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काका कालेलकर

 

24. ‘कडी़ सजा’

एक बार मैं मुश्किल में पड़ गया । बापू की खुराक हो या अन्य कुछ हो, सब हिसाब के अनुसार चलता । बाजार से एक सेर किशमिश आयी । बापू बोले, ‘यह आठ दिन चलनी चाहिए । किशमिश गिन लो और उस संख्या के आठ समान भाग करने से रोज कितना लेना है मालूम हो जायेगा ।’ मुझे जैसा ख्याल है कि रोज बीस किशमिश देनी थी । मुझे लगा कि यह खुराक कम पडे़गी, परन्तु इस बारे में बापू से चर्चा करके कोई लाभ नहीं होगा यह भी मैं जानता था । इसलिए मैं प्रतिदिन चुन-चुन कर बडी़-बडी़ बीस किशमिश देने लगा । कुछ दिनों में बडी़ किशमिश समाप्त हो गईं । अब अधिक देने के लिए अनुमति लेनी पडी़ । मैंने कहा, ‘बडी़ – बडी़ खत्म हो गईं अब छोटी-छोटी रही हैं, जिनसे पूरा पोषण नहीं मिल सकेगा । अतः अधिक देने दीजिए ।’ वे नाराज होंगे, कुछ डाँटेंगे – इसकी अपेक्षा और तैयारी तो थी परन्तु मामला अपेक्षा से अधिक महँगा पडा़ ।

‘ऐसा क्यों किया ?’ कहकर उलाहना दिया और बोले, ‘अब मुझे अपना यह काम तुमसे वापस ले लेना होगा ।’

जेल कोई आश्रम तो था नहीं कि एक के स्थान पर दूसरे आदमी से दौड़कर काम ले सकें । मैं न करूँ तो बापू स्वयं ही सब कुछ करेंगे और मैं बैठा देखता रहूँगा । मैं दुर्बल मन का नहीं हूँ लेकिन उस समय मुझसे रहा न गया और मैं रो पडा़ । बापू जरा नरम पडे़ और उनका काम मेरे ही हाथ में रहा । बाकी के दिनों में वही छोटी-छोटी परन्तु बीस ही किशमिश तैयार करके उन्हें देनी पडी़ ।