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उध्दरणोंके स्त्रोत

जुलाई

जुलाई 1

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अहिंसा हमारी मानव-जातिका कानून है, जिस प्रकार हिंसा पशुओंका कानून है । पशुमें आत्मा सुप्त रूपमें रहती है; और वह शारीरिक शक्तिके  सिवा  अन्य किसी कानूनको नहीं जानता । मानवकी प्रतिष्ठाका यह तकाजा है कि वह अधिक ऊँचे कानूनका - आत्माके कानूनका - पालन करे ।

यं.इं.,19-9-’20


जुलाई 2

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अहिंसा सबसे ऊँची श्रेणीका सक्रिय बल है । वह आत्माका बल है अथवा हमारे भीतर रहनेवाला ईश्वरीय बल है । अपूर्ण मानव उस दिव्य बलको पूर्णतया समझ नहीं सकता - वह उसके पूर्ण तेजको सहन करनेमें समर्थ नहें है । परन्तु जब उसका अणु जितना अतिसूक्ष्म अंश भी हमारे भीतर सक्रिय बनता है, तब वह आश्चर्यजनक परिणाम लाता है ।

ह., 12-11-’38


जुलाई 3

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आकाशमें चमकनेवाला सूर्य सारे विश्वको जीवनदायी तापसे भर देता है । परन्तु यदि कोई मनुष्य उसके बहुत अधिक पास चला जाये, तो सूर्य उसे जलाकर राख् कर देगा। यही बात ईश्वरके विषयमें है । हम जिस हद तक अहिंसाको सिध्द करते हैं उस हद तक हम ईश्वर-जैसे बनते हैं; परन्तु हम पूरे पूरे ईश्वर कभी नहीं बन सकते ।

ह., 12-11-’38


जुलाई 4

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अहिंसा रेडियमके समान काम करती है । रेडियम धातुकी अत्यन्त अल्पमात्रा भी जब शरीरके किसी रोगग्रस्त भागके साथ जड़ दी जाती है, तो वह तब तक निरन्तर, चूपचाप और बिना रुके अपना काम करती रहती है, जब तक रोगग्रस्त ग्रन्थिके सम्पूर्ण भागको बदल कर नीरोग और स्वस्थ नहीं बना देती । इसी प्रकार सच्ची अहिंसाकी अल्पमात्रा भी चुपचाप सूक्ष्म और अदृश्य रूपमें अपना काम करती है और सारे समाजको जड़से बदल देती है ।

यं.इं.,12-11-’38


जुलाई 5

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अहिंसा मनुष्य-जातिके हाथमें बड़ीसे बड़ी शक्ति है । मनुष्यके  बुध्दि-चातुर्यने संहार और सर्वनाशके जो प्रचंडसे प्रचंड अस्त्र-शस्त्र बनाये हैं, उनसे भी अहिंसा अधिक प्रचण्ड शक्ति है । सर्वनाश और संहार मानवोंका कानून नहीं है । मनुष्य आवश्यकता पड़ने पर अपने भाईके हाथों मरनके  लिए तैयार रह कर स्वतंत्रतासे जीता है, उसे मार कर कभी नहीं । प्रत्येक हत्या अथवा दूसरेको पहुँचाई गई चोट, फिर उसका उद्देश कुछ  भी रहा हो, मानवताके खिलाफ एक अपराध है ।

ह.,20-7-’35


जुलाई 6

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मेरा अहिंसा-धर्म एक अत्यंत सक्रिय शक्ति है । उसमें कयरताका अथवा निर्बलताका भी कोई स्थान नहीं है । किसी हिंसक मनुष्यके बारेमें तो किसी दिन अहिंसक बननेकी आशा रखी जा सकती है, परन्तु कायर मनुष्यके बारेमें ऐसी आशा कभी नहीं रखी जा सकती । इसलिए मैंने अनेक बार यह कहा है कि अगर हम अपने आपको, अपनी स्त्रियोंको और अपने पूजास्थानोंको कष्ट-सहनकी अर्थात्  अहिंसाकी शक्तिसे बचाना नहीं जानते, तो कमसे कम लड़कर तो - यदि हम वास्तवमें पुरुष हैं - इन सबको बचानेका सामर्थ्य हममें होना ही चाहिये ।

यं.इं.,16-6-’27


जुलाई 7

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मेरी अहिंसामें ऐसे लोगोके लिए जरूर गुंजाइश है, जो शस्त्र धारण करते हुए और सफलतापूर्वक उनका उपयोग करते हुए अहिंसक नहीं हो सकते या नहीं होंगे । मैं हजारवीं बार दोहराना चाहता हूँ कि अहिंसा बलवानसे बलवान लोगोके लिए है, निर्बलोंके लिए नहीं ।

टा. इं.,8-5-’41


जुलाई 8

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कोई मनुष्य शरीरसे कितना ही कमजोर क्यों न हो, लेकिन यदि भागना लज्जाकी बात हो तो वह विरोधीकी शक्तिके सामने झुकेगा नहीं और अपनी जगह पर अड़िग रहकर प्राण निछावर कर देगा । यह अहिंसा और वीरता होगी । भले वह कितना ही कमजोर क्यों न हो, परन्तु अपने शत्रुको चोट पहुँचानेमें वह अपनी सारी शक्ति लगा देगा और इस प्रयत्नमें जान दे देगा। यह वीरता है, लेकिन अहिंसा नहीं है । जब उसका कर्तव्य खतरेका सामना करना हो तब ऐसा न करके यदि वह भाग जाय, तो वह उसकी कायरता होगी । पहले उदाहरणमें मनुष्यमें प्रेम या करुणा होगी । दुसरेंमे अरुचि या अविश्वास होगा । और तीसरेमें डर होगा ।

ह.,17-8-’35


जुलाई 9

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अगर संसारके बड़ेसे बड़े विचारशील और बुध्दिशाली लोगेंने अहिंसाकी भावनाको सोच-समझकर ग्रहण न किया हो, तो उन्हें गुंडाशाहीका सामना पुरानी पध्दतिसे ही - पशुबलसे ही - करना होगा । लेकिन वह यही बतायेगा कि हम अभी तक जंगलके कानूनसे बहुत आगे नहीं बढ़े हैं, अभी तक हमने ईश्वरकी दी हुई विरासतकी कदर करना नहीं सीख है और 1900 वर्ष पुराने ईसाई धर्मके, उससे भी प्राचीन हिन्दू और बौघ्द धर्मके तथा इस्लामके उपदेशोंके बावजूद मानव-प्राणियोंके नाते हमने बहुत अधिक प्रगति नहीं साधी है । जिन लोगोंमें अहिंसाकी भावना नहीं है, उन लोगें द्वारा किये जानेवाले पशुबलके उपयोगको मैं समझ सकता हूँ; परन्तु जि लोगोंमें अहिंसाकी भावना है उनसे तो मैं यही चाहूंगा कि वे इस बातका प्रत्यक्ष उदाहरण प्रस्तुत करनेमें अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगा दें कि गुंडाशाहीका सामना भी अहिंसासे ही करना चाहिये ।

ह.,10-12-’38


जुलाई 10

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निर्भयता - अभय आध्यात्मिकताकी  पहली शर्त है । कायर मनुष्य कभी सदाचारी और नीतिमान हो ही नहीं सकता ।

यं.इं.,13-10-’21


जुलाई 11

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हम ईश्वरसे डरेंगे तो मनुष्यका हमारा डर मिट जायगा ।

स्पी. रा.म., पृ.330


जुलाई 12

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एक निर्दोष मनुष्यका आत्म-बलिदान ऐसे दस लाख मनुष्योंके बलिदाने दस लाख गुना अधिक शक्तिशाली है, जो दूसरोंको मारनेके कार्यमें मरते हैं । निर्दोषका स्वेच्छापूर्ण  बलिदान उस उध्दत अत्याचारका अधिकसे अधिक शक्तिशाली  उत्तर है, जिसकी ईश्वर या मनुष्यने आज तक कभी कल्पना की है ।

यं.इं.,12-2-’25


जुलाई 13

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अहिंसाके साथ जुड़े हुऐ सत्यके बलसे आप सारे संसारको अपने पैरों पर झुका सकते हैं - अपने अधीन बना सकते हैं । सत्याग्रहका सार इसके सिवा और कुछ नहीं है कि राजनीतिक अर्थात् राष्ट्रीय जीवनमें सत्य और प्रेमको दाखिल किया जाय ।

यं.इं.,10-3-’20


जुलाई 14

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सत्याग्रही भयको अंतिम नमस्कार कर देता है । इसलिए वह अपने विरोधी पर विश्वास करनेमें कभी डरता नहीं । यदी विरोधी बीस बार भी असत्य का व्यवहार करके उसके साथ दगा करे, तो सत्याग्रही इक्कीसवीं बार उस पर विश्वास करनेको तैयार रहता है; क्योंकि  मानव-स्वभावमें  पूर्ण विश्वास उसके अहिंसा-धर्मका सार है ।

स. सा. अ.,पृ.246


जुलाई 15

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सत्याग्रही यदि स्वाभावसे ही कानूनका पालन करनेवाला न हो, तो वह कुछ भी नहीं है । उसका यह स्वभाव ही उससे सर्वोच्च कानूनका पूर्ण पालन कराता है – वह सर्वोच्च कानून है अन्तरात्मा आवाज, जिसका स्थान दूसरे सारे कानूनोंसे ऊंचा है ।

स्पी. रा. म., पृ. 465


जुलाई 16

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सत्याग्रह सौम्य वस्तु है; वह कभी  चोट नहीं पहुँचाता। वह क्रोध या द्वेषका परिणाम नहीं होना चाहिये । उसमें कभी धूमधाम नहीं होती, कभी उतावली नहीं होती, कभी शोरगुल नहीं होता । वह जबरदस्तीकी ठीक उलटी वस्तु है । हिंसाका संपूर्ण स्थान ले सकनेवाली वस्तुके रूपमें ही उसकी कल्पना की गई है ।

ह., 15-4-’33


जुलाई 17

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सत्याग्रह ऐसी शक्ति है, जिसका व्यक्ति और समाज दोनों उपयोग कर सकते हैं । जिस प्रकार उसका उपयोग घर-गृहस्थीके व्यवहारोंमें हो सकता है, उसी प्रकार राजनीतिक व्यवहारोंमें भी हो सकता है । सत्याग्रहका सर्वत्र प्रयोग किया जा सकता है, यही उसके स्थायित्वका और उसकी अजेयताका प्रबल प्रमाण है । पुरुष, स्त्रियाँ और बालक सब कोई उसका एकसा उपयोग कर सकते हैं । यह कहना बिलकुल झूठ है कि सत्याग्रह केवल निर्बलों द्वारा उपयोगमें ली जानेवाली शक्ति है; और इसका उपयोग वे तभी तक करते हैं जब तक वे हिंसाका सामना हिंसासे करनेकी क्षमता प्राप्त नहीं कर लेते ।

यं.इं.,3-11-’27


जुलाई 18

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सत्याग्रही शक्तिका हिंसासे और इसलिए सारे अत्याचारों, सारे अन्यायोंसे वैसा ही सम्बन्ध है, जैसा प्रकाशका अन्धकारके साथ है । राजनीतिमें उसका प्रयोग कभी न बदलनेवाले इस स्वयंसिध्द सत्य पर निर्भर करता है कि लोगों पर शासन करना तभी तक संभव है, जब तक वे जाने या अनजाने शासित होना स्वीकार करें ।

यं.इं.,3-11-’27


जुलाई 19

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क्रोधरहित और द्वेषरहित कष्ट-सहनका सूर्य जब उगता है, तब उसके सामने कठोरसे कठोर हृदय भी पिघल जाता है और घोरसे घोर अज्ञान भी नष्ट हो जाता है ।

यं.इं.,10-2-’25


जुलाई 20

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प्रत्येक महान उद्देशमें लड़नेवालोंकी संख्याका महत्त्व नहीं होता, परन्तु वह गुण ही निर्णायक तत्त्व सिध्द होता है, जिससे उन लड़वैयोंका निर्माण हुआ है । संसारके बड़ेसे बड़े पुरुष हमेशा अकेले ही खड़े रहे हैं ।

यं.इं.,10-10-’29


जुलाई 21

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उदाहरणके लिए, जरथुश्त, बुध्द, ईसा और मुहम्मद जैसे महान पैगम्बरोंको लीजिये - ये सब दूसरे अनेक पैगम्बरोंकी तरह, जिनके नाम मैं गिना सकता हूँ, अपने उद्देश्यों पर अकेले ही खड़े रहे थे । परन्तु उनकी अपने आपमें और अपने ईश्वरमें जीवित श्रध्दा थी; और यह विश्वास रखनेके कारण कि ईश्वर उनके पक्षमें है, उन्होंने अपनेको कभी अकेला अनुभव नहीं किया ।

यं.इं.,10-10-’29


जुलाई 22

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आप उस अवसरका स्मरण कर सकते हैं, जब अनेक शत्रु मुहम्मद पैगम्बरके पीछे पड़े हुए थे और अबू बकरने, जो पैगम्बरकी हिजरतमें उनका साथ दे रहा था, दोनोंके नसीबका विचार करके कांपते कांपते पैगम्बरसे कहा थाः “आप शत्रुओंकी संख्याका तो विचार कीजिये, जो हमें पकड़नेके लिए हमारे पीछे पड़े हुए हैं । इस मुसीबतसे हम दो आदमी कैसे सपार हो सकेंगे?” एक क्षणका भी विचार किये बिना पैगम्बर साहबने अपने वफादार साथीको उलाहना देते हुए कहाः “ नहीं, अबू वकर, हम दो नहीं बल्कि तीन हैं; क्योंकि खुदा हमारे साथ है !” अथवा विभीषण और प्रह्लादकी अजेय श्रध्दाको लीजिये । मैं चाहता हूँ कि आप अपने आपमें और ईश्वरमें वैसी ही जीती-जागती श्रध्दा रखें ।

यं.इं.,10-10-’29


जुलाई 23

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सारे शरीरधारी प्राणियोंका अस्तित्व हिंसा पर ही निर्भर है । इसलिए सर्वोच्च धर्मकी व्याख्या अहिंसा जैसे नकारात्मक शब्द द्वारा की गई है । संसार संहार और नाशकी जंजीरमें बंधा हुआ है । दूरसे शब्दोंमें शरीरधारी प्राणियोंके लिए हिंसा एक स्वाभाविक आवश्यकता है । यही कारण है कि अहिंसाका पुजारी शरीरके बन्धनसे अंतिम, शाश्वत मुक्ति पानेके लिए सदा प्रार्थना करता है ।

यं.इं.,2-10-’28


जुलाई 24

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मेरा निश्चित रूपसे यह विश्वास है कि ईश्वरके सारे प्राणियोंको जीनेका उतना ही अधिकार है जितना कि हम मनुष्योंको है । यदि हमारे साथ इस धरती पर रहनेवाले तथाकथित हिंसक और हानिकारक प्राणियोंकी हत्या करनेका कर्तव्य बतानेके बजाय ज्ञानवान लोगोंने अपनी बुध्दिशक्तिका उपयोग उनके साथ अन्य प्रकारसे व्यवहार करनेके रास्ते खोजनेमें किया होता, तो हम आज मानव-प्राणियोंकी प्रतिष्ठाको शोभा देनेवाली दुनियामें रहते होते – ऐसे मानव-प्राणी जिन्हें  बुध्दिका वरदान मिला है और भले-बुरे, सही-गलत, हिंसा-अहिंसा तथा सत्य-असत्यके बीच चुनाव करनेकी शक्ति मिली है ।

ह., 9-1-’37


जुलाई 25

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हम मृत्युके बीच रहकर सत्यकी दिशामें अंधोंकी तरह अपना मार्ग खोजनेके प्रयत्नमें लगे हुए हैं । शायद यह ठीक ही है कि जीवनमें हर कदम पर हम खतरेसे धिरे रहते हैं, क्योंकि  इस खतरेका और अपने अनिश्चित अस्तित्वका ज्ञान रखते हुए भी केवल हमारा आश्चर्यजनक अभिमान ही ऐसा है, जो समग्र जीवनके मूल स्त्रोत ईश्वरके प्रति रही हमारी अपेक्षासे आगे बढ़ जाता है ।

यं.इं.,7-7-’27


जुलाई 26

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मेरी बुध्दि और हृदय दोनों इस बातमें विश्वास करनेसे इनकार करते हैं कि तथाकथित हानिकारक प्राणी मनुष्यके हाथों नष्ट होनेके लिए ही उत्पन्न किये गये हैं । ईश्वर भला और बुध्दिमान है । भला और बुध्दिमान ईश्वर इतना बुरा और इतना मूर्ख नहीं हो सकता कि बिना हेतुके किसी प्राणीका सर्जन करे । इस विषयमें अपना अज्ञान स्वीकार करना और यह मान लेना अधिक तर्कसंगत होगा कि ईश्वरकी इस सृष्टिमें हर प्रकारके जीवनका –प्राणियोंका – कोई न कोई उपयोगी हेतु हैं, जिसका हमें धिरजसे पता लगानेका प्रयत्न करना चाहिये ।

ह., 9-1-’37


जुलाई 27

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मैं निश्चित रूपसे यह मानता हूं कि छोटेसे छोटा बहाना मिलते ही मनुष्यका वध कर डालनेकी मनुष्यकी आदतने उसकी बुध्दिको भ्रष्ट कर दिया है, और वह दूसरे प्राणियोंके साथ क्रूरताका व्यवहार करता है । यदि वह हृदयसे यह माने कि ईश्वर प्रेम और दयाका ईश्वर है, तो वह दूसरे प्राणियोंके साथ  क्रूरताका व्यवहार  करनेमें काँप उठेगा ।

ह., 17-12-’25


जुलाई 28

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प्राणियोंकी चीरफाड़की क्रियासे मैं अपनी समग्र आत्मासे घृणा करता हूं । विज्ञानके नाम पर और तथाकथित मानव-सेवाके नाम पर निर्दोष प्राणियोंका जो अक्षन्तव्य वध किया जाता है, उसे मैं धिक्कारता हूँ । निर्दोष प्राणियोंके रक्तसे कलंकित सारे वैज्ञानिक आविष्कारों और सारी खोजोंको मैं बिलकुल निरर्थक समझता हूँ ।

यं.इं.,26-12-’24


जुलाई 29

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जीवनके मेरे तत्त्वज्ञानमें साधन और साध्य पर्यायवाची शब्द हैं, दोनों एक-दूसरेका साथ ले सकते हैं ।

यं.इं.,26-12-’24


जुलाई 30

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लोग कहते हैं : “ साधन आखिर साधन ही हैं ।” मैं कहूँगा : “ साधन ही आखिर सब कुछ हैं।”  जैसे साधन हेंगे वैसा ही साध्य होगा । हिंसक साधनोंसे हमें हिंसक स्वराज्य ही मिलेगा । वह स्वराज्य संसारके लिए और स्वयं हिन्दुस्तानके लिए भी संकटरूप सिध्द होगा ।  फ्रन्सने अपनी स्वतंत्रता हिंसक साधनों द्वारा प्राप्त की । वह अभी तक अपनी इस हिंसाकी महँगी कीमत चुका रहा है ।

यं.इं.,17-7-’24


जुलाई 31

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साधन और साध्यके बीच दोनोंको अलग करनेवाली कोई दीवाल नहीं है । बेशक, सरजनहार प्रभुने साधनों पर नियंत्रण रखनेकी शक्ति हमें दी है (वह भी अत्यन्त सीमित मात्रामें), परन्तु साध्य पर नियंत्रण रखनेकी कोई शक्ति नहीं दी है । लक्ष्यकी सिध्दि ठीक साधनोंकी सिध्दिके अनुपातमें ही होती है । यह ऐसा सिध्दान्त है, जिसमें अपवादकी कोई गुंजाइश ही नहीं है ।

यं.इं.,17-7-’24


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