्धांत के द्वारा मस्तिष्क का एक भाग 
		प्रभावित होता है । प्रयोग के द्वारा मस्तिष्क का दूसरा भाग प्रभावित होता 
		है । वर्तमान स्थिति का विश्लेषण करने पर एक निष्कर्ष सामने आता है - 
		मस्तिष्क का सिद्धांतग्राही भाग अहिंसा से प्रभावित है । उसका दूसरा भाग, 
		जो अहिंसा को आत्मसात् कर सकता है, प्रभावित नहीं है । इसीलिए अहिंसा के 
		क्षेत्र में किए जाने वाले विविध प्रयोग व्यापक 
		नहीं बन रहे हैं ।  |