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अपरिग्रह

अपरिग्रह का दिव्य संदेश

सेवा की कुंजी

जब मैंने स्वयं को राजनीति की कुंडली में फंसा पाया तो मैंने अपने आपसे यह प्रश्न किया कि मुझे अनैतिकता, असत्य और तथाकथित राजनीतिक लाभ से पूर्णतया मुक्त रहने के लिए क्या करना चाहिए... शुरू में, यह एक कठिन संघर्ष था और मुझे अपनी पत्नी तथा मुझे खूब याद है कि अपने बच्चों तक के साथ भिडना पडा। लेकिन जो भी हुआ, मैं इस निश्चित निष्कर्ष पर पहुंच गया कि यदि मुझे उन लोगों की सेवा करनी है जिनके लिए मेरा जीवन समर्पित है और जिनके कष्टों का मैं दैनंदिन साक्षी हूं, तो मुझे अपने धन, अपनी सारी संपत्ति का त्याग कर देना चाहिए...

मैं सच्चाई के साथ यह नहीं कह सकता कि जब मेरी यह धारणा बनी तो मैंने तत्काल सभी चीजों का त्याग कर दिया। मुझे मानना होगा कि शुरू में प्रगति धीमी रही। और आज जब मैं संघर्ष के उन दिनों की याद करता हूं तो पाता हूं कि शुरू में मुझे इसमें कष्ट भी हुआ था। लेकिन ज्योंगज्यों दिन गुजरते गए, मैंने देखा कि मुझे और भी बहुतगसी ऐसी चीजों का त्याग कर देना चाहिए जिन्हें मैं अपनी समझता था। आखिरकार एक समय ऐसा आया जब उनका त्याग करके मुझे निश्चित रूप से बडी प्रसन्नता का अनुभव हुआ। और एक के बाद एक, मानो गुणोत्तर क्रम में, चीजें मेरे हाथ से फिसलती गइ।

और, आज जब मैं अपने अनुभवों का वर्णन कर रहा हूं, मैं कह सकता हूं कि मेरे कंधों से एक भारी बोझ उतर गया और मुझे लगने लगा कि मैं अब ज्यादा आसानी से घूम-फिर सकता हूं और अपने साथियों की सेवा ज्यादा आराम के साथ तथा और भी अधिक आनंद का अनुभव करते हुए कर सकता हूं। इसके बाद तो कोई चीज अपने कब्जे में रखना कष्टप्रद और भार लगने लगा।

उस आनंद के कारण की खोज करते हुए मैंने पाया कि अगर मैं कोई चीज अपनी मानकर अपने पास रखता हूं तो सारी दुनिया से उसकी रक्षा करनी पडती है। मैंने यह भी पाया कि दुनिया में ऐसे बहुत-से लोग हैं जिनके पास वह चीज नहीं है, हालांकि वे उसे चाहते हैं, और अगर भूखे तथा अकालग्रस्त लोगों को मैं अकेले में कहप मिल जाऊं तो वे न केवल मेरी चीज को मेरे साथ बांट लेना चाहेंगे बल्कि उसे मुझसे छीन लेना चाहेंगे और तब उसकी रक्षा के लिए मुझे पुलिस से संरक्षण मांगना होगा। तब मैंने स्वयं से कहा कि वे लोग अगर उस वस्तु को चाहते हैं और मुझसे छीन लेने पर उतारू हैं तो इसलिए नहीं कि उनके मन में मेरे प्रति कोई द्वेष है बल्कि इसलिए कि उनकी जरूरत मेरी जरूरत से बडी है।

स्पीरा, पृ. 166-67


अपनी सारी संपत्ति का त्याग कर देने पर दुनिया मेरे ऊपर हंस सकती है। पर मेरे लिए यह त्याग निश्चित रूप से लाभदायक सिद्ध हुआ है। मैं चाहूंगा कि लोग मेरे इस संतोष से प्रतियोगिता करें। यह मेरा सबसे कीमती खजाना है। इसलिए यह कहना शायद ठीक ही है कि यद्यपि मैं गरीबी का प्रचार करता हूं, पर मैं सबसे धनवान व्यक्ति हूं।

यंग, 30-4-1925, पृ. 149

स्वैच्छिक आत्मत्याग

हमारी सभ्यता, हमारी संस्कृति और हमारा स्वराज आवश्यकताओं को बढाने विषयासक्ति पर नहीं, अपितु आत्मत्याग पर निर्भर हैं।

यंग, 23-2-1921, पृ. 59


अपरिग्रह अस्तेय के साथ जुडा है। यदि हमारे पास कोई ऐसी वस्तु है जिसकी हमें आवश्यकता नहीं है तो भले ही वह मूलतः चुराई गई वस्तु न हो, पर चोरी की संपत्ति की श्रेणी में ही गिनी जाएगी। परिग्रह का अर्थ है भविष्य के लिए व्यवस्था करना। सत्यशोधक अर्थात प्रेम के नियम का अनुयायी, कल के लिए बचाकर कुछ नहीं रख सकता। ईश्वर कल के लिए किसी वस्तु का संग्रह नहीं करता। वह वर्तमान के लिए जितना जरूरी है, उससे तनिक भी अधिक की सृष्टि कभी नहीं करता। इसलिए यदि हमें ईश्वर के विधान में आस्था है तो हमें यह भरोसा रखना चाहिए कि वह हमारे प्रतिदिन के भोजन, अर्थात हमारी आवश्यकता की सभी वस्तुओं की व्यवस्था करेगा...दैवी नियम जो मनुष्य को उसका दैनिक भोजन और बस इतना ही प्रदान करता है-के अज्ञान और उसकी उपेक्षा के कारण ही आज दुनिया में इतनी असमानताएं और उससे उत्पन्न होने वाले कष्ट पैदा हुए हैं। धनवानों के पास फालतू चीजों का अंबार लगा है जिनकी उन्हें आवश्यकता नहीं है, अतः वे उपेक्षित रहती हैं और उनकी बर्बादी होती है जबकि लाखों-करोडों लोग भोजन के अभाव में भूखों मर जाते हैं।

यदि प्रत्येक व्यक्ति सिर्फ उतना रखे जितने की उसे जरूरत है तो कोई अभावग्रस्त नहीं रहेगा और सब संतोष का जीवन जिएंगे। आज जो स्थिति है, उसमें जितने असंतुष्ट निर्धन हैं, उतने ही असंतुष्ट धनवान भी हैं। निर्धन व्यक्ति लखपति बनने को उतावला है और लखपति करोडपति बनने को।

संतोष की भावना का सार्वभौम प्रसार करने की दृष्टि से धनवानों को संपत्ति का त्याग करने में पहल करनी चाहिए। यदि वे अपनी संपत्ति को संयत सीमाओं में ही रखें तो भूखों का पेट आसानी से भरा जा सकेगा और वे भी धनवानों के साथ-साथ संतोष का पाठ पढ सकेंगे।

अपरिग्रह के आदर्श की पूर्ण प्राप्ति के लिए तो यह जरूरी है कि चिडियों की तरह मनुष्य के सिर पर भी छत न हो, न उसके पास वस्त्र हों और न कल के लिए भोजन का भंडार हो। उसे भोजनादि दैनंदिन आवश्यकता की वस्तुओं की जरूरत होगी, लेकिन उनकी व्यवस्था करना उसका नहीं अपितु भगवान का दायित्व होगा। इस आदर्श तक तो शायद विरले लोग ही पहुंच सकते हैं, लेकिन उसकी प्रतीयमान असंभवता से हम जैसे साधारण सत्यशोधकों को उससे दूर भागना उचित नहीं है। हमें इस आदर्श को निरंतर अपने सामने रखना चाहिए और उसके प्रकाश में अपनी धन-संपत्ति का जायजा लेकर उसमें कमी करने का प्रयास करना चाहिए।

सभ्यता, सही अर्थ़ों में, आवश्यकताओं के बहुलीकरण में निहिते नहीं है, बल्कि उनमें सोच-समझकर स्वैच्छिक रूप से कमी करने में है। केवल इसी से सच्चे सुख और संतोष में वृद्धि होती है और मनुष्य की सेवा करने की क्षमता बढती है।

विशुद्ध सत्य की दृष्टि से, यह देह भी एक संपत्ति है। यह ठीक ही कहा गया है कि भोग की कामना आत्मा के लिए देह की सृष्टि करती है। इस कामना के लुप्त हो जाने पर, देह की कोई आवश्यकता शेष नहीं रह जाती और मनुष्य जन्म-मरण के चक्र से छुटकारा पा जाता है। आत्मा तो सर्वव्यापी है, वह पिंजरे जैसे शरीर में बंदी होना अथवा उस पिंजरे के लिए बुरे काम करना और प्राणियों की जान तक लेना क्यों चाहेगी ?

त्याग का आदर्श

इस तरह हम संपूर्ण त्याग के आदर्श तक पहुंचते हैं और देह को, जब तक यह है, सेवा के लिए काम में लाना सीखते हैं; यहां तक कि हमारे जीवन का आधार रोटी नहीं अपितु सेवा बन जाती है। हम सेवा के लिए ही खाते-पीते और सोते-जागते हैं। मन की ऐसी वृत्ति जीवन में सच्चा सुख लाती है और समय आने पर भगवद्दर्शन कराती है। हम सभी को इस दृष्टिकोण से अपना जायजा लेना चाहिए।

यह स्मरणीय है कि अपरिग्रह का सिद्धांत वस्तुओं और विचारों पर समान रूप से लागू होता है। जो व्यक्ति अपने दिमाग में निरर्थक ज्ञान भरता है वह भी इस अमूल्य सिद्धांत का उल्लंघन करता है। जो विचार हमें ईश्वर से विमुख करते हैं, या उसकी ओर अभिमुख नहीं करते, वे हमारे मार्ग में बाधक हैं।

इस संदर्भ में हमको गीता के तेरहवें अध्याय में दी गई ज्ञान की परिभाषा पर विचार करना चाहिए। उसमें हमें बताया गया है कि नम्रता (अमानित्व) आदि ज्ञान हैं और शेष सब अज्ञान है। अगर यह सही है और इसमें संदेह नहीं कि यह सही है -तो जिसे हम आज ज्ञान समझकर गले से लगाए हुए हैं, अधिकांशतः वह निपट अज्ञान है और हमें किसी भी प्रकार से लाभान्वित करने के स्थान पर हानि ही पहुंचाता है। यह दिमाग को भटकाता ही नहीं है बल्कि उसमें शून्यता पैदा कर देता है और उससे बुराई के नाना रूपों में असंतोष की वृद्धि होती है।

कहने का तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि हम जड हो जाएं। हमारे जीवन का प्रत्येक क्षण मानसिक अथवा शारीरिक सक्रियता से युक्त होना चाहिए, लेकिन यह सक्रियता सात्विक हो, जो हमें सत्य की ओर प्रवृत्त करे। जिसने सेवा के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया है, वह एक क्षण के लिए भी निक्रिय होकर नहीं बैठ सकता। लेकिन हमें अच्छे काम और बुरे काम के बीच अंतर करना सीखना चाहिए। सेवा के प्रति अनन्य समर्पण से मनुष्य में अच्छे और बुरे कामों के बीच अंतर करना सहज रूप से आ जाता है ।

फ्रायम, पृ. 23-26

नैतिक प्रयोजन

हम सबके पास संपत्ति क्यों होनी चाहिए ? हम, एक निश्चित समय के बाद, अपनी समस्त संपत्ति का त्याग क्यों न कर दें ? बेईमान व्यापारी कपटपूर्ण प्रयोजनों के लिए ऐसा करते हैं। तो हम एक नैतिक तथा महान प्रयोजन के लिए ऐसा क्यों नहीं कर सकते ?

एक समय था जब हिंदू सामान्यतः ऐसा ही करता था। हर हिंदू से आशा की जाती है कि एक निश्चित अवधि तक गृहस्थ जीवन जीने के उपरांत वह अपरिग्रह के जीवन में प्रवेश करे। इस उत्तम परंपरा को हम फिर से शुरू क्यों न करें ? व्यवहार में, इसका अर्थ केवल यह है कि हम अपने भरण-पोषण के लिए उन लोगों की दया पर निर्भर हो जाएं जिन्हें हम अपनी संपत्ति का हस्तांतरण कर रहे हैं। मुझे तो यह विचार आकर्षक लगता है। सद्भावपूर्ण विश्वास के ऐसे असंख्य मामलों में से कोई एकाध ही मामला ऐसा निकलता है जिसमें विश्वास भंग किया गया हो।

...इस रीति को क्या रूप दिया जाए कि बेईमान आदमी इसका अनुचित लाभ न उठा सकें, यह तो लंबे प्रयोग से ही निर्धारित किया जा सकता है। लेकिन दुरुपयोग के भय से इस प्रयोग को करने से स्वयं को रोकने की कोई आवश्यकता नहीं है। गीताकार ने तो गीता का दिव्य संदेश देने से स्वयं को रोका नहीं था, यद्यपि वे संभवतः यह जानते थे कि लोग इसकी दुहाई देकर सभी तरह की बुराइयों, यहां तक कि हत्या तक, का औचित्य सिद्ध करने का प्रयास करेंगे।

यंग, 3-7-1924, पृ. 221


धर्म की उच्चतम प्राप्तिकृ सर्वस्व त्याग की अपेक्षा रखती है। मानव जीवन के नियम का बोध हो जाने के बाद हमें, अधिक नहीं बस जहां तक हम से बन पडे वहां तक, उसे जीवन में उतारने का प्रयास करना चाहिए। यही मध्यमार्ग है।

यंग, 5-2-1925, पृ. 48

स्वर्णिम नियम

स्वर्णिम नियम यह हैकृ कि जो चीज लाखों लोगों को उपलब्ध नहीं है, उसका भोग करने से हम दृढतापूर्वक इंकार कर दें। इंकार करने की यह क्षमता हमारे अंदर अचानक ही नहीं आ जाएगी। पहले तो इस मानसिक वृत्ति का विकास करना होगा कि जो वस्तु अथवा सुविधा लाखों लोगों को उपलब्ध नहीं है, उसका भोग हम नहीं करेंगे। इसके बाद अगला कदम होगा इस मनोवृत्ति के अनुरूप अपने जीवन-क्रम में यथाशीघ्र परिवर्तन लाना।

यंग, 24-6-1926, पृ. 226


प्रेम और अनन्य स्वामित्व साथ-साथ कभी नहीं चल सकते। सिद्धांत रूप से, जहां पूर्ण प्रेम है वहां पूर्ण अपरिग्रह भी होना आवश्यक है। शरीर हमारी अंतिम संपत्ति है। इसलिए मनुष्य पूर्ण प्रेम और पूर्ण संपत्ति-त्याग का दावा तभी कर सकता है यदि वह मानव सेवा के लिए मौत को गले लगाने और अपने शरीर का त्याग करने के लिए तत्पर हो।

लेकिन यह सिद्धांत रूप से ही ठीक है। वास्तविक जीवन में हम पूर्ण प्रेम की अवस्था को शायद ही प्राप्त कर सकते हैं, क्योंकि एक संपत्ति के रूप में शरीर सदा अपूर्ण रहेगा और मनुष्य सदा पूर्णता का प्रयास करता रहेगा। कहने का तात्पर्य यह है कि जब तक हम जीवित हैं तब तक प्रेम तथा अपरिग्रह की पूर्णता प्राप्त नहीं की जा सकती; फिर भी, हमें निरंतर इसके लिए प्रयासरत रहना चाहिए।

मारी, अक्टू. 1935, पृ. 412


ईसा, मोहम्मद, बुद्ध, नानक, कबीर, चैतन्य, शंकर, दयानंद, रामकृष्ण ऐसे महापुरुष थे जिन्होंने हजारों लोगों को अत्यधिक प्रभावित किया था और उनके चरित्र को संवारा था। उनके जीवन से यह धरा समृद्ध हुई है। इन सभी महापुरुषों ने जान-बूझकर निर्धनता का वरण किया थाकृ हम आधुनिक भौतिकवादी उन्माद को ज्यों-ज्यों अपना लक्ष्य मानते जा रहे हैं, त्योंगत्यों प्रगति के पथ से नीचे लुढकते जा रहे हैं।

स्पीरा, पृ. 353


धन, सत्ता और प्रतिष्ठा मनुष्य से न जाने कितने पाप और अनाचार कराते हैं।

ए. पृ. 168


किसी की अनुमति के बिना उसकी कोई वस्तु ले लेना तो चोरी है ही, पर यदि हम उसे देने वाले ने जिस काम के लिए दिया था, उससे भिन्न काम में इस्तेमाल करें या उसने जितने समय के लिए दिया था, उससे अधिक समय के लिए काम में लाएं तो यह भी चोरी ही है। यह बात इस गूढ सत्य पर आधारित है कि ईश्वर वर्तमान के लिए जितना आवश्यक है, उससे अधिक की सृष्टि कभी नहीं करता। इसलिए जो व्यक्ति किसी वस्तु की न्यूनतम आवश्यक मात्रा से अधिक का उपयोग करता है तो वह चोरी का दोषी है।

आआए, पृ. 58

जीवन का रहस्य

सर्वस्व का त्याग करके उसे ईश्वर को समर्पित कर दो और तब जियो। इससे जीने का अधिकार त्याग से व्युत्पन्न होगा। उक्ति यह नहीं है कि 'जब सब अपने हिस्से का काम करेंगे तो मैं भी करूंगा।' उक्ति यह है कि 'दूसरों की चिंता मत करो, पहले अपना कर्तव्य करो और बाकी ईश्वर के ऊपर छोड दो।'

हरि, 6-3-1937, पृ. 27


तुम्हें भौतिक वस्तुओं के स्वामित्व अथवा भोग का अवसर मिल सकता है, पर जीवन का रहस्य इसमें है कि तुम्हें उनका अभाव कभी खले नहीं।

हरि, 10-12-1938, पृ. 371


सुखी जीवन का रहस्य त्याग में निहित है। त्याग ही जीवन है। भोग का परिणाम मृत्यु है। इसलिए हर व्यक्ति को परिणाम की चिंता किए बिना, सेवा करते हुए 125 वर्ष तक जीने का अधिकार है। ऐसा जीवन पूर्णतया सेवा को ही समर्पित होना चाहिए। इस प्रकार की सेवा के लिए धन-संपत्ति का त्याग ऐसा अनिर्वचनीय आनंद देता है जिससे तुम्हें कोई वंचित नहीं कर सकता, क्योंकि वह आनंदामृत तुम्हारे भीतर से फूटता है और तुम्हें दीर्घायु देता है। इसमें चिंता या अधैर्य के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता। इस आनंद के बिना, दीर्घायु संभव नहीं है और यदि मिल भी जाए तो उसका कोई मूल्य नहीं होगा।

हरि, 24-2-1946, पृ. 19


मेरे कहने का आशय यह नहीं है कि अगर तुम्हारे पास धन है तो उसे बाहर फेंक दो और बीबीगबच्चों को घर से निकाल दो। इसका आशय यही है कि धनगसंपत्ति के प्रति आसक्ति का त्याग कर दो और सर्वस्व ईश्वर को समर्पित करके उसकी दी हुई वस्तुओं को उसी की सेवा में लगा दो।

हरि, 24-8-1946, पृ. 111

गरीबी और अमीरी

संघर्ष से बचाव

मैं ऐसे युग की कल्पना करने में असमर्थ हूं जब कोई भी व्यक्ति किसी अन्य की तुलना में अधिक धनवान नहीं होगा। लेकिन ऐसे युग की कल्पना अवश्य करता हूं जब अमीर लोग गरीबों की कीमत पर धनवान बनने का विचार त्याग देंगे और गरीब लोग अमीरों से ईर्ष्या करना छोड देंगे। पूर्ण-से-पूर्ण संसार में भी, असमानताओं से नहीं बचा जा सकता, पर हम संघर्ष और कटुता से बच सकते हैं और अवश्य बचना चाहिए।

यंग, 7-10-1926, पृ. 348


मैंने अपने अनेक देशवासियों को यह कहते सुना है कि हम अमरीका की तरह धनवान तो बनेंगे, पर (धनसंग्रह के) अमरीकी तरीकों को नहीं अपनाएंगे। मैं साहसपूर्वक कहना चाहता हूं कि यदि कभी ऐसा प्रयास किया गया तो इसकी असफलता अवश्यंभावी है। हम एक ही साथ 'बुद्धिमान, संयत और क्रोधोन्मत्त' नहीं हो सकते।

स्पीरा, पृ. 353-54


भारत में जितने महल दिखाई देते हैं, वे उसकी अमीरी के नहीं बल्कि अमीरी के कारण थोडे-से लोगों को मिली शक्ति की धृष्टता के प्रतीक हैं; इन महलों को अमीरों ने भारत के लाखों कंगालों की मेहनत का नाममात्र का मुआवजा देकर खडा किया है।

यंग, 28-4-1927, पृ. 137

अमीरों का कर्तव्य

अमीरों को अच्छी तरह विचार करना चाहिए कि आज उनका कर्तव्य क्या है। आज अपनी संपत्ति की रखवाली के लिए वे जिन्हें तनख्वाह देकर नियुक्त करते हैं, वे रखवाले ही शायद कल उनके शत्रु बन जाएंगे। अमीरों को हथियारों से अथवा अहिंसा का सहारा लेकर संघर्ष करना सीखना पडेगा।

जो अहिंसा का सहारा लेना चाहते हैं, उनके लिए सबसे उत्तम और कारगर मंत्र है : तेन त्यक्तेन भुंजीथाः। इसकी व्याख्या इस प्रकार है : करोडों की संपत्ति जरूर कमाइए, पर यह समझ लीजिए कि यह आपकी नहीं, जनता की है। अपनी कमाई में से अपनी जायज जरूरतों के लिए अपने पास रखकर शेष को समाज के हित में खर्च कर दीजिए।

इस सच्चाई पर अभी तक अमल नहीं किया गया है, लेकिन तनाव के इस युग में भी अमीरों ने इस पर अमल नहीं किया तो वे अपनी धन-दौलत और वासनाओं के दास बने रहेंगे और अंततः अपने ऊपर हावी होने वालों के दास बन जाएंगे।

... मैं वह दिन आता देख रहा हूं जब गरीबों का राज होगा, चाहे वह सशस्त्र संघर्ष के फलस्वरूप हो या अहिंसा के द्वारा। यह स्मरणीय है कि जिस प्रकार शरीर अस्थायी है, उसी प्रकार शारीरिक बल भी अस्थायी है। लेकिन आत्मा की शक्ति उसी प्रकार स्थायी है जिस प्रकार कि आत्मा अमर है।

हरि, 1-2-1942, पृ. 20


मुझे इस मत का समर्थन करने में कोई संकोच नहीं है कि सामान्यतया अमीर लोग... या यह भी कह सकते हैं कि अधिकांश लोग - इस बात का विचार नहीं करते कि वह रुपया किस तरह कमा रहे हैं। अहिंसा की विधि का प्रयोग करने पर इस बात की पूरी संभावना है कि प्रत्येक व्यक्ति का, चाहे वह कितना ही घटिया हो, मानवीय तथा कुशल व्यवहार के द्वारा सुधार किया जाएगा। हमें मनुष्यों के भलेपन को उभारना चाहिए और उनसे अनुकूल प्रतिक्रिया की आशा करनी चाहिए।

सबकी भलाई

क्या यह बात समाज के हित में नहीं है कि उसका प्रत्येक सदस्य अपनी संपूर्ण प्रतिभा का उपयोग केवल अपनी तरक्की के लिए न करके सबकी भलाई के लिए करे ? हम एक निष्प्राण समानता पैदा करना नहीं चाहते जिसमें प्रत्येक व्यक्ति अपनी योग्यता का अधिकतम सीमा तक उपयोग करने में असमर्थ होता है अथवा कर दिया जाता है। ऐसा समाज तो अंततः नष्ट ही हो जाएगा।

इसलिए मेरा कहना है कि मेरी यह राय बिलकुल ठीक है कि धनवान व्यक्ति करोडों जरूर कमाएं (हां, केवल ईमानदारी से), पर अपनी कमाई को सबकी सेवा के लिए समर्पित कर दें। तेन त्यक्तेन भुंजीथा; दुर्लभ ज्ञान पर आधारित मंत्र है। आज की दुनिया में जहां बिना इस बात की फिक्र किए कि उसके पडोसी पर क्या गुजर रही है, हर आदमी केवल स्वार्थ की जिंदगी जी रहा है, यह मंत्र सार्वभौम हित की एक नयी जीवनगव्यवस्था के विकास का सबसे निश्चित उपाय सुझाता है।

हरि, 22-2-1942, पृ. 49

भिक्षावृत्ति

हमारा देश जिस घोर दारिौय और भुखमरी का शिकार है, उसके कारण प्रतिवर्ष भिखारियों की संख्या में वृद्धि होती चली जा रही है : प्राणरक्षा के निमित्त दो रोटी के लिए कडा संघर्ष करते-करते ये लोग शालीनता और आत्मसम्मान की सभी भावनाओं के प्रति संवेदनशून्य हो जाते हैं। और हमारे दानवीर इन्हें काम देने और काम करने पर जोर देने के बजाए उन्हें भिक्षा देते हैं।

ए, पृ. 320


मेरी अहिंसा ऐसे किसी भी स्वस्थ व्यक्ति को मुफ्त का भोजन दिया जाना सहन नहीं करेगी जिसने ईमानदारी के साथ उसके एवज में कोई-न-कोई काम न किया हो। अगर मेरी शक्ति में होता तो मैं ऐसे सभी सदाव्रत बंद करा देता जिनमें मुफ्त भोजन कराया जाता है। यह प्रणाली राष्ट्र को गिरावट की ओर ले गई है और उसने आलस्य, अकर्मण्यता, ढोंग और यहां तक कि अपराधवृत्ति को भी बढावा दिया है। अपात्रों पर दयालुता दिखाने की इस वृत्ति से राष्ट्र की संपत्ति में कोई वृद्धि नहीं होती- न भौतिक और न आध्यात्मिक - बल्कि इससे दानदाता में पुण्यशाली होने की झूठी भावना पैदा होती है।

दान नहीं, काम

यदि ये दानदाता ऐसी संस्थाएं खोल सकें जिनमें साफ-सुथरे वातावरण में उन स्त्राh-पुरुषों को खाना दिया जाए जो उसके एवज में वहां कोई काम-धंधा करें तो यह कितना अच्छा और बुद्धिमत्तापूर्ण कार्य होगा। मैं व्यक्तिगत रूप से सोचता हूं कि चरखा कताई या कपास की कोई और प्रक्रिया ऐसी संस्थाओं द्वारा अपनाए जाने योग्य एक आदर्श काम होगा। लेकिन वे यह न चाहें तो कोई और काम चुन सकती हैं; बस, नियम यह कि 'काम नहीं तो खाना भी नहीं'...

मैं जानता हूं कि सदाव्रत बांटना आसान है और ऐसी संस्थाएं बनाना कठिन है जिनमें खाना मिलने से पहले ईमानदारी के साथ कुछ काम करना जरूरी हो। आर्थिक दृष्टि से, मुफ्त भोजनशाला चलाने की तुलना में लोगों से काम लेकर खाना खिलाना महंगा पड सकता है, लेकिन मुझे विश्वास है कि यदि हम अपने देश में आवारागर्द़ों की संख्या में गुणोत्तर वृद्धि करना नहीं चाहते तो, दीर्घकाल में, ऐसी संस्थाएं खोलना सस्ता पडेगा।

यंग, 13-8-1925, पृ. 282


भूखों मरने वाले और निक्रिय लोगों के सामने ईश्वर सिर्फ एक रूप में प्रकट होने का साहस कर सकता है और वह है, काम और उसकी मजदूरी के रूप में रोटी का वायदा।

यंग, 13-10-1921, पृ. 325


मैं नंगे लोगों को कपडा देकर उनका अपमान नहीं करूंगा- उन्हें कपडे की नहीं, काम की जरूरत है, जो मुझे उनको देना चाहिए। मैं उनका संरक्षक बनने का पाप नहीं करूंगा, लेकिन यह ज्ञान होने पर कि उन्हें निर्धन बनाने में मेरा भी हाथ है, मैं उन्हें रोटी के चंद टुकडे या उतारे हुए कपडे नहीं दूंगा, बल्कि अपने अच्छे-से-अच्छे कपडे और खाना दूंगा और उनके साथ काम में भागीदार बन जाऊंग ।

वही


मैं यह महसूस करता हूं कि यद्यपि भिक्षावृत्ति को प्रोत्साहित करना बुरा है, पर मैं किसी भिखारी को काम और खाना दिए बगैर जाने नहीं दूंगा। अगर वह काम करने से इंकार करेगा तो मैं उसे खाना नहीं दूंगा। लंगडे-लूलों आदि शारीरिक दृष्टि से असमर्थ लोगों को खिलाने-पिलाने की जिम्मेदारी राज्य की है।

मिथ्या अथवा सच्चे अंधेपन की आड में भी बडी धोखाधडी चल रही है। बेईमानी से पैसा कमाकर बहुत-से अंधे धनवान बन गए हैं। वे इस प्रलोभन का शिकार हों, इससे अच्छा है कि उन्हें आश्रमों में भरती कर दिया जाए।

हरि, 11-5-1935, पृ. 99

नौकरों पर निर्भरता

मेरी धारणा है कि जो व्यक्ति औरों का सहयोग लेना अथवा उनके साथ सहयोग करना चाहता है, उसे नौकरों पर निर्भर नहीं रहना चाहिए। नौकरों की तंगी के वक्त में भी अगर किसी को नौकर चाहिए तो उसे नौकर को जितना वेतन वह मांगे, उतना देना होगा और उसकी बाकी सभी शर्त़ें भी माननी होंगी, जिसका परिणाम यह होगा कि मालिक होने के बजाय वह स्वयं अपने कर्मचारी का नौकर हो जाएगा। यह न तो मालिक के लिए अच्छी बात है और न नौकर के लिए।

पर यदि कोई व्यक्ति किसी की दासता नहीं बल्कि उसका सहयोग चाहता है तो वह न केवल अपनी सेवा करेगा बल्कि उसकी भी करेगा जिसके सहयोग की उसे जरूरत है। इस सिद्धांत का विस्तार करने पर, मनुष्य को सारी दुनिया अपने परिवार का ही बृहत् रूप लगेगी और अपने साथियों के प्रति उसके दृष्टिकोण में भी तद्नुसार परिवर्तन आ जाएगा। अभीष्ट-पूर्णता तक पहुंचने का कोई और रास्ता नहीं है।

हरि, 10-3-1946, पृ. 40

दरिद्र नारायण

दरिद्रनारायण का भगवान

भगवान जो मनुष्य के लिए अनाम और अगाध है, उसके लाखों नामों में से एक नाम है दरिद्रनारायण, जिसका अर्थ है दरिद्र का भगवान यानी दरिद्रके हृदय में वास करने वाला भगवान।

यंग, 4-4-1929, पृ. 110


दरिद्र के लिए आर्थिक ही आध्यात्मिक है। इन लाखों-करोडों भूखे लोगों पर कोई बात असर नहीं कर सकती। तुम उन्हें रोटी दो तो वे तुम्हें ही भगवान समझने लगेंगे। कुछ और सोचने का उनका सामर्थ्य ही नहीं है।

यंग, 5-5-1927, पृ. 142


अपने इन्हप हाथों से मैंने उनके चिथडों में बंधी मैली-कुचैली पाइयां इकट्ठी की हैं। उनसे आधुनिक प्रगति की बात मत कीजिए। उनके सामने व्यर्थ में भगवान का नाम लेकर भगवान का अपमान मत कीजिए। अगर हम उनसे ईश्वर के बारे में बात करेंगे तो वे मुझे और आपको शैतान बताएंगे। अगर वे किसी ईश्वर को जानते हैं तो वह है आतंक और प्रतिशोध का ईश्वर, एक निर्दय अत्याचारी ।

यंग, 15-9-1927, पृ. 313


मैं स्वराज हासिल करने के लिए प्रयासरत हूंकृ उन जी-तोड मेहनत करने वाले और बेरोजगार लाखों-करोडों लोगों के लिए, जिन्हें दिन में एक बार भी भरपेट खाना नसीब नहीं होता और बासी रोटी के एक टुकडे और चुटकी भर नमक के सहारे जिंदगी घसीटनी पडती है।

यंग, 26-3-1931, पृ. 53

ईश्वर का संदेश

मैं उन तक ईश्वर का संदेश ले जाने का साहस नहीं कर सकता। उन लाखों-करोडों भूखे-नंगों के सामने, जिनकी आंखों में कोई चमक शेष नहीं है और जिनका भगवान केवल उनकी रोटी है, मेरे लिए ईश्वर का संदेश सुनाना वैसा ही है जैसा कुत्तों के आगे सुनाना। मैं उनके लिए पवित्र काम के संदेश के रूप में ही ईश्वर का संदेश लेकर जा सकता हूं।

अच्छा नाश्ता करके और बढिया खाने का इंतजार करते हुए यहां बैठकर ईश्वर के बारे में चर्चा की जा सकती है, पर मैं उन लाखों लोगों से ईश्वर के बारे में चर्चा कैसे करूं जिन्हें दिन में दो बार भी रोटी नहीं मिलती ? उनके लिए तो ईश्वर रोटी और मक्खन के रूप में ही प्रकट हो सकता है। भारत के किसानों को अपनी जमीन से रोटी मिल रही थी। मैंने उन्हें चरखा दिया ताकि उन्हें मक्खन भी मिल सके, और अगर आज मैं... लंगोटी बांधता हूं तो वह इसलिए कि मैं इन लाखों अध-भूखे और अध-नंगे मूक लोगों का एकमात्र प्रतिनिधि हूं।

यंग, 15-10-1931, पृ. 310


मैं अपने इन लाखों-करोडों दरिौ भारतवासियों को जानने का दावा करता हूं। मैं दिन के चौबीसों घंटे उनके साथ हूं। उनकी देखभाल मेरा प्रथम और अंतिम कर्तव्य है, क्योंकि मैं उन मूक लाखों-करोडों के हृदय में वास करने वाले भगवान के अलावा और किसी भगवान को नहीं पहचानता। वे उस ईश्वर की उपस्थिति का अनुभव नहीं करते, मैं करता हूं। और मैं इन्हप लाखोंगकरोडों दरिौ लोगों की सेवा के जरिए ईश्वर जो सत्य है अथवा सत्य जो ईश्वर है, उसकी पूजा करता हूं।

हरि, 13-3-1939, पृ. 44

(स्त्रोत : महात्मा गांधी के विचार)


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