गांधीवादः सम्पत्ति और सिविल नाफरमानी |
डॉ. राममनोहर लोहिया गांधीवाद कुछ अधिक ना काफी साबित हुआ है। ऐसा कहा जाता है कि देश में आज जो कुछ चल रहा है वह गांधीवाद नहीं है, बल्कि गांधीवाद और मार्क्सवाद का एक घटिया सम्मिश्रण है। यह बात सार रूप में सही है, लेकिन इससे गांधीवाद की कमजोरी साबित होती है कि मार्क्सवाद उसे सम्मिश्रण के लिए मजबूर कर देता है, और यह भी कि उसका सर्वश्रेष्ठ अंश ऊपर नहीं आ पाता। गांधीवाद आज अपनी दो शाखाओं में प्रकट हो रहा है, सरकारी और मठी। जिसे गांधीवाद माना जाता है, उसमें ये दोनों सरकारी और मठी रूप ही शामिल हैं। कुजात गांधीवाद के बारे में आगे कहूंगा। अपने मान्य रूप में गांधीवाद, जीत हासिल करने के बाद बेजान साबित हुआ है। उसमें कोई तेजी नहीं रह गई है, जिससे शक पैदा होता है कि शायद उसमें कभी तेजी थी ही नहीं। मठी गांधीवाद पूरी तरह सरकारी सहारे पर जिंदा है। सरकारी गांधीवाद एक सीमित सरकारी क्षेत्र वाले नियोजन की हवाई चीज के पीछे भागने के अलावा कुछ नहीं करता। दोनों ही आत्मतुष्ट और खुश हैं, जिसमें नीचे से ऊपर बढती हुई विलासिता का भी अभाव नहीं है। विपक्ष के रूप में गांधीवाद अपने ढंग से क्रांतिकारी था। सरकारी गांधीवाद बिलकुल रूढिवादी, प्रतिष्ठित और बेजान रूप में दकियानूसी है। मार्क्सवाद, अपनी सीमाओं के अन्दर विपक्ष और सरकार दोनों ही रूपों में क्रान्तिकारी होता है। उसके क्रांतिकारी चरित्र में सरकारी होने या न होने से कोई बाधा या फर्क नहीं पडता। समय-समय पर उसकी गतिशीलता में जो बाधा आती है, वह मुख्य रूप से तात्कालिक विदेश नीति के कारण, और दूसरे नम्बर पर सैद्धान्तिक प्रश्नों की विकृत समझ से पैदा होती है। उसके सत्तारूढ होने का उसके उत्साह में कमी आने से कोई खास संबंध नहीं होता, उत्साह में कमी दूसरे कारणों से आती है। वास्तव में मार्क्सवाद जब सत्ता के लिए संघर्ष करता है, उसकी तुलना में सत्ता हासिल करने के बाद अधिक क्रांतिकारी होता है। सत्ता हासिल करने के बाद उसके लिए जरूरी होता है कि वह संपत्ति, धर्म और अन्य सम्बन्धों की पुरानी व्यवस्था को बदले। गांधीवाद के साथ ऐसा नहीं है। सरकार में आने के बाद गांधीवाद का आचरण ऐसा रहा है, जैसे उसे कुछ करना ही नहीं, उसके अपने कोई कार्य ही नहीं हैं। सरकारी गांधीवाद ने अपने रोजमर्रा के काम की सूची गैर-गांधीवादी किताबों से बनाई है, जिसका आधार है कि परिवर्तन जितना कम हो उतना अच्छा और जिसका उद्देश्य यह नहीं है कि वह अन्य सिद्धान्तों से भिन्न रीति से शासन चला सकता है, बल्कि यह कि वह अन्य सिद्धान्तों जितना ही अच्छा शासन चला सकता है। सरकारी गांधीवाद बिल्कुल परिवर्तन नहीं करता, वह हर चीज को पहले जैसी रहने देता है। सरकार बनने के बाद गांधीवाद के इस पलायन को दो दृष्टियों से देखना होगा-गांधीवाद जब विपक्ष में था, तो उसके अन्दर क्या था, और क्या नहीं था। उसमें चरखा था और राकेट नहीं था। यह वाक्य केवल मुहावरेबाजी नहीं है। वह गांधीवाद का कुछ अतिसरलीकरण तो है, लेकिन ये वाक्य गांधीवाद के सार को ठोस रूप देकर प्रस्तुत करता है। इस सार के ऊपर पडे आवरण को हटा दें, तो यह ऐसा अनाकर्ष कभी नहीं है। लेकिन दुर्भाग्यवश, गांधीजी में असली टिकाऊ बातें वक्ती बातों के साथ जिस तरह जुडी हुई हैं, जीवन की अनश्वरता के प्रति आश्वस्त आदमी ही उसका जोखिम उठा सकता था। वे शायद सोचते थे कि उनके प्रिय शिष्य उनके सिद्धान्त की टिकाऊ बातों को जीवित रखेंगे, और जरूरत के मुताबिक बदलने वाली वक्ती बातों से उसे सजाते रहेंगे, किन्तु शिष्यों के मामले में कोई पैगम्बर गांधीजी जैसा अभाग्यशाली नहीं रहा। बहरहाल इसके बारे में आगे फिर कहूंगा। चरखा वक्ती चीज है। इसी तरह प्राकृतिक चिकित्सा अंश-महत्व की चीज है यद्यपि सर्वथा वक्ती नहीं। गांधीजी का ठोस प्रतीक तात्कालिक कार्य के लिए बहुत जरूरी है, लेकिन सक्रियता को जारी रखने के लिए यह भी उतना ही जरूरी है कि ठोस प्रतीक में उसका अमूर्त सिद्धान्त निकाला जाये। ये सिद्धान्त हैं : आदमी के पास ऐसे औजार होने चाहिए जिस पर कई अर्थ़ों में उसका नियंत्रण हो। उसका तात्कालिक निवास क्षेत्र आत्मनिर्भर और प्रत्यक्ष लोकतंत्र द्वारा शासित हो। चरखे का सन्देश है नियत्रण योग्य मशीनें और गांव शासन। |