इंग्लैंड में युवा गांधी की शिक्षा |
मैट्रिक करने के बाद गांधीजी ने भावनगर के समलदास कालेज में प्रवेश लिया। यहाँ का वातावरण उन्हें रास नहीं आया, उन्हें पढ़ाई करने में काफी कठिनाइयाँ आ रही थी। इसी बीच सन् 1885 में उनके पिताजी की मृत्यु हो गई। उनके परिवार के विश्वसनीय मित्र भावजी दवे चाहते थे कि मोहनदास अपने दादा व पिता की तरह मंत्री बनें। इस पद के लिए कानून की जानकारी सबस महत्वपूर्ण थी। इसलिए उन्होंने सलाह दी कि मोहनदास इंग्लैंड जाकर बैरिस्टरी की पढ़ाई करें। मोहनदास इसे सुनते ही खूब प्रसन्न हुए। उनकी माँ उन्हें विदेश भेजने के खिलाफ थीं। किंतु काफी मान-मनौवल के बाद जब वे राजी हुईं तब उन्होंने मोहनदास से यह संकल्प कराया कि वे शराब, त्री और मांस को भूलकर भी नहीं छुएँगे। गांधीजी अपनी इंग्लैंड यात्रा के लिए बंबई के समुद्री तट पर पहुँचे। यहाँ भी उनके विदेश जान के खिलाफ जाति-बिरादरी के लोगों ने आपत्ति दर्ज की। यहाँ तक कि उन्हें बिरादरी से बाहर करने की धमकियाँ मिलीं। पर गांधीजी ने इंग्लैंड जाने का दृढ़ निश्चय कर लिया था। 4 सितंबर 1888 को वे इंग्लैंड जाने के लिए रवाना हुए। इसके कुछ महिने बाद उनकी पत्नी कस्तूरबा ने एक सुंदर से लड़के को जन्मे दिया। आरंभ के कुछ दिन गांधीजी के लिए काफी दुखदायी थे। उनका वहाँ मन नहीं लगता था। "मैं हमेशा अपने घर और देश के बारे में सोचा करता था। सब कुछ असहज लगता था। अकेलापन पूरी तरह हावी हो चुका था। मांस न खाने की प्रतिज्ञा ने मेरी कठिनाइयों को और भी बढ़ा दिया था। संशय और आशंकाएँ अकेलेपन की भावना का उभार रही थीं। मुझे मेरा भविष्य अंधकारमय लगने लगा। अकेलेपन के अतिशय दुख से घबराकर जब मैं सोचता कि लम्बे-लम्बे तीन साल यहाँ काटने होंगे तो मेरी आँखों की नींद उड़ जाती और मैं फूट-फूटकर रोने लगता।" कुछ दिनों के पश्चात एम के गांधी ने पूरी तरह से 'जेंटलमैन` बनने का निश्चय किया। ल्रदन के सबसे फैशनेबल और महंगे दर्जियों से सूट सिलाये गये। घड़ी में लगाने के लिए भारत से सोने की दुलड़ी चैन भी उन्होंने मंगवा ली। नाच-गाने की शिक्षा लेने लगे। सिल्की (रेशमी) टोपी भी उन्होंने खरीदी। लेकिन आत्मनिरीक्षण की उनकी आदत ने उनके मन को झकझोर कर रख दिया। यह तामझाम उन्हें बेमानी लगने लगा। तीन महीने फैशन की चकचौंध में भटकने के बाद उन्होंने फिजूलखर्ची छोड़कर मितव्ययिता का मार्ग चुना। उन्होंने निश्चय किया कि वे अपने जीवन में तड़क-भड़क को स्थान न देकर अपने चारित्रिक गुणों का विकास करेंगे। उनके मत में "उच्च चरित्र ही व्यक्ति को 'जेंटलमैन` बना सकता है।" दूसरे वर्ष उनके एक थियोसिफिकल मित्र ने उन्हें एडविन अर्नोल्ड के छंद बद्ध गीता अनुवाद वाली पुस्तक 'दि सांग सेलेस्टियल` की जानकारी दी। यह पहला अवसर था जब उन्होंने गीता का अध्ययन किया। पहली बार में ही गीता से उनके युवा मन को बल मिला और धीरे-धीरे गीता उनके जीवन की सूत्रधार बन गई। "इसके अध्ययन ने मेरे जीवन की दिशा बदल दी।" इसके कुछ ही दिनों बाद उनके एक ईसाई मित्र ने उनका परिचय 'बाइबल` से करवाया। उन्होंने बाइबल का अध्ययन किया। यहीं पर उन्होंने बुद्ध की जीवनी से उन्हें काफी प्रेरणा मिली। इन सभी पुस्तकों से उनका युवा मन आंदोलित हुआ। उनके चिंतन में इनका प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है। परीक्षा पास करने के बाद तीन वर्षों के पश्चात गांधीजी 1891 में पुनः भारत लौटे। तीन वर्ष तक उन्होंने माँ को दिये वचन का पालन किया। किसी युवक द्वारा अपनी प्रतिज्ञा का विदेशी सरजमीं पर पालन करना निश्चित ही इसकी महानता को दर्शाता है। वे बैरिस्टर बनकर स्वदेश लौटे। |