महात्मा गाँधी : समसामयिक संदर्भ में `सत्य के प्रयोग' |
डॉ. माधुरी छेड़ा गाँधीजी कहते हैं कि सत्य ही उनके लिए सर्वोपरि है। पर यह सत्य स्थूल सत्य नहीं है; यह केवल वाणी का नहीं, बल्कि विचारों का सत्य है। यह हमारी कल्पना का सत्य नहीं, बल्कि स्वतंत्र चिरस्थायी सत्य है। गाँधीजी सत्य के पूजक हैं, इसीलिए सत्य ही उनके लिए परमेश्वर है। इस सत्य के वे शोधक हैं और शोध के इस मार्ग पर अपनी प्रिय-से-प्रिय वस्तु को त्यागने की भी उनकी तैयारी है। गाँधीजी ने सत्य की खोज को केवल सिद्धान्तों या बातों तक ही सीमित नहीं रखा है, बल्कि उसे अपने सम्पूर्ण आचरण में उतारा है। इसीलिए उनके जीवन की घटनाएँ सत्य के प्रयोग हैं। गाँधीजी के सत्य-संबंधी ये विचार और उनका आधार आज के माहौल में अविश्वसनीय लग सकता है। आनेवाली पीढ़ियाँ, हो सकता है इस बात को सच न मानें कि इस धरती पर कोई ऐसा हाड़माँस का जीवधारी हो चुका है, जिसने सत्य के ऐसे प्रयोग आचरण में उतारे हैं। और यह सत्य मनुष्य-जीवन की संपूर्णता में कोई स्वाधीन स्वतंत्र इकाई नहीं है, बल्कि इसी सत्य के साथ जुड़ी हुई है अहिंसा, आत्मशुद्धि, प्रेम, रागद्वेष-रहित मानसिकता...! लौकिक स्तर पर गाँधीजी के सत्य का साक्षात्कार उनकी किशोरावस्था में क़रीब तेरह वर्ष और पंद्रह वर्ष की आयु में दिखायी देता है। अपनी इस आत्मकथा में गाँधीजी ने स्वीकार किया है कि उन्हें बीड़ी पीने की ग़लत आदत थी। साथ ही पंद्रह वर्ष की आयु में भाई के हाथ में सोने का जो कड़ा था, उसमें से बिना किसी को बताये, एक टुकड़ा काटकर चोरी करने की भूल को भी उन्होंने क़बूल किया है। इसमें महत्त्वपूर्ण बात यह है कि चोरी करने के बाद उन्होंने भूल महसूस की, मन-ही-मन उन्हें पश्चाताप हुआ और मानों मन की गहन अँधेरी गुफ़ा में सूर्योदय हुआ और सत्य के प्रकाश से उनका साक्षात्कार हुआ। सत्य के इसी प्रकाश में उस किशोरवय में चोरी का अपराध उन्होंने अपने क्रोध और सिद्धांतवादी पिता के समक्ष स्वीकार किया, पश्चाताप व्यक्त किया और आगे से ऐसी भूल न करने का वचन दिया। सत्य के इस साक्षात्कार का बड़ा ही हृदयद्रावक दृश्य गाँधीजी ने शब्दों के माध्यम से मूर्त किया है। गाँधीजी ने एक चिट्ठी में अपने अपराध का इक़रार किया व चिट्ठी पिता के हाथ में थमा दी। पिता ने चिट्ठी पढ़ी व उनकी आँखों से मोती के बिंदु टपकने लगे, चिट्ठी भीग गयी, पल-भर के लिए उन्होंने आँखें बन्द कर लीं। इन बन्द आँखों के पीछे पिता कहीं सत्य के उस प्रकाश में शायद नहा गये थे, उसे महसूस कर रहे थे। दोनों की आँखों से आँसुओं की धार बही, दोनों के बीच मौन का एक सार्थक संवाद रचा गया। गाँधीजी ने लिखा है "यदि मैं चित्रकार होता तो आज उस चित्र को उसकी पूर्णता में चित्रित कर सकता; आज भी उतने ही स्पष्ट रूप में वह मेरी आँखों के सामने तैर रहा है।'' पिता के नेत्रों से बह मोती-बिंदुओं ने गाँधीजी को शुद्ध किया और फिर तो अविरल चल पड़ी सत्य के प्रयोग की वह यात्रा! अपनी राजनीतिक गतिविधियों के दौरान उन पर मुसलमानों के प्रति पक्षपात का आरोप लगाया जाता रहा है। नाथूराम गोडसे की हिंसक प्रतिक्रिया भी उनके इस पक्षपात की ही दुःखद परिणति है। दलितों, हरिजनों के प्रति उनकी भावनाओं से भी हम सब परिचित हैं। अर्थात् अन्य जातियों, धर्मों, विचारधाराओं के प्रति इस उदार आचरण के बीज भी उनके बचपन में ही दिखायी देते हैं। अपनी इस आत्मकथा में इसका संकेत देते हुए गाँधीजी ने लिखा है कि उन्हें अपने राजकोट-निवास के दौरान अनायास ही सभी संप्रदायों के प्रति समान भाव रखने का प्रशिक्षण मिला। हिंदू संप्रदाय के प्रति आदर भाव का निमित्त बने थे माता-पिता; जो हवेली में जाते थे, शिवालय में भी जाते थे और राम-मंदिर में भी जाते थे। उनके साथ आते-जाते यह आदर-भावना विकसित व पुष्ट होती गयी। यही आदर-भाव जैन धर्म के प्रति भी उत्पन्न हुआ। क्योंकि पिता के पास जैन धर्माचार्यों का आना-जाना भी लगातार जारी रहता था। वहाँ धर्म-चर्चा भी होती थी। पिताजी के कई मुसलमान व पारसी मित्र थे। वे सब अपने-अपने धर्म की बातें करते थे। पिताजी अत्यंत आदर व सम्मान के साथ उन बातों को सुना करते। उसमें रुचि लेते। गाँधीजी अपने पिता की सेवा के लिए वहाँ उपस्थित होते थे, इसीलिए यह सारी चर्चा वे सुनते। इस सारे वातावरण का उन पर यह प्रभाव पड़ा कि सभी धर्मों के प्रति उनके मन में समभाव पनपने लगा, जो आगे चलकर बड़े तीव्र रूप में उनके आचरण में दिखायी देता है। इस प्रकार धर्म के उस पड़ाव पर इन गूढ़ बातों को समझ पाना कठिन होने के बावजूद एक मान्यता निरंतर दृढ़ होती गयी कि यह जगत् नीति पर आधारित है। नीति-मात्र का समावेश सत्य में है। अत सत्य को तो खोजना ही चाहिए। इस प्रकार सत्य की महिमा दिन-प्रतिदिन बढ़ती गयी मन में, सत्य की व्याख्या विस्तृत होती गयी। उन्हीं दिनों नीति का एक ऐसा पद उन्हें मिला, जिसने उनकी ज़िन्दगी को हमेशा के लिए एक सूत्र दे दिया - "अपकार का बदला अपकार नहीं, परोपकार ही हो सकता है।'' इस सूत्र ने जीवन के अंत तक गाँधीजी पर अपना वर्चस्व बनाये रखा, आदत बन गयी और इसे लेकर जीवन में उन्होंने अनेक प्रयोग किये। जिस पद ने गाँधीजी पर अपना राज चलाया, वह था - जो पिलाये जल, भोजन उसको दीजे; जो नमाए शीश, दंडवत उसको कीजे। आपण घासे दाम, काम सिक्के का कर जाएँ; जो बचाए प्राण, उसके दुःख में मर जाएँ। गुण के पीछे तो गुण दस गुना, मन, वाचा व कर्म से; पर अवगुण के बाद भी जो गुण करे, जग में वही विजेता बन सकता है। गाँधीजी के सत्य प्रयोग और सत्य के आचरण केवल सच बोलने तक ही सीमित हैं, ऐसा नहीं है। बल्कि जहाँ-जहाँ भी, अनीति, अधर्म, अत्याचार, अनाचार दिखायी दिया है, वहाँ-वहाँ उन्होंने सत्य को स्थापित किया है। अपने ऐसे ही सत्य के प्रयोग की एक घटना का उल्लेख गाँधीजी ने अपने विलायत-निवास के दौरान किया है। अपनी विलायत-यात्रा के लिए जब गाँधीजी ने प्रस्थान किया, तब वे विवाहित थे, बल्कि एक पुत्र के पिता भी बन चुके थे। उन दिनों भारत से विलायत जानेवाले कई नवयुवक ऐsसे थे, जो विवाहित होने के बावजूद इस सच को इसलिए छिपाया करते थे कि वहाँ की सुंदर युवतियों के साथ घूमने-फिरने, बातचीत व मज़ाक-मस्ती का अवसर पा सकें। गाँधीजी ने भी अपने विवाह की बात छिपा रखी थी। विलायत के ब्राइटन होटल में एक वृद्धा के साथ गाँधीजी का परिचय हुआ। धीरे-धीरे परिचय गहरा हुआ और वह वृद्धा हर रविवार को गाँधीजी को अपने घर भोजन के लिए आमंत्रित करने लगी। वह वृद्धा गाँधीजी का अन्य महिलाओं से परिचय कराती, उन्हें शर्म छोड़ने को कहती, उन्हें अकेला छोड़ देती। धीरे-धीरे इन बातों के प्रति गाँधीजी का आकर्षण बढ़ने लगा। वे रविवार का इंतज़ार करते रहते। एक नवयुवती उस वृद्धा के साथ ही रहती थी। उससे गाँधीजी का ख़ास परिचय करवाया गया। शायद वृद्धा ने गाँधीजी को अविवाहित समझकर विवाह की योजना भी बना ली थी। लेकिन फिर धीरे-धीरे गाँधीजी को महसूस हुआ कि यह ठीक नहीं हो रहा है। उन्हें अपने झूठ पर पश्चाताप होने लगा। उन्होंने सोचा, यदि मैंने पहले ही इस महिला को अपने विवाहित होने की बात बता दी होती, तो कितना अच्छा होता! पर अभी भी देर नहीं हुई। यदि मैं सच बता दूँ, तो आने वाले संकट से बच जाऊँगा। यह सोचकर गाँधीजी ने उन्हें पत्र लिखा। इसमें उन्होंने अपने विवाहित होने की व एक पुत्र के पिता होने की बात क़बूल की। गाँधीजी ने लिखा कि मुझे इस बात का दुःख है कि मैंने आपसे यह बात छिपायी। पर मुझे इस बात की ख़ुशी है कि ईश्वर ने मुझे सत्य कहने की हिम्मत भी प्रदान की। जब वृद्धा को यह पत्र मिला, तब वे गाँधीजी की इस पारदर्शिता पर प्रसन्न हुईं, और उन्हें निमंत्रित करने का सिलसिला उन्होंने बनाये रखा। व्यक्तिगत आचरण के ये उदाहरण दिखाते हैं कि कैसे गाँधीजी सत्य के प्रति अपनी निष्ठा पर दृढ़ रहते थे। सत्य के प्रति यह निष्ठा, सत्याचरण की शक्ति के प्रति यह विश्वास, धीरे-धीरे व्यापक रूप धारण करने लगा। आगे चलकर उन्होंने अपने व्यक्तिगत आचरण के ये प्रयोग सार्वजनिक जीवन तक ले जाने के लिए किये । एक बार मुंबई से गाँधीजी अपने परिवारजनों से मिलने के लिए राजकोट व पोरबंदर जा रहे थे। बीच में बढवाण स्टेशन पर जनसेवक के रूप में विख्यात दरजी मोतीलाल उनसे मिलने आये। उन्होंने बताया कि वीरमगाम में जकात को लेकर जो जाँच-पड़ताल की जाती है, उसमें सामान्य जनता को बड़ी मुसीबतों का सामना करना पड़ता है। गाँधीजी ने उनसे तुरन्त पूछा, "इसके लिए जेल जाने को तैयार हो?'' बाद में गाँधीजी ने इस सम्बन्ध में जानकारी हासिल की और वे जहाँ भी गये, वहाँ लोगों ने इस बात की शिकायत की कि जकात की जाँच-पड़ताल के दौरान उन्हें कितना सताया जाता है। गाँधीजी ने लॉर्ड विलिंग्डन से भी इस संबंध में बातचीत की। पर कुछ नहीं हुआ। अंत में क़रीब दो वर्षों के पत्र-व्यवहार के बाद उन्हें लॉर्ड चेम्सफ़र्ड से मिलने का अवसर मिला। उन्होंने आश्चर्य व्यक्त किया कि उन्हें इस सम्बन्ध में कुछ भी पता नहीं है। उन्होंने तुरन्त सारा पत्र-व्यवहार मँगवाया। उसके कुछ दिनों बाद यह जकात रद्द की गयी। गाँधीजी ने इस जीत को सत्याग्रह के रूप में देखा। क्योंकि इस समस्या के दौरान सरकार के सचिव ने बताया कि गाँधीजी के बगसरा में दिये गये भाषण की एक प्रति उसके पास है। उस भाषण में गाँधीजी ने सत्याग्रह की बात की है और उसके प्रति अपनी नाराज़गी भी बतायी थी। सरकारी सचिव ने गाँधीजी से कहा था कि यह तो शक्तिमान सरकार के लिए धमकी है। गाँधीजी ने उन्हें बताया कि यह धमकी नहीं, बल्कि जनता के लिए एक तरह का प्रशिक्षण है। यह हमारा धर्म है कि हम लोगों को उनके दुःख दूर करने के सारे वास्तविक उपाय बतायें। जो जनता स्वतंत्र होना चाहती है, उसके पास अपनी रक्षा का अन्तिम इलाज होना चाहिए। सत्याग्रह तो शुद्ध अहिंसक शस्त्र है। उसका उपयोग व उसकी सीमाएँ बनाना हमारा धर्म है। इसमें कोई शक नहीं कि अंग्रेज़ सरकार शक्तिमान है। पर मेरा विश्वास है कि सत्याग्रह सर्वोपरि शस्त्र है। गाँधीजी ने अपने इस शस्त्र का प्रयोग कई मौकों पर सफलतापूर्वक किया है। चंपारण व खेड़ा का संघर्ष, रॉलेट ऐक्ट के विरोध में पूरे देश में हड़ताल के आह्वान का आश्चर्यजनक जवाब अर्थात् पूरे हिन्दुस्तान में - महानगरों व गाँव-गाँव में हड़ताल हो गयी। गाँधीजी ने इसे 'भव्य दृश्य' और 'अद्भुत दृश्य' कहा है। गाँधीजी के ब्रह्मचर्य के प्रयोग जग-ज़ाहिर हैं। सन् 1906 के मध्य खण्ड से एक व्रत के रूप में उन्होंने ब्रह्मचर्य का पालन शुरू किया। मानों, आगे आनेवाले सत्याग्रह के लिए यह एक प्रकार की आत्मशुद्धि थी। क्योंकि सत्याग्रह के लिए गाँधीजी ने कई बार अपनी पत्नी व बेटों की ज़िंदगी भी दाँव पर लगा दी थी। दक्षिण अ़फ्रीका के निवास के दौरान डरबन में कस्तूरबा बीमार पड़ीं। उनका एक ऑपरेशन हुआ। वे काफ़ी कमज़ोर हो चुकी थीं। उनके ऑपरेशन के दो-तीन दिन बाद उन्हें डरबन में छोड़ गाँधीजी जोहानिसबर्ग गये। कुछ दिनों में उन्हें कस्तूरबा की कमज़ोरी का समाचार मिला। डॉक्टरों की राय के अनुसार कस्तूरबा को त़ाकत के लिए माँस खिलाना ज़रूरी था। डॉक्टरों ने इस बात पर ख़ूब ज़ोर दिया कि मरीज़ को बचाने के लिए उन्हें मांस तो खिलाना ही होगा। यह सुन गाँधीजी बड़े दुखी हुए। हालाँकि वे जानते थे कि डॉक्टर एक बहुत अच्छा इन्सान है। उसके अहसानमंद थे वे। पर डॉक्टर की यह सलाह मानना उनके वश की बात नहीं थी। हालाँकि डॉक्टर उनका शुभचिंतक था; फिर भी गाँधीजी ने उसे साफ़ शब्दों में कह दिया कि वे अपनी पत्नी को मांस खिलाने की अनुमति तो नहीं ही देंगे। गाँधीजी ने यहाँ तक कहा कि मांस न लेने से यदि पत्नी की म़ृत्यु हो जाती है, तो उसके लिए वे तैयार हैं; पर मांस के लिए नहीं। तब उनका पुत्र भी साथ ही था। गाँधीजी ने उससे भी पूछा कि क्या करना चाहिए तो पिता से सहमत होते हुए उसने भी कहा कि बापू ने जो निर्णय लिया है, वह बिल्कुल सही है; चाहे कुछ भी हो जाये, पर बा को मांस तो नहीं ही खिलाया जा सकता। फिर कस्तूरबा से भी पूछा गया तो उनका भी यही जवाब था कि चाहे आपकी गोद में मुझे मृत्यु आ जाये, पर मुझे अपनी देह भ्रष्ट नहीं करनी है। गाँधीजी के इस निर्णय से डॉक्टर ख़ूब नाराज़ हुआ। ख़ूब भला-बुरा भी कहा। गाँधीजी को क्रूर व घातकी पति की उपमा भी दी और अंत में अपना निर्णय सुनाया कि यदि उन्हें शोरबा व मांस न दिया गया, तो वह उनका इलाज नहीं करेगा। तब बरसते पानी में बीमार कस्तूरबा को लेकर गाँधीजी डरबन से चल पड़े थे। वह एक कठिन यात्रा रही होगी गाँधीजी के लिए। किसी तरह वे फिनिक्स पहुँचे। धीरे - धीरे कस्तूरबा ठीक हो गयीं। इस घटना ने गाँधीजी के आचार व विचारों, वाणी व आचरण के ऐक्य को सिद्ध किया। अपने सिद्धांतों की रक्षा के लिए वे किस सीमा तक जा सकते थे, इसकी झलक इस घटना में दिखायी देती है। इस आत्मकथा की एक-एक घटना उस विराट महामानव की अद्भुत जीवन-दृष्टि का साक्षात्कार कराती है। व्यक्तिगत जीवन में आचरण की शुद्धता, बच्चों की शिक्षा, जनजागृति, अहिंसा, खाने के प्रयोग, प्राकृतिक चिकित्सा आदि-आदि न जाने कितने आयाम...व इन सब में सत्य का आग्रह। इसी सत्य के आग्रह के चलते दूध का त्याग, केवल फल व नींबू-पानी का सेवन...औषधि के रूप में बकरी का दूध लिये जाने पर भी पश्चाताप प्रकट करना...यहाँ तक कि दस वर्ष तक नमक को भी अपने भोजन से उन्होंने दूर रखा। सत्य के ये प्रयोग जीवन के अनंत क्षेत्रों तक फैले हुए थे। आज हिंसा, सांप्रदायिक द्वेष, सत्ता के लिए किया जानेवाला कुरुक्षेत्र, अपने क्षुद्र स्वार्थों के लिए चरित्र में गिरावट, युवा पीढ़ी की उच्छृंखलता, मौज-श़ौक की अंतहीन तृष्णा, आर्थिक घोटाले आदि-आदि दूषणों के महासमुद्र में हम निरंतर नीचे उतरते जा रहे हैं। पतन की गहरी खाई में बड़ी तेज़ी से हम आज गिरते हुए नीचे की ओर चले जा रहे हैं। हम अंधकार में प्रकाश की किरण ढूँढ़ने की बातें करते हैं, तब बड़ा विस्मय होता है। आपके सामने प्रकाश का महासमुद्र जगमगाता हो, तब आप अँधेरे में एक किरण ढूँढ़ने की बात करते हैं। या शायद हमारे पास वे नेत्र ही नहीं हैं, जिनसे यह प्रकाश दिखायी देता है। या शायद सब जानते हुए भी प्रकाश की ओर हमने पीठ कर ली है। उस विराटता के सम्मुख निरन्तर हम बौने होते जा रहे हैं। हमें अपना यह बौनापन अब इतना खटकने लगा है कि हम बौखला गये हैं। इस बौनेपन से मुक्त होना, उस विराटता तक पहुँचना तो संभव नहीं है। चाहे आज इसकी ज़रूरत कितनी ही क्यों न हो, उस ऊँचाई तक पहुँचानेवाले जीन्स ही नहीं हैं हममें। तब क्या किया जाये? विकृत मानसिकता वाले लोगों को एक ही उपाय सूझता है कि उसे खंडित किया जाये। इधर से काटो उसे कि उसने परिवार पर अन्याय किया; पक्षपातपूर्ण व्यवहार किया, तोड़ दो उस विराट प्रतिमा को, जिसकी हमें आज सबसे ज़्यादा ज़रूरत है। |