भारत वापसी |
9 जनवरी, 1915 को जब गांधीजी बम्बई के अपोलो बन्दरगाह पर उतरे तो एक राष्ट्रीय वीर जैसा ही उनका स्वागत हुआ। तीन दिन बाद बम्बई के धनी-मानी व्यक्ति जहांगीर पेटिट के भव्य भवन में नागरिकों की ओर से उनके सम्मान में एक शानदार स्वागत-समारोह किया गया। गांधीजी को सम्मानित करने में भारत सरकार भी पीछे न रही। 1915 के नए साल के खिताबों में उन्हें सरकार की ओर से 'कैसर-ए-हिन्द' स्वर्ण पदक प्रदान किया गया। गोखले जैसे उदार नेता से सम्बन्ध होने के कारण वह खतरनाक राजनीतिक कार्यकर्ता नहीं समझे गए। दक्षिण अफ्रीका में उन्होंने असंवैधानिक आन्दोलन जरूर चलाया था जिसमें लोगों ने कानून की अवहेलना की और जेल गए थे। लेकिन उस आंदोलन का कारण जितना राजनीतिक था उतना ही मानवीय भी। सभी भारतीयों और वर्ण-द्वेष अथवा राजनैतिक कारणों से जिनका मन दूषित नहीं हो गया था, ऐसे सभी अंग्रेजों की सहानुभूति उस आंदोलन से थी। फिर जब भारत के वाइसराय लार्ड हार्डिगे ने भी सत्याग्रह-आंदोलन का समर्थन कर दिया तब तो उस पर से विौाsह का कलंक अवश्य ही हट गया था।
पूना से एक तार प्राप्त होने पर कि गोखले का देहान्त हो गया, गांधीजी को शान्ति निकेतन से तुरन्त लौटना पड़ा। क्षण भर के लिए तो वह स्तम्भित रह गए। साल भर तक उन्होंने गोखले के देहावसान का शोक मनाया, नंगे पैर रहे और अपने मार्गदर्शक के प्रति सम्मान में पुनः 'भारत सेवक समिति' का सदस्य बनने का प्रयास किया। लेकिन यह देख कर कि सदस्यों में इस विषय पर गहरा मतभेद है, उन्होंने अपनी अर्जी वापस ले ली। |