'रौलेट एक्ट' विरोध और दांडी यात्रा |
यह 'रौलेट एक्ट' ही था, जिसके कारण गांधीजी ने भारतीय राजनीति में कदम रख। वर्ष 1919 से लेकर 1948 तक भारतीय राजनीति के केंद्र में महात्मा गांधी ही छाये रहे। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के वक नायक बने रहे। राजनीति में सक्रिय होते ही गांधीजी ने भारतीय राजनीति का रूप-रंग ही बदल डाला। उनके संघर्ष के कारण लोगों ने उन्हें देवता तक मान लिया। यूँ तो रौलेट बिल कोई सामान्य नहीं था। इसे लेकर पूरे भारत में खलबली मची थी। गांधीजी भी यह तय करने में जुटे थे कि इस बिल के विरोध का रूप कैसा हो ? उनकी चिंता का विषय हिंसा था। वे नहीं चाहते थे कि अपार उत्साह में विरोध करने में जुटा जनमानस हिंसा पर उतारू हो। अंत में गांधीजी के मन में यह विचार आया कि क्यों न विरोध दर्ज कराने के लिए सभी क्षेत्रों में शांतिपूर्ण हड़ताल की जाये। गांधीजी के आवाहन पर देशव्यापी हड़ताल शुरू हुई। हिंदु-मुस्लिम के उत्साह ने सभी को आश्चर्य में डाल दिया। गांधीजी तक को भी इस बात का अंदाजा नहीं था कि लोगों का इतना जबरदस्त समर्थन मिलेगा। अंग्रेज सरकार के भी कान खड़े हो गये। ऐसा लगा कि जैसे कोई भूकंप ब्रिटिश साम्राज्य को हिला रहा हो। दिल्ली से लेकर अमृतसर तक गांधीजी का जादू छा गया था। गांधीजी पंजाब जाना चाहते थे, लेकिन उन्हें रास्ते में ही गिरफ्तार कर बंबई वापस लाया गया। गांधीजी की गिरफ्तारी की खबर जंगल में लगी आग की तरह फैल गयी। लोगों की भीड़ विभिन्न शहरों में जुटने लगीं, कुछ छिटपुट हिंसक घटनायें भी हुई। जब गांधीजी अहमदाबाद लौटे तो उन्हें सूचना मिली कि क्रोधित भीड़ ने एक पुलिस अधिकारी की हत्या कर दी। गांधीजी ने कहा, 'यदि मेरे सीने में खंजर घोंप दिया जाता तो भी मुझे इतनी पीड़ा नहीं होती, जितनी कि हिंसा की इस घटना से हुई है।' इस घटना से वे बेचैन हो उठे। गांधीजी ने सत्याग्रह वापस ले लिया और इस पाप का प्रायश्चित करने के लिए तीन दिनों का उपवास रखा। जिस दिन 13 अप्रैल 1919 को गांधीजी ने तीन दिन के उपवास की घोषणा की, उसी दिन पंजाब के अमृतसर जिले के जालियाँवाला बाग में भीषण घटना घटी। ब्रिटिश जनरल डायर ने अपनी फौज के साथ जालियाँवाला बाग में धावा बोल दिया। शांत, निरपराध जनता पर बेरहमी से कई चक्र गोलियाँ दागी गयीं। बाद में सरकार ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि इस घटना में कुल 400 लोग मारे गये और 1,000 से 2,000 लोग मारे गये और 3,600 लोग गंभीर रूप से जख्मी हुए। इसके खिलाफ पूरा देश इकट्ठा हुआ। हालात की गंभीरता को देखते हुए पंजाब में 'मार्शल लॉ' लागू हुआ। यह कार्रवाई इतनी अमानवीय थी कि स्वयं सर वैलेंटाइन ने कहा कि, ृयह दिन एक एकसा 'काला दिन' था, जिसे ब्रिटिश सरकार चाहकर भी नहीं भूल पायेगी।ृ अब गांधीजी के लिए चुप बैठना असंभव था। गांधीजी ने अब एक नये मार्ग को खोजा जो ब्रिटिश सरकार को हिला कर रख दे। हिंदु-मुस्लिम को एक मंच पर लाकर उन्होंने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ 'असहयोग आंदोलन' शुरू करने का मंत्र दिया। किसी जादूगर की तरह उन्होंने अपना आंदोलन शुरू किया। देश के कोने-कोने तक उनका आंदोलन रंग ला रहा था। सबसे पहले इस आंदोलन की शुरूआत खुद गांधीजी ने की। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान की गई उनकी सेवा के लिए जो मेडल उन्हें मिला था, उसे उन्होंने वाईसराय को लौटा दिया। कई भारतीय विद्वानों ने अपनी पदवी लौटा दीं। कुछेक ने सरकार द्वारा दिये सम्मान को लौटाया। वकीलों ने वकालत, छात्रों ने स्कूल और कॉलेज छोड़ दिये। हजारों की संख्या में लोंगो ने गाँव-गाँव जाकर इस आंदोलन की मशाल को जलाया। सब कुछ अहिंसा का पालन करते हुए हो रहा था। विदेशी कपड़ों की होली देश के कोने-कोने में जलने लगी। लोग चरखा कातने लगे। चूल्हा-चौकों तक सिमटी भारतीय महिलाएँ भी रास्ते पर आकर प्रदर्शन करने लगीं। गांधीजी के भाषण, लेख लोगों को और भी आंदोलित कर रहे थे। 'यंग इंडिया' और 'नवजीवन' साप्ताहिक में छपे उनके लेचा लो काफी रस लेकर पढ़ते थे। हजारों लोगों को उठाकर जेल में बंद किया गया। कई नागरीकों पर अदालत में मुकदमे चले। फरवरी 1922 में इस आंदोलन में उस समय ठहराव आ गया, जब उग्र भीड़ ने चौरी-चौरा में हिंसा की। इस हिंसा के समाचार सं गांधीजी काफी निराश हुए। उन्होंने आंदोलन कां स्थगित कर दिया। साथ ही जनता की इस हिंसात्मक कार्रवाई को अपराध मानते हुए उन्होंने पाँच दिन का उपवास शुरू किया। इस दौरान वे ईश्वर से प्रार्थना करके लोगों के इस कार्य के प्रति क्षमा भी माँगते रहे। आंदोलन स्थगित हुआ देख सरकार के हाथ सुनहरा मौका लगा, उसने गांधीजी को गिरफ्तार कर लिया। अदालत में जज़ ने उन्हें 6 वर्ष की सजा सुनाई। साथ ही सह भी जोड़ा कि यदि इस दौरान आंदोलन थम गया तो गांधीजी की सजा और कम कर दी जायेगी। जज़ ने कहा, ृयदि ऐसा हुआ तो मुझे काफी प्रसन्नता होगी।ृ गांधीजी के लिए यह सजा, सजा न होकर एक वरदान साबित हुई। वे अपना सारा समय प्रार्थना करने, अध्ययन करने और सूत कातने में बिताते थे। लेकिन जनवरी 1924 में वे 'एक्यूट एपेंडिसायटिस' के शिकार होकर गंभीर रूप से बीमार पड़ गये। उन्हें पूना के एक अस्पताल में ले जाया गया। जहाँ एक ब्रिटिश सर्जन ने उनका सफल ऑपरेशन किया। इसके बाद सरकार ने उन्हें रिहा कर दिया। इसके बाद की स्थिति ने गांधीजी को और भी विचलित कर दिया। सांप्रदायिक दंगों में झुलसते देश को देख उनका हृदय कराहने लगा। स्थिति को देखते हुए गांधीजी ने 21 दिन उपवास का निश्चय किया। ृव्रत और प्रार्थना इसलिए ताकि मेरे देश के लोगों के दिल आपस में मिल सकें। वे एक-दूसरे के धर्म और उनकी भावनाओं को समझ सकें।ृ अगले पाँच वर्षों तक गांधीजी ने भारतीय राजनीति में कुछ विशेष योगदान नहीं दिया। अब उनका लक्ष्य भारतीय समाज में परिव्याप्त विषमताओं को दूर करना था। लोगों की प्राथमिक आवश्यकताओं, हिंदु-मुस्लिम एकता, अस्पृश्यता (छूआछूत) महिलाओं की समानता, जनसंख्या समस्या आदि की ओर उन्होंने ध्यान दिया। भारतीय गाँवों के पुनर्निर्माण का स्वप्न वे देखने लगे। ूमैं चाहता हूँ कि अंग्रेजी गुलामी के साथ-साथ देश के नागरिक सामाजिक और आर्थिक गुलामी से भी मुक्ति पायें।ृ यह भी एक सच्चाई है कि जेल सं आजाद होने के बाद गांधीजी ने देखा कि कांग्रेस बँट चुकी है। वर्ष 1929 तक कई नेता अपने-अपने स्तर पर, अलग-अलग मंच बनाकर आजादी की लड़ाई लड़ने लगे। यह बिखराव गांधीजी के मन को नहीं जँचा। एक बार फिर गांधीजी उठ खड़े हुए। राष्ट्र के नेतृत्व की कमान उन्होंने सँभाल ली। 26 जनवरी 1930 को उनके नेतृत्व में देश को आजाद कराने की शपथ देश के कोने-कोने में ली गई। यह ब्रिटिश सरकार को एक कड़ी चेतावनी थी। गांधीजी का 'पूर्ण स्वराज' का नारा देश के कोने-कोने में गूँज रहा था। अब सारे देश की नजरें साबरमती की ओर थीं। 12 मार्च 1930 को गांधीजी ने वाइसराय को सूचित किया कि वे अपने 78 अनुयाइयों के साथ दांडी यात्रा करने जा रहे हैं। आश्रम के कई सदस्य, पुरुष और महिलायें 24 दिन की ऐतिहासिक यात्रा पर रवाना हुए। गरीब किसान ब्रिटिश कानून के कारण अपनी नमक की खेती नहीं कर पर रहे थे। वैसे देखने में तो यह सामान्य मुद्दा था, लेकिन एक 'बूढ़े' द्वारा 241 मील तक की इस पैदल यात्रा ने ब्रिटिश सरकार की नींद हराम कर दी। 6 अप्रैल 1930 की सुबह गांधीजी ने सबसे पहले प्रार्थना की। इसके बाद वे नमक के खेत के पास गये और मुठ्ठी भर नमक उठाकर 'नमक कानून' को भंग कर दिया। इसके बाद राष्ट्रीय स्तर पर देश के कोने-कोने में गांधीजी का अनुकरण करते हुए इस कानून को लोगों ने तोड़ा। पुरुष-महिलाएँ, गाँवों के किसानों ने हजारों ने हजारों की संख्या में जुलूस निकाले। लोगों ने गिरफ्तारीयाँ दीं। पुलिस ने लाठी चार्ज किया, कई स्थलों पर पुलिस ने गोलियाँ भी चलाईं। 4 मई की रात गांधीजी को भी गिरफ्तार कर लिया गया। कुछ ही हफ्तों में हजारों लोग जेल में ढकेल दिये गये। नवंबर 1930 में प्रथम गोलमेज परिषद आयोजित हुई। सरकार ने देश में फैले इस आंदोलन की समीक्षा की। इस सम्मेलन की समाप्ति वाले सत्र में 19 जनवरी 1931 के दिन रामसे मैकडोनाल्ड ने यह आशा व्यक्त की कि दूसरे गोलमेज परिषद में कांग्रेस भी शामिल होगी। गांधीजी और अन्य कांग्रेसी नेताओं को बिना किसी शर्त के 26 जनवरी को रिहा कर दिया गया। ठीक उसके एक वर्ष बाद जब स्वतंत्रता प्राप्ति की प्रतिज्ञा की गई थी। जल्द ही 14 फरवरी को गांधीजी और इरविन के बीच में शुरू हुई। कई असहमतियों के बाद भी बातचीत जारी रही। साढ़े तीन घंटे की पहली वार्ता 17 फरवरी को हुई और इसके बाद कई दिनों तक चली। 5 मार्च 1931 को गांधी-इरविन समझौता हो गया। गांधीजी ने कहा - 'यह समझौता सशर्त है।' इस समझौते से भारत में शांति व्यवस्था कायम होनी थी। सविनय अवज्ञा आंदोलन वापस ले लिया गया था। सभी राजनैतिक बंदियों को रिहा कर दिया गया था। इसके साथ ही समुद्र तटों के आसपास नमक की बिक्री खुली कर दी गई। राजनैतिक दृष्टि से सबसे बड़ा ऐतिहासिक लाभ यह हुआ कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, लंदन में होने वाली गोलमेज सम्मेलन के दूसरे दौर में भाग लेने को सहमत हो गई। |