गांधीवादः सम्पत्ती और सिविल नाफरमानी |
डॉ. राममनोहर लोहिया गांधीवाद कुछ अधिक नाकाफी साबित हुआ है। ऐसा कहा जाता है कि देश में आज जो कुछ चल रहा है वह गांधीवाद नहीं है, बल्कि गांधीवाद और मार्क्सवाद का एक घटिया सम्मिश्रण है। यह बात सार रूप में सही है, लेकिन इससे गांधीवाद की कमजोरी साबित होती है कि मार्क्सवाद उसे सम्मिश्रण के लिए मजबूर कर देता है, और यह भी कि उसका सर्वश्रेष्ठ अंश ।पर नहीं आ पाता। गांधीवाद आज अपनी दो शाखाओं में प्रकट हो रहा है, सरकारी और मठी। जिसे गांधीवाद माना जाता है, उसमें ये दोनों सरकारी और मठी रूप ही शामिल हैं। कुजात गांधीवाद के बारे में आगे कहूंगा। अपने मान्य रूप में गांधीवाद, जीत हासिल करने के बाद बेजान साबित हुआ है। उसमें कोई तेजी नहीं रह गई है, जिससे शक पैदा होता है कि शायद उसमें कभी तेजी थी ही नहीं। मठी गांधीवाद पूरी तरह सरकारी सहारे पर जिंदा है। सरकारी गांधीवाद एक सीमित सरकारी क्षेत्र वाले नियोजन की हवाई चीज के पीछे भागने के अलावा कुछ नहीं करता। दोनों ही आत्मतुष्ट और खुश हैं, जिसमें नीचे से उपर बढती हुई विलासिता का भी अभाव नहीं है। विपक्ष के रूप में गांधीवाद अपने ढंग से वंतिकारी था। सरकारी गांधीवाद बिलकुल रूढिवादी, प्रतिष्ठित और बेजान रूप में दकियानूसी है। मार्क्सवाद, अपनी सीमाओं के अन्दर विपक्ष और सरकार दोनों ही रूपों में वन्तिकारी होता है। उसके वंतिकारी चरित्र में सरकारी होने या न होने से कोई बाधा या फर्क नहीं पडता। समय-समय पर उसकी गतिशीलता में जो बाधा आती है, वह मुख्य रूप से तात्कालिक विदेश नीति के कारण, और दूसरे नम्बर पर सैद्धान्तिक प्रश्नों की विछत समझ से पैदा होती है। उसके सनारूढ होने का उसके उत्साह में कमी आने से कोई खास संबंध नहीं होता, उत्साह में कमी दूसरे कारणों से आती है। वास्तव में मार्क्सवाद जब सना के लिए संघर्ष करता है, उसकी तुलना में सना हासिल करने के बाद अधिक वंतिकारी होता है। सना हासिल करने के बाद उसके लिए जरूरी होता है कि वह संपनि, धर्म और अन्य सम्बन्धों की पुरानी व्यवस्था को बदले। गांधीवाद के साथ ऐसा नहीं है। सरकार में आने के बाद गांधीवाद का आचरण ऐसा रहा है, जैसे उसे कुछ करना ही नहीं, उसके अपने कोई कार्य ही नहीं हैं। सरकारी गांधीवाद ने अपने रोजमर्रा के काम की सूची गैर-गांधीवादी किताबों से बनाई है, जिसका आधार है कि परिवर्तन जितना कम हो उतना अच्छा और जिसका उद्देश्य यह नहीं है कि वह अन्य सिद्धान्तों से भिन्न रीति से शासन चला सकता है, बल्कि यह कि वह अन्य सिद्धान्तों जितना ही अच्छा शासन चला सकता है। सरकारी गांधीवाद बिल्कुल परिवर्तन नहीं करता, वह हर चीज को पहले जैसी रहने देता है। सरकार बनने के बाद गांधीवाद के इस पलायन को दो दृष्टियों से देखना होगा - गांधीवाद जब विपक्ष में था, तो उसके अन्दर क्या था, और क्या नहीं था। उसमें चरखा था और राकेट नहीं था। यह वाक्य केवल मुहावरेबाजी नहीं है। वह गांधीवाद का कुछ अतिसरलीकरण तो है, लेकिन ये वाक्य गांधीवाद के सार को ठोस रूप देकर प्रस्तुत करता है। इस सार के उपर पडे आवरण को हटा दें, तो यह ऐसा अनाकर्ष कभी नहीं है। लेकिन दुर्भाग्यवश, गांधीजी में असली टिका। बातें वक्ती बातों के साथ जिस तरह जुडी हुई हैं, जीवन की अनश्वरता के प्रति आश्वस्त आदमी ही उसका जोखिम उठा सकता था। वे शायद सोचते थे कि उनके प्रिय शिष्य उनके सिद्धान्त की टिका। बातों को जीवित रखेंगे, और जरूरत के मुताबिक बदलने वाली वक्ती बातों से उसे सजाते रहेंगे, किन्तु शिष्यों के मामले में कोई पैगम्बर गांधीजी जैसा अभाग्यशाली नहीं रहा। बहरहाल इसके बारे में आगे फिर कहूंगा। चरखा वक्ती चीज है। इसी तरह प्राकृतिक चिकित्सा अंशगमहत्व की चीज है यद्यपि सर्वथा वक्ती नहीं। गांधीजी का ठोस प्रतीक तात्कालिक कार्य के लिए बहुत जरूरी है, लेकिन सव्यिता को जारी रखने के लिए यह भी उतना ही जरूरी है कि ठोस प्रतीक में उसका अमूर्त सिद्धान्त निकाला जाये। ये सिद्धान्त हैं : आदमी के पास ऐसे औजार होने चाहिए जिस पर कई अर्थ़ों में उसका नियंत्रण हो। उसका तात्कालिक निवास क्षेत्र आत्मनिर्भर और प्रत्यक्ष लोकतंत्र द्वारा शासित हो। चरखे का सन्देश है नियत्रण योग्य मशीनें और गांव शासन। सामान्य सिद्धान्त निकालने की निष्ठा होने पर भी, यह सिद्धान्त अभी नाकाफी है। गांधीजी में सादगी और छोटी मशीनों पर आग्रह साफ है, जबकि दुनिया बराबर पेचीदा मशीनों और विलासिता की ओर बढ रही है, तो कम से कम दुनिया के गोरे लोग बढ रहे हैं। उनकी मिसाल का दबाव जबरदस्त है, और उनके नमूने के असर से कोई बच नहीं सकता। इसी कारण गांधीजी का आर्थिक चिन्तन स्वतत्र स्थापना से अधिक एक संशोधन है। उनके अपने देशवासी यूरोप-अमरीकी मशीनी ढांचे की नकल करने को आतुर है, और गांधीजी के संशोधन का बात अगर ज्यादा जोर से की जाये तो आसानी से रद्द कर दी जाती है। चर्खा और बिना सिले कपडे, इनके साथ अभी ही एक पुराण-पंथी गन्ध जुड गयी है, और सिद्धांत के शत्रु इसे हंसी में ही उडा देने को तैयार बैठे हैं। अगर कोई ऐसा आर्थिक चिन्तन विकसित हो सकता जो वर्तमान युग के मशीनी ढांचे से बिलकुल इनकार न करे, बल्कि उसमें गांधीवादी संशोधन को जोडें, उसके ठोस प्रतीक को नहीं, तो गांधीवाद सरकारी रूप में भी सार्थक हो सकता है। कट्टरपंथी मठी गांधीवादी ऐसे सिद्धान्त के बारे में कह सकते हैं कि उसका गांधीजी से कोई ताल्लुक नहीं। और बाल की खाल निकालने वाले आलोचक उसे एक विकृति कह कर मखौल उडा सकते हैं। लेकिने सरकार के एक नए विधेयात्मक सिद्धान्त के रूप में दुनिया उसका स्वागत करेगी। गांधीवादी सिद्धान्त के रहन-सहन में सादगी और कमखर्ची वाले हिस्से को दुनिया के लोगों ने पसन्द नहीं किया है। किसी उल्लेखनीय संख्या में किसी पंकार के चुने हुए लोगों ने भी इसे नहीं अपनाया है। पिछडे हुए लोगों के लिए यह एक व्यंग है, और विकसित लोगों के लिए यह मजाक। फिर भी रहन-सहन की सादगी अपने आप में एक वंति है, क्योंकि यह सामान्य रूचि और अर्थव्यवस्था के विरुद्ध है। वस्तुओं की संख्या बढने और जरूरतों की संख्या घटने का द्वैध किसी हद तक नकली है, सम्पूर्ण जीवन के लिये इसमें किसी पंकार का तालमेल आवश्यक है। जो आदमी बहुत कुछ अनजाने ही, स्वभाव और आदत से अपनी जरूरतें नहीं घटाता, वह भौतिक या आध्यात्मिके दृष्टि से, या सौन्दर्यात्मक दृष्टि से भी अच्छी तरह या सुख से नहीं रह सकता। आज की दुनिया में सार्थक होने के लिये जरूरत घटाने की धारणा को सापेक्ष होना पडेगा, पूरे राष्टं की कुल संभावनाओं के संदर्भ में, या उन चीजों के संदर्भ में जो मिल सकती हैं, लेकिन स्वभाववश या सोच-समझ कर छोड दी जाती हैं। इस तरह सादगी और विलासिता की सीमाएं कुछ लचीली हैं। सादगी गांधीवादी सिद्धान्त की अनोखी विशिष्टता नहीं है। साम्यवादी बिलकुल सादगी से रहते हैं, शायद दुनिया के सनारूढ व्यक्तियों में सबसे ज्यादा। लेकिन सादगी साम्यवादी सिद्धान्त का अंग नहीं है, गांधीवाद का है। जीवन की एक कला के रूप में सादगी से रहने की इच्छा शायद उतनी ही पुरानी है जितना विचार, और समूची मनुष्य जाति में ही कुछ खास लोगों में मिलती है। बेल्जियम की एक औरत, जेने जेवर्ट, जो विश्वीव संघ की समर्थक भी है, पांच साल से अधिक हो गया, उनरी यूरोप में आठ आना रोज पर बसर करती रही है। यह अपने आप में एक विलक्षण घटना है। यह प्रवृत्ती अगर बढ और फैल सके तो इससे इतनी बडी वंति होगी जितनी बडी यूरोप में अभी तक नहीं हुई। समाज व्यवस्था में नैतिक नियम निकलना चाहिए, या नैतिक नियम पर आधारित व्यवस्था बननी चाहिए, अन्यथा ऐसी चीजें केवल विलक्षण या व्यवस्था का उल्लंघन रह जायेगी। जब तक सादगी में रहने की इच्छा को आधुनिक मशीनी ढांचे में गूंथकर संस्था और विचार की एक संगत व्यवस्था नहीं बनाई जाती, तब तक कलाकार या सनकी लोग ही गांधीवाद के इस पहलू का इस्तेमाल करेंगे। जब आधुनिक मशीनों ने सम्प़ता की सम्भावना प्रस्तुत कर दी हो पुराने अनुभवों से यह बात कुछ अविीवसनीय लगती है, लेकिन दुनिया का शासक वर्ग इस पर यकीन करता हैगउस समय सम्पूर्णे त्याग का दर्शन या इससे मिलती-जुलती कोई बात निरर्थक हो जाती है। सभी मनुष्यों के लिए अच्छा रहन-सहन नीति का एक आवश्यक लक्ष्य है। लेकिन अच्छे रहन-सहन की सीमा क्या है? और कुछ थोडी-बहुत विलासिता का बंटवारा कैसे हो? नीति के संकेत-चिन्हों के रूप में नहीं, बल्कि दिशा-निर्देश के रूप में ही इन प्रश्नों का उत्तर दिया जा सकता है। लेकिन ये सवाल सम्पनि की संस्था और उसके पुरस्कार से जुडे हुए हैं। सम्पनि सम्बन्धी गांधीजी के विचारों के साथ झंझट यह है कि वे जब अस्पष्टता से निकल रहे थे तभी गांधीजी की मृत्यु हो गई, जबकि मार्क्स इस मामले में पक्के थे और उन्होंने परिवर्तन का समर्थन किया था। मनुष्यों में जब से सन्त और ऋषि होने लगे, तभी से उनका ध्यान सम्पनि के सवाल की ओर जाता रहा है। सम्पनि अप्रिय या बुरे मनोविकारों का स्रोत थी, जो मन को विछत करती थी। अतः इसका इलाज था कि सम्पनि के प्रति मोह न रहे। अलग-अलग रूपों में और विभि़न्न सीमाओं तक सभी देशों में अपरिग्रह का दर्शन विकसित हुआ। एक भावनात्मक अनुशासन के अलावा इसका कोई खास नतीजा नहीं निकला। यह अनुशासन अपने आप में शक्तिहीन था, लेकिन कुछ अन्य बातों के मिल जाने पर इसमें बडी संभावनायें थम्। अपरिग्रह का दर्शन जहां सबसे अधिक विकसित हुआ, उस देश में ही सबसे अधिक मोह बढा, जीवन और सम्पनि के ऐसे रूपों का भी मोह बढा जो स्वीकार करने के लायक नहीं थे। पिछली दो शताब्दियों में यूरोप-अमरीका ने सम्पनि के सवाल को एक अन्य कोण से देखा है -एक संस्था के रूप में। खासतौर से मार्क्सवाद के अनुसार, सम्पनि से जो बुराई पैदा होती है, उसे केवल एक संस्था के रूप में सम्पनि का नाश करने पर ही मिटाया जा सकता है : निजी सम्पनि खतम हो, सामूहिक सम्पनि बने। अभी भी इसके बहुतेरे संकेत हैं कि संस्था के स्तर पर सम्पनि के सवाल का सामना करना शायद उतना ही नाकाफी सिद्ध हो, जैसा पहले भावनात्मक स्तर पर हुआ । फिर भी, संस्थात्मक कारवाई के कुछ तो नतीजे निकलते हैं, जबकि भावनात्मक स्तर पर कोई भी नतीजा नहीं निकलता। यही कारण है कि सरकारी मार्क्सवाद किसी हद तक वंतिकारी होता है, जबकि सरकारी गांधीवाद भावनात्मक रूप में बडबोला और भौतिक रूप में हवाई साबित हुआ है। एक संस्था के रूप में उत्पादन के साधनों की निजी मिल्कियत को खत्म कर देने के बाद भी विकास और सम्प़ता की समस्या रह जाती है। यहम् पर सामूहिक और निजी सम्पनि की अलग-अलग भूमिकायें सहायक हो सकती हैं। सामूहिक सम्पनि मुख्य रूप से उत्पादन के लिए होती है, और इसलिए वह बढे। निजी सम्पनि उपभोग के लिए होती है, और इसलिए उस पर रोक लगे। सामूहिक सम्पनि का लगभग असीमित विस्तार और उपभोग की सम्पनि पर एक अधिकतम सीमा को मिलाने पर ऐसी स्थिति उत्प़ हो सकती है जिसमें सम्प़ता भी हो और आत्मसंतोष भी, और जिसमें अपूर्ण इच्छाओं की कसक के लिए गुंजाइश बहुत कम रह जाये। उत्पादन की सम्पनि का विस्तार और उपभोग की सम्पनि पर रोक, यह बात तार्किक दृष्टि से असंगत और कुछ बेमतलब लगती है। इसकी संगति मनुष्य की मानसिकता में है। इस मेल के द्वारा ही वह सम्बन्ध बनता है जिसमें दुनिया के सभी लोगों की कुल संभावनायें ध्यान में रहती हैं, और जिसमें व्यक्ति जितना कर सकता है उससे कम वस्तुओं का उपभोग करता है। इस संदर्भ में उपभोग की सम्पनि की अधिकतम सीमा कुछ लचीली हो जाती है। सामूहिक विस्तार और निजी सीमा का ऐसा दिमाग बनाना असंभव नहीं होना चाहिये। संस्था के रूप में सम्पनि का विनाश एक संस्थागत ढांचा पंदान करेगा। भावनात्मक स्तर पर सम्पनि के मोह के विनाश से इस ढांचे के फिर कभी टूट जाने का खतरा नहीं रहेगा। अगर गांधीवाद या उसके सुफल को आप जो भी नाम दें, निष्फल बातों को दोहराने तक ही सीमित नहीं हो जाता, चाहे उपनिषदों की सम्पनि के अपरिगंह की बात हो, या मार्क्स की निजी सम्पनि की संस्था का नाश करने की बात हो बल्कि दोनों को मिलाने की बात और ऐसा संस्थात्मक ढांचा बनाने की कोशिश करता है जिसमें मनुष्य आशा के साथ अच्छा बनने की चेष्टा कर सके, तो वह सरकारी सिद्धांत के रूप में भी स्वीकार करने लायक हो सकता है। कोई यह समझने की गलती न करे कि भावना के स्तर पर सम्पनि-मोह के नाश से, संस्था के रूप में सम्पनि के नाश की जरूरत जरा भी कम होती है। यहां केवल इस बात पर आग्रह किया गया है कि संस्था के रूप में सम्पनि के विनाश की जरूरत जरा भी कम नहीं होती। अच्छे काम करने के सरकारी सिद्धांत के रूप में गांधीवाद की कमियों के बारे में चाहे जो भी कहा जाये, बुराई का विरोध करने के जन सिद्धांत के रूप में यह अनुपम था। व्यक्ति की आदत और सामूहिक संकल्प, दोनों ही रूपों में सिविल नाफरमानी बुद्धि को ताकत से जोडती है। ताकतवर बुद्धि है, जबकि अन्य सभी तरीके या तो निर्बल बुद्धि के होते हैं या अबुद्धिपूर्ण ताकते के। ऐसी सिविल नाफरमानी मनुष्य जाति को गांधीजी की प्रत्यक्ष देन है। लेकिन गांधीजी और उनके सिद्धांत ने जिस सरकार को बनाने में योग दिया, उसने गांधीजी की सीख के इस सबसे अधिक वंतिकारी मर्म को नष्ट करने की पूरी कोशिश की है। इतिहास में कभी किसी संतान ने इस तरह अपनी मां की कोख में लात नहीं मारी। कभी कोई सिद्धांत विपक्ष में जैसा था, सरकार में आने पर इस तरह बिलकुल उसका उल्टा नहीं बना। लेकिन यह स्वाभाविक है कि सरकारी गांधीवाद विपक्षी गांधीवाद से टकराये, जब तक कि उनके अन्तर्विरोध को दूर करने वाली कोई बेहतर चीज उनके मेल से नहीं बनती। ऐसी संभावना पर विचार करने के पहले एक विचित्र बात की ओर ध्यान देना जरूरी है। गांधीजी के सबसे नजदीकी शिष्यों ने जिस तरह उनका प्रकट तिरस्कार किया, वैसा पहले कभी किसी सिद्धांत या पैगम्बर के साथ नहीं हुआ। जिस घडी उनकी जीत हुई, उसी समय से उनका अपमान भी शुरू हुआ। उनके सिद्धांत के तिरस्कार के अलावा, उनके व्यक्तित्व का मान भी घटा। गांधीजी की बराबरी करने वाले किसी महान व्यक्ति के ऐसे शिष्य नहीं हुए जो किसी अन्य व्यक्ति को अपने गुरु से महान घोषित करें। सवाल यह नहीं है कि बुद्ध वास्तव में गांधीजी से बडे हैं या नहीं। शायद हैं, शायद नहीं हैं। लेकिन गांधीजी के शिष्य जब भी मौका मिले बुद्ध को हिन्दुस्तान का सबसे बडा आदमी घोषित करें, यह अनोखी बात है। ऐसे कोई शिष्य न बुद्ध के थे, न ईसा के, न सुकरात के, यहां तक कि मार्क्स के भी नहीं। यह संभव है कि गांधीजी उनकी बराबरी के नहीं। ऐसी सूरत में बात यहीं खतम हो जाती है । लेकिन इस शक को दूर करना आसान नहीं कि सरकारी गांधीवाद के लिए विपक्षी गांधीवाद का निरादर करना अनिवार्य है। बुद्ध से किसी सरकार को डर नहीं लगता। गांधी से शायद हर सरकार को डर लगता है। गांधी के शिष्य उनका निरादर चोरी छिपे ज्यादा करते हैं, क्योंकि सिविल नाफरमानी से उन्हें डर लगता है, सिविल नाफरमानी का भूत उन्हें सताये रखता है । कोई भी सरकार, कोई सचमुच गांधीवादी सरकार भी, उन लोगों से प्रेम नहीं कर सकती जो उसका या उसके कार्य़ों का प्रतिरोध चाहे कितने भी सविनय ढंग से करते हैं। सिविल नाफरमानी करने वालों को कानून तोडने पर सरकार की नाखुशी झेलने को और उसके परिणाम भुगतने को तैयार रहना चाहिए। अगर सरकार और सिविल नाफरमानी करने वाले दोनों यह मानकर चलें कि दोनों को ही अपनी उचित मर्यादाओं के अन्दर काम करना चाहिए, तो सरकारी गांधीवाद और विपक्षी गांधीवाद के अन्तर्विरोध के दूर करने वाली कोई बडी चीज निकल सकती है। सिविल नाफरमानी करने वाले किसी भी हालत में हिंसा का इस्तेमाल न करें। ऐसी सूरत में सरकार गिरफ्तारी और उचित कैद के सिवाय और सभी पंकार के दमन का परित्याग करें। दोनों पक्षों की स्थितियों के प्रति परस्पर आदर हो। इस रिश्ते में प्रेम को शामिल करना जरूरी नहीं। इसका सामान्य रूप इतना ही रहे कि एक दूसरे के विरुद्ध संघर्ष तो हो, लेकिन सीमाओं के अन्दर, मर्यादित। सिविल नाफरमानी की जो कमजोरियां सामने आयी हैं ये कमजोरियां सामयिक थम्ए या सिविल नाफरमानी में ही निहित थी, यह तो आगे अनुभव से ही पता चलेगा। अंग्रेजी राज के विरुद्ध अहिंसक संघर्ष करने वालों की सेना में अधैर्य और टिका। लगन की कमी पंतीत होती थी। उस सेना के सामने अपने संघर्ष की कोई तार्किक परिणति नहीं थी। बिरले आस्थावानों को छोडकर यह सेना अपने संघर्ष को बढती लहर के रूप में, शत्रु की घटती हुई ताकत और अपनी बढती हुई शक्ति के रूप में नहीं देखती थी। हिंसक सैनिक जब लडाइयों में हारते हैं, तब भी उन्हें यह संतोष मिलता है कि शत्रु का जान और माल का नुकसान हुआ। यह संतोष उनकी एकता और मनोबल को बनाये रखता है। जब वे गुप्त रूप से या किसी छोटे से इलाके में भी, सैनिक टुकडियां बनाने लगते हैं, तभी से वे उस दिन का सपना देखने लगते हैं जब शत्रु पराजित होगा। अहिंसक सेना के लिए ऐसे सपने देखना संभव नहीं रहा, सिवाय कुछ कल्पनाशील लोगों के। इसके परिणाम विनाशकारी हुए। हिन्दुस्तान के स्वाधीनता संघर्ष ने समझौते किये, और आगे चलकर अपने लक्ष्य हासिल नहीं कर सका। वास्तव में उसने अपने कुछ लक्ष्य छोडकर उल्टे लक्ष्य अपना लिए। सरकारी गांधीवाद की कमियां शायद इसी का परिणाम है कि विपक्षी गांधीवाद संघर्ष को आखिरी तक नहीं लड सका। लेकिन इस अकेले अनुभव के आधार पर यह सिद्धांत बना लेना उचित नहीं होगा कि समझौतों की प्रव्या अहिंसा में निहित होती है। संदेह जरूर पैदा हो गया है, और भविष्य में सत्याग्रह का प्रयोग करने वालों को समझौते करने की, संघर्ष के वंतिकारी चरित्र को धुंधला करने की प्रवृत्ती से सावधाना रहना होगा। रोग की जडें शायद और ज्यादा गहरी हैं। इस पर कई सदियों का असर है। दुनिया की कोई कौम अपने स्वतंत्र राज्य से इतने समय तक वंचित नहीं रही, जितना कि हिन्दुस्तान। सामूहिक अनैतिकता भारतीय चरित्र का एक अंग बन गयी है, और कभी-कभी शक होता है कि कहम् यह स्थायी तो नहीं। देश के शासक वर्ग ने सदियों के दौरान दासता का समन्वय करने में अनुपम कौशल हासिल कर लिया है। देश में जो कुछ भी आता है और ताकतवर होता है, उसके साथ वे समन्वय कर लेते हैं। कोई कौम इस हद तक, और इतने अरसे तक निीचेष्ट और उदासीन नहीं रही, जितने कि हिन्दुस्तानी। यह आश्चर्य की बात है कि हिन्दुस्तानी लोग और उसका शासक वर्ग, सदियों से सामूहिक गन्दगी के दलदल में गर्दन तक फंसे रहने के बाद भी बिलकुल डूब नहीं गए। चाहे कितने भी बुरे हाल में, उन्होंने अपने अस्तित्व को बनाये रखा है। लेकिन इस कथा की चर्चा करना यहां जरूरी नहीं। हमारी बात के संदर्भ में उदासीनता और निीचेष्टता ही प्रसंगिक है। गांधीजी के कांतिकारी विचारों और पद्धतियों को दास-वृत्ती और निीचेष्टता के इस दलदल में काम करना पडा। देशी और विदेशी दोनों ही तरहे के उदार और अज्ञानी लोग इस दास-वृत्ती और निीचेष्टता को समन्वय प्रतिभा कहते हैं। विजेता की चापलूसी करने के लिए नए या विदेशी तत्वों की स्वीछति या विजेता की अन्धी नकल दास-वृत्ती या असभ्यता है। वास्तविक समन्वय तब होता है जब किसी नयी या स्वस्थ या विदेशी चीज को सोच-समझकर और विवेकपूर्ण ढंग से चुना और अपनाया जाता है। अगर हिन्दुस्तानी लोग कभी दास-वृत्ती और समन्वय में फर्क करना सीख लें, तो मुमकिन है कि गांधी का विचार सचमुच विकसित हो और फले-फूले। |
कुजात गांधीवाद अपने विचार के सम्बन्ध में एक बात कहकर मैं समाप्त करूंगा। अहिंसा लगभग हमेशा ही मेरे विचारों का एक मूलाधार रही है। यह सच है कि देश के अन्दरूनी मामलों में, और अन्तर्राष्टींय विवादों में अहिंसा के पंयोग के बीच मैं हमेशा फर्क करता रहा हूं और अन्तर्राष्टींय मामलों में अहिंसा के प्रयोग के बारे में मुझे कुछ शंका रही है। फिर भी, अन्तर्राष्टींय अहिंसा तार्किक दृष्टि से आवश्यक रही है, और उसकी एक धुंधली-सी उम्मीद भी रही है। भारत-चीन संघर्ष के प्रत्यक्ष रूप में शुरू होने के बाद से मैं बाध्य होकर ताकत के साथ हथियारों के इस्तेमाल का समर्थन करता हूं। कोई गलत-फहमी न रहे, इसलिए मैंने जान-बूझकर अपनी बात कुछ बढा-चढा कर रखी है। मैंने कहा है कि अणुबम अगर मिल सके तो वह भी हासिल करना चाहिए। मैं किसी और के घर में दखल करने के लिए हथियारों का इस्तेमाल नहीं करूंगा, लेकिन जब मेरे देश पर हमला होता है, तो फिर जो भी हथियार जरूरी हो और मिल सके, उसका इस्तेमाल करने से मैं नहीं चुकूंगा। लगभग पन्द्रह साल पहले यूरोप की राजधानी में मैंने कहा था कि महात्मा गांधी और अणुबम, हमारी सदी की दो मौलिक देनें हैं, और इस सदी के बीतने से पहले एक पर दूसरे की विजय हो जायेगी। उस समय श्री एच.एन. ब्रेसफोर्ड ने पूछा था कि क्या लेनिन हमारे युग की एक मौलिक घटना नहीं थे। मैंने उनर दिया था कि लेनिन केवल मार्क्स की एक प्रतिध्वनि थे जिस पर श्री ब्रेल्सफोर्ड ने आगे जोड दिया था, 'जो इतिहास के गलियारों में गूंज कर बडी हो गई'। आज मैं निीिचत रूप से नहीं कह सकता कि प्रतिध्वनियां जिन आवाजों से पैदा होती है, हमेशा उनसे कम निर्णायक या कम ताकतवर ही होती है। लेकिन यहां यह सवाल नहीं है। सोचना यह चाहिए कि क्या गांधीजी और अणुबम सचमुच एक दूसरे को पूरी तरह काट देते हैं, जैसा कि मैंने पहले सोचा था, और यह कि मैंने अन्तर्राष्टींय अहिंसा की संभावनाओं को खोजने की कोशिश क्यों नहीं की। भारतीय स्थिति की एक खासियत यह है कि लम्बे अरसे से भारतीय लोगों का अपना कोई राज्य नहीं रहा। लगभग एक हजार सालों तक कोई भारतीय राज्य नहीं था। जब भी कोई परदेशी शासन देशी बनने लगता, कोई नया हमलावर आकर उस पर हावी हो जाता। सारी व्यवस्था फिर गडबड हो जाती। कभी कोई देशी और सशक्त राज्य विकसित नहीं होने पाया। पिछले एक हजार सालों में भारतीय राज्य या तो ताकतवर परदेशी रहा है या शक्तिहीन देशी। देशी बनने की प्रव्या में परदेशी भी शक्तिहीन बन जाता। शक्तिहीन देशी और विजेता परदेशी के बीच इस निरन्तर संघर्ष को गलत ढंग से हिन्दू-मुस्लिम संघर्ष कहा जाता है, जबकि हिन्दू-मुस्लिम संघर्ष इस प्रव्या का केवल एक गौण रूप है। इससे दृष्टिदोष और बढ जाता है। लम्बे समय तक देशी राज्य के अभाव को न तो झूठ, संतोष में दबे मुसलमान ने पहचाना, न रोग की असलियत को न जानने वाले हिन्दू ने। जिसने पिछले एक हजार साल या और लम्बे अरसे के हिन्दुस्तानी इतिहास को समझा है, उसके लिए राज्य एक शारीरिक आवश्यकता जैसा है। अन्य हर चीज बाद में आती है, मनुष्य और मनुष्यता भी। राज्य के बिना हिन्दुस्तान में आदमी नहीं, चूहे पैदा होते रहे हैं और बडे-से-बडे हिन्दुस्तानी की मनुष्यता उसके गंदे व्यक्तिवाद के लिए एक अमूर्त आवरण का काम करती रही है, वह व्यक्तिवाद चाहे गुलाम हो या लालची।लोग अभी कोई जोखिम नहीं उठा सकते। वे अपने राज्य के साथ खिलवाड नहीं कर सकते। जिन कौमों को स्वतंत्र राज्य का ज्यादा लम्बा अनुभव है, उनमें तरह-तरह के रक्षात्मक उपायों के लिए शक्ति और संभावनाएं मौजूद हैं। ऐसी विशिष्ट राष्टींय स्थिति में राज्य पर हमला हुआ है। अन्याय के सभी जहरीले स्रोतों के फूट पडने का खतरा है। उन्हें थामने के लिए सभी तरह के हथियारों की जरूरत है, और चूंकि खुद अपने घर की रक्षा करने का सवाल है, इसलिये यहां आकर अणुबम की जरूरत है। गांधीजी और अणुबम की समानता इस जगह प्रकट हो जाती है। दोनों का ही स्रोत अन्याय का मुकाबला करने में है। अणुबम दूसरों पर अन्याय करने का औजार भी बन सकता है। गांधीजी का तरीका सिर्फ न्याय के पक्ष में काम करता है। अणुबम अन्याय के पक्ष में भी है। हथियार खतम हों, इसके लिए जरूरी है कि अन्याय से लडने के अन्य तरीके उपलब्ध हों। युद्ध शुरू होने के काफी पहले से ही अगर अहिंसक प्रतिरोध के ये अन्य तरीके न निकाले गए हों, तो हथियारों का इस्तेमाल अपरिहार्य हो जाता है। हिंसा और अहिंसा का मिश्रण करने की कोई कोशिश नहीं होनी चाहिए। न कमजोर हिंसा और अहिंसा में ही कोई घपला करना चाहिये। लेकिन हिन्दुस्तान में यही हो रहा है। पलटन रखने वाले और उनके गांधीवादी महत्व की दुहाई देने वाले बराबर भावुकतापूर्ण ढंग से अहिंसा की बात करते रहे हैं। पलटन जब हारती है तो अहिंसा की बात कुछ ज्यादा होने लगती है। वे शायद यह भी नहीं समझते कि उनकी बातें कितनी हास्यास्पद और तिरस्कार के लायक होती हैं, न उन्हें इसका ही अहसास होता है कि उनकी परस्पर विरोधी बातें राष्टं के संकल्प को कमजोर करती हैं। अपने सुनने वालों के दिमाग को भी वे उसी तरह खंडित करते हैं जैसा खुद उनका दिमाग है एक तरफ तो कमजोर पलटन रखते हैं, दूसरी तरफ अहिंसा की नीति को चलाते नहीं, अहिंसा की भावना का प्रचार जरूर करते हैं। जब दिमाग हिंसा और अहिंसा के बीच बंट जाता है, तो फल होता है कमजोर हिंसा, जिसमें कभी तो आदमी युद्ध के लिए ललकारता है, तो कभी आंसू बहाकर अहिंसा की दुहाई देता है। गांधीवाद के इस पतन का क्या कारण है? राज्य प्राप्ति के बाद से मठी गांधीवाद, सरकारी गांधीवाद के खूंटे से बंधा रहा है। यद्यपि इसने ।परी तौर पर सादगी को अपनाया है, और ऐसा प्रकट किया है जैसे उसे सना की इच्छा नहीं है, लेकिन उसकी कोशिश रही है कि सना के केन्द्र से बहुत दूर न जाए और उससे मिलने वाले पैसे और प्रभाव का लाभ उठाता रहे। मठी गांधीवाद बराबर निःशस्त्रीकरण की, एक तरफा निःशस्त्राhकरण की, भी बात करता रहा है, और साथ ही पलटन को कायम रखने और बढाने वाले सरकारी गांधीवाद से अपनी जरूरत भर को या और ज्यादा पैसा और अन्य साधन लेता रहा है। मठी गांधीवाद समय-समय पर अन्तर्राष्टींय सम्मेलन करता रहा है और सरकार से उसे तरह-तरह की सहायता मिलती रही है। उसने हर तरह के शांति आंदोलनों और उदारवादी आंदोलनों से सम्बन्ध बनाए हैं। ऐसा प्रतीत होता रहा है जैसे वह आण्विक हथियारों और अन्य ऐसे अन्यायों के विरुद्ध चलने वाले विीव आंदोलनों के साथ है, या उनसे भी आगे हैं। इस सबसे उसे अन्तर्राष्टींय नेतृत्व की एक झूठी प्रतिष्ठा मिल गई है। यूरोप-अमरीका के लोग या तो जल्दबाजी में और भारत सरकार के पैसे और पंभाव से भ्रष्ट होकर मठी गांधीवाद का सही मूल्यांकन करने में असफल रहे हैं, या फिर महात्मा गांधी के नाम का असर उन पर इतना ज्यादा रहा है कि वे गांधीजी के उनराधिकारियों को परखने में असमर्थ रहे हैं। उन्होंने मठी गांधीवाद पर असली कसौटी लागू नहीं की कि वह अपने विश्वास पर अमल कहां तक करता रहा है। गांधीजी की मृत्यु के बाद गांधीवाद दो हिस्सों में बंट गया, मठी और सरकारी। मठी गांधीवाद का सरकारी गांधीवाद के साथ ऐसा मेल बैठ गया कि इतने सालों में उसने किसी एक अन्याय के विरूद्ध भी संघर्ष नहीं किया। जाति या पूंजीवाद या मृट्ठी भर लोगों का प्रभुत्व या भाषा या दाम, उसने किसी के भी विरूद्ध संघर्ष नहीं किया। इंगलिस्तान, अमरिका का उदारवादी इससे खुश रहा क्योंकि इसने उनके भाषा के अन्यायी इस्तेमाल को खत्म करने के लिए या व्यापार अथवा राजनीतिक और साम्राज्यवादी सम्बन्धों को बदलने की कोई कोशिश नहीं की। रूसी साम्राज्यवादी इससे खुश रहा क्योंकि यह सह-अस्तित्व की और शोषण के विरोध की कुछ बातें करता रहा, और इसने विरोधी खेमे के राजनयिक प्रभाव को बढ़ाने का समर्थन किया। लेकिन मठी गांधीवाद की सारी ।परी चमक-दमक उसके अंदरूनी खोखलेपन को ज्यादा दिनों तक नहीं छिपा सकती। दुनिया के लिए उसकी कोई सार्थकता नहीं है। यह न अन्याय के विरूद्ध संघर्ष कर रहा है, न मनुष्य के नवीनीकरण के लिये किन्हीं नए स्रोतों का निमार्ण कर रहा है और हथियारों के विरूद्ध इसकी सारी बात केवल पाखंडी है, क्योंकि अन्यायपूर्ण राज्य में हथियार पैदा होते हैं, और अपेक्षतया न्यायपूर्ण राज्य की स्थापना होने पर ही हथियार खतम हो सकते हैं। रूढ़ गांधीवाद के इस पतन से कुजात या हथियारों और युद्ध से सचमुस घृणा करने वाले गांधीवाद की जिम्मेदारी खतम नहीं हो जाती। अपने स्वभाव से ही, रूढि की तुलना में रूढि-विरोध को अधिक जिम्मेदार होना चाहिए। रूढि-विरोध का जन्म सिद्धान्तों के प्रति अधिक गहरे लगाव से होता है अतः कुजात गांधीवाद को रूढ़ गांधीवाद की अपेक्षा युद्ध और अहिंसा के सवालों की ओर अधिक ध्यान देना चाहिए था। एक तरह से उसने ऐसा किया भी है। शुरू से ही उनके सामने एक सवाल रहा है कि वह राष्टं के अन्दर रोजमर्रा के वर्तमान अन्यायों के विरूद्ध संघर्ष पर ध्यान व्sन्द्रित करे या कि युद्ध और हथियारों के अन्तर्राष्टींय अन्याय से लड़ने को अपना पहला काम माने। कुजात गांधीवाद लगभग पूरी तरह केवल समाजवादी दल के अन्दर रहा है। अगर उसे अन्य पूरक और अधिक प्रतिष्ठा और मान्यता हासिल नहीं कर सकता था। दुनिया उसकी बात नहीं सुनती क्योंकि उसके पास न पैसा होता, न शक्ति, न प्रभाव। अगर वह झूठी अन्तर्राष्टींय समस्याओं की हवाई चुनौतियों को पहली जगह देता तो देश उसकी बात न सुनता। शक्ति और पैसे वालों की जो बातें लोग सुन लेते हैं, वही बात अगर गरागरी की हैसियत वाले करें तो लोग उनका तिरस्कार करेंगे। सरकारी गांधीवाद आसानी के साथ भारत-चीन युद्ध के बारे में कभी ललकारता रहा है, तो कभी आसूं बहाता रहा है। मठी गांधीवाद क्षण-क्षण में बात बदलता है, एक तरफा निःशत्रीकरण, मध्यस्थता, प्रतिरक्षा की तैयारी, पंच फैसला, पीकिंग की पदयात्रा, द्विपक्षी बातचीत, आण्विक परीक्षणों पर पाबंदी, कुछ ऐसे ही जैसे कोई बन्दर एक डाल से दूसरी डाल पर उछलता फिरे। दोनों में से किसी एक के भी साथ जाने पर कुजाल गांधीवाद हास्यास्पद हो जाता है। राष्टं के अन्दर वर्तमान अन्यायों से लड़ने के अलावा कोई औश्र रास्ता नहीं था। केवल इसी तरीके से कुजाल गांधीवाद आवश्यक शक्ति और जनता का समर्थन हासिल कर सकता था। अगर इसने सफलतापूर्वक ऐसा किया होता तो यह युद्ध और अहिंसा के मामले में भी सचमुच कारगर ढंग से कार्रवाई कर सकता था। अभी तक वह लोगों के मन में अपने को गाधीवाद के एकमात्र या सबसे महत्वपूर्ण प्रवक्ता के रूप में प्रतिष्ठित नहीं कर पाया है। अतः उसे फिलहाल अपनी स्थिति स्पष्ट करने पर ही सन्तोष करना पड़ेगा। अगर वह इसके आगे जाता है तो बिना काफी ताकत के ही अहिंसा के पक्ष में कार्रवाई करने का खतरा होगा, जिससे केवल शत्रु को ही मदद मिल सकती है। यह सवाल पूछा जा सकता है कि जब तब आन्तरिक अहिंसा में काफी ताकत नहीं आ जाती तब तक अन्तर्राष्टींय मामलों में अहिंसा के पक्ष में कार्रवाई को क्या स्थगित किया जा सकता है ? इसमें खतरे कम नहीं है। हिन्दुस्तान, आज उद्योग-धन्धों और पलटन की दृष्टि से कमजोर है। अन्तर्राष्टींय अहिंसा के बीज को भी यहां उपजा। भूमि मिल सकती है। तब उद्योग-धन्धे और पलटन में बढ़ोतरी हो जायेगी, तो फिर लोगों को अहिंसात्मक प्रतिरक्षा के लिए राजी करना और अधिक मुश्किल होगा। यह जोखिम तो है, लेकिन कोई और रास्ता नहीं है। अहिंसा के दो गुण हैं, निहत्थापन और प्रतिरोध। इनमें से किसी एक को छोटा करना बड़ी भारी गलती होगी। अगर प्रतिरोध के गुण में कमी आयी तो केवल निहत्थापन कायरता और अन्याय के आगे सिर झुकाना बन जायेगा। अन्याय के आगे इस तरह सर झुकाना आगे चलकर हथियारों और युद्ध को बढावा देगा। इसलिए सिर्फ एक ही रास्ता है कि आन्तरिक अन्याय के विरुद्ध अहिंसात्मक प्रतिकार के गुण का विकास किया जाए और यह उम्मीद की जाए कि आगे चलकर इसका कार्यक्षेत्र फैलकर अन्तर्राष्टींय मामलों को भी समेटेगा। तार्किक दृष्टि से अन्दरूनी और अन्तर्राष्टींय अहिंसा में कोई फर्क नहीं है। दोनों के बारे में एक साथ ही सोचना और बात करना चाहिए। लेकिन दोनों में मतभेद अनिवार्य हैं। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि रंगीन चमडी वाले और पिछडे लोगों की युद्ध और हथियारों के मामले में केवल एक छोटी भूमिका है। मोटे तौर पर यह बात सच है। यह बात खास तौर पर हिंसा की स्थिति का मुकाबला करने के बारे में सच है। एक बार युद्ध शुरू हो जाने पर या सीमाओं के लिए खतरा पैदा हो जाने पर, रंगीन चमडी वालों के सामने पूरी शक्ति से मुकाबला करने के सिवाय और कोई रास्ता नहीं रह जाता। अगर उसने काफी पहले से अहिंसा की तैयारी कर रखी हो, और अहिंसात्मक पंतिरक्षा के हक में अपनी पलटन को बर्खास्त कर दिया हो, तो स्थिति दूसरी होगी। पलटन को इस तरह बर्खास्त करना रूढ गांधीवाद के वश की बात नहीं, न सरकारी गांधीवाद के, न मठी के। इसलिए कि उनका सारा अस्तित्व कर्म में बोली का खण्डन करने पर आधारित है। कुजात गांधीवाद उस वक्त पर पलटन को बर्खास्त करने की बात नहीं कह सकता, जब तक कि वह काफी हद तक लोगों में सिविल नाफरमानी के गुण का विकास न कर ले। सिविल नाफरमानी का यह गुण हथियारों को खतम करने और एक विीव-व्यवस्था कायम करने में बडी भूमिका अदा कर सकता है बशर्ते कि दुनिया को इसके लिये काफी वक्त मिले। रूसी और अमरीकी अगर टकरायें नहीं, और अपने हथियारों का विरोध करना शुरू कर दें, तो विीव पंचायत की स्थापना के विचार को फैलाने के लिए उपयुक्त वातावरण बन सकता है। रंगीन चमडी वाले राष्टं, खास तौर पर ऐसे राष्ट्र जो सिविल नाफरमानी के गुण का विकास कर रहे हैं, इस विचार को फैलाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकते हैं। हथियार खतम होने से जो शून्य पैदा होगा उसे तुलनात्मक न्याय और सिविल नाफरमानी के गुण से ही भरा जा सकता है। अगर कभी विीव पंचायत स्थापना के लिए सारी दुनिया में सिविल नाफरमानी हो, तो निरोधक अहिंसा द्वारा युद्ध और हथियारों की समस्या का यह ठोस उनर होगा। आज जो कोशिश की जा रही है और यह भी केवल यूरोप, अमरीका के लोगों के कुछ हिस्सों के द्वारा, यह आण्विक परीक्षण जैसी समस्या के हिंसात्मक निदान का नकारात्मक उनर है। अहिंसात्मक निदान के ये सकारात्मक उनर अगर बढकर निरोधक अहिंसा के ठोस उनर बन जाए, तो फिर विीव व्यवस्था की स्थापना में रंगीन चमडी वाले लोगों की भूमिका गोरों के समाने ही महत्वपूर्ण हो सकती है। अन्याय और अत्याचार से लडने का सर्वोच्च महत्व भारतगचीन युद्ध से पंकट हो जाता है। आज हिन्दुस्तान में दो पंभावी दर्शन चल रहे हैं, भ्रष्ट और नकली वामपक्ष, और दूसरी तरफ आत्मसम्मान रहित निकम्मा दक्षिण पक्ष। दोनों में बुनियादी तौर पर मेल है, यद्यपि अपनी हैसियत बढाने के लिए दोनों अक्सर पैंतरेबाजी और छेडखानी करते हैं। ये दोनों दर्शन अलग-अलग या मिलकर भी साम्यवादी चुनौतियों का मुकाबला नहीं कर सकते। रंगीन चमडी वाले लगभग सभी देशों में यही स्थिति है। यूरोप में साम्यवाद का मुकाबला अपने जैसे ही बल्कि कुछ मामलों में अधिकतर ताकतवर दक्षिण पक्ष से और लोकतांत्रिक व्यवस्था के एक साथ ऐसे पूंजीवाद से था जिसमें अन्दरूनी ताकत मौजूद थी। इसलिए वहां उसे कुछ संयम बरतना पडा। एशिया में साम्यवाद का मुकाबला निकम्मे दक्षिण पक्ष और भ्रष्ट वामपक्ष से है अतः उसे पूरी शैतानियत का लालच होता है। इसका एकमात्र उनर ऐसा वामपक्ष है जो नीचे से उभरे, और अन्दरूनी अन्याय के विरुद्ध अहिंसात्मक संघर्ष के रूप में सामाजिक वन्ति को एक ऐसी राष्टींय वंति के साथ जोडे जो कम-से-कम फिलहाल अपनी क्षेत्रीय अखंडता पर हमला होने की सूरत में अपनी और अपने मित्रों की पूरी पलटनी ताकत के साथ उस हमले का जवाब देने को तैयार हो। सोवियत रूस शायद बिना समझे हुए ।परी वामपक्ष को बढावा देता रहा है, अमरीका बारी-बारी से एक साथ निकम्मे दक्षिण पक्ष और भ्रष्ट वामपक्ष दोनों को बढावा देता रहता है, वह भी शायद बिना समझे हुए। इसलिए चीन जैसे देशों को मौका मिल जाता है कि वे नीचे उभरने वाले नकली वामपक्ष के समर्थक बन जायें, जिसमें प्रकट राष्टींय स्फूर्ति के साथ अन्तर्राष्टींय अत्याचार का विनाशकारी मेल है। नीचे से उभरने वाला असली वामपक्ष, जो सात कांन्तियों और (लोक-नियोजन की) एक भलाई के लिये लोगों को उभारने से न डरे, और जो अपने चारों ओर के अन्तर्राष्टींय खतरों के पंति समान रूप से जागरूक होने के साथ-साथ जहां से भी मिले मदद लेने को तैयार हो, यही हमारे युग का विश्वास है। |