महात्मा गाँधी की वैज्ञानिक मनोदशा |
मनोज कुमार राय "आने वाली पीढ़ियाँ शायद मुश्किल से ही यह विश्वास कर सकेंगी कि गाँधी जैसा हाड़-मांस का पुतला कभी इस धरती पर था।'' और यह भी कि "गाँधी इनसानों में एक चमत्कार थे।'' 20वीं सदी के महान् वैज्ञानिक आइन्स्टाइन द्वारा गाँधीजी के व्यक्तित्व के इस आकलन में न तो कोई अतिशयोक्ति है, न मात्र औपचारिकता। बल्कि इसके पीछे है एक संवेदनशील वैज्ञानिक स्वभाव। वस्तुत: जब युग हिंसा, युद्ध, वैमनस्य एवं घात-प्रतिघात के नये-नये दाँव-पेंचों में आकंठ डूबा हो, तब गाँधी अहिंसा, सत्य, प्रेम और धर्म-युक्त राजनीति की बात करते हैं। युग जब भौतिक सभ्यता और संस्कृति की श्रेष्ठता की वकालत करता है, तब गाँधी आत्म-सम्पन्नता और आध्यात्मिक श्रेष्ठता की पुनर्स्थापना करना चाहते हैं। सत्ता-परिवर्तन के लिए जब युग सामूहिक हिंसा, रक्त-क्रांति का सहारा लेता है, तब गाँधीजी सत्याग्रह, हृदय-परिवर्तन का रास्ता अख़्तियार करते हैं। यही नहीं, जब युग समानता की बात करता है, तब गाँधीजी सर्वोदय की वकालत करते हैं। ऐसा लगता है कि गाँधीजी के द्वारा युग के प्रतिकूल चलने के इस स्वभाव को लोगों ने सतही तौर पर देखा है। अन्यथा उनके द्वारा संचालित आंदोलनों (सामूहिक अथवा व्यक्तिगत) में अन्तर्निहित भावना को देखा गया होता, तो शायद उनके प्रति यह दुराग्रह कि गाँधीजी विज्ञान के प्रति समर्पित नहीं थे, न ही उनके पास वैज्ञानिक मनोदशा थी, चर्चा में नहीं आता। विज्ञान है क्या और वैज्ञानिक मनोदशा किसे कहते हैं? पहले यही स्पष्ट हो जाये। क्रमबद्ध, सुसंगठित एवं सुव्यवस्थित ज्ञान ही विज्ञान है। वैज्ञानिक मनोदशा के लिए आवश्यक है - विश्लेषण, प्रयोग, विवेक अथवा तर्क और वास्तविकता। वर्तमान समय में हम देखते हैं कि एक व्यक्ति प्राणी-वैज्ञानिक के रूप में इसलिए ख़्याति प्राप्त कर लेता है कि उसने वर्षों तक पशु-पक्षियों के आचरण, रहन-सहन आदि का विश्लेषणात्मक अध्ययन किया है। उसकी प्रयोगशाला जंगल है। एक भौतिक वैज्ञानिक दिन-रात अपने छोटे से प्रयोगशाला में तमाम तरह के प्रयोगों एवं अनुप्रयोगों में उलझा रहता है। तमाम झूठे-सच परिणामों के चलते वह वैज्ञानिक स्वभाव का माना जाने लगता है। यह अलग बात है कि तमाम वैज्ञानिक अथवा वैज्ञानिक अभिरुचि रखने वाले अपनी निजी ज़िन्दगी में नितान्त ग़लत कार्यों में लिप्त होते हैं। परन्तु उनके लिए चौकी और चौके में भेद है अथवा गाँधीजी के शब्दों में कहें तो साधन व साध्य अलग-अलग हैं। यहीं पर हम भूल करते हैं और गाँधीजी पर तमाम तरह के निराधार आरोप लगाते रहते हैं। गाँधीजी के लिए साध्य और साधन समानार्थी हैं। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं और 'साध्य' अदृश्य है तथा 'साधन' दृश्य है। गाँधीजी की वैज्ञानिक अभिरुचि का पता तो हमें तभी चल जाता है, जब हमें यह पता चलता है कि उन्होंने अपनी 'आत्मकथा' को 'सत्य के साथ मेरे प्रयोग' का नाम दिया है। उन्होंने इसमें एक वैज्ञानिक की तरह निरन्तर सत्य को उद्घाटित करने का प्रयास किया है। परीक्षण और त्रुटि (Trial and Error), सर्वेक्षण (Observation),तर्क एवं विवेक आदि की झलक जगह-जगह स्पष्ट रूप से दिखती है। यह सर्वमान्य तथ्य है कि सभी महान् वैज्ञानिक खोज अन्तप्रेरणा की ही उपज होती है। यह वैज्ञानिक अन्तप्रेरणा रातों-रात तैयार नहीं होती है। अपितु इसके पीछे होती है परम्परा के प्रति गहरी आस्था, तीव्र ललक, अत्यधिक प्रयत्न और विशिष्ट प्रतिभा। तब यह खोज वक़्त के ख़राद पर चढ़कर यदि बची रह गयी, तो स्वीकृति प्राप्त कर लेती है। गाँधीजी का सोच पूर्णत: सन्तुलित था। एक तरफ़ वे ब्रिटिशों की उत्पीड़न-नीति की जमकर आलोचना करते थे, तो दूसरी तरफ़ यह भी कहने से नहीं चूकते थे कि अंग्रेज़ों ने देश को ऊर्जस्वित तथा जाग्रत् किया है। साथ ही देशवासियों की वैज्ञानिक जिज्ञासा, सत्य के लिए निरन्तर खोज और चिंतन तथा अभिव्यक्ति की परिशुद्धता से भी परिचय कराया है। यह सोच उनकी विज्ञान के प्रति अभिरुचि को स्पष्ट करता है। एक जगह गाँधीजी ने लिखा है - "जैन धर्म में तर्क का उच्चतम स्वरूप दृष्टिगोचर होता है। उसने किसी भी मान्यता को स्वयंसिद्ध नहीं माना और आत्मज्ञान सम्बन्धी सत्य को बुद्धि द्वारा ग्रहण और सिद्ध करने का प्रयास किया।'' पश्चिम के चर्चित दार्शनिक 'ह्यूम' और 'कान्ट' वैज्ञानिक अभिरुचि के लिए उपर्युक्त चार लक्षण - विशेषण, प्रयोग, तर्क और वास्तविकता के घोर हिमायती थे। जैन धर्म के प्रति गाँधीजी द्वारा की गयी टिप्पणी को यदि हम ध्यान से देखें तो इसमें कथित वैज्ञानिक अभिरुचि के चारों घटक पूर्णतया सम्मिलित हैं। असल में गाँधीजी के लिए विज्ञान का उद्देश्य था - सत्य की चिरन्तन खोज और माध्यम था - सुचिन्तित योजना तथा नियंत्रित एवं मर्यादित प्रयोग एवं प्रेक्षण। 'सत्य' गाँधी के लिए व्यापक अर्थ लिये हुए था। सत्य उनका आदर्श था। यह 'सत्यं, शिवं, सुन्दरम्' का एक घटक है। ये आपस में एक दूसरे से गुँथे हुए हैं। गाँधीजी कहते भी हैं - सत्य ही मूल वस्तु है। परन्तु वह सत्य शिव हो, सुन्दर हो। सत्य-प्राप्ति के बाद तुम्हें कल्याण और सौन्दर्य दोनों मिल जायेंगे। यह सही है कि गाँधीजी ने `विज्ञान' शब्द के प्रति अपनी अभिरुचि दिखाने के लिए कोई योजनाबद्ध अवधारणा प्रस्तुत नहीं की है; तो इसके पीछे मात्र इतना ही कारण है कि उनके पास इतना समय नहीं था कि ग्रंथालयों या प्रयोगशालाओं में बैठकर इसके लिए वे कोई पेपर तैयार करते। गाँधीजी का उद्देश्य भी पंडिताऊ (Academic)नहीं था कि वे इसके लिए चिन्तित होते। उनका उद्देश्य था - सर्वोदय, मनुष्यमात्र का कल्याण। एक वैज्ञानिक के लिए जिस निरपेक्षता और वस्तुनिष्ठता की आशा की जाती है, वह उनमें कूट-कूट कर भरी हुई थी। जाति, धर्म, रंग, लिंग इत्यादि सभी से वे विमुक्त थे। अपने ऊपर परस्पर विरोधी (Inconsistent)बयानों के लिए लगनेवाले आरोपों से कभी वे चिन्तित नहीं होते थे। क्योंकि उन्हें पता था कि 'सत्य' की खोज के लिए चल रहे इन प्रयोगों में ग़लतियाँ होना स्वाभाविक है। ज्यों ही गाँधीजी को अपनी ग़लती का आभास होता था, बिना हिचक वे इसे स्वीकार कर लेते थे तथा सत्य के क़रीब लानेवाले तथ्य को स्वीकार कर लेते थे। सत्य के प्रति इतनी उत्कट अभिलाषा रखनेवाले गाँधी के प्रति यह टिप्पणी कि उनके अन्दर विज्ञान के प्रति उचित समर्पण नहीं था, कितनी हास्यास्पद है! गाँधीजी के पास तीन तरह की प्रयोगशालाएँ थी, जिनमें वे निरन्तर सत्य, आत्म-साक्षात्कार, स्वराज्य, खान-पान, ब्रह्मचर्य, चरखा, चरित्र-निर्माण, रामराज्य, सर्वोदय आदि लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अपने प्रयोग में लगे रहते थे। उनकी प्रथम प्रयोगशाला थी राष्ट्र, जहाँ पर 'सत्याग्रह' का प्रयोग चलता रहता था। वे विभिन्न परिस्थितियों तथा विरोधी पक्षों के ख़िलाफ़ इसका प्रयोग करते थे। सफलता-असफलता से वे मुक्त थे। असफल होने पर नये रूप में प्रयोग करते थे। जब उनसे इस बाबत पूछा जाता था, तो वे साफ़ शब्दों में कहते थे कि मैं एक वैज्ञानिक हूँ, जो कि एकदम नये क्षेत्र में अपना प्रयोग कर रहा है। 'सत्याग्रह' गाँधीजी के लिए विज्ञान और कला दोनों था, जो अभी अपनी प्रसव-पीड़ा से गुज़र रहा है। फिर किसी भी प्रयोग पर 'अन्तिम' की मुहर लगा देना गाँधीजी के स्वभाव के ख़िलाफ़ था। वे कहते भी हैं - 'जिस प्रकार मनुष्य का विकास होता रहता है, उसी प्रकार महावाक्यों के अर्थ का विकास होता ही रहता है। और "जहाँ लोग अर्थों को मर्यादित कर डालते हैं, उनके आसपास दीवारें खींच देते हैं, वहाँ समाज का पतन हुए बिना नहीं रहता।'' गाँधीजी की दूसरी प्रयोगशाला आश्रम थी। आश्रम में शिक्षा, कताई-बुनाई तथा उत्पादन-क्रिया से सम्बन्धित प्रयोग चलते रहते थे। यहाँ तक कि समर्पित सामाजिक कार्यकर्ता और सत्याग्रही भी यहीं पर प्रशिक्षित होते थे। स्वास्थ्य-सफ़ाई पर विशेष ध्यान दिया जाता था। सर्वधर्म समभाव, सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह, अस्तेय आदि एकादश व्रतों पर निरन्तर चिंतन-मनन होता रहता था। गाँधीजी की तीसरी व अन्तिम शाला उनका अपना स्वयं का शरीर व मन थी। इस शाला में गाँधीजी सत्य एवं अहिंसा का सूक्ष्मतम धरातल पर प्रयोग करते थे। ब्रह्मचर्य की उच्चतम साधना की जाती थी। स्त्री व पुरुष के विभेद को मिटाने का प्रयोग चलता था। स्वयं को शून्य बनाने का प्रयास किया जाता था। गीता के आप्त वचनों का सम्पूर्ण पालन करने का अभ्यास किया जाता था। यम-नियम की पूर्ण साधना की जाती थी। वस्तुत: जिस तरह भौतिक वैज्ञानिक बाहरी प्रयोगशाला में अपने प्रयोग करते हैं, ठीक उसी तरह गाँधीजी अपने ऊपर प्रयोग करते रहते थे। दरअसल विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी का महत्त्व सदा से रहा है। हाँ, उसका स्वरूप ज़रूर भिन्न रहा है। गाँधीजी के लिए धर्म भी विज्ञानमय है। उन्होंने धर्मग्रंथों को वैज्ञानिक ग्रंथों के रूप में देखा, जिनमें गंभीर संशोधनीय ज्ञान भरे हुए हैं। गाँधीजी कहते भी हैं - 'जिस बात को हम तर्क की कसौटी पर कस सकते हों, अवश्य कसें और जो बात इस कसौटी पर खरी न उतरे, वह भले ही प्राचीनता के परिवेश में दिखायी देती हो, उसे मानने से इनकार कर दें।'' जिस तरह वैज्ञानिक परम्पराओं का अन्तिम मूर्त रूप विज्ञानी की चिन्तन-शैली में होता है, ठीक उसी प्रकार धार्मिक परम्पराएँ भी अपनी पूर्ण अभिव्यक्ति श्रेष्ठतम मनुष्य में पाती हैं। गाँधीजी ने एक जगह लिखा भी है - "पैग़म्बर अपनी जिह्वा से कुछ नहीं कहते, बल्कि अपने जीवन और आचरण के ज़रिये बोलते हैं।'' यही नहीं, गाँधीजी ने तो यहाँ तक कहा है कि शास्त्रों का व्याख्या-अधिकार भी उसी को है, जिसने यम-नियम की सम्पूर्ण साधना की है। गाँधीजी ने जगह-जगह पर यंत्रों तथा विज्ञान के द्वारा किये गये आविष्कारों के दुरुपयोग पर टिप्पणी की है। पर इसका यह अर्थ कदापि नहीं निकलता है कि वे विज्ञान-विरोधी थे। यह तो एकदम साधारण सी बात है कि यंत्र व तकनीक के बिना जीवन जीना असंभव है। गाँधीजी तो उन सब चीज़ों के विरोधी थे, जो मानवता के खिलाफ़ थे। उन्होंने विज्ञान व तकनीक के विद्रूप को बड़े नज़दीक से देखा था। यही कारण है कि वे विज्ञान के इस रूप से सदैव ख़फ़ा रहते थे। जिस चरखे को लेकर उन पर पुरातनपंथी व विज्ञान-विरोधी होने का आरोप लगाया जाता रहा है, उसी के बारे में गाँधीजी ने कहा है - "डेढ़ आने की कताई को दुगुना करने के लिए यदि कोई मुझे चरखे जैसा दूसरा सुलभ और आसान मार्ग बता दे, तो मैं चरखे को जला दूँ।'' दरअसल गाँधीजी यंत्र नहीं, यंत्रवाद के विरोधी थे। शोषण के नये-नये तऱीके ईजाद करनेवाले तथाकथित वैज्ञानिक मनोदशा के विरोधी थे। प्रकृति के साथ अत्याचार करनेवाली जड़ मानसिकता के विरोधी थे और उनका विरोध था प्राणिमात्र के ख़िलाफ़ चल रहे किसी भी वैज्ञानिक सोच का। गीता-पुत्र गाँधी 'समत्वं योग उच्यते' के परम आग्रही थे। प्रकृति के साथ किसी भी प्रकार की छेड़छाड़ उनके स्वभाव के विपरीत थी। वे मानते थे कि प्रकृति ने हमें अपनी आवश्यकता की पूर्ति के लिए सब कुछ उपलब्ध कराया है। गाँधीजी को न समझने के कारण उनकी मितव्ययी भाषा भी है। वे कहते हैं - "मेरी भाषा संक्षिप्त होती है।'' भाषायी सीमा से गाँधीजी अच्छी तरह परिचित भी हैं। तभी तो वे कहते हैं कि " भाषा विचारों का बहुत अपूर्ण और कमज़ोर वाहन है। मेरे दिल में जितना है, उसमें से थोड़ा-सा ही लिख सका हूँ। भाषा की यही सीमा है। मैंने जो लिखा है, उसका अगर मनन करोगे, तो मेरी बात समझ में आ सकती है।'' असल में नव बुद्धिजीवियों ने गाँधीजी को सतही तौर पर देखने का प्रयास किया और अपने स्वार्थपरक दृष्टिकोण से उनके जीवन-दर्शन की व्याख्या की है। तभी उन्हें गाँधी कभी विज्ञान-विरोधी नज़र आते हैं, तो कभी आधुनिकता विरोधी। कभी परंपरा के प्रति आग्रही दिखते हैं, तो कभी पुरातनपंथी। सच्चाई तो यह है कि हमने गाँधी को ईमानदारी से समझने का प्रयास ही नहीं किया। बस सुनी-सुनायी बातों को आँख मूँद कर स्वीकार कर लिया। यह अंधविश्वास ही गाँधी के प्रति अनाप-शनाप टिप्पणी कहलवाता है। सच ही है कि समूह का अंधविश्वास ख़तरनाक होता है, तो बुद्धिजीवी का अंधविश्वास भी कम ख़तरनाक नहीं। आज हम इसी प्रकार के अंधविश्वास के दौर में चल रहे हैं, जहाँ प्रत्येक नवशिक्षित अपनी सुविधावादी और क्षुद्र व्यक्तिगत लालसाओं की पूर्ति के लिए वैज्ञानिक भाषा का कवच धारण करके चल रहा है। अत: इनसे सावधान रहने की ज़रूरत है। |