गाँधीजी के बाल्य संस्कारों की पृष्ठभूमि और उनके राष्ट्रभाषा के विचार |
डॉ. विजयराघव रेड्डी महात्मा गाँधी विश्ववंद्य हैं। विश्व की सभी प्रमुख भाषाओं में वे समादृत हैं। उनकी जीवनी और उनके जीवन की महत्त्वपूर्ण घटनाओं पर विपुल साहित्य भारत की सभी भाषाओं में उपलब्ध है। उन्होंने अपनी आत्मकथा अपनी मातृभाषा गुजराती में लिखी है और उसका नाम रखा "सत्य के प्रयोग अथवा आत्मकथा''। यह ग्रंथ भी विश्व की सभी प्रमुख भाषाओं तथा भारत की सभी भाषाओं में अनूदित हुआ है। भारत सरकार के प्रकाशन-विभाग ने सौ खण्डों में अंग्रेज़ी और हिंदी में 'गाँधी वाङ्मय' प्रकाशित किया है। गाँधीजी के 18 रचनात्मक कार्यक्रमों में से हिंदी का प्रचार एक महत्त्वपूर्ण कार्यक्रम माना जाता है। गाँधीजी के द्वारा हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में घोषित करना, स्वतंत्रता-संग्राम में राष्ट्रभाषा हिंदी के प्रचार की भूमिका तथा गाँधीजी की राष्ट्रभाषा-नीति अर्थात् उसके स्वरूप और प्रचार के तौर-तऱीकों को लेकर बहुत-कुछ हमारी बहुत भाषाओं में लिखा गया है। इतना विशाल वाङ्मय उस महात्मा के संबंध में उपलब्ध होने पर भी, ऐसा लगता है कि अब भी बहुत कुछ कथनीय, विचारणीय एवं विश्लेषणीय रह गया है। उस महान् मनीषी का इतना बहुआयामी व्यक्तित्व है, इतने व्यापक वैविध्यपूर्ण कार्यक्रम रहे, जिनका वे अंतिम साँस तक निर्वाह करते रहे, उन सबको समाहित करने में साहित्य की परिधि पर्याप्त नहीं होगी। महात्मा को समझने में और समझाने में हमारी भाषाएँ असमर्थ-सी लगती हैं। इस संदर्भ में हमें आइन्स्टाइन का वह कथन बरबस स्मरण हो आता है, जिसमें उन्होंने कहा था कि संभव है कि "आगामी प़ीढियाँ यह कठिनाई से विश्वास करें कि इस प्रकार का कोई रक्त-माँसवाला पुरुष धरती पर उत्पन्न हुआ होगा!'' राष्ट्रभाषा हिंदी की विकास-यात्रा, राष्ट्रभाषा पद से राजभाषा के रूप में उसका पद-परिवर्तन, उसकी वर्तमान दशा-दिशा, स्वतंत्रता-संग्राम के दिनों में गाँधीजी के नेतृत्व में हिंदी को लेकर जो विचार देश में प्रचलित रहे थे, उनके संबंध में संविधान-निर्माण के समय जो विचार हिंदी को लेकर व्यक्त किये गये थे तथा संविधान लागू होने के बाद से विशेष कर सन् 1963 में उत्पन्न हिंदी-आंदोलनों के परिप्रेक्ष्य में परवर्ती काल में हिंदी को लेकर विचारों में जो परिवर्तन आये हैं और आ रहे हैं, इन सबके संबंध में हमें बहुत-कुछ पढ़ने को मिलता रहता है। इसलिए हिंदी की वर्तमान स्थिति या उसके भविष्य के बारे में चर्चा न करते हुए मैं यहाँ यह विचार करना चाहूँगा कि गाँधीजी के द्वारा हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार करने में अन्य तमाम कारणों के अलावा उनके बाल्य संस्कारों की भी कोई भूमिका रही थी? उनके घर-परिवार और उन्होंने जिस प्रदेश में जन्म लिया था, उस गुजरात के पारंपरिक परिवेश की कितनी पीठिका रही थी? हम जानते हैं कि गाँधीजी बचपन में बहुत संवेदनशील और भावप्रवण व्यक्ति रहे। उन्होंने अपनी आत्मकथा में अपने झेंपूपन, दब्बूपन तथा संकोची स्वभाव को स्वीकार किया। यह भी सत्य है कि उन्होंने घर-परिवार और अपने गुजराती समाज से मिले संस्कारों को किसी भी भौतिक आकर्षण या सुख-सुविधा के लिए छोड़ना कभी स्वीकार नहीं किया। जब हम गाँधीजी के जन्म से पहले के गुजरात के भाषिक परिवेश पर नज़र डालते हैं तो हम पाते हैं कि भक्ति-आंदोलन का गुजरात पर भी बड़ा प्रभाव पड़ा था। भागवत पुराण के माहात्म्य में "भक्ति द्रविड़ उपजी'' वाले प्रसंग में गुजरात का भी उल्लेख मिलता है। गुजरात में स्वामी वल्लभाचार्य और उनके पुत्र विट्ठलनाथजी ने वैष्णव धर्म का प्रचार किया था। वैष्णव धर्म का प्रचार गुजराती भाषा में न होकर ब्रजभाषा में होता था। वल्लभाचार्य के पुष्टिमार्गी वैष्णव संप्रदाय के आठों प्रमुख कवियों ने ब्रजभाषा में गीतों की रचना की थी। इनके गीतों के संग्रह को अष्टछाप कहा जाता है। गुजरात के वैष्णव कवियों ने अपनी कविताएँ ब्रजभाषा में लिखकर वहाँ की जनता के मन में इस भाषा के प्रति मोह पैदा किया था। इन कवियों में भालण, केशवराम, बैजू बावरा, नरसी मेहता, हरखराम, दयाराम आदि प्रमुख हैं। इसके अतिरिक्त गुजरात के कुछ सूफ़ी कवियों ने भी हिंदी को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया था। इनमें से शेख़ अहमद ख़ाँ, आलम बुख़ारी, मुहम्मद चिश्ती और शाह हुसैनी के नाम उल्लेखनीय हैं। ऐसे आधार मिलते हैं कि गुजरात में जैन धर्म के प्रचार में भी ब्रजभाषा का प्रयोग किया गया था। कहते हैं कि आनंदवन, ज्ञानानंद, किशनदास आदि कवियों ने ब्रजभाषा में भी रचनाएँ की हैं। महात्मा गाँधी की पौत्री श्रीमती सुमित्रा कुलकर्णी अपनी पुस्तक "अनमोल विरासत'' में गाँधीजी के बाल्यसंस्कारों पर लिखते हुए कहती हैं कि हमारे पितामह का प्रिय भजन "वैष्णवजन तो तेने कहिये रे, जे पीर पराई जाणे रे'', जो नरसी मेहता का है, उन्हें अपने परिवार से मिला, जो उस परिवार का जीवन-आदर्श भी था। वे आगे कहती हैं कि अन्य धर्मों के प्रवर्तन के बावजूद काठियावाड़ में वैष्णव धर्म की जड़ें आम जनता के मानस में गहरा गयी थीं। सुमित्रा कुलकर्णी का कहना है कि इस प्रकार की धर्मनिष्ठा पर 14-15 वीं शताब्दी के भक्ति रस का पुट चढ़ गया था। रामानुजाचार्य, चैतन्य महाप्रभु, जयदेव, मीरां, कबीर, दक्षिण के आलवार संत और महाराष्ट्र के ज्ञानदेव, तुकाराम और वार्करी पंथ के साथ काठियावाड़ में भक्ति रस के कवि नरसी मेहता का अपार प्रभाव था। पूरे प्रांत में उक्त दिनों भजन-कीर्तन की धूम मची रहती थी। इन सबका प्रभाव बालक गाँधी पर गहरा पड़ा था। इस प्रभाव के साथ तत्कालीन वैष्णव संप्रदाय की वरेण्य भाषा के रूप में प्रचलित ब्रजभाषा के प्रति गाँधी के आकर्षण से इन्कार नहीं किया जा सकता। इसके अलावा गुजरात के स्थानीय राजाओं के ब्रजभाषा और हिंदी के प्रति लगाव के कारण सौराष्ट्र, कच्छ और भुज रजवाड़ों की जनता में हिंदी एवं ब्रजभाषा के प्रति आदरभाव था। भुज में तो ब्रजभाषा पाठशाला की स्थापना की गयी थी और ब्रजभाषा में कवि लोगों को तैयार किया जा रहा था। ये सब प्रमाणित करते हैं कि गुजरात के राजा न केवल स्वयं भी हिंदी में कविता करते थे, अपितु हिंदी कवियों को मान-सम्मान और आश्रय देते थे। "राष्ट्रभाषा हिंदी के प्रचार-प्रसार में आर्यसमाज का योगदान'' नामक अपने आलेख में कृष्ण कुमार ग्रोवर लिखते हैं कि गुजरात प्रदेश में हिंदी का ऐसा सुखद और आदर्श वातावरण था, जिसमें स्वामी दयानंद सरस्वती का बचपन बीता, जिन्होंने 'सत्यार्थ प्रकाश' को हिंदी में लिखकर आर्य समाज का प्रचार हिंदी के माध्यम से किया। कहना न होगा कि गाँधीजी से पहले स्वामी दयानंद सरस्वती ने हिंदी के प्रचार-प्रसार को आर्य समाज की नीति और सिद्धांतों में शामिल कर लिया था। गुजरात प्रदेश के ऊपर उल्लिखित तत्कालीन धार्मिक और भाषिक परिवेश में गाँधीजी का बचपन बीता था। आस्तिक तथा वैष्णव परिवार में पैदा हुए, पाले-पोसे हुए बालक के बाल्य संस्कारों की पृष्ठभूमि में ब्रजभाषा थी, जो वरेण्य भाषा रही थी। ब्रजभाषा धार्मिक पृष्ठभूमि के कारण संस्कृत, पाली, प्राकृत के बाद अंग्रेज़ों के आगमन तक सारे देश में समादृत होती रही। यहाँ यह द्रष्टव्य है कि धर्मपरायण भारत की जनता के लिए संपर्क भाषा के रूप में मान्यता प्राप्त करने के लिए उसका धर्म से जुड़ा रहना भी उसकी एक अतिरिक्त योग्यता मानी जाती रही है। अंग्रेज़ों के आगमन के उपरांत राजनैतिक, सामाजिक और ऐतिहासिक परिवर्तन के कारण ब्रजभाषा का वर्चस्व ख़त्म होता गया और उसका स्थान खड़ी बोली ने ले लिया। गाँधीजी इसी भाषा के सार्वजनिक संपर्क भाषा के रूप को हिंदुस्तानी कहते थे, जिसे ही वे राष्ट्रभाषा का दर्जा देते थे। वे इसी भाषा के प्रचार को सारे देश में चाहते थे। आज़ादी से पहले 27 जनवरी 1946 को गाँधीजी ने दक्षिण भारत के पदवीदान समारोह में जो भाषण दिया था, उसमें भी उन्होंने हिंदुस्तानी पर अपना अभिमत प्रकट किया। भाषण का पूरा पाठ यहाँ उद्धृत है, जो भारत सरकार के प्रकाशन विभाग के संपूर्ण गाँधी वाङ्मय-भाग 83 से लिया गया है - "आज का कार्य पुण्य-कार्य है। कई बरसों के बाद मैं यहाँ खास इस समारम्भ में भाग लेने के लिए आया हूँ। हमारे सामने काम तो काफ़ी पड़ा है। थोड़ा-थोड़ा करके हम पूरा कर लेंगे। जब हम यहाँ एक पुण्य-कार्य के लिए इकट्ठा हुए हैं, कुछ आदमी आपस में बातें कर रहे हैं। यह तो शिष्टता का भंग हो गया।यह पुण्य-कार्य है। आप सब शान्ति रखें। शान्त चित्त बनें, जिससे कि यहाँ जिन-जिन स्नातक-स्नातिकाओं को पदवीदान करने के लिए मैं आया हूँ, उन्हें सावधान कर समझा सकूँ कि हमारा जो कार्य है, वह उन्हें विवेक रखकर करना है। विवेकहीन मनुष्य और पशु तो एक से हैं। आज जिन्हें पदवियाँ मिलेंगी, वे बाद में तो हमारा ही कार्य करेंगे। हिन्दुस्तानी का प्रचार करेंगे। इसलिए आप सबके पास यह विवेक-रूपी सम्पत्ति तो ज़रूर होनी चाहिए। यह सम्पत्ति अगर आपके पास न हो तो आप यह काम कैसे कर सकेंगे? दूसरी बात आज जो मैं कहनेवाला हूँ, उसके बारे में आपको सूचित करने के लिए मैंने सत्यनारायणजी से कहा था। वह बात यह है कि आज आप लोग जो प्रतिज्ञा लेंगे, उसमें हमारी राष्ट्रभाषा का नाम अब हिंदी न रहकर हिंदुस्तानी रहेगा। हमारी राष्ट्रभाषा एक लिपि में नहीं, किंतु दो लिपियों में लिखी जाएगी। राष्ट्रभाषा प्रचार-कार्य के लिए द्रव्य देनेवालों को भी यह बात पहले समझा देनी चाहिए। हमारा काम उन्हें पसंद है या नहीं, यह देखकर वे मदद दें। काम जो चलता है, वह कौड़ी से भी चलता है। लेकिन कौड़ी भी काम के पीछे-पीछे चलती है। अगर हम इस चीज़ को ठीक नहीं समझते, जिसका हम प्रचार करते हैं, तब तो वह सब व्यर्थ होनेवाला है। यह एक सिद्धांत नहीं, बल्कि अविचल अनुभव है। हमारी राष्ट्रभाषा अंग्रेज़ी नहीं हो सकती है। हमारे दिल से हिंदी शब्द के बदले में हिंदुस्तानी शब्द निकलना चाहता है। और ऐसे ही भारत के चालीस करोड़ लोगों के दिल हो जायें, वह भी स्वाधीन भारत के - तो हमारी राष्ट्रभाषा सिवा हिंदुस्तानी के दूसरी कैसे रह सकती है? इस हिंदुस्तानी को आप अच्छी तरह समझ लें। हिंदुस्तानी तो हिंदू और मुसलमान दोनों बोलते हैं। लेकिन आजकल उसमें दो प्रकार हो गये हैं। संस्कृतनिष्ठ हिंदी और फ़ारसी-मिली मुश्किल उर्दू। संस्कृतमय हिंदी में संस्कृत शब्दों की बाढ़ आयी है। इससे हिंदुस्तानी की सुसम्पन्नता तो बढ़ती ही है। हिंदी और उर्दू नदियाँ और हिंदुस्तानी सागर है। इन दोनों से हमें घृणा नहीं होनी चाहिए, हमें तो दोनों को अपना लेना है। हिंदुस्तानी का पेट इतना बड़ा है कि वह दोनों को अपना लेगी। इसके फलस्वरूप वह एक भारतीय और प्रौढ़ भाषा बन जायेगी, जिससे हमारे देश और दुनिया के लोग सीखेंगे। हिंदुस्तान में करोड़ों आदमियों की आबादी है। हिंदुस्तानी जब करोड़ों आदमियों की और वह भी स्वाधीन भारत की भाषा बन जायेगी तो सचमुच वह एक बहुत बड़ी बात होगी। आज जो पदवी लेने आये हैं, वे इस बात को किसी भाँति समझ लें और उसके मुताब़िक कार्य करें।'' उक्त भाषण से पहले भी गाँधीजी ने सन् 1945 में महाबलेश्वर में यह उद्गार व्यक्त किया था कि हिंदुस्तानी का मतलब उर्दू नहीं, बल्कि हिंदी और उर्दू की वह ख़ूबसूरत मिलावट है, जिसे उत्तर हिंदुस्तानी के लोग समझ सकें और जो नागरी या उर्दू लिपि में लिखी जाती हो। यह पूरी राष्ट्रभाषा है, ब़ाकी अधूरी। गाँधीजी चाहते थे कि पाकिस्तान के बन जाने पर भी भारत की राष्ट्रभाषा वही ख़ूबसूरत मिलावटवाली भाषा हिंदुस्तानी हो। उन्होंने राष्ट्रभाषा के पाँच आवश्यक गुणों की गिनती करते हुए उसके दूसरे गुण के बारे में कहा कि वह ऐसी भाषा हो, जो भारत के धार्मिक, आर्थिक और राजनैतिक संपर्क के लिए सशक्त माध्यम हो। गाँधीजी ने इसमें सर्वप्रथम धार्मिक संपर्क की बात कही है, जिसे नज़रअन्दाज़ नहीं किया जा सकता। वे मानते थे कि हिंदुस्तानी ही एक ऐसी भाषा है, जो हिंदू-मुस्लिम दोनों संप्रदायों को एकजुटता में रखने के लिए कारगर माध्यम साबित होगी। इसलिए वे अपनी मृत्यु के अंतिम दिनों में भी हिंदुस्तानी पर बल देते रहे थे। उनके निम्नलिखित पाँच उद्धरण प्रमाण के रूप में प्रस्तुत हैं - 1. भले ही इस विचार के साथ आज मैं अकेला होऊँ, यह साफ़ है कि संस्कृतमयी हिंदी बिलकुल बनावटी है और हिंदुस्तानी बिलकुल स्वाभाविक है। 2. लिपि में सबसे आला दर्जे की लिपि नागरी को ही मानता हूँ। 3. जब नागरी के पक्षपाती उर्दू लिपि का विरोध करते हैं तो उसमें मुझे द्वेष की और असहिष्णुता यानी तअस्सुब की बू आती है। 4. जहाँ तक मैं समझता हूँ, हिंदुस्तानी के लिए दोनों लिपियों का चलन थोड़े अर्से के लिए ही ज़रूरी है। (ऊपर के 4 उद्धरण 'हरिजन सेवक' के 25.01.1948 के अंक से लिये गये हैं।) 'हिन्दुस्तानी जाननेवाले मुझे अंग्रेज़ी में ख़त लिखें तो मैं फेंक दूँगा, क्योंकि मैं जानता हूँ कि वे हिंदुस्तानी लिख सकते हैं।' - प्रार्थना प्रवचन 26.01.1948 से लेकिन गाँधी की मृत्यु के बाद भारत का जो संविधान स्वीकृत हुआ, उसमें गाँधीजी के विचार त़ाक में रख दिये गये। जो अनुच्छेद राजभाषा के संबंध में (राष्ट्रभाषा नहीं) स्वीकृत हुए, वे हमारे सामने हैं और यह भी हमारे सामने है कि राजभाषा हिंदी एवं राज्यों की राजभाषाओं का क्या हश्र हो रहा है। संविधान की अष्टम अनुसूची तक में हिंदुस्तानी नहीं जोड़ी गयी। हाँ, गाँधीजी के हिंदुस्तानी-हिमायतियों के आँसू पोंछने के लिए अनुच्छेद 351 में इसे सम्मिलित किया गया है। |