सत्याग्रह |
सत्याग्रह का दिव्य संदेश |
निक्रिय प्रतिरोध निक्रिय प्रतिरोध एक चौमुंहा खड्ग है; इसे किसी भी तरह से इस्तेमाल किया जा सकता है, यह उसका भी भला करता है जो इसका इस्तेमाल करता है और उसका भी जिसके विरुद्ध इसका इस्तेमाल किया जाता है। एक बूंद भी रक्त बहाए बिना, यह दूरगामी परिणाम देता है। न इसे जंग लगती है, न इसे कोई चुरा सकता है। हिंस्य, पृ. 82 मेरा निश्चित मत है कि निक्रिय प्रतिरोध कठोर-से-कठोर हृदय को भी पिघला सकता है...। यह एक उत्तम और बडा ही कारगर उपचार है... यह परम शुद्ध शस्त्र है। यह दुर्बल मनुष्य का शस्त्र नहीं है। शारीरिक प्रतिरोध करने वाले की अपेक्षा निक्रिय प्रतिरोध करने वाले में कहीं ज्यादा साहस होना चाहिए। ऐसा साहस यीशु, डेनियल, क्रेंमर, लेटिमर और रिडली में था जिन्होंने चुपचाप पीडा और मृत्यु का वरण किया; ऐसा ही साहस टाल्सटॉय में था जिसने रूस के जारों की अवज्ञा करने का साहस किया, जो इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। वस्तुतः एक ही पूर्ण प्रतिरोधकर्ता बुराई के विरुद्ध अच्छाई की विजय के लिए काफी है। यंग, 10-11-1921, पृ. 362 मेरा दावा है कि...निक्रिय प्रतिरोध की विधिकृ सबसे स्पष्ट और सबसे सुरक्षित है, क्योंकि अगर प्रतिरोध का उद्देश्य सच्चा नहीं है तो हानि केवल प्रतिरोधकर्ताओं को ही पहुंचती है। ईसा मसीह, डेनियल और सुकरात ने निक्रिय प्रतिरोध अथवा आत्मा के बल का सर्वोत्तम प्रतिनिधित्व किया। इन सभी महापुरुषों ने अपनी आत्मा की तुलना में अपने शरीर को कोई महत्व नहीं दिया। टाल्सटॉय इस सिद्धांत के सर्वोत्तम और सर्वश्रेष्ठ (आधुनिक) प्रतिपादक थे। उन्होंने न केवल इसका प्रतिपादन किया बल्कि इसे अपने जीवन में उतारा भी। भारत में, इस सिद्धांत को, पश्चिम में इसका चलन होने से बहुत पहले ही, समझा और सामान्यतया व्यवहार में लाया जाता था। यह समझना आसान है कि आत्मा का बल शरीर के बल से अत्यधिक श्रेष्ठ है। बुराई के प्रतिकार के लिए लोग यदि आत्मा के बल का सहारा लेना शुरू कर दें तो बहुत-सी मौजूदा परेशानियां दूर की जा सकती हैं। किसी भी स्थिति में, आत्मा के बल का आश्रय किसी अन्य व्यक्ति को पीडा नहीं पहुंचाता। इसलिए जब भी इसका दुरुपयोग किया जाता है, यह केवल इसके प्रयोगकर्ता को हानि पहुंचाता है, उसको कभी नहीं जिसके विरुद्ध इसका प्रयोग किया गया है। सद्गुण की भांति, यह अपना पुरस्कार स्वयं है। आत्मा के बल के इस्तेमाल में असफलता की कोई गुंजाइश ही नहीं है। स्पीरा, पृ. 165 बुद्ध ने भयरहित भाव से, विरोधी पक्षों के बीच जागजाकर संग्राम किया और एक उद्धत पुरोहितवाद को घुटने टेकने पर विवश कर दिया। ईसा ने यरुशलम के मंदिर से सूदखोरों को निकाल बाहर किया और पाखंडियों तथा दंभियों को स्वर्ग से शापित कराया। ये दोनों ही महापुरुष जोरदार सीधी कार्रवाई के हिमायती थे। लेकिन दंड देते समय भी बुद्ध और ईसा ने अपने हरेक काम में पूरी भौता तथा प्रेम का प्रदर्शन किया। उन्होंने अपने शत्रुओं पर उंगली नहीं उठाई और जिस सत्य के लिए जिए, उस पर कोई आंच न आने देकर स्वयं को सहर्ष समर्पित करने के लिए उद्यत रहे। अगर उनके प्रेम की ऊंचाई पुरोहितवाद को झुकाने में समर्थ सिद्ध न हुई होती तो बुद्ध पुरोहितवाद का प्रतिरोध करते हुए अपने प्राणों का उत्सर्ग कर देते। ईसा एक समूचे साम्राज्य की शक्ति को चुनौती देते हुए सिर पर कांटों का ताज पहने सूली पर चढ गए। यदि मैं अहिंसक प्रतिरोध छेडता हूं तो मैं केवल इन महापुरुषों के पदचिह्नों पर विनम्रतापूर्वक चल रहा हूं ... यंग, 12-5-1920, पृ. 3 |
सविनय अवज्ञा
अवज्ञा
सविनय तभी मानी जा सकती है जब वह सच्चे हृदय से की जाए, आदरभाव लिए हो,
संयमित हो, कभी उद्धत रूप ग्रहण न करे, सुस्थापित सिद्धांतों पर आधारित
हो, स्वेच्छाचारिता के दोष से मुक्त हो और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है
कि उसके पीछे कोई मेरी निश्चित राय है कि सविनय अवज्ञा वैधानिक आंदोलन का विशुद्धतम रूप है। हां, यदि उनका 'सविनय' अर्थात अहिंसक रूप केवल छद्मावरण है तो वह घटिया तथा तिरस्करणीय है। यदि अहिंसा पर पूरी ईमानदारी से –ढ रहा जाए तो उग्र-से-उग्र अवज्ञा भी हिंसा को नहीं भडकाएगी, अतः उसकी निंदा करने का अवसर ही नहीं आएगा। कोई बडा या तेज आंदोलन भरपूर जोखिम लिए बिना नहीं चलाया जा सकता, और बडेगबडे जोखिमों से भरी न हो तो जिंदगी जीने योग्य नहीं मानी जा सकती। क्या संसार का इतिहास यह नहीं बताता कि अगर जोखिम न होता तो जिंदगी में कोई रोमांच ही न होता ? यंग, 15-12-1921, पृ. 419 सविनय अवज्ञा नागरिक का जन्मजात अधिकार है। वह अपनी आदमियत को खोए बगैर इस अधिकार को छोडने का साहस नहीं कर सकता। सविनय अवज्ञा से अराजकता कभी उत्पन्न नहीं होती। वह आपराधिक अवज्ञा से उत्पन्न हो सकती है। प्रत्येके राज्य आपराधिक अवज्ञा को बलपूर्वक कुचल देता है। यदि नहीं, तो वह स्वयं नष्ट हो जाता है। यंग, 5-1-1922, पृ. 5 सत्याग्रही विवेकपूर्वक तथा स्वेच्छा से समाज के नियमों का पालन करता है, क्योंकि वह इसे अपना पवित्र कर्तव्य मानता है। समाज के नियमों का इस प्रकार पालन करने से ही वह ऐसी स्थिति में आ पाता है कि यह निर्णय कर सके कि कौन-से नियम अच्छे तथा न्यायोचित हैं और कौन-से अनुचित तथा अन्यायपूर्ण। तभी सुनिश्चित परिस्थितियों में, किन्हीं नियमों की सविनय अवज्ञा करने का अधिकार उसे मिलता है। ए, पृ. 347 |
पूर्व-शर्त सविनय प्रतिरोध आंदोलन की पहली अपरिहार्य पूर्व-शर्त यह है कि उसमें भाग लेने वालों या सामान्य जनता की ओर से हिंसा शुरू न किए जाने की पक्की गारंटी हो। हिंसा भडक उठने पर यह कहना बेमानी होगा कि वह राज्य अथवा सविनय प्रतिरोधकारियों के विरुद्ध अन्य तत्वों द्वारा प्रेरित थी। यह स्पष्ट समझ लेना चाहिए कि सविनय प्रतिरोध हिंसा के वातावरण में प्रगति नहीं कर सकता। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि सत्याग्रही के पास अब कोई उपाय शेष नहीं रहा। उसे सविनय अवज्ञा के अलावा अन्य उपाय ढूंढने होंगे। हरि, 18-3-1939, पृ. 53 |
सत्याग्रह का स्वरूप सत्याग्रह की खूबी यही है कि आदमी को इसकी कहीं बाहर जाकर खोज नहीं करनी पडती, वह उसके सामने खुद आ खडा होता है। स्वयं सत्याग्रह के सिद्धांत में ही यह गुण अंतर्निहित है। धर्मयुद्ध, जिसमें न कोई बातें गोपनीय रखने की होती हैं और न जिसमें धूर्तता तथा असत्य के लिए कोई स्थान होता है, बिना खोजे प्रकट हो जाता है, और धर्मनिष्ठ व्यक्ति उसके लिए सदा तत्पर रहता है। जिस संघर्ष की पहले से बाकायदा योजना तैयार करनी पडे, वह धर्मसम्मत संघर्ष नहीं माना जा सकता। धर्मसम्मत संघर्ष में तो ईश्वर स्वयं अभियानों की योजना बनाता है और लडाइयों का संचालन करता है। धर्मयुद्ध केवल ईश्वर के नाम में लडा जा सकता है; सत्याग्रही जब स्वयं को बिलकुल लाचार अनुभव करता है, टूटने की स्थिति में होता है और उसे चारों ओर पूर्ण अंधकार दिखाई देता है, तब ईश्वर उसकी मदद के लिए आ पहुंचता है। ससा, पृ. गपअ सत्याग्रह पर अमल करते हुए मुझे शुरू के चरणों में ही यह लग गया था कि सत्य के अनुकरण में विरोधी पर हिंसक वार करने की अनुमति नहीं है, बल्कि उसे धैर्य तथा सहानुभूति से अपनी गलती को दूर करने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए। बात यह है कि कोई चीज जो एक आदमी को सही लगती है, वही दूसरे को गलत लग सकती है। और, धैर्य का अर्थ है आत्मपीडन। इस प्रकार, सत्याग्रह के सिद्धांत का अर्थ हुआ विरोधी के बजाए स्वयं को पीडित करके सत्य को प्रमाणित करना। रिकप सत्याग्रह और उसकी प्रशाखाएं, असहयोग तथा सविनय प्रतिरोध, और कुछ नहीं बल्कि पीडा के नियम के ही नये नाम हैं। यंग, 11-8-1920, पृ. 3 सत्य और अहिंसा के योग से, तुम सारी दुनिया को अपने कदमों में गिरा सकते हो। सार रूप में, सत्याग्रह और कुछ नहीं बल्कि राजनीतिक यानी राष्ट्रीय जीवन में सत्य और शालीनता की प्रतिष्ठा है। यंग, 10-3-1920, पृ. 3 सत्याग्रह पूर्ण अनात्मशंसा, अधिकतम विनम्रता, असीम धैर्य तथा प्रदीप्त आस्था है। यह अपना पुरस्कार स्वयं है। यंग, 26-2-1925, पृ. 73 सत्याग्रह सत्य की अथक खोज और उस तक पहुंचने का –ढ संकल्प है। यंग, 19-3-1925, पृ. 95 यह ऐसा बल है जो चुपचाप, और, जाहिरा तौर पर, धीरे-धीरे काम करता है। परंतु वास्तविकता यह है कि संसार में इससे ज्यादा प्रत्यक्ष और ौqत गति से काम करने वाला कोई दूसरा बल नहीं है। यंग, 4-6-1925, पृ. 189 सत्याग्रह शब्द का प्रयोग प्रायः बडे शिथिल रूप में किया जाता है और उसमें प्रच्छन्न हिंसा का भाव भी शामिल माना जाता है। लेकिन इस शब्द का जनक होने के नाते मैं यह स्पष्ट करने की अनुमति चाहता हूं कि इसमें प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष, प्रच्छन्न या प्रकट, सभी प्रकार की हिंसा वर्जित है; इसमें मनसा, वाचा, कर्मणा हिंसा का कोई स्थान नहीं है। विरोधी को हानि पहुंचाने के विचार से उसके प्रतिद्वेषगभाव रखना या उससे अथवा उसके बारे में कठोर वचन बोलना सत्याग्रह को तोडना है ... सत्याग्रह में शालीनता है, यह कभी चोट नहीं पहुंचाता। यह क्रोध या दुर्भावना का परिणाम नहीं होना चाहिए। इसमें बतंगडपन, अधैर्य और शोर-शराबे के लिए कोई स्थान नहीं है। यह बाध्यता का प्रत्यक्ष विलोम है। इसकी अवतारणा हिंसा के पूर्ण स्थानापन्न के तौर पर की गई थी। हरि, 15-4-1933, पृ. 8 सत्याग्रह का संघर्ष उसके लिए है जो भावना का दृढ़ हो, जिसके मन में न संशय हो और न भीरुता। सत्याग्रह हमें जीने और मरने, दोनों की कला सिखाता है। देहधारियों का जन्म और मरण तो अवश्यंभावी है। मनुष्य को पशु से भिन्न सिद्ध करने वाली चीज सिर्फ यह है कि मनुष्य अपनी आत्मसिद्धि के लिए बराबर सचेतन प्रयास करता रहता है।। हरि, 7-4-1946, पृ. 74 |
विकासशील विज्ञान सत्याग्रह के विषय में मेरा ज्ञान दिनोंदिन बढ रहा है। मेरे पास जरूरत के वक्त मार्गदर्शन के लिए कोई पाठय़पुस्तक नहीं होती, गीता तक नहीं होती जिसे मैं अपना कोश मानता हूं। मेरी धारणा का सत्याग्रह एक विज्ञान है जो अभी विकास की प्रक्रिया में है। हो सकता है कि जिसे मैं विज्ञान मान रहा हूं, वह विज्ञान सिद्ध ही न हो पाए और अगर पागल नहीं तो मात्र किसी मूर्ख का सोच और कारगुजारी ही साबित होकर रह जाए। संभव है कि सत्याग्रह की सच्चाई पर्वतों जैसी प्राचीन निकले। लेकिन यह अभी तक विश्व समस्याओं, और खासकर युद्ध की भीषण समस्या, के समाधान में किसी काम का स्वीकार नहीं किया गया है। हो सकता है कि इसमें जो नयी बात मानी जा रही है, उसका युद्ध की समस्या के समाधान में कोई वास्तविक महत्व ही सिद्ध न हो पाए। यह भी हो सकता है कि जिन्हें सत्याग्रह अर्थात अहिंसा की सफलताएं माना जा रहा है, वे वस्तुतः सत्य और अहिंसा की सफलताएं न होकर हिंसा के भय से उत्पन्न सफलताएं हों। ये संभावनाएं सदा मेरे समक्ष रही हैं। मैं लाचार हूं। मुझे अपनी प्रार्थना का जो उत्तर भगवान से मिलता है, मैं अनुसरण के लिए वही राष्ट्र को प्रस्तुत कर देता हूं; इसे यों भी कह सकते हैं कि मैं हर समय भगवान की सेवा में उसका हुक्म बजा लाने के लिए प्रस्तुत रहता हूं । हरि, 24-9-1938, पृ. 266 |
सत्याग्रह की तकनीक विजेता के हाथ अपनी आत्मा को बेचने से इंकार करने का अर्थ है कि तुम वह काम नहीं करोगे जिसे करने के लिए तुम्हारी अंतश्चेतना तुम्हें रोकती है। मान लो कि 'शत्रु' तुम्हें जमीन पर नाक रगडने या अपने कान पकडने या इसी तरह के कोई लज्जाजनक काम करने के लिए कहे तो तुम इन्हें करने से इंकार कर दोगे। लेकिन वह तुमसे तुम्हारी संपत्ति छीन ले तो तुम आपत्ति नहीं करोगे, क्योंकि अहिंसा का पुजारी होने के नाते तुमने शुरू से ही निर्णय कर लिया है कि सांसारिक पदार्थ़ों का आत्मा से कोई वास्ता नहीं है। जिसे तुम अपना मानते हो, उसे अपने पास तभी तक रखोगे जब तक दुनिया रहने देगी। अपने मन के वश में न होने का अर्थ यह है कि तुम किसी प्रलोभन के शिकार नहीं होंगे। आदमी प्रायः इतना दुर्बलमनस्क होता है कि वह लालच और मीठे शब्दों के जाल में फंस जाता है। हम अपने सामाजिक जीवन में यह रोज होता देखते हैं। दुर्बलमनस्क व्यक्ति सत्याग्रही नहीं हो सकता। सत्याग्रही का 'न' अटल 'न' और उसका 'हां' शाश्वत 'हां' होता है। केवल ऐसे ही व्यक्ति में सत्य और अहिंसा का पुजारी होने की ताकत होती है। लेकिन यह जरूर है कि आदमी को दृढ़ निश्चय और जिद का फर्क समझना चाहिए। यदि 'हां' अथवा 'न' कह देने के बाद आदमी को लगे कि उसका फैसला गलत था और इस जानकारी के बाद भी वह अपनी बात पर अडा रहे तो यह जिद या मूर्खता होगी। फैसला लेने से पहले सभी बातों पर सावधानी से और गहराई के साथ विचार कर लेना जरूरी है । किसी को स्वामी मानकर उसके प्रति निष्ठा रखने से इंकार करने का अर्थ स्पष्ट है। इसका अर्थ है कि तुम विजेता के प्रभुत्व के आगे झुकोगे नहीं, तुम उसे उसका उद्देश्य पूरा करने में सहायता नहीं करोगे। हर हिटलर ने कभी ब्रिटेन पर कब्जा करने का सपना नहीं देखा। वह यह चाहता है कि ब्रिटेन पराजय स्वीकार कर ले। तब विजेता पराजित से जो चाहे मांग सकता है और पराजित को विवश होकर उसकी बात माननी पडेगी। लेकिन अगर वह पराजय स्वीकार न करे तो शत्रु तब तक लडेगा जब तक वह अपने विरोधी को मार नहीं डालता। पर सत्याग्रही तो विरोधी द्वारा मारे जाने का प्रयास करने से पहले ही शरीर से मृत है, अर्थात उसने अपने शरीर का मोह त्याग दिया है और केवल आत्मा की विजय में जीता है। जब वह पहले ही मर चुका है तो वह किसी और को मारने के लिए आतुर क्यों होगा ? मारते हुए मरने का वास्तविक अर्थ है पराजित होकर मरना। क्योंकि शत्रु जो चाहता है, वह यदि तुमसे जीते जी प्राप्त नहीं कर सकता तो वह तुम्हें मार कर प्राप्त करना चाहेगा। दूसरी ओर, अगर उसे यह लगे कि अपनी जीवन-रक्षा के लिए भी उसके खिलाफ हाथ उठाने का तुम्हारा तनिक भी इरादा नहीं है, तो तुम्हें मारने का उसका उत्साह ठंडा पड जाएगा। हर शिकारी का अनुभव यही है। किसी ने किसी को आज तक गाय का शिकार करते नहीं सुना । हरि, 18-8-1940, पृ. 253-54 |
पीड़ा-भोग की शक्ति क्रोध अथवा दुर्भावना मन में लाए बगैर पीडा भोगना ऐसा उदीयमान सूर्य है जिसके आगे कठोरतम हृदय और घोर-से-घोर अज्ञान भी विलुप्त हो जाते हैं। यंग, 19-2-1925, पृ. 61 पीड़ा-भोग की भी सुनिश्चित सीमाएं हैं। यह बुद्धिमत्तापूर्ण और अ-बुद्धिमत्तापूर्ण, दोनों ही प्रकार का हो सकता है, और जब इसकी सीमा पार हो जाए तो इसे जारी रखना अ-बुद्धिमत्तापूर्ण ही नहीं बल्कि मूर्खता की चरम सीमा है। यंग, 12-3-1931, पृ. 30
सच्चे
पीडा-भोग को खुद अपना आभास नहीं होता और वह कभी गणित नहीं लगाता। उसका
अपना एक आनंद है जो सभी प्रकार के आनंदों से बढकर है। मुझे दिनोंदिन यह विश्वास होता जा रहा है कि लोगों के लिए बुनियादी महत्व की चीजें केवल तर्क के सहारे प्राप्त नहीं की जा सकतप, बल्कि पीड़ा-भोग के रूप में मूल्य चुकाकर खरीदनी पडती हैं। पीड़ा-भोग मानव जाति का नियम है, युद्ध जंगल का नियम है। विरोधी का हृदय-परिवर्तन करने और विवेकसम्मत बात के लिए बंद उसके कानों को खोलने के वास्ते जंगल के नियम से कहीं ज्यादा शक्तिशाली नियम पीडा-भोग का है। यंग, 5-11-1931, पृ. 341 |
सत्याग्रह की संहिता सत्याग्रही भय को सदा के लिए छोड देता है। इसलिए वह विरोधी पर विश्वास करने से कभी डरता नहीं है। विरोधी बीस बार भी उसको धोखा दे जाए, वह इक्कीसवप बार उस पर विश्वास करने के लिए तैयार रहेगा। बात यह है कि मानव प्रकृति में अडिग विश्वास ही सत्याग्रही के धर्म का सार है। सस, पृ. 159 जिसमें कानून का पालन करने की सहज वृत्ति न हो, वह सत्याग्रही नहीं। कानून का पालन करने की अपनी प्रकृति के कारण ही वह सर्वोच्च विधि, अर्थात अपनी अंतर्वाणी की आवाज, का निर्द्वंद्व होकर पालन करता है। स्पीरा, पृ. 465 चूंकि सत्याग्रह सीधी कार्रवाई का सबसे शक्तिशाली रूप है, इसलिए सत्याग्रही सत्याग्रह शुरू करने से पहले बाकी सब तरीकों पर अमल करके देख लेता है। तदनुसार वह पहले संबंधित प्राधिकारी से संपर्क करेगा और उसे जारी रखेगा, फिर जनमत का ध्यान आकर्षित करेगा, लोगों को संबंधित समस्या से अवगत कराएगा, जो उसकी बात सुनना चाहते हैं उनके समक्ष शांतिपूर्वक अपना पक्ष प्रस्तुत करेगा, और जब सभी उपाय चुक जाएंगे तब सत्याग्रह की शरण लेगा। लेकिन एक बार अंतर्वाणी का आदेश सुन लेने के बाद यदि वह सत्याग्रहश्शुरू कर देता है तो फिर किसी भी हालत में उससे पीछे नहीं हटेगा। यंग, 20-10-1927, पृ. 353 सत्याग्रही यद्यपि हर समय संघर्ष के लिए तैयार रहता है, पर उसे शांति के लिए भी उतना ही उत्सुक रहना चाहिए। उसे शांति के किसी भी सम्मानजनक अवसर का स्वागत करना चाहिए। यंग, 19-3-1931, पृ. 40 मेरा परामर्श एक मात्र सत्याग्रह पर ही अवलंबित रहने का है। आजादी प्राप्त करने का कोई अन्य अथवा बेहतर उपाय नहीं है। हरि, 15-9-1946, पृ. 312
सत्याग्रही की संहिता में पशुबल के समक्ष आत्मसमर्पण करने जैसी कोई चीज
नहीं है। समर्पण करना ही है तो पीडा के प्रति, संगीनधारी के प्रति कभी
नहीं। सत्याग्रही के नाते मुझे अपने पक्ष की अन्य व्यक्तियों द्वारा समीक्षा एवं पुनः समीक्षा के लिए सदा प्रस्तुत रहना चाहिए और अगर कहीं कोई त्रुटि पाई जाए तो तुंत उसका सुधार करना चाहिए। हरि, 11-3-1939, पृ. 44 |
सत्याग्रही की योग्यताएं मेरा विचार है कि भारत के प्रत्येक सत्याग्रही में... निम्नलिखित योग्यताएं होनी चाहिए: (1) उसे ईश्वर में जीती-जागती आस्था होनी चाहिए, क्योंकि वही तो उसका एक मात्र अवलंब है। (2) उसे सत्य और अहिंसा को अपना धर्म मानते हुए उनमें विश्वास रखना चाहिए और इसी कारण, उसे मानव-प्रकृति की अंतर्निहित अच्छाई में भी आस्था होनी चाहिए। उसे आशा रखनी चाहिए कि वह इसी अच्छाई को अपने पीड़ा-भोग के जरिए सत्य तथा प्रेम की अभिव्यक्ति करके जगाने में कामयाब होगा। (3) उसे पवित्र जीवन व्यतीत करना चाहिए और अपने ध्येय की पूर्ति के लिए अपने जीवन और अपनी संपत्ति को न्यौछावर करने के लिए तैयार तथा इच्छुक रहना चाहिए। (4) वह आदतन खादी धारण करने वाला तथा चरखा कातने वाला होना चाहिए। भारत के संदर्भ में यह आवश्यक है। (5) वह मद्यत्यागी और अन्य नशीले पदार्थ़ों के सेवन से मुक्त होना चाहिए ताकि उसका विवेक सदा जागृत रहे और चित्त स्थिर रहे। (6) वह समयगसमय पर निर्धारित अनुशासन के नियमों का स्वेच्छा से पालन करे। (7) उसे जेल के नियमों का पालन करना चाहिए, सिवा उन नियमों के जो उसके आत्मसम्मान को चोट पहुंचाने के लिए विशेष रूप से बनाए गए हों।
उपर्युक्त नियमावली सर्वसमावेशी नहीं है। यह केवल दृष्टांतिक है।
सत्याग्रही शैतान की पीठ पर सवार होकर तो स्वर्ग भी नहीं जाएगा।
सत्याग्रह में कपट, मिथ्यात्व या किसी प्रकार के असत्य के लिए कोई
स्थान नहीं है। सत्याग्रही सम्मानजनक शर्त़ों पर समझौता करने का कोई अवसर नहीं खोता, नहीं खो सकता, लेकिन समझौता-वार्ता असफल हो जाने पर उसे संघर्ष के लिए सदा तत्पर रहना चाहिए। उसे पहले से कोई तैयारी करने की जरूरत नहीं है, उसकी कार्रवाई में किसी तरह की गोपनीयता नहीं होनी चाहिए। यंग, 16-4-1931, पृ. 77
लोग
प्रायः यह भूल जाते हैं कि सत्याग्रही का उद्देश्य अन्यायी को लज्जित
करना कभी नहीं हो सकता। उसकी अभ्यर्थना अन्यायी के भय से नहीं, सदैव
उसके हृदय से होती है और होनी चाहिए। सत्याग्रही का उद्देश्य अन्यायी
पर जोर-जबर्दस्ती करना नहीं, बल्कि उसका हृदय-परिवर्तन करना है। उसे
अपने समस्त व्यवहार में बनावटीपन से बचना चाहिए। वह सहज रूप से तथा
अपने आंतरिक दृढ़ विश्वास के बल पर काम करता है। सत्याग्रह मूलतः सत्यनिष्ठ व्यक्ति का हथियार है। सत्याग्रही अहिंसा से प्रतिबद्ध होता है और जब तक लोग मनसा, वाचा, कर्मणा इसका पालन न करें, मैं सत्याग्रह नहीं कर सकता। ए, पृ. 345 मेरी सदा से यह धारणा रही है कि अपनी गलतियों को उत्तल लेंस से और दूसरों की गलतियों को अवतल लेंस से देखने पर ही दोनों की न्यायोचित तुलना की जा सकती है। मेरा विश्वास है कि जो सत्याग्रही बनना चाहता है, उसके लिए ध्यानपूर्वक और ईमानदारी के साथ इस नियम का पालन करना आवश्यक है। वही, पृ. 346
सत्याग्रही पशुबल की यंत्रणा से बचाव के लिए भगवान पर भरोसा रखता है... कोई पक्का सत्याग्रही अपने विरोधी की ओर से आने वाले अपेक्षित या अनपेक्षित खतरों से घबराता नहीं है। हां, हर सेना की तरह, उसे भी अपने भीतर के खतरे से भय खाना चाहिए। हरि, 14-7-1946, पृ. 220 |
सत्याग्रह और दमन जिस प्रकार अनचाहे युद्ध से सिपाही को प्रशिक्षण मिल जाता है उसी प्रकार दमन से सत्याग्रही प्रशिक्षित होता है। सत्याग्रहियों को दमन के कारणों का पता लगाना चाहिए। वे पाएंगे कि दमित व्यक्ति किंचित शक्ति-प्रदर्शन से ही सरलतापूर्वक डर जाते हैं और पीड़ा-भोग तथा आत्मबलिदान के लिए तैयार नहीं होते। यही सत्याग्रह के प्रथम पाठ पढने का समय होता है। जिन्हें सत्याग्रह के अतुल बल का थोडा-सा भी ज्ञान है, उन्हें अपने पडोसियों को कमजोरी तथा लाचारी के साथ नहीं बल्कि बहादुरी के साथ और जान-बूझकर दमन को बर्दाश्त करना सिखाना चाहिए... तब भी, तैयारी के अनुत्तेजक नियम सत्याग्रह के प्रशिक्षण का सबसे महत्वपूर्ण अंग हैं। जब तक सत्याग्रह का इच्छुक व्यक्ति प्रशिक्षण के आवश्यक चरणों से नहीं गुजरेगा, जो बडा जानमारू काम है, तब तक वह प्रबल एवं सक्रिय अहिंसा का विकास नहीं कर सकता। हरि, 8-4-1939, पृ. 80 |
सत्याग्रह की शक्ति |
सत्याग्रह की विजय जब तक दुर्भाव है तब तक सत्याग्रह की स्पष्ट विजय असंभव है। लेकिन जो अपने को दुर्बल समझते हैं, वे प्रेम करने में असमर्थ होते हैं। इसलिए हमारा पहला काम यह होना चाहिए कि प्रतिदिन प्रातःकाल यह संकल्प करेः 'मैं दुनिया में किसी से नहीं डरूंगा। मैं केवल ईश्वर से डरूंगा; मैं किसी के प्रति दुर्भावना नहीं रखूंगा। मैं किसी का अन्याय सहन नहीं करूंगा। मैं असत्य पर सत्य से विजय प्राप्त करूंगा और असत्य का प्रतिकार करते हुए हर प्रकार की पीडा को भोगने के लिए तैयार रहूंगा।' सली, सं. 14, 4-5-1919
सत्याग्रही के लिए, समय की कोई सीमा नहीं होती, न उसकी पीड़ा-भोग की
क्षमता की कोई सीमा होती है। इसलिए सत्याग्रह में पराजय नाम की कोई चीज
नहीं है।
ऐसा
नहीं है कि देह को कम महत्व देने के कारण मैं सत्याग्रह में हजारों
लोगों को स्वेच्छा से प्राणों का उत्सर्ग करते हुए देखकर प्रसन्न होता
हूं। बात यह है कि मैं यह जानता हूं कि, दीर्घकाल में, सत्याग्रह में
प्राणों की हानि न्यूनतम होती है और यह बलिदानियों का उदात्तीकरण तो
करती ही है, उनके बलिदान से पृथ्वी का भी उदात्तीकरण होता है। एक बार यह चीज शुरू हो जाए और यदि यह काफी गहन हो तो इसका प्रभाव संपूर्ण विश्व में व्याप्त हो सकता है। आत्मा की उच्चतम अभिव्यक्ति होने के कारण यह महानतम बल है। यंग, 23-9-1926, पृ. 332
मेरा
अनुभव है कि हर न्यायोचित संघर्ष पर गुणोत्तर वृद्धि का नियम लागू होता
है। लेकिन सत्याग्रह के मामले में तो यह नियम स्वयंसिद्ध है। जैसे-जैसे
सत्याग्रहगसंघर्ष प्रगति करता है, अन्य अनेक तत्व उसको बल प्रदान करने
लगते हैं और उससे प्राप्त परिणामों में निरंतर वृद्धि होती जाती है। यह
वस्तुतः अपरिहार्य है, और सत्याग्रह के प्रथम सिद्धांत के साथ ही जुडी
है। कारण यह है कि सत्याग्रह में न्यूनतम ही अधिकतम भी है और चूंकि इस
न्यूनतम में और ह्रास संभव नहीं है इसलिए सत्याग्रह में पीछे हटने का
प्रश्न ही पैदा नहीं होता; उसकी एक ही गति संभव है और वह है प्रगति।
अन्य प्रकार के संघर्ष़ों में मांग को थोडा ऊंचा करके रखा जाता है ताकि
भविष्य में उसमें कुछ कमी करने की गुंजाइश रहे, इसलिए उन सब में
गुणोत्तर वृद्धि का नियम निरपवाद रूप से लागू नहीं होता। मेरी –ष्टि में सत्याग्रह दुनिया के सर्वाधिक सक्रिय बलों में से एक है। यह सूर्य की भांति है जो हर रोज बिना नागा पृथ्वी के ऊपर चमकता है। अगर हम समझ पाएं तो सत्याग्रह करोडों सूर्य़ों से भी अत्यधिक तेजस्वी है। यह जीवन और प्रकाश तथा शांति एवं सुख का प्रसार करता है। यंग, 18-4-1929, पृ. 126 |
एक सच्चा सत्याग्रही अगर एक सत्याग्रही भी अंत तक डटा रहे तो विजय निश्चित है। ससा, पृ. गपअ मारते हुए मरने वाले लाखों आदमियों के बलिदान के मुकाबले एक निर्दोष व्यक्ति का आत्मबलिदान लाखों गुना ज्यादा असर पैदा करता है। निर्दोष का स्वेच्छया बलिदान उद्धत क्रूरता का ईश्वर अथवा मनुष्य द्वारा अभी तक सोचा गया सबसे शक्तिशाली प्रतिकार है। यंग, 12-2-1925, पृ. 60 मेरी यह धारणा रही है कि फकत एक आदमी भी पूरी तरह अहिंसक रहे तो वह बडी-से-बडी अग्नि का शमन कर सकता हैकृ लेकिन लोकतंत्र से इस युग में यह आवश्यक है कि अभीष्ट परिणाम लोगों के सामूहिक प्रयास से प्राप्त किए जाएं। किसी एक अत्यंत शक्तिशाली व्यक्ति के प्रयास से ध्येय की प्राप्ति अच्छी बात जरूर है, लेकिन उससे समुदाय को अपनी सामूहिक शक्ति का बोध कभी नहीं हो सकता। हरि, 8-9-1940, पृ. 277 मैं अकेला चलने में विश्वास करता हूं। मैं अकेला ही इस दुनिया में आया, अकेला ही मौत के साए की घाटी में चला हूं और समय आने पर अकेला ही यह दुनिया छोड जाऊंगा। मैं जानता हूं कि मैं निपट अकेला होऊं तो भी सत्याग्रह छेडने का मुझमें पर्याप्त सामर्थ्य है। मैंने पहले भी ऐसा किया है। हरि, 21-7-1946, पृ. 227 |
सत्याग्रह पर अमल सत्याग्रह ऐसा बल है जिसका प्रयोग व्यक्ति भी कर सकते हैं और समुदाय भी। इसका प्रयोग जितना अच्छी तरह राजनीतिक मामलों में किया जा सकता है, उतनी ही अच्छी तरह घरेलू मामलों में भी किया जा सकता है। इसकी सार्वभौम प्रयोज्यता इसके स्थायित्व और अपराजेयता का प्रमाण है। इसका प्रयोग पुरुष, स्त्राh, बच्चे सभी समान रूप से कर सकते हैं। यह कहना बिलकुल गलत है कि यह एक ऐसा बल है जिसका प्रयोग दुर्बल लोग उस समय तक कर सकते हैं जब तक कि वे हिंसा का जवाब हिंसा से देने में समर्थ न हो जाएं... सत्याग्रह का बल तो हिंसा, सभी प्रकार की क्रूरता और सभी प्रकार के अन्याय को इस तरह मिटा देता है जैसे अंधकार को प्रकाश। राजनीति में इसका प्रयोग इस अटल सिद्धांत पर आधारित है कि किन्हीं लोगों पर शासन करना तभी तक संभव है जब तक कि वे जाने अथवा अनजाने अपने ऊपर शासन किए जाने के लिए सहमत हैं। यंग, 3-11-1927, पृ. 369 मैंने कभी मौलिक सत्याग्रही होने का दावा नहीं किया है। मेरा दावा तो सिर्फ यह है कि सत्याग्रह के सिद्धांत का प्रयोग प्रायः सार्वभौम पैमाने पर किया जा सकता है, किंतु अभी यह देखना और प्रदर्शित करना बाकी है कि क्या यह ऐसा सिद्धांत है जिसे सभी युगों और प्रदेशों के हजारोंगलाखों लोग आत्मसात कर सकते हैं। यंग, 22-9-1927, पृ. 317 |
अहिंसक शास्ति सत्याग्रह सार्वभौम प्रयुक्ति का नियम है। परिवार से आरंभ करके इसका विस्तार प्रत्येक क्षेत्र तक किया जा सकता है। मान लीजिए कि कोई जमपदार अपने काश्तकारों का शोषण करता है और उनकी मेहनत के फल से उनको वंचित करके उसे अपने इस्तेमाल में लाता है। काश्तकारों के सविनय विरोध करने पर भी वह उनकी बात नहीं सुनता और आपत्ति करते हुए कहता है कि उसे इतना पैसा अपनी पत्नी के लिए चाहिए, इतना अपने बच्चों के लिए चाहिए, आदि-आदि। काश्तकार अथवा उनकी ओर से पैरवी करने वाले ऐसे लोग जिनका कुछ प्रभाव है, उसकी पत्नी से प्रार्थना करते हैं कि वह अपने पति से बात करे। पत्नी संभवतः कहेगी कि उसे पति द्वारा शोषित धन की अपने लिए आवश्यकता नहीं है। बच्चे भी शायद ऐसा ही कहें कि उन्हें जरूरत होगी तो वे खुद अपनी कमाई कर लेंगे। यह भी मान लीजिए कि वह किसी की बात सुनने के लिए तैयार नहीं है या उसकी पत्नी और बच्चे भी काश्तकारों की खिलाफत करने के लिए एकजुट हो जाते हैं, तो काश्तकार उनके सामने झुकेंगे नहीं। अगर जमपदार उन्हें निकालना चाहेगा तो वे निकल जाएंगे, लेकिन वे साफ तौर पर यह बात कह देंगे कि जमीन उसी की है जो उस जोतता है। जमपदार चूंकि सारी जमीन खुद नहीं जोत सकता, इसलिए उसे काश्तकारों की जायज मांगें माननी ही होंगी। लेकिन हो सकता है कि जमपदार उन काश्तकारों को निकालकर दूसरे काश्तकार रख ले। ऐसी सूरत में, अहिंसक आंदोलन छेडा जाएगा जो तब तक जारी रहेगा जब तक नये काश्तकार अपनी गलती न मान लें और पहले वाले काश्तकारों के साथ आंदोलन में सम्मिलित न हो जाएं। इस प्रकार, सत्याग्रह जनमत को शिक्षित करने की एक प्रक्रिया है जो समाज के सभी तत्वों को अपने में समाहित करती है और अंततः अदम्य बन जाती है। हिंसा इस प्रक्रिया में विघ्न उपस्थित करती है और समूचे सामाजिक ढांचे की सच्ची क्रांति को लंबा कर देती है। सत्याग्रह की सफलता के लिए आवश्यक शर्त़ें हैं : (1) सत्याग्रही के मन में विरोधी के लिए घृणा की भावना नहीं होनी चाहिए; (2) सत्याग्रह का मुद्दा सच्चा और महत्वपूर्ण होना चाहिए; (3) सत्याग्रही को अपने ध्येय की पूर्ति होने तक पीडा भोगने के लिए तैयार रहना चाहिए। हरि, 31-3-1946, पृ. 64 |
आत्मरक्षा का प्रशिक्षण मैं समझता हूं कि इस युग में प्रत्येक स्त्राh-पुरुष को आत्मरक्षा की कला सीखनी चाहिए। पश्चिम में इसके लिए हथियारों का प्रशिक्षण दिया जाता है। प्रत्येक वयस्क पुरुष को एक निश्चित अवधि के लिए अनिवार्यतः सैन्य सेवा करनी पडती है। सत्याग्रह का प्रशिक्षण सबके लिए है, इसमें आयु अथवा स्त्राh-पुरुष की कोई बंदिश नहीं है। इस प्रशिक्षण का अधिक महत्वपूर्ण पक्ष मानसिक है, शारीरिक नहीं। मानसिक प्रशिक्षण में कोई बाध्यता नहीं हो सकती। यह जरूर है कि आसपास का वातावरण मन पर असर डालता है, लेकिन इससे बाध्यता का औचित्य सिद्ध नहीं हो सकता। सशस्त्र प्रतिरोध की अपेक्षा सत्याग्रह सदैव श्रेष्ठ है। इसे तर्क से नहीं बल्कि प्रदर्शन द्वारा ही ज्यादा अच्छी तरह सिद्ध किया जा सकता है। सत्याग्रह का शस्त्र बलशाली का आभूषण है। यह दुर्बल का आभूषण कभी नहीं हो सकता। दुर्बल से यहां आशय मन और प्राण की दुर्बलता से है, शरीर की दुर्बलता से नहीं। यह सीमा एक गुण है जिसकी कौ की जानी चाहिए, कोई अवगुण नहीं जिसकी निंदा की जाए। एक और भी सीमा है जिसे समझना जरूरी है और वह यह कि सत्याग्रह का प्रयोग गलत उद्देश्य के लिए कभी नहीं किया जा सकता। सत्याग्रहियों के जत्थे प्रत्येक गांव में और शहरों में इमारतों के प्रत्येक ब्लॉक के लिए संगठित किए जा सकते हैं। इस जत्थे के सदस्य ऐसे लोग हों जिन्हें संगठनकर्ता अच्छी तरह जानते हों। इस मायने में सत्याग्रह और सशस्त्र सेना में फर्क है। सेना में भरती के लिए राज्य प्रत्येक व्यक्ति से आग्रह करती है, लेकिन सत्याग्रह के जत्थे में सिर्फ वे ही लोग भरती किए जा सकते हैं जिनका अहिंसा और सत्य में विश्वास हो। इसलिए जत्थे में शामिल किए जाने वाले व्यक्तियों के बारे में संगठनकर्ताओं को गहरी जानकारी होनी जरूरी है। हरि, 17-3-1946, पृ. 45-46 |
दुराग्रह मेरी राय में, हिंसा अपनाने से भारत घोर विपत्तियों का शिकार हो जाएगा। श्रमिक आत्महत्या करने लगेंगे और अगर अपना गुस्सा निकालने के लिए श्रमिकों ने देश के कानूनों की अपराधिक अवज्ञा शुरू कर दी तो भारत को अकथनीय कष्ट उठाने होंगे... जब मैंने सत्याग्रह और सविनय अवज्ञा की शुरुआत की थी तो इसमें आपराधिक अवज्ञा के लिए कोई स्थान नहीं था। मेरे अनुभव ने मुझे सिखाया है कि सत्य का प्रचार हिंसा के द्वारा कभी नहीं किया जा सकता। जिन्हें अपने उद्देश्य की न्यायोचितता में विश्वास है, उनमें असीम धैर्य होना चाहिए और सविनय अवज्ञा करने के अधिकारी वही हैं जिनके हाथों आपराधिक अवज्ञा या हिंसा कभी हो ही नहीं सकती। जिस प्रकार कोई व्यक्ति एक ही समय में संयत और क्रोधोन्मत नहीं हो सकता, उसी प्रकार कोई व्यक्ति सविनय अवज्ञा और आपराधिक अवज्ञा एक साथ नहीं कर सकता। और जिस प्रकार अपने मनोवेगों पर विजय पाने के उपरांत ही व्यक्ति आत्मसंयम के गुण का विकास कर सकता है, उसी प्रकार देश के नियमों के पूर्ण और स्वैच्छिक पालन का अभ्यस्त हो जाने के बाद ही व्यक्ति में सविनय अवज्ञा की क्षमता उत्पन्न होती है। ऐसे ही, जिस प्रकार प्रलोभनों के उपस्थित होने पर उनका शिकार होने से बचने में कामयाब होने पर ही मनुष्य को प्रलोभनों से मुक्त माना जा सकता है, उसी प्रकार हमने क्रोध को जीत लिया है, यह तभी कहा जा सकता है जब क्रोध के पर्याप्त कारणों के उपस्थित होने पर भी हम संयमित रहने में कामयाब हो जाएं। यंग, 28-4-1920, पृ. 7-8 कुछ विद्यार्थियों ने 'धरने' पर बैठने के रूप में बर्बरता के पुराने स्वरूप को पुनर्जीवित किया है... मैं इसे 'बर्बरता' इसलिए कहता हूं कि यह जोर-जबर्दस्ती करने का एक भद्दा तरीका है। यह कायरतापूर्ण भी है, क्योंकि धरने पर बैठने वाला व्यक्ति जानता है कि उसे कुचला नहीं जाएगा। 'धरनेञ को हिंसक कहना तो कठिन है, पर यह निश्चित रूप से उससे भी बुरी चीज है। अगर हम अपने विरोधी से लडते हैं तो कम-से-कम उसे यह अवसर तो देते हैं कि वह हमारे घूसें का जवाब घूसें से दे। लेकिन जब हम यह जानते हुए भी कि वह ऐसा नहीं करेगा, उसे अपनी छाती पर पांव रखकर निकल जाने के लिए ललकारते हैं तो हम उसे एक कष्टकर और लज्जास्पद स्थिति में डाल देते हैं। मैं जानता हूं कि जो विद्यार्थी धरने पर बैठे थे, उन्होंने इस कृत्य की बर्बरता के बारे में कभी विचार नहीं किया था। लेकिन जिस व्यक्ति से अपनी अंतर्वाणी का अनुगमन करने और कठिनाइयों का अकेला ही सामना करने की आशा की जाती है, उसे विवेकहीन कभी नहीं होना चाहिए।
हमें
अधैर्य, बर्बरता, धृष्टता या अनुचित दबाव का प्रदर्शन कभी नहीं करना
चाहिए। यदि हम लोकतंत्र की सच्ची भावना का विकास करना चाहते हैं तो
हमें अधैर्य का त्याग करना होगा। अधैर्य व्यक्ति की अपने ध्येय में
आस्था न होने का परिचायक है। मेरे हिरासत में लिए जाने पर इतनी उत्तेजना और उपौव का जो प्रदर्शन हुआ, उसका कारण मेरी समझ में नहीं आया। यह सत्याग्रह नहीं है। यह तो दुराग्रह से भी गया-बीता है। सत्याग्रह में भाग लेने वाले लोग इस अनुशासन से बंधे थे कि वे कितना ही संकट आए पर हिंसा पर उतारू नहीं होंगे, पथराव नहीं करेंगे और किसी को किसी तरह की क्षति नहीं पहुंचाएंगे। लेकिन बंबई में हमने पथराव किया है। हमने बाधाएं खडी करके ट्रामों को चलने से रोका है। यह सत्याग्रह नहीं है। हमने हिंसा के जुर्म में पकडे गए 50 आदमियों को छोडे जाने की मांग की है। हमारा कर्तव्य तो मुख्यतया गिरफ्तारी देना है। जिन्होंने हिंसक कार्रवायों में हिस्सा लिया है, उन्हें छुडाने का प्रयास करना अपने धार्मिक कर्तव्य से च्युत होना है। स्पीरा, पृ. 474 मैंने अनगिनत बार कहा है; फिर भी, सत्याग्रह के नाम पर हमने इमारतें जलाई हैं, जबरन हथियार छीने हैं, रुपए ऐंठे हैं, रेलें रोकी हैं, टेलीफोन के तार काट दिए हैं, निर्दोष लोगों की जानेंली हैं और दुकानों तथा निजी घरों को लूटा है। यदि एसे कृत्यों से मुझे जेल या फांसी से बचाया जा सके तो मैं इस तरह बचना पसंद नहीं करूंगा। वही, पृ. 476 कृकृबुरे उद्देश्यों के लिए वीरता प्रदर्शित करना तथा बलिदान देना उत्तम ऊर्जा का अपव्यय है, और बुरे उद्देश्य के लिए वीरता तथा बलिदान के दुरुपयोग को गौरवान्वित करने से लोगों का ध्यान अच्छे उद्देश्यों की ओर से हटता है। यंग, 12-2-1925, पृ. 60 कृकृसत्ता के अंधाधुंध प्रतिरोध से अव्यवस्था, बे-लगाम उच्छ्रंखलता और उसके फलस्वरूप विनाश की स्थिति ही उत्पन्न होती है। यंग, 2-4-1931, पृ. 58 |
35. असहयोग
असहयोग जनसाधारण में अपनी गरिमा और शक्ति की भावना जागृत करने का एक
प्रयास है। यह तभी संभव है जब उन्हें यह ज्ञान कराया जाए कि यदि वे
अपनी अंतरात्मा को पहचान सकें तो उन्हें पशुबल से डरने की कोई आवश्यकता
नहीं रहेगी। असहयोग बुराई में अनजाने और अनिच्छापूर्वक भागीदारी करने के विरुद्ध किया गया प्रतिवाद है... बुराई के साथ असहयोग करना उसी प्रकार मनुष्य का कर्तव्य है जिस प्रकार अच्छाई के साथ सहयोग करना। यंग, 1-6-1921, पृ. 172
असहयोग कोई निक्रिय स्थिति नहीं है, यह अत्यंत सक्रिय स्थिति हैगहिंसक
प्रतिरोध या हिंसा से अधिक सक्रिय। निक्रिय प्रतिरोध एक गलत संज्ञा है।
असहयोग शब्द का प्रयोग मैंने जिस अर्थ में किया है, उसमें इसका अहिंसक
होना आवश्यक है और इसीलिए यह न तो दंडात्मक है और न द्वेष, दुर्भावना
अथवा घृणा पर आधारित है। |
धार्मिक आधार मैं साहसपूर्वक यह कहना चाहता हूं कि भगवद्गीता अंधकार और प्रकाश की शक्तियों के बीच असहयोग का सिद्धांत है। यदि इसकी शाब्दिक व्याख्या की जाए तो सदुद्देश्य का प्रतिनिधित्व करने वाले अर्जुन को अन्यायी कौरवों के साथ युद्ध करने के लिए आदेश दिया गया था। तुलसीदास ने संतों को परामर्श दिया है कि वे असंतों की संगति से बचें। जेंदा-अवेस्ता अहुरमज्द और आरीमैन, जिनके बीच कोई मेल नहीं था, के शाश्वत द्वंद्व का प्रस्तुतीकरण है। बाइबिल के बारे में यह कहना कि यह असहयोग का निषेध करती है, ईसा को न समझना है। ईसा तो निक्रिय प्रतिरोधकर्ताओं के कंठहार थे, जिन्होंने संदूसियों और फरीसियों की शक्ति को –ढतापूर्वक ललकारा था और सत्य की खातिर बच्चों को उनके माता-पिताओं से अलग करने में भी संकोच नहीं किया था। और इस्लाम के पैगंबर ने क्या किया ? जब तक उनका जीवन संकट में नहीं पड गया तब तक उन्होंने मक्का में रहते हुए डटकर असहयोग किया और जब यह देखा कि उन्हें और उनके अनुयाइयों को बेवजह जान गंवानी पडेगी तो मक्का की धूल पैरों से झाडकर मदीना जा पहुंचे और मक्का तभी लौटे जब उन्होंने अपने विरोधियों का सामना करने योग्य शक्ति अर्जित कर ली। सभी धर्म़ों में जिस प्रकार न्यायप्रिय व्यक्तियों तथा राजाओं के साथ सहयोग करना मनुष्य का कर्तव्य बताया गया है, उसी प्रकार अन्यायी व्यक्तियों और राजाओं के साथ असहयोग करने का कठोर आदेश दिया गया है। वस्तुतः विश्व के अधिकांश धर्मग्रंथ असहयोग से भी आगे बढकर, यह कहते हैं कि बुराई के सामने नपुंसकों की तरह घुटने टेक देने से हथियार उठा लेना बेहतर है। हिंदू धार्मिक परंपरा मेंकृ असहयोग के कर्तव्य को स्पष्ट रूप से सिद्ध किया गया है। प्रल्हाद ने अपने पिता से, मीराबाई ने अपने पति से और विभीषण ने अपने अत्याचारी भाई से असहयोग ही तो किया था। यंग, 4-8-1920, पृ. 4 |
बुनियादी सिद्धांत अहिंसा का पालन इस बुनियादी सिद्धांत पर टिका है कि जो अपने विषय में सही है, वही समस्त विश्व के विषय में भी सही है। सभी मनुष्य मूलतः एक जैसे हैं। इसलिए जो मैं कर सकता हूं, उसे हर कोई कर सकता है... सार रूप में, यही अहिंसक असहयोग का सिद्धांत है। इसलिए इसका अर्थ यह है कि इसके मूल में प्रेम होना आवश्यक है। इसका उद्देश्य विरोधी को दंड देना या उसे क्षति पहुंचाना नहीं होना चाहिए। उसके साथ असहयोग करते हुए भी हमें उसे यह अनुभव करने देना चाहिए कि हम उसके मित्र हैं और जहां भी संभव हो, हमें उसकी मानवीय सेवा करके उसके हृदय को जीतने का प्रयास करना चाहिए। वस्तुतः अहिंसा की कसौटी ही यह है कि अहिंसक संघर्ष में, उसके उपरांत कोई विद्वेष बाकी न रहे और शत्रु मित्र बन जाएं। दक्षिण अफ्रीका में जनरल स्मट्स के साथ मेरा यही अनुभव रहा। शुरू में, वह मेरे कट्टर विरोधी और आलोचक थे। आज वह मेरे अन्यतम मित्र हैं... |
स्थायी गुण समय बदलता है और प्रणालियों का ह्रास हो जाता है, लेकिन मेरा विश्वास है कि अंततः केवल अहिंसा और अहिंसा पर आधारित चीजें ही बची रहेंगी। ईसाई धर्म का जन्म एक हजार नौ सौ वर्ष पहले हुआ था। ईसा का पौरोहित्य केवल तीन वर्ष चला। उनके उपदेशों का उनके जीवन-काल में ही गलत अर्थ लगाया गया और आज ईसाई जगत उनके प्रमुख उपदेश 'अपने शत्रु से प्रेम करो' को ही नकार रहा है। लेकिन किसी व्यक्ति के उपदेश के केंौाhय सिद्धांत के प्रचार के लिए उन्नीस सौ वर्ष होते ही क्या हैं ? उसके छह सौ वर्ष बाद इस्लाम धर्म आया। बहुत-से मुसलमान तो मुझे यह कहने तक की इजाजत नहीं देंगे कि इस्लाम शब्द का अर्थ ही है विशुद्धश्शांति। कुरान के अध्ययन ने मेरी यह धारणा पुष्ट कर दी है कि कुरान का आधार हिंसा नहीं है।
लेकिन
इसमें भी वही बात है- तेरह सौ वर्ष काल के चक्र में मात्र एक मनका हैं।
मेरा विश्वास है कि ये दोनों महान धर्म उसी हद तक जीवित रहेंगे जिस हद
तक उनके अनुयायी अहिंसा के मुख्य उपदेश को आत्मसात करेंगे। लेकिन यह
बात केवल बुद्धि की सहायता से ग्रहण नहीं की जा सकती, यह हमारे हृदयों
में पैठनी चाहिए। असहयोग यद्यपि सत्याग्रह के शस्त्रागार का मुख्य शस्त्र है, पर यह नहीं भूलना चाहिए कि यह सत्य और न्याय पर –ढ रहते हुए विरोधी का सहयोग प्राप्त करने का एक साधन मात्र है। अहिंसक विधि का सार यह है कि यह विरोध को समाप्त करने का प्रयास करता है, स्वयं विरोधियों को नहीं। अहिंसक संघर्ष में तुम्हें, कुछ हद तक, जिस व्यवस्था का तुम विरोध कर रहे हो, उसकी परंपरा और रूढियों को मानना पडता है। इसलिए विरोधी शक्ति के साथ किसी तरह का संबंध न रखना सत्याग्रही का ध्येय कभी नहीं हो सकता; उसका ध्येय तो उस संबंध का रूपांतरण अथवा शुद्धीकरण है। हरि, 29-4-1939, पृ. 101 |
असहयोग का नीतिशास्त्र मैं असहयोग को इतना शक्तिशाली और शुद्ध साधन मानता हूं कि अगर इसका इस्तेमाल सच्ची भावना से किया जाए तो यह पहले ईश्वर के साम्राज्य की कामना करने के समान होगा जिसके बाद सब कुछ स्वयं प्राप्त होता जाता है। तब लोग अपनी सच्ची शक्ति को पहचान पाएंगे। वे अनुशासन, आत्मनियंत्रण, संयुक्त कार्रवाई, अहिंसा, संगठन आदि उन सभी बातों का मूल्य पहचान पाएंगे जिनसे कोई राष्ट्र महान और अच्छा, दोनों बनता है, केवल महान ही नहीं। यंग, 2-6-1920, पृ. 3 असहयोग जैसा शुद्ध, हानिरहित और फिर भी, कारगर साधन दूसरा नहीं है। विवेकपूर्वक इस्तेमाल करने पर इसके कोई दुष्परिणाम सामने नहीं आने चाहिए। और इसकी गहनता पूर्णतया लोगों की बलिदान करने की क्षमता पर निर्भर करेगी। यंग, 30-6-1920, पृ. 3 हमने 'न' कहने की शक्ति खो दी थी। सरकार से 'न' कहना निष्ठाहीन और प्रायः ौाsहपूर्ण माना जाने लगा था। सहयोग करने से जान-बूझकर इंकार करने की यह तकनीक उसी प्रकार की है जैसे कि किसान बुआई से पहले जमीन की निराई करना जरूरी समझता है। कृषि के लिए जितनी जरूरी बुआई है, उतनी ही जरूरी निराई भी है। फसल जब बढ रही होती है तब भी निराई की खुरपी किसान के दैनंदिन प्रयोग की चीज होती है। राष्ट्र का असहयोग राष्ट्र की शर्त़ों पर सरकार से सहयोग करने का निमंत्रण है जो कि प्रत्येक राष्ट्र का अधिकार और प्रत्येक अच्छी सरकार का कर्तव्य है। असहयोग राष्ट्र की ओर से चेतावनी है कि वह सरकार की प्रतिपाल्यता से संतुष्ट नहीं है। यंग, 1-6-1921, पृ. 173 अहिंसक असहयोग आंदोलन और पश्चिम के ऐतिहासिक स्वाधीनता-संघर्ष़ों के बीच कोई साम्य नहीं है। यह पशुबल या घृणा पर आधारित नहीं है। इसका ध्येय अत्याचारी का सफाया करना नहीं है। यह आत्मशुद्धीकरण का आंदोलन है। अतः इसका उद्देश्य अत्याचारी का हृदय-परिवर्तन है। यह नाकामयाब इसलिए हो सकता है कि भारत अभी जनगआंदोलन के लिए तैयार नहीं है। लेकिन आंदोलन को झूठे पैमानों से परखना गलत होगा। मेरी निजी राय है कि आंदोलन किसी भी रूप में असफल नहीं हुआ है। इसने भारत के स्वाधीनता संग्राम में एक स्थायी स्थान बना लिया है। यंग, 11-2-1926, पृ. 59 |
एक कर्तव्य कभी-कभी असहयोग भी उसी प्रकार एक कर्तव्य बन जाता है जिस प्रकार कि सहयोग है। कोई व्यक्ति अपने ही सर्वनाश अथवा दासता में सहयोग देने के लिए बाध्य नहीं है। दूसरों के प्रयास से हासिल की गई आजादी, वे प्रयास चाहे जितने हितकारी हों, उन्हें वापस लेते ही संकट में पड जाती है। दूसरे शब्दों में, ऐसी आजादी सच्ची आजादी नहीं है। लेकिन अहिंसक असहयोग की मदद से आजादी हासिल करने की कला सीखते ही निम्न-से-निम्न व्यक्ति भी उसकी दीप्ति का अनुभव कर सकते हैं... मेरी निश्चित धारणा है कि जो बात अहिंसक असहयोग से अनाचारी का अंततः हृदय-परिवर्तन करके हासिल की जा सकती है, वही हिंसा से कभी नहीं की जा सकती। भारत में, हमने अभी तक अहिंसा के हथियार को उसकी पात्रता के अनुरूप आजमाकर नहीं देखा है। चमत्कार तो यह है कि अपनी आधी-अधूरी अहिंसा से भी हमने इतना कुछ हासिल कर लिया है। यंग, 20-4-1920, पृ. 97
मैंने
असहयोग को धार्मिक रूप में प्रस्तुत किया है, चूंकि मैं राजनीति में
उसी सीमा तक प्रविष्ट होता हूं जहां तक वह मेरी धार्मिक शक्ति का विकास
करती है। मेरे असहयोग के पीछे मेरी यह उत्कट इच्छा सदा रहती है कि अपने घोर-से-घोर विरोधी के साथ भी किसी भी बहाने से सहयोग करूं। मैं स्वयं एक बडा ही अपूर्ण मानव हूं जिसे निरंतर ईश्वर के अनुग्रह की आवश्यकता रहती है और मेरी –ष्टि में, कोई व्यक्ति ऐसा नहीं है जिसका उद्धार संभव ही न हो। यंग, 4-6-1925, पृ. 193 कृधूर्तता का समर्थन मैं कभी नहीं करूंगा। मेरी –ष्टि में, सत्याग्रह का नियम, प्रेम का नियम, एक शाश्वत सिद्धांत है। मैं हर अच्छी बात के साथ सहयोग करता हूं। मैं हर बुरी बात के साथ असहयोग करना चाहता हूं... यंग, 18-6-1925, पृ. 213 |
घृणा नहीं प्रार्थनामय अनुशासन में रहते-रहते, पिछले चालीस से भी अधिक वर्ष़ों से मैंने किसी भी व्यक्ति को घृणा की –ष्टि से देखना बंद कर दिया है। मैं यह जानता हूं कि यह एक बडा दावा है। फिर भी, पूरी विनम्रता के साथ, मैं यह दावा कर रहा हूं। लेकिन बुराई जहां भी है, मैं उससे घृणा कर सकता हूं और जरूर करता हूं। मेरे असहयोग के मूल में घृणा नहीं, प्रेम होता है। मेरा व्यक्तिगत धर्म मुझे किसी से भी घृणा करने की इजाजत नहीं देता। मैंने यह सरल किंतु महान सिद्धांत बारह वर्ष की आयु में स्कूल की एक किताब से सीखा जो आज भी –ढता के साथ मेरे मानस-पटल पर अंकित है। यह दिन-प्रतिदिन और –ढ होता जाता है। यह मेरे जीवन का एक तीव्र मनोवेग है। यंग, 6-8-1925, पृ. 272
ऐसा
नहीं है कि मैं हर चीज के प्रति अनिष्ठा की भावना पालने लगता हूं, लेकिन
जो असत्य है, अन्यायपूर्ण है और बुरा है, उसके प्रति मेरी कोई निष्ठा
नहीं होती... मैं किसी संस्था के प्रति तभी तक नैष्ठिक रहता हूं जब तक
वह मेरे और मेरे राष्ट्र के विकास में सहायक होती है। जैसे ही मुझे
लगता है कि वह विकास में साधक होने के बजाय बाधक सिद्ध हो रही है, मैं
उसके प्रति निष्ठाहीन होना अपना कर्तव्य समझने लगता हूं। मेरा असहयोग यद्यपि मेरे धर्म का एक अंग है, पर यह असहयोग की शुरुआत होती है। मेरा असहयोग पद्धतियों और प्रणालियों के प्रति होता है, व्यक्तियों के प्रति कभी नहीं। मैं तो डायर के प्रति भी दुर्भावना नहीं पालूंगा। मैं दुर्भावना को मानव गरिमा के अनुरूप नहीं मानता। यंग, 12-9-1929, पृ. 300 कुछ लोगों ने मुझे अपने समय का सबसे बडा क्रांतिकारी बताया है। यह चाहे गलत हो, पर मैं स्वयं को एक क्रांतिकारी, एक अहिंसक क्रांतिकारी अवश्य मानता हूं। असहयोग मेरा शस्त्र है। कोई व्यक्ति संबंधित लोगों के स्वेच्छा अथवा बलात् सहयोग के बिना विपुल धनराशि का संचय नहीं कर सकता। यंग, 26-11-1931, पृ. 3698 मैं स्वभावतः सहयोगी हूं; मेरे असहयोग का उद्देश्य वस्तुतः सहयोग से सारी नीचता और झूठ को निकाल फेंकना होता है, क्योंकि मेरे विचार में ऐसा सहयोग किसी काम का नहीं है। एफा, पृ. 84 |
उपवास और सत्याग्रह |
सत्याग्रह का शस्त्र सत्याग्रह के शस्त्रागार में उपवास एक बडा शक्तिशाली शस्त्र है। इसका प्रयोग हर कोई नहीं कर सकता। उपवास करने की शारीरिक क्षमता से ही उसकी पात्रता निर्धारित नहीं की जा सकती। ईश्वर में जागृत आस्था के बिना इसका कोई उपयोग नहीं है। यह एक यांत्रिक प्रयास अथवा मात्र अनुकरण के रूप में कभी नहीं किया जाना चाहिए। उपवास की प्रेरणा व्यक्ति की आत्मा की गहराई से आनी चाहिए। इसलिए उपवास सदा एक विरल घटना होती है। हरि, 18-3-1939, पृ. 56 विशुद्ध उपवास में स्वार्थ, क्रोध, आस्थाहीनता अथवा अधैर्य का कोई स्थान नहीं हो सकताकृ उसमें असीम धैर्य, –ढ संकल्प, उद्देश्य के प्रति अडिग निष्ठा, पूर्ण शांति तथा क्रोध का अभाव होना परम आवश्यक है। लेकिन चूंकि मनुष्य के लिए इन सभी गुणों का तत्काल विकास कर पाना संभव नहीं है, इसलिए जिसने अहिंसा के नियमों के पालन का व्रत न लिया हो, उसे सत्याग्रही उपवास पर नहीं बैठना चाहिए। हरि, 13-10-1940, पृ. 322 उपवास... एक प्रबल चीज है और यह खतरे से पूरी तरह मुक्त नहीं होता। मुझे जब भी उपवास गलत या नैतिक –ष्टि से अनुचित लगा है तब मैंने स्वयं उसकी निंदा की है। लेकिन स्पष्ट नैतिक संकेत मिलने पर भी उपवास से जी चुराना अपने कर्तव्य से च्युत होना है। सत्याग्रही उपवास विशुद्ध सत्य तथा अहिंसा पर आधारित होना चाहिए। हरि, 28-7-1946, पृ. 235 |
उपवास तथा मृत्यु आमरण उपवास सत्याग्रह के शस्त्रागार का अंतिम एवं सबसे शक्तिशाली शस्त्र है। यह एक पवित्र शस्त्र है। इसे इसके संपूर्ण निहितार्थ के साथ स्वीकार करना चाहिए। महत्वपूर्ण स्वयं उपवास नहीं है, बल्कि उसका निहितार्थ है। हरि, 18-8-1946, पृ. 262 |
उपवास और ईसा का मार्ग उपवास यांत्रिक तरीके से नहीं किया जा सकता। यह एक शक्तिशाली चीज है, पर अनाडीपन के साथ करने पर यह खतरनाक साबित हो सकता है। इसके लिए पूर्ण आत्म-शुद्धीकरण की आवश्यकता होती है, उससे भी कहीं ज्यादा आत्मशुद्धीकरण की जो केवल मन में ही प्रतिकार की भावना लेकर मौत का सामना करने के लिए चाहिए। पूर्ण बलिदान का एक ही ऐसा कृत्य समूची दुनिया के लिए काफी होगा। ईसा का उदाहरण इसी कोटि में आता है। हरि, 27-10-1946, पृ. 272 इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि उपवास वस्तुतः जोर-जबर्दस्ती करने का साधन बनाए जा सकते हैं। किसी स्वार्थ-सिद्धि के लिए किए गए उपवास ऐसे ही होते हैं। किसी आदमी से रुपया ऐंठने या किसी निजी उद्देश्य की पूर्ति के लिए किया गया उपवास जोरगजबर्दस्ती या अनुचित प्रभाव के प्रयोग की सीमा में आ जाता है। मैं निस्संकोच ऐसे अनुचित प्रभाव का प्रतिकार करने का समर्थन करूंगा। मैंने स्वयं अपने विरोध में किए गए ऐसे उपवासों अथवा उनकी धमकियों का सफलतापूर्वक प्रतिरोध किया है। अगर यह तर्क दिया जाए कि स्वार्थपूर्ण और निःस्वार्थ उद्देश्यों के बीच की विभाजक रेखा बडी महीन होती है तो मेरा उत्तर है कि यदि कोई व्यक्ति किसी के उपवास को स्वार्थपूर्ण या अन्य किसी रूप में निकृष्ट मानता है तो उसे दृढ़तापूर्वक उसके सामने झुकने से इंकार कर देना चाहिए, भले ही इसके फलस्वरूप उपवास पर बैठे व्यक्ति की मृत्यु हो जाए। अगर लोग ऐसे उपवासों की अपेक्षा करने की आदत डाल लें जो, उनकी राय में, निकृष्ट उद्देश्यों को लेकर किए गए हैं, तो ऐसे उपवासों से जोर-जबर्दस्ती और अनुचित प्रभाव का कलंक दूर हो जाएगा। अन्य सभी मानव संस्थाओं की तरह, उपवास जायज और नाजायज, दोनों प्रकार का हो सकता है। हरि, 9-9-19330, पृ. 5 यदि कोई व्यक्ति, चाहे वह कितना ही जनप्रिय तथा महान हो, किसी अनुचित मुद्दे को उठाता है और उस अनौचित्य की रक्षा के लिए उपवास करता है तो यह उसके मित्रों, सहयोगियों और संबंधियों (जिनमें मैं अपनी गिनती भी करता हूं) का कर्तव्य है कि उसकी प्राणरक्षा के लिए अनुचित मुद्दे को मनवाने की अपेक्षा उसे मर जाने दें। उद्देश्य अनुचित हो तो शुद्ध-से-शुद्ध साधन भी अशुद्ध बन जाते हैं। हरि, 17-3-1946, पृ. 43 |
अंतिम उपाय यहां मैं एक सामान्य सिद्धांत का निरूपण करना चाहूंगा। सत्याग्रही को उपवास का आश्रय अंतिम उपाय के रूप में तभी लेना चाहिए जब अन्याय के निवारण के सभी उपाय आजमा लिए गए हों और वे असफल हो गए हों। उपवासों में अनुकरण के लिए कोई स्थान नहीं होता। जिसमें आंतरिक शक्ति नहीं है, उसे उपवास करने की बात स्वप्न में भी नहीं सोचनी चाहिए। एक बात और है कि उपवास को सफलता के प्रति आसक्ति के साथ कभी नहीं करना चाहिए। लेकिन सत्याग्रही अपनी दृढ़ धारणा से एक बार उपवास आरंभ कर दे तो फिर उसे उस पर कायम रहना चाहिए चाहे उसकी सफलता की संभावना हो या न हो। मैं यह नहीं कह रहा कि उपवास का फल मिलता है या कि मिल नहीं सकता। जो व्यक्ति उपवास के अनुकूल परिणाम की आशा लेकर उपवास करता है, वह प्रायः असफल हो जाता है। यदि वह असफल होता दिखाई नहीं भी देता तो भी वह उस आंतरिक आनंद से वंचित रहता है जो सच्चे उपवास से प्राप्त होता है... बेतुके उपवास प्लेग की तरह फैलते हैं और वे हानिकारक होते हैं। लेकिन जब उपवास कर्तव्य के रूप में सामने आए तो उसका त्याग नहीं किया जा सकता। इसलिए मैं उपवास तभी करता हूं जब मुझे लगता है कि वह जरूरी है और मैं किसी भी प्रकार से उसे टाल नहीं सकता। जो मैं करता हूं, उसे वैसी ही परिस्थितियों में करने से अन्य लोगों को रोक नहीं सकता। यह सभी जानते हैं कि अच्छी चीजों का भी प्रायः दुरुपयोग होता है। हम अपने चारों ओर रोज इसे घटते देखते हैं। रि, 21-4-1946, पृ. 93 ...जब मनुष्य की चतुराई जवाब दे जाती है, तो अहिंसा का पुजारी उपवास करता है। उपवास प्रार्थना के भाव में तीव्रता लाता है। यह एक आध्यात्मिक कृत्य है और इसलिए इसे ईश्वर को निवेदित करना चाहिए। लोगों के जीवन पर इसका यह प्रभाव होता है कि, यदि वे उपवास करने वाले व्यक्ति से थोडे भी परिचित हैं तो, उनकी सुप्त चेतना जाग जाती है। हां, इस बात का खतरा जरूर है कि भ्रांतिपूर्ण सहानुभूति के वशीभूत होकर लोग अपने प्रिय व्यक्ति की प्राणरक्षा के लिए उसकी इच्छा के विरुद्ध काम कर सकते हैं। इस खतरे का मुकाबला करना जरूरी है। आदमी अपने –ष्टिकोण की सच्चाई के प्रति आश्वस्त हो तो उसे सही कार्रवाई करने से पीछे नहीं हटना चाहिए। इससे अधिकाधिक सावधानी सुनिश्चित हो जाती है। इस प्रकार का उपवास अंतर्वाणी के आदेश का पालन करते हुए किया जाता है और इसलिए इसमें जल्दबाजी का तत्व नहीं होता। हरि, 21-12-1947, पृ. 476 (स्त्रोत : महात्मा गांधी के विचार) |