बचपन |
मोहनदास गांधी का जन्म 2 अक्तूबर, 1869 को भारत के पश्चिमी तट पर पोरबन्दर में हुआ था। उनके दादा उत्तमचन्द गांधी और पिता करमचन्द गांधी पोरबन्दर रियासत में दीवान के उच्च पद पर प्रतिष्ठित थे। उन दिनों किसी रियासत की दीवानगिरी चैन की नौकरी नहीं थी। पोरबन्दर पश्चिमी भारत की तीन सौ रियासतों में से एक था, जिस पर उन राजाओं ने शासन किया जो मात्र राजकुल में जन्म लेने के कारण और अंग्रेजों की सहायता से सिंहासन पर विराजमान हुए। मनमानी करने वाले राजाओं, सर्वोच्च ब्रिटिश सत्ता के निरंकुश प्रतिनिधि 'पोलिटिकल एजेंटों' और युगों से दबीगकुचली प्रजा के बीच निरापद कर्त्तव्य निर्वाह करने के लिए काफी धैर्य, कूटनीतिक कौशल और व्यावहारिक बुद्धि की जरूरत होती थी। उत्तमचन्द और करमचन्द, दोनों ही कुशल प्रशासक होने के साथ-साथ सच्चे और प्रतिष्ठित व्यक्ति भी थे। वे स्वामिभक्त थे लेकिन अप्रिय और हितकर सलाह देने में भी नहीं हिचकते थे। अपने इस विश्वास पर साहस के साथ अडिग रहने के कारण उन्हें कष्ट झेलने पड़े। शासक की सेना ने उत्तमचन्द गांधी के घर को घेर लिया और उस पर गोले बरसाये। उन्हें रियासत से भागना पड़ा। उनके पुत्र करमचन्द ने भी अपने सिद्धान्तों पर अटल रह कर पोरबन्दर से हट जाना ही पसन्द किया । स्वयं गांधीजी के शब्दों में, उनके पिता ''स्वगोत्र प्रेमी, सत्यवादी, वीर और उदार'' व्यक्ति थे। युवा मोहनदास पर सर्वाधिक रचनात्मक प्रभाव उनकी माता पुतलीबाई का था। वह बड़ी योग्य महिला थी। राजमहल की महिलाओं से मित्रता होने के कारण उनका प्रभाव राजदरबार के लोगों पर भी था। लेकिन स्वयं उन्हें अपने घर और परिवार के कार्य़ों में अधिक रूचि थी। परिवार में जब भी कोई बीमार पड़ता तो वह उसकी परिचर्या में रातगदिन एक कर देती। अपने युग और वर्ग की नारियों में आभूषणों और सजधज के प्रति आम तौर पर पाये जाने वाले शौक से वह करीबगकरीब मुक्त थी। उनका जीवन तो मानो उपवास और व्रतों की अटूट श्रृंखला थी। उनकी क्षीण काया इन व्रतों को विीवास की शक्ति मात्र से झेलती प्रतीत होती थी। दिन और रात, चाहे वह घर में हों या मन्दिर में, बच्चे उन्हें हर समय घेरे रहते थे। उनके व्रत और उपवास बच्चों की समझ में नहीं आते थे पर साथ ही उन्हें आकर्षित भी करते। धर्मग्रंथों में वह पारंगत नहीं थी। पढ़ी-लिखी भी कुछ खास नहीं थी। अटक-अटक कर केवल कुछ गुजराती पढ़ लेती थी। लेकिन उनके अनन्त प्रेम, असीम तपोमय व्रतों और अटल इच्छा-शक्ति की, उनके सबसे छोटे पुत्र मोहनदास पर अमिट छाप पड़ी। अपनी मां के इस स्वरूप के कारण नारी की जो प्रतिमा उनके हृदय पर अंकित हुई, वह थी प्रेम और बलिदान की। मां के वात्सल्य का कुछ अंश गांधीजी ने स्वयं भी आत्मसात किया और उम्र के साथ इसका प्रवाह इस तेजी से बढ़ा कि अन्ततः परिवार और समुदाय की सीमाओं को तोड़ कर सारी मानवता में व्याप्त हो गया। गांधीजी को अपनी माता से न केवल रोगी की सेवागसुश्रुषा करने का वह सबक मिला, जिससे वह अपने आश्रम में कुष्ठ रोगी के घावों को स्वयं ही धोते थे, किन्तु आत्मपीड़न द्वारा दूसरों के हृदय को प्रभावित और ौवित करने के कौशल की प्रेरणा भी मिली, जिसका कि पत्नियां और माताएं अनन्त काल से प्रयोग करती आ रही है। किशोर मोहनदास का स्कूल का जीवन साधारण था। वह न तो पढ़ाई में तेज थे और न खेल में। स्वभाव से ही शान्त, झेंपू और एकान्तप्रिय इस लड़के के मुंह से लोगों के सामने बोली तक नहीं निकलती थी। औसत दर्जे का विद्यार्थी समझे जाने की उसे जरा भी फिक्र न थी, लेकिन अपनी प्रतिष्ठा बनाये रखने के प्रति वह अतीव सतर्क था। उसे इस बात का गर्व था कि अपने शिक्षकों और सहपाठियों से वह कभी झूठ नहीं बोलता। चरित्र पर तनिक भी लांछन से उसके नेत्र डबडबा आते थे। बढ़ती उम्र के अधिकांश बच्चों की तरह उसके जीवन में भी एक विद्रोही दौर आया, लेकिन, जैसा गांधीजी की आत्मकथा से प्रतीत होता है, मोहन की किशोरावस्था उसकी उम्र के दूसरे लड़कों से अधिक उम्र नहीं थी। मांसगभक्षण और धूम्रमान जैसे निषिद्ध कार्य करने का दुस्साहस या छोटी-मोटी चोरियां, इस उम्र के लड़कों के लिए न तब कोई असाधारण बात थी और न अब है। लेकिन विशेष बात तो यह है कि मोहन के उन दुस्साहसपूर्ण कार्य़ों का अन्त असाधारण होता था। जब भी वह सन्मार्ग से भटक जाता तब उसके सामने एक समस्या उठ खड़ी होती, जिसका हल वह नैतिक आधार पर ढूंढ़ता। ऐसी हर शरारत के बाद वह ''अब कभी नहीं'' की प्रतिज्ञा करता और उसे निभाता। |