काका कालेलकर
32. साबरमती से यरवडा |
गाँधीजी नहीं चाहते थे कि मुझे साबरमती से हटकर, उनके पास यरवडा लाया जाए । मुझसे पूछा जाता तो मैं भी कदाचित् नहीं चाहता परन्तु कारण अवश्य ही दूसरा होता । आश्रम में प्रारम्भ से साथ रहने के बावजूद गाँधीजी की निजी सेवा करनेवाले छोटे-से वर्तुल में मैं कभी नहीं रहा । गाँधीजी की जरूरतों के बारे में मैं अधिक नहीं जानता और अपनी जिंन्दगी में कोई भी काम मैंने व्यवस्थित तरीके से नहीं किया था, इसलिए मुझमें ऐसा विश्वास ही नहीं था कि मैं संतोषजनक रुप से उनकी सेवा कर पाऊँगा । गाँधीजी के साथ, जेल में अकेले-अकेले रहना, मेरी दृष्टि में जिंन्दगी का एक अलभ्य लाभ होने पर भी मैं इस ख्याल से इन्कार कर देता कि मैं बापू को संतोष नहीं दे सकूँगा उल्टे उन्हें परेशान ही करूँगा । बापू का विचार यह था कि काका को साबरमती रास आ गई है । अनेक राजनैतिक कैदियों को पढा़ते हैं । इतना ही नहीं, अनेक विद्वानों की मदद से जेल में मानो एक व्यवस्थित महाविद्यालय चला रहे हैं । इस सेवा से उन्हें हटा लेना उचित नहीं होगा । जेल के इंस्पेक्टर जनरल कर्नल डाईल मुझसे परिचित थे । 1923 में, जब मैं पहली बार साबरमती जेल में था तब, सेना के महकमें से जेल महकमे में वे सुपरिंटेंडेंट बन कर नये-नये आये थे । उस समय पाँच-सात महीने के परिचय में हमारे बीच किंचित सदभाव भी जागृत हो गया था । इसलिए उन्होंने गाँधीजी की अनिच्छा के बावजूद मुझे चुना और यरवडा भिजवाने की व्यवस्था की । मुझे युरोपियन वार्ड में, जहाँ बापू रहते थे, लाया गया । बापू को देखते ही मैं प्रसन्नता से पागल हो गया । भावभिभूत होकर बिखरने की स्थिति में पहुँचता कि स्वयं को संभाल कर मैं उनके चरणों में झुक गया । |