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महात्मा गाँधी मूलत मानवतावादी थे

डॉ. मोहसिन ख़ान

वर्तमान युग भले ही आधुनिकता की चकाचौंध से भरा-पूरा हो, सम्पूर्ण जीवन-पद्धति आर्थिकता के आधार पर सृजित हो, बुद्धि का प्राबल्य हो, विज्ञान की चकाचौंध हो, भौतिकता का बोल-बाला हो; वैश्विक दुनिया में, भूमण्डलीकरण, उदारीकरण आदि कितनी ही उपजीव्य विचारधाराएँ हमारे समक्ष हों, तो क्या हम इसे मानव-जीवन-विकास के समस्त लक्षण मान लेंगे? य़कीनन नहीं, यदि हमारे मध्य कोई सत्य की अनुगामिक विचारधारा का प्रकाश-पुंज अथवा युग-नायक अनुपस्थित हो। और आज हम ऐसे ही अभाव के वातावरण के बीच जी रहे हैं, जहाँ हमारी आस्था विशृंखलित है और हम अनास्था, कुण्ठा और तनाव के शिकार बनते चले जा रहे हैं। वर्तमान में हम ऐसे दुर्दम, भयानक वातावरण में सशंकित रूप से पोषित हो रहे हैं, जहाँ वामपंथी विचारधारा का इतना प्रभाव बन गया है कि हमने उसे जीवन-तत्त्व मानते हुए भीतर नसों में घोल लिया है। ऐसी सभ्यता का निर्माण किया है, जहाँ स्वार्थों की क्षुद्रता, व्यक्ति-लाभ-चिन्ता और विरोध का विस्फोट सरलता से दृष्टव्य है।

ऐसे दुःसह और विपरीत वातावरण में हमें जीवन जीने की राह सुझाती है - गाँधी चिन्तनधारा। आज भले ही गाँधीजी के व्यक्तिगत जीवन को लेकर या उनकी विचारधारा के परिप्रेक्ष्य में विरोध के ऊँचे स्वर उभर आये हों, परन्तु विरोधों के बीच उनका आदर्श रूप, मूल्यवादी दृष्टि, नैतिक जीवन और व्यक्तित्व युग-सन्दर्भ में प्रासंगिक और आवश्यक ही नहीं, बल्कि अनिवार्य बन गया है। गाँधीजी के सन्दर्भ में यदि ध्यानपूर्वक विश्लेषण किया जाये तो आधारभूत रूप से एक महत्त्वपूर्ण तथ्य दृष्टिगोचर होता है कि वे मूल रूप में मानवतावादी ही थे। इसी मानवतावादी चिन्तन की भूमि पर उन्होंने अपने नैतिक दर्शन का निर्माण किया। उनके नैतिक दर्शन के प्रमुख आधार आस्तिकता, त्याग, सहिष्णुता, सेवा, नैतिकता, कर्तव्य, आत्मदर्शन, तप, समत्व, सत्य, अहिंसा, प्रेम और पारदर्शिता थे। उनके जीवन की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता यह कही जा सकती है कि वे सैद्धान्तिक रूप से कभी दार्शनिक नहीं थे या उन्होंने कभी सिद्धान्तों की पहले-पहल सृजना नहीं की, बल्कि जब भी उनकी अन्तरात्मा ने किसी भी परिस्थिति में जैसा सत्याभास पाया, वह व्यावहारिक रूप में जीवन में लागू करते गये, पीछे सिद्धान्तों का स्वत निर्माण होता गया। इसीलिए उन्हें सिद्धान्तवादी कम और व्यवहारवादी अधिक कहा जा सकता है। वर्तमान में हमें इसी कथनी और करनी के अन्तर को पहचानकर चलना होगा। आज चारों ओर व्यक्ति हाहाकार मचाता हुआ बावला हुआ जा रहा है और केवल उपदेशक की भूमिका के रूप में अन्यों के लिए उपदेश-भण्डार-वितरक बना हुआ है। वह अन्यों में परिवर्तन चाहता है। ऐसी स्थिति अवश्य द्वितीय श्रेणी की ही माना जाएगी, क्योंकि परिवर्तन स्वयं से पहले होना चाहिए। गाँधीजी का जीवन और व्यक्तित्व इस बात का सत्य प्रमाण है कि वे कभी उपदेशक नहीं बने, वरन् स्वयं को वातावरणानुसार सकारात्मकता एवं रचनात्मकता की ओर ले गये। उसी के प्रभाव से जनसमुदाय में रचनात्मक परिवर्तन आया। आज उनके समान एकल मौन सर्जनात्मक साधना की अत्यंत आवश्यकता है। वे हमें अपने किसी भी कार्य के प्रति गंभीरता, आत्मानुशासन और सत्य के प्रति दृढ़ आस्था सिखलाते हैं।

उनका सम्पूर्ण जीवन सत्य से अभिभूत था। वे अंतिम रूप से सत्य को सर्वोपरि मानते हुए सत्य के पथ पर चले और सत्य में ही समाहित हो गये। गाँधीजी की जो उपलब्धियाँ आज हमारे समक्ष हैं, वे मात्र उनकी उपलब्धियाँ नहीं कही जा सकती हैं, वे उनके भीतर छिपे सत्य-बल का शुभ परिणाम हैं। आज मनुष्य को ऐसे सत्याभास की आज के युगीन सन्दर्भ में गहन आवश्यकता और अनिवार्यता है, क्योंकि यह मात्र व्यक्ति का सत्य नहीं होता, युग-सत्य होता है और जो युग-सत्य होता है, वह आगे चलकर आदर्श के रूप में परिणत हो जाता है। गाँधीजी आदर्श की ओर ही उन्मुख थे और उनकी सामाजिक संरचना की संकल्पना में यह आदर्श समाजवाद के रूप में विकसित हुआ था। उन्होंने सत्य और अहिंसा के सिद्धान्तों को आधार बनाकर समाज के नवनिर्माण की परिकल्पना की। वे विशुद्ध रूप से राजनीतिक विचारक न थे, बल्कि सच्चे कर्मयोगी थे। उन्होंने न तो किसी वाद की रचना की ओर न ही विवेचना की। उनका शस्त्र 'सत्य' था, वह उन्हें जिस किसी रूप में प्रेरित करता गया, वे उस ओर आस्थावान एवं दृढ़ निश्चयी होकर अग्रसर होते गये। इसलिए उन्होंने 'सत्य' और 'अहिंसा' को राजनीति का भी आधार बनाया। उनका मानना है कि राजनीति में नैतिकता का होना अनिवार्य है, साध्य और साधन दोनों पवित्र होने चाहिए। नीतिशास्त्र को राजनीति और अर्थशास्त्र से वे उच्च समझते थे। राजनीति को धर्म से जोड़कर भी वे देखते थे। इस सम्बन्ध में वे मानते थे कि "जो राजनीति धर्म से विहीन है, वह मृत्यु-जाल के तुल्य है और आत्मा को पतन के गर्त में धकेलती है।'' वे स्पष्ट शब्दों में कहते हैं कि "मेरी सत्य-निष्ठा ही मुझे राजनीति के क्षेत्र में ले आयी है और मैं तनिक भी संकोच किये बिना पूर्ण विनम्रता के साथ कह सकता हूँ कि जो यह कहते हैं कि धर्म का राजनीति से कोई सरोकार नहीं हैं, वे धर्म का अर्थ ही नहीं जानते।''

आर्थिकता के परिप्रेक्ष्य में वे अत्यंत संयत होकर चिंतन करते थे। उनका आर्थिक चिंतन साम्यवाद का संस्करण नहीं था, वरन् वे साम्यवाद की समस्त भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के विरुद्ध आवश्यकताओं को संयत करने व उचित उपभोग पर बल देते हैं। वे शरीर-श्रम की महत्ता के प्रतिपादक हैं, जिसका उत्पादन-परिणाम वर्गहीन समाज का निर्माण कर सकता है। इस क्षेत्र में वे आत्मनिर्भरता को आधार रूप में चुनकर इच्छाओं के संयम पर बल देते हैं। गाँधीजी का आर्थिक विचार सर्वोदय पर आधारित था, जो उपयोगितावाद के चिंतन से मेल नहीं खाता और वर्तमान चिंतन उपयोगितावाद के आदर्श को लेकर चलता है। बल्कि सर्वोदय सबका उदय चाहता है, अधिकतम कल्याण के आदर्श की भावना रखता है। परहित के लिए जीवन जीने का शुभ संदेश देता है। ट्रस्टीशिप में उनका अकाट्य विश्वास है। इस आधार पर वे यह नहीं चाहते कि पूँजीपतियों की उपेक्षा की जाये, उन्हें बहिष्कृत किया जाये। उसके स्थान पर विश्वस्त-मंडल (ट्रस्ट) बना दिया जाये, जिससे दोहरे लाभ विकसित होते हैं। पूँजीपति समाज से जुड़ता है और उसे विश्वास बना रहता है कि वह पूँजी का स्वामी भी है। जो मनुष्य अपनी जीविका से अधिक संग्रह करता है, वह उनकी दृष्टि में चोरी है। इसलिये वे धन का समाज के विकास के लिए उचित वितरण पर बल देते थे।

उनके जीवन के आधार-रूप में 'सत्य' और 'अहिंसा' पूर्ण आस्था के साथ विद्यमान हैं। वे 'सत्य' को ईश्वर का पर्याय मानते थे और उसकी सिद्धि के लिये वे एक मात्र उपाय 'अहिंसा' को ही स्वीकार करते थे। उनके आशय से अहिंसा का स्वरूप ऐसा व्यवहार, जिसमें हिंसा का सहारा न लिया जाये, मन, वचन, कर्म आदि सभी पर लागू होना चाहिए। इस संबंध में वे कहते हैं - 'विश्व के समस्त जीवों से प्रेम करो। धरती पर निम्नतम कोटि का प्राणी भी ईश्वर का प्रतिरूप है, इसलिए वह तुम्हारे प्रेम का अधिकारी है।'' उनके अनुसार सकारात्मक पक्ष के अनुरूप अहिंसा वह सिद्धांत या नीति है, जिसमें अपने विरोधी को प्रेम से जीता जाता है, घृणा या लड़ाई से नहीं। गाँधीजी की दृष्टि में किसी को कष्ट पहुँचाने का विचार या किसी का बुरा चाहना भी हिंसा है। यह सब मात्र उनके लिए सिद्धान्त ही नहीं थे, वरन् उन्होंने भारत की स्वतत्रता के लिए इन्हीं शस्त्रों का प्रयोग कर भारत के स्वतत्रता-आंदोलन में एक राजनीतिक सिद्धान्त के रूप में अपनाया और इसकी शक्ति को प्रमाणित भी किया। उनकी इस शिक्षा का अर्थ है - 'अहिंसा' निर्बल व्यक्ति का आश्रय नहीं, बल्कि शक्तिशाली का शस्त्र है। इसलिए यह विरोधी से डरकर पलायन हो जाने की स्थिति भी नहीं है, अत्याचार के विरुद्ध नैतिक दृष्टि से विजय की प्राप्ति है। समकालीन परिस्थितियों में अहिंसा का महत्त्व और भी बढ़ गया है। गाँधीजी के अनुयायी एवं अमरीकी अश्वेत नेता मार्टिन लूथर किंग के शब्दों में - "आज के अत्यन्त विनाशकारी अस्त्रों के युग में हमारे सामने दो ही रास्ते हैं - या तो हम अहिंसा को अपना लें या फिर अपने अस्तित्व को ही मिट जाने दें।''

गाँधीजी ने वर्गहीन और राज्यहीन समाज की संकल्पना की थी, जो कि हमें उदात्त चरित्र के बल पर प्राप्त हो सकती है। वे राज्य की अवधारणा को आवश्यक बुराई के रूप में स्वीकारते थे। इसलिए उन पर अराजकतावादी होने का आरोप भी लगाया गया। परन्तु उनकी परिकल्पना एक ऐसे सुंदर समाज-निर्माण की थी, जहाँ व्यक्ति सच्चरित्र से आप्लावित हो तो राज्य-प्रशासन की आवश्यकता ही न रह जाये। व्यक्ति के अनुशासनात्मक व्यवहार के लिए वे बाह्य बल के आरोपण को प्रतिगामी मानते हैं। उसके स्थान पर वे आत्मिक-नैतिक उत्थान को महत्त्व देते हैं। यदि व्यक्ति भीतर से बदलेगा तो ही उसका वास्तविक विकासात्मक परिवर्तन संभव है। और ऐसे आदर्श समाज में राज्य-शक्ति की कोई अनिवार्यता ही न होगी। इस तरह वे नैतिक व्यक्तिवाद के समर्थक थे।

वास्तव में गाँधीजी नैतिक मूल्यों के प्रबल समर्थक थे। उनके मानवतावाद की व्याप्ति मनुष्य से लेकर प्रकृति और जीवधारियों तक है। मित्र हो या कष्टदाता, गोरा हो या काला, स्त्री हो या पुरुष, बालक हो या वृद्ध, देशी हो या विदेशी, वह किसी भी रंग या जाति-समुदाय का हो, वे सबके लिए अपना हृदय खोल कर रख देते थे। वे तुलसीदास के भक्ति-भाव और समर्पण के क़ायल थे, इसलिए गोस्वामी तुलसीदास की पंक्तियों - "सीय राम मय सब जग जानी। करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी'' की भावभूमि में उनके मानवतावादी रूप के दर्शन होते हैं। उन्हें एक राजनीतिज्ञ, दार्शनिक, नैतिकतावादी - अधिक न मानकर अगर मूल रूप में मानवतावादी ही माना जाये तो न्यायसंगत होगा। वर्तमान में भी हमें सत्य की अनुगामिक विचारधारा के प्रकाश-पुंज और युग-नायक की आवश्यकता एवं अनिवार्यता है। इस सन्दर्भ में गाँधीजी के व्यक्तित्व और चिंतनधारा के अतिरिक्त हमारे समक्ष कोई और ठोस विकल्प हो ही नहीं सकता है। 


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