प्रार्थना
मैं स्वयं को आस्था और प्रार्थना का व्यक्ति मानता हूं, और मुझे टुकड़े-टुकड़े भी कर दिया जाए तब भी मेरा विश्वास है कि मुझे ईश्वर इतनी शक्ति देगा कि मैं उसके अस्तित्व से इंकार न करूं और जोर देकर कहूं कि वह है ।88 मेरा कोई काम प्रार्थना के बगैर नहीं होता। मनुष्य त्रुटिप्रवण प्राणी है। वह कभी निश्चयपूर्वक यह नहीं कह सकता कि उसके कदम सही उठ रहे हैं। वह जिसे अपनी प्रार्थना का प्रत्युनर समझ रहा है, संभव है वह उसके गर्व की प्रतिध्वनी ही हो। अचूक मार्गदर्शन वह मनुष्य कर सकता है जिसका हृदय पूर्णतः निर्दोष हो, जो कभी बुराई कर ही न सकता हो। मेरा ऐसा कोई दावा नहीं है। मेरी आत्मा तो संघर्षशील, प्रयासरत, त्रुटिप्रवण एवं अपूर्ण है।89 मुझे मार भी दिया जाए तब भी मैं राम और रहीम के नामों का जाप नहीं छोडूंगा, जो मेरे लिए एक ही ईश्वर के दो नाम है। होठों पर इन नामों को लेते हुए मैं प्रसन्नतापूर्वक मर सकता हूं।90 |
प्रार्थना की आवश्यकता जिस प्रकार शरीर के लिए आहार आवश्यक है उसी प्रकार आत्मा के लिए प्रार्थना आवश्यक है। आदमी आहार के बिना कई दिनों तक काम चल सकता है-मैक स्विनी ने 70 दिन तक आहार नहीं लिया था-पर ईश्वर में आस्था रखने वाला व्यक्ति एक क्षण भी प्रार्थना के बगैर नहीं रह सकता, नहीं रहना चाहिए।100 बहुत-से-लोग, मानसिक शैथिल्य अथवा बुरी आदत का शिकार होने के कारण, यह समझते हैं कि ईश्वर बिना मांगे हमारी सहायता कर देंगा। तो फिर उसके नाम के रटने की क्या जरूरत है? यह ठीक है कि ईश्वर यदि है, तो हमारे विश्वास करने न करने से कोई अंतर नहीं पड़ता। लेकिन ईश्वर की प्राप्ति कोरे विश्वास की तुलना में बहुत बड़ी चीज है। वह निरंतर अभ्यास से ही आ सकती है। सब विज्ञानों के साथ यही बात है। तो फिर विज्ञानों के भी विज्ञान के मामले में यह बात सही क्यों न होगी?101 प्रार्थना 'सुबह की चाबी और शाम की चिटकनी है`।102 मैं जब यह कहता हूं कि आदमी आहार के बिना लगातार कई दिन तक रह सकता है पर प्रार्थना के बिना एक क्षण भी नहीं रह सकता, तो मैं अपने और अपने उन साथियों के किंचित अनुभव के आधार पर कहता हूं जिन्होंने प्रार्थना के जादू का प्रभाव देखा है। कारण यह है कि प्रार्थना के बगैर आंतरिक शांति नहीं मिलती।103 मैं इस बात से सहमत हूं कि आदमी चौबिसो घंटे ईश्वर की उपस्थिती को अनुभव करने का अभ्यास कर ले तो प्रार्थना के लिए अलग से समय निर्धारित करने की आवश्यकता नहीं है। लेकिन ज्यादातर लोगों के लिए ऐसा कर पाना असंभव है। उन्हें दुनिया के दैनंदिन झंझटो से छूट्टी नहीं मिलती। उनके लिए प्रतिदिन कुछ मिनटों के लिए ही सही, अपने दिमाग को बाहरी चीजों से पूरी तरह समेट लेने का अभ्यास अत्यंत उपयोगी है। ईश्वर के साथ यह मौन संगति उन्हें दुनिया की आपाधापी के बीच मन की निराकुल शांति का अनुभव करने, वेध को वश में रखने और धैर्य का अभ्यास करने में सहायक होगी।104 सामान्यतया प्रार्थना के समय में दुनिया के किसी भी व्यक्ति की खातिर विलंब नहीं किया जाना चाहिए। ईश्वर का समय कभी नहीं रूकता। सृष्टि के आरंभ से ही कालचव् निरंतर गतिमान है। वस्तुतः ईश्वर और उसका समय अनादि है.....जिसकी घड़ी कभी रूकती ही नहीं, उसकी प्रार्थना के समय में विलंब कौन कर सकता है?105 मेरी प्रार्थना के आरंभ में प्रतिदिन ईशोपनिषद् के प्रथम श्लोक का पाठ होता है जिसका भावार्थ यह है कि प्रत्येक वस्तु पहले ईश्वर को अर्पण करो और उसके उपरांत अपनी आवश्यकता के अनुसार उसमें से लेकर इस्तेमाल करो। इसमें प्रमुख शर्त यह है कि जो वस्तू दूसरे की है, उसका लालच मत करो। ये दो सिद्धांत हिंदू धर्म का सारतत्व हैं। स्रोत : महात्मा गांधी के विचार, पृ.80-82 |