रौलेट बिल |
मार्च 1919 में सरकार ने इम्पीरियल लेजिस्लेटिव कौंसिल में चुन कर आये सभी भारतीयों का कड़ा विरोध होने पर भी रौलेट विधेयकों को शीघ्रता से पास करवा लिया। विधेयकों पर हुई बहस को गांधीजी ने दर्शक-गैलरी से सुना। उन्होंने वहां बिलों के विरोध में सदस्यों के युक्तियुक्त और जोशीले व्याख्यानों को सुना और विरोध के इस प्रबल स्वर को, सरकारी पक्ष के सम्मुख, चिकने घड़े पर पानी की तरह बहते देखा। इस सम्बन्ध में बाद में गांधीजी ने लिखा थाः "सच में कोई सो गया हो तो उसे आप जगा सकते हैं, लेकिन अगर कोई सोने का बहाना मात्र कर रहा हो तो उसके कान पर ढोल बजाने से क्या होगा?" उनका यह विश्वास दृढ़ हो गया कि भारत सरकार जनता की भावनाओं की ओर से पूरी तरह उदासीन है। लोकमत की जरा-सी भी कौ करने वाली सरकार ऐसे बिल को, जिसका सभी पक्षों और दलों के भारतीय नेताओं ने घोर विरोध किया, कानून का रूपकभी नहीं देती, चाहे उसमें अच्छाई ही क्यों न रही हो। जब वैधानिक उपायों से रौलेट विधेयकों के विरोध का कोई परिणाम नहीं निकला और वे पास हो गये तो गांधीजी ने अनुभव किया कि रौलेट कानूनों को रद्द कराने के लिए सत्याग्रह के अस्त्र का प्रयोग करना आवश्यक होगा। फरवरी 1919 में ही वह रौलेट विधेयकों के विरोध में प्रतिज्ञापत्र का प्रारूप तैयार करके प्रकाशित कर चुके थे। इसमें कहा गया थाः "यदि ये विधेयक कानून बन गए तो जब तक इन्हें वापस नहीं लिया जाएगा तब तक हम इन तथा अन्य ऐसे कानूनों को भी, जिन्हें इसके बाद नियुक्त की जाने वाली समिति उचित समझेगी, मानने से नम्रतापूर्वक इनकार कर देंगे। हम यह प्रतिज्ञा भी करते हैं कि इस संघर्ष में –ढ़ता से सत्य का पालन करेंगे और किसी की जानगमाल को हानि नहीं पहुंचाएंगे।"
यद्यपि
बीमारी के बाद अभी गांधीजी पूरी तरह स्वस्थ नहीं हो पाए थे, रौलेट विधेयक
कानून बन चुके थे। इसलिए उन्होंने चुनौती स्वीकार कर ली। जनता को
`सत्याग्रह` का अर्थ समझाने के लिए उन्होंने देश-व्यापी दौरा किया और
`सत्याग्रह सभा` के नाम से एक नया संगठन बनाया। उन्होंने एक दिन की हड़ताल
की घोषणा की ताकि उस दिन इन घृणित कानूनों के विरोध में सब लोग काम-काज
बन्द करके उपवास रखें और प्रार्थना करें। शोक या विरोध में हड़ताल करना इस
देश में कोई नयी बात नहीं थी, लेकिन एक दिन की राष्ट्रव्यापी राजनैतिक
हड़ताल बड़ा ही कौशलपूर्ण प्रहार था। दिल्ली में गलतफहमी से 6 अप्रैल के
बदले 30 मार्च को ही हड़ताल हो गई और थोड़ा खून-खराबा भी हुआ। गांधीजी ने
तुरन्त उपौवकारियों तथा स्थानीय अधिकारियों, दोनों की ज्यादतियों की
भर्त्सना की और कहा कि अधिकारियों ने तो मक्खी मारने के लिए हथौड़े का
प्रयोग किया। पंजाब में उत्तेजना बहुत बढ़ी और वहां के नेताओं का विचार था
कि वहां गांधीजी की उपस्थिति से शान्ति स्थापना में बड़ी सहायता मिलेगी।
लेकिन सरकार ने उन्हें वहां पहुंचने ही नहीं दिया। अभी वह दिल्ली भी नहीं
पहुंचे थे कि रास्ते में एक छोटे से स्टेशन पर वह रेलगाड़ी से उतार लिए गए।
गिरफ्तार करके उन्हें दूसरी गाड़ी से बम्बई पहुंचाया गया, जहां उन्हें छोड़
दिया गया। वह फिर दिल्ली के लिए चल पड़ते लेकिन उन्हें पता चला कि उनकी
अनुपस्थिति में बम्बई, अहमदाबाद, नडियाद और दूसरी जगहों में दंगे हो गए
हैं। उनके अपने ही प्रान्त के लोग अहिंसा के सिद्धांत को भूल जाएंगे, इसकी
तो गांधीजी को स्वप्न में भी आशंका नहीं थी। वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि
लोगों के अन्दर हिंसा के छिपे आवेग को सही-सही आंकने में उनसे भूल हो गई
है। उन्होंने अपने कदम पीछे हटाने, फिर गिरफ्तार न होने, सत्याग्रह को
सीमित रखने और अन्ततः स्थगित करने का
निश्चय
किया। जनता को पूरी तरह तैयार किये बिना सत्याग्रह आन्दोलन शुरू करने को
उन्होंने 'हिमालय पर्वत जैसी बड़ी भूल' बताया और उस भूल के
प्रायश्चित
के लिए तीन दिन का उपवास किया। लेकिन अंग्रेजी राज में उनकी आस्था अभी भी पूरी तरह नष्ट नहीं हुई थी। पंजाब के क्रूर दमन के लिए उन्होंने कुछ सनकी अंग्रेज अफसरों को जिम्मेदार माना और यह आशा प्रकट की कि सत्य मालूम हो जाने पर सरकार हालत को जरूर सुधारेगी। इसमें उन्हें निराश होना पड़ा। पंजाब में दमन करने वाले अधिकारियों को वहां से तुरन्त नहीं हटाया गया, उल्टे भारत में आए यूरोपीय लोगों ने उनको बड़ा महत्व और सम्मान दिया। जब हण्टर समिति की रिपोर्ट प्रकाशित हुई तो गांधीजी को लगा कि वह लीपागपोती करने की कोशिश से अधिक कुछ न थी। ब्रिटिश संसद में पंजाब पर हुई बहस सुनने के बाद एक भारतीय संवाददाता ने गांधीजी को लिखा था : "हमारे मित्रों ने अपना अज्ञान प्रकट किया, हमारे शत्रुओं ने अपनी तिरस्कारपूर्ण ढिठाई।" संकोच और दुखपूर्वक, गांधीजी को यह मानना पड़ा कि जिस शासन-प्रणाली को वह सुधारने की कोशिश करते रहे थे, उसका तो अन्त ही करना पड़ेगा। गांधीजी का ब्रिटिश साम्राज्य से सम्बन्ध इतने नाटकीय ढंग से और एकाएक नहीं टूटता यदि इसी बीच उस समय की भारतीय राजनीति का एक दूसरा तत्व सामने न आता, जिसे खिलाफत 8 आन्दोलन कहते हैं। विजयी ब्रिटेन और उसके मित्रराष्ट्रों के साथ तुर्की में जिन शर्त़ों पर शांति होने की संभावना थी और पश्चिम एशिया में मुसलमानों के तीर्थ स्थानों का जो हाल होने को था, इन दो बातों पर भारत के मुसलमान बहुत क्षुब्ध थे। गांधीजी को आशंका थी कि कोई रास्ता न मिलने से मुसलमानों का नैराश्य बांध तोड़ कर हिंसा का रूप ग्रहण कर लेगा। इसलिए उन्होंने प्रस्ताव रखा कि यदि मुसलमान उनकी प्रविधि अपनाएं तो वह खिलाफत के प्रश्न पर आन्दोलन में उनका नेतृत्व करेंगे। यह महत्वपूर्ण बात है कि सितम्बर 1920 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा अनुमोदन किए जाने के पहले ही खिलाफत-आन्दोलन के नेताओं ने गांधीजी के अहिंसात्मक असहयोग के कार्यक्रम को स्वीकार कर लिया था। |