अहिंसा
 

अहिंसा का दिव्य संदेश

मानव जाति के नियम

मैं स्वप्नंष्टा नहीं हूं। मैं स्वयं को एक व्यावहारिक आदर्शवादी मानता हूं। अहिंसा का धर्म केवल ऋषियों और संतों के लिए नहीं है। यह सामान्य लोगों के लिए भी है। अहिंसा उसी प्रकार से मानवों का नियम है जिस प्रकार से हिंसा पशुओं का नियम है। पशु की आत्मा सुप्तावस्था में होती है और वह केवल शारीरिक शक्ति के नियम को ही जानता है। मानव की गरिमा एक उच्चतर नियम आत्मा के बल का नियम के पालन की अपेक्षा करती है...

जिन ऋषियों ने हिंसा के बीच अहिंसा की खोज की, वे न्यूटन से अधिक प्रतिभाशाली थे। वे स्वयं वेलिंग्टन से भी बडे योद्धा थे। शस्त्रो के प्रयोग का ज्ञान होने पर भी उन्होंने उसकी व्यर्थता को पहचाना और श्रांत संसार को बताया कि उसकी मुक्ति हिंसा में नहीं अपितु अहिंसा में है।

(यंग, 11-8-1920, पृ. 3)

मेरी अहिंसा

मैं केवल एक मार्ग जानता हूं - अहिंसा का मार्ग। हिंसा का मार्ग मेरी प्रछति के विरुद्ध है। मैं हिंसा का पाठ पढाने वाली शक्ति को बढाना नहीं चाहता... मेरी आस्था मुझे आश्वस्त करती है कि ईश्वर बेसहारों का सहारा है, और वह संकट में सहायता तभी करता है जब व्यक्ति स्वयं को उसकी दया पर छोड देता है। इसी आस्था के कारण मैं यह आशा लगाए बैठा हूं कि एक-न-एक दिन वह मुझे ऐसा मार्ग दिखाएगा जिस पर चलने का आग्रह मैं अपने देशवासियों से विश्वासपूर्वक कर सकूंगा।

(यंग,  11-10-1928, पृ. 342)


मैं जीवन भर एक 'जुआरी' रहा हूं। सत्य का शोध करने के अपने उत्साह में और अहिंसा में अपनी आस्था के अनवरत अनुगमन में, मैंने बेहिचक बडे-से-बडे दांव लगाए हैं। इसमें मुझसे कदाचित गलतियां भी हुई हैं, लेकिन ये वैसी ही हैं जैसी कि किसी भी युग या किसी भी देश के बडे-से-बडे वैज्ञानिकों से होती हैं।

(यंग, 20-2-1930, पृ. 61)


मैंने अहिंसा का पाठ अपनी पत्नी से पढा, जब मैंने उसे अपनी इच्छा के सामने झुकाने की कोशिश की। एक ओर, मेरी इच्छा के दृढ प्रतिरोध, और दूसरी ओर, मेरी मूर्खता को चुपचाप सहने की उसकी पीडा को देखकर अंततः मुझे अपने पर बडी लज्जा आई, और मुझे अपनी इस मूर्खतापूर्ण धारणा से मुक्ति मिली कि मैं उस पर शासन करने के लिए ही पैदा हुआ हूं। अंत में, वह मेरी अहिंसा की शिक्षिका बन गई।

(हरि, 24-12-1938, पृ. 394)


अहिंसा और सत्य का मार्ग तलवार की धार के समान तीक्ष्ण है। इसका अनुसरण हमारे दैनिक भोजन से भी अधिक महत्वपूर्ण है। सही ढंग से लिया जाए तो भोजन देह की रक्षा करता है, सही ढंग से अमल में लाई जाए तो अहिंसा आत्मा की रक्षा करती है। शरीर के लिए भोजन नपी-तुली मात्रा में और निश्चित अंतरालों पर ही लिया जा सकता है; अहिंसा तो आत्मा का भोजन है, निरंतर लेना पडता है। इसमें तृप्ति जैसी कोई चीज नहीं है। मुझे हर पल इस बात के प्रति सचेत रहना पडता है कि मैं अपने लक्ष्य की ओर बढ रहा हूं और उस लक्ष्य के हिसाब से अपनी परख करती रहनी पडती है।

परिवर्तनरहित पंथ

अहिंसा के मार्ग का पहला कदम यह है कि हम अपने दैनिक जीवन में परस्पर सच्चाई, विनम्रता, सहिष्णुता और प्रेममय दयालुता का व्यवहार करें। अंग्रेजी में कहावत है कि ईमानदारी सबसे अच्छी नीति है। नीतियां तो बदल सकती हैं और बदलती हैं। किंतु अहिंसा का पंथ अपरिवर्तनीय है। अहिंसा का अनुगमन उस समय करना आवश्यक है जब तुम्हारे चारों ओर हिंसा का नंगा नाच हो रहा हो। अहिंसक व्यक्ति के साथ अहिंसा का व्यवहार करना कोई बडी बात नहीं है। वस्तुतः यह कहना कठिन है कि इस व्यवहार को अहिंसा कहा भी जा सकता है या नहीं। लेकिन अहिंसा जब हिंसा के मुकाबले खडी होती है, तब दोनों का फर्क पता चलता है। ऐसा करना तब तक संभव नहीं है जब तक कि हम निरंतर सचेत, सतर्क और प्रयासरत न रहें।

(हरि, 2-4-1938, पृ. 64)


अहिंसा उच्चतम कोटि का सव्यि बल है। यह आत्मबल अर्थात हमारे अंदर बैठे ईश्वरत्व की शक्ति है। अपूर्ण मनुष्य उस तत्व को पूरी तरह नहीं पकड सकता - वह उसके संपूर्ण तेज को सहन नहीं कर पाएगा, किंतु उसका अत्यल्प अंश भी हमारे अंदर सव्यि हो जाए तो उसके अद्भुत परिणाम निकल सकते हैं।

कुरान और अहिंसा

बारी साहब ने मुझे भरोसा दिलाया है कि पवित्र कुरान में सत्याग्रह का पर्याप्त प्रमाण उपलब्ध है। वे कुरान की इस व्यवस्था से सहमत हैं कि यद्यपि किन्हीं निर्दिष्ट परिस्थितियों में हिंसा का सहारा लेने की इजाजत है, पर खुदा को संयम ज्यादा प्यारा है, और यही प्रेम का नियम है। यही सत्याग्रह है। हिंसा मानव दुर्बलता के प्रति एक रियायत है, सत्याग्रह एक कर्तव्य है। व्यावहारिक दृष्टि से भी देखा जाए तो हिंसा कोई भलाई नहीं पहुंचा सकती बल्कि बेहिसाब नुकसान ही पहुंचा सकती है।

(यंग, 14-5-1919,'कम्युनल यूनिटी' में उद्धृत, पृ. 985)

सत्य का मार्ग

अहिंसा के प्रति मेरा प्रेम सभी लौकिक अथवा अलौकिक वस्तुओं से बढकर है। इसकी बराबरी केवल सत्य के प्रति मेरे प्रेम के साथ की जा सकती है जो मेरी दृष्टि में अहिंसा का समानार्थक है; केवल अहिंसा के माध्यम से ही मैं सत्य को देख और उस तक पहुंच सकता हूं।

(यंग, 20-2-1930, पृ. 61)


...अहिंसा के बिना सत्य का शोध और उसकी प्राप्ति असंभव है। अहिंसा और सत्य एक-दूसरे से इस प्रकार गुंथे हुए हैं कि उन्हें पृथक करना प्रायः असंभव है। वे सिक्के, बल्कि कहिए कि धातु की चिकनी और बिना छाप वाली चव्का के दो पहलू हैं। कौन बता सकता है कि सीधा पहलू कौन-सा है और उल्टा कौन-सा ? फिर भी, अहिंसा साधन है और सत्य साध्य है। साधन वही है जो हमारी पहुंच के भीतर हो और इस प्रकार अहिंसा हमारा सर्वोपरि कर्तव्य है। यदि हम साधन को ठीक रखें तो देर-सबेर साध्य तक पहुंच ही जाएंगे। एक बार इस मुद्दे को समझ जाएं तो अंतिम विजय असंदिग्ध है।

(फ्रायम, पृ. 12-13)

कायरता की आड नहीं

मेरी अहिंसा इस बात की इजाजत नहीं देती कि खतरा सामने देखकर अपने प्रियजनों को असुरक्षित छोडकर खुद भाग जाओ। हिंसा और कायरतापूर्ण पलायन में से मैं हिंसा को ही तरजीह दूंगा। जिस प्रकार मैं किसी अंधे आदमी को सुंदर दृश्यों का आनंद लेने के लिए प्रेरित नहीं कर सकता, उसी प्रकार कायर को अहिंसा का पाठ नहीं पढा सकता। अहिंसा तो वीरता की चरम सीमा है। मेरे अपने अनुभव में, मुझे हिंसा में विश्वास रखने वाले लोगों को अहिंसा की श्रेष्ठता सिद्ध करने में कोई कठिनाई नहीं हुई। मैं वर्ष़ों तक कायर रहा और उन दिनों मुझे कई बार हिंसा पर उतारू होने की इच्छा हुई। जब मैंने कायरता को त्यागना आरंभ किया, तब अहिंसा की कं करने लगा। वे हिंदू जो खतरा सामने देखकर अपनी जिम्मेदारी छोडकर भाग खडे हुए, अहिंसक होने के नाते या वार करने से डरने की वजह से नहीं भागे बल्कि इसलिए भागे कि वे मरने या चोट खाने के लिए तैयार नहीं थे। खूंख्वार कुने को देखकर भाग जाने वाला खरगोश इसलिए नहीं भागता कि वह बडा अहिंसक है। वह बेचारा तो कुने को देखते ही भय से कांपने लगता है और अपनी जान बचाने के लिए भागता है।

(यंग, 28-5-1924, पृ. 178)


 अहिंसा  कायरता की आड नहीं है, बल्कि यह वीर का सर्वोच्च गुण है। अहिंसा के व्यवहार के लिए तलवारबाजी से ज्यादा वीरता की जरूरत है। कायरता और अहिंसा का कोई मेल नहीं है। तलवारबाजी को छोडकर अहिंसा को अपनाना संभव है, और कभी-कभी आसान भी है। अतः अहिंसा की पूर्वशर्त यह है कि अहिंसक व्यक्ति में वार करने की क्षमता हो। अहिंसा मनुष्य की प्रतिशोध लेने की भावना का सचेतन और जाना-बूझा संयमन है। लेकिन निष्व्यि, स्त्रSण और विवश अधीनता से तो प्रतिशोध ही हर हालत में श्रेष्ठ है। क्षमा और भी । उंची चीज है। प्रतिशोध दुर्बलता है। प्रतिशोध की भावना काल्पनिक अथवा वास्तविक हानि की आशंका के कारण उत्पन्न होती है। कुना डर के कारण भौंकता और काटता है। जो आदमी दुनिया में किसी से नहीं डरता, वह उस व्यक्ति पर वेधित होने की तकलीफ क्यों उठाना चाहेगा जो उसे नुकसान पहुंचाने का निरर्थक प्रयास कर रहा है ? सूर्य उन बच्चों से प्रतिशोध नहीं लेता जो उस पर धूल उछालते हैं। धूल उछालने के प्रयास में बच्चे खुद ही गंदे हो जाते हैं।

(यंग, 12-8-1926, पृ. 285)


अहिंसा का मार्ग हिंसा के मार्ग की तुलना में कहीं ज्यादा साहस की अपेक्षा रखता है।

(हरि, 4-8-1946, पृ. 248-49)

विनम्रता आवश्यक

यदि मनष्य में ... गर्व और अहंकार हो तो उसमें अहिंसा नहीं टिक सकती। विनम्रता के बिना अहिंसा असंभव है। मेरा अपना अनुभव है कि जब-जब मैंने अहिंसा का आश्रय लिया है, किसी अदृष्ट शक्ति ने मेरा मार्गदर्शन किया है और मुझे उस पर आरूढ रखा है। यदि मैं अपनी ही इच्छा के बलबूते रहता तो बुरी तरह नाकामयाब हो गया होता। जब मैं पहली बार जेल गया तो काफी घबराया हुआ था। मैंने जेल-जीवन के बारे में बडी-बडी भयावह बातें सुनी थम्। लेकिन मुझे ईश्वर के संरक्षण में आस्था थी। हमारा अनुभव यह रहा कि जो लोग मन में प्रार्थना का भाव लेकर जेल गए थे, वे विजयी होकर लौटे, और जो अपनी ही शक्ति के बूते पर गए थे, वे नाकामयाब हो गए। जब आप यह कहते हैं कि ईश्वर आपको शक्ति दे रहा है, तो उसमें आत्मदया का कोई भाव नहीं होता। आत्मदया की बात तब पैदा होती है जब आपको दूसरों से मान्यता पाने की आकांक्षा हो। लेकिन यहां तो मान्यता का कोई प्रश्न ही नहीं है।

(हरि, 28-1-1939, पृ. 442)


जब मैंने अपनी हस्ती को पूरी तरह मिटाना सीख लिया तभी मैं दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह की शक्ति का विकास कर पाया

(हरि, 6-5-1939, पृ. 113)


'पाप से घृणा करो, पापी से नहीं', एक ऐसा नीतिवचन है जिसे समझना तो काफी आसान है, पर जिस पर आचरण शायद ही कभी किया जाता है। इसीलिए दुनिया में घृणा का विष फैलता चला जा रहा है।

अहिंसा की कसौटी यह है कि अहिंसक संघर्ष में कोई विद्वेष बाकी नहीं रहता और अंत में शत्रु भी मित्र बन जाते हैं। दक्षिण अफ्रीका में जनरल स्मट्स के साथ मेरा यही अनुभव रहा। वह शुरू में मेरा कट्टर विरोधी और आलोचक था। आज वह मेरा परम स्नेही मित्र है

(हरि, 12-11-1938, पृ. 327)


पारस्परिक सहिष्णुता अहिंसा है। इसलिए आपको जैसे ही इस बात की प्रतीति हो जाए कि अहिंसा जीवन का नियम है, उसे उन पर आजमाना चाहिए जो आपके प्रति हिंसक व्यवहार कर रहे हैं, और यह नियम जिस प्रकार व्यक्तियों पर लागू है, उसी प्रकार राष्टों पर भी लागू होता है। बेशक, इसका प्रशिक्षण आवश्यक है। शुरुआत हमेशा छोटी-छोटी घटनाओं से ही होती है। लेकिन प्रतीति हो तो बाकी बातें अपने आप ठीक होने लगती हैं।

(हरि, 28-1-1939, पृ. 441-42)

बडे पैमाने पर इस्तेमाल

यह हमारा दुर्भाग्य है कि हम बडे पैमाने पर वीर की अहिंसा से परिचित नहीं हैं। लोगों को, बडे जन-समूहों की तो बात छोडिए, छोटे-छोटे वर्ग़ों द्वारा अहिंसा के प्रयोग के विषय में भी संदेह है। वे अहिंसा के व्यवहार को असाधारण व्यक्तियों तक सीमित मानते हैं। यदि यह केवल व्यक्तियों के लिए ही सुरक्षित है तो फिर, मानव जाति के लिए इसका क्या उपयोग?

(हरि, 8-9-1946, पृ. 296)

अहिंसक समाज

मैं अहिंसा को केवल व्यक्तिगत सद्गुण नहीं मानता। यह एक सामाजिक सद्गुण भी है जिसका विकास अन्य सद्गुणों की तरह ही किया जाना चाहिए। इसमें कोई संदेह नहीं कि पारस्परिक व्यवहार में समाज प्रायः अहिंसा की अभिव्यक्ति से ही संचालित होता है । मेरा कहना सिर्फ यह है कि इसका और बडे पैमाने राष्टींय तथा अंतर्राष्टींय पर विस्तार किया जाना चाहिए

(हरि, 7-1-1939, पृ. 417)


जनता के स्वराज का अर्थ है, सभी व्यक्तियों के स्वराज का पूर्ण योग। और यह स्वराज लोगों द्वारा नागरिकों के रूप में अपने कर्तव्य के पालन से ही उत्पन्न होता है। इसमें अपने अधिकारों के विषय में कोई नहीं सोचता। वे जब बेहतर कर्तव्यपालन के लिए आवश्यक होते हैं, तब मिल जाते हैं

(हरि, 25-3-1939, पृ. 64)


अहिंसा पर आधारित स्वराज में कोई किसी का शत्रु नहीं होता, प्रत्येक व्यक्ति सार्वजनिक लक्ष्य के लिए अपने हिस्से का योगदान करता है, सभी लिख-पढ सकते हैं और लोगों का ज्ञान निरंतन बढता जाता है। बीमारी और रोग कम-से-कम रह जाते हैं। कोई कंगाल नहीं होता और श्रमिक के लिए हमेशा रोजगार उपलब्ध रहता है। ऐसी सरकार में जुआ, शराब, अनैतिकता और वर्ग-द्वेष के लिए कोई स्थान नहीं होता।

स्वराज में अमीर अपने धन को बुद्धिमानी के साथ उपयोगी काम पर खर्च करेंगे और उसे अपनी शान-शौकत तथा भोग-विलास में बढोतरी करने के लिए बरबाद नहीं करेंगे। ऐसा नहीं होना चाहिए कि अमीर तो जडा। महलों में रहें और करोडों लोग टूटी-फूटी झोंपडियों में रहें जिनमें न सूरज की रोशनी पहुंचती हो, न हवा...

हिंसा और आतंकवाद

मेरा अनुभव मुझे बताता है कि हिंसा के रास्ते पर चलकर सत्य का प्रचार कभी नहीं किया जा सकता। जिन्हें अपने लक्ष्य की न्यायोचितता में विश्वास है, उनमें असीम धैर्य होना आवश्यक है और सविनय अवज्ञा में भाग लेने के लिए योग्य व्यक्ति वही हैं जो आपराधिक अवज्ञा या हिंसा पर कभी उतारू नहीं होंगे

(यंग, 28-4-1920, पृ. 8)


मुझे हिंसा से आपनि इसलिए है कि जब यह प्रतीत होता है कि इससे भलाई हो रही है तो वह भलाई केवल अस्थायी होती है, पर इससे जो बुराई फैलती है, वह स्थायी होती है

(यंग, 21-5-1925, पृ. 178)


मुझे वीर एवं आत्मबलिदानी वंतिकारी के सामने तनकर खडे होने में कोई संकोच नहीं है, क्योंकि मैं उतनी ही मात्रा में अहिंसक की वीरता एवं बलिदान की भावना प्रदर्शित कर सकता हूं, और उस पर किसी निर्दोष के रक्त का दाग भी नहीं होगा। एक निर्दोष व्यक्ति का आत्मबलिदान उन लाखों लोगों के बलिदान से ज्यादा असर पैदा करता है जो दूसरों को मारने की व्या में मर जाते हैं। निर्दोष व्यक्ति का स्वेच्छया बलिदान धष्ट वीरता का, ईश्वर या मनुष्य द्वारा अभी तक सोचा गया सबसे शक्तिशाली प्रतिकार है

सरफरोशी की तमन्ना से भरकर फांसी के तख्ते पर झूल जाने की अपेक्षा भूखी जनता के बीच उसके साथ-साथ धीरे-धीरे और शानदार न दिखने वाले तरीके से स्वेच्छापूर्वक भुखमरी का शिकार होना हर हालत में ज्यादा वीरतापूर्ण कृत्य है।

(यंग, 12-2-1925, पृ. 60)


मैं किसी भी परिस्थिति में मारने, हत्या करने या आतंकवादी कार्रवाई करने को अच्छा नहीं मानता। मैं यह जरूर विश्वास करता हूं कि शहीदों के खून से सम्चे जाने पर विचार बहुत जल्दी परिपक्व होते हैं। लेकिन जो व्यक्ति सेवा करते-करते जंगल ज्वर से पीडित होकर धीरे-धीरे मरता है, वह भी वैसी ही शहादत देता है जैसी कि फांसी के फंदे पर झूलने वाला व्यक्ति और अगर फांसी पर लटकने वाले के ।पर किसी निर्दोष की हत्या का दोष है, तो मैं मानूंगा कि उसके विचार ही ऐसे नहीं थे जो परिपक्व होने लायक हों।

क्रांति आत्मघातक

मुझमें अपने जीवन-दर्शन की शिक्षा देने की योग्यता नहीं है। मुझमें मुश्किल इतनी योग्यता है कि मैं जिस दर्शन में विश्वास करता हूं, उस पर आचरण कर सकूं... क्रांतिकारी मेरे समूचे दर्शन को अस्वीकार करने के लिए स्वतंत्र हैं... लेकिन भारत की तुलना तुर्की, आयरलैंड या रूस जैसे देशों से नहीं की जा सकती और राष्टींय जीवन के इस मोड पर वंतिकारी गतिविधियां हर तरह से आत्मघातक हैं। यदि दीर्घकालीन दृष्टि से भी देखें तो इतने विशाल, बुरी तरह विभाजित और घोर कंगाली तथा आतंक से त्रस्त जनता के देश में वंतिकारी गतिविधियां कैसे सफल हो सकती हैं ?

(वही, पृ. 126)


क्रांतिकारी विरोधी के शरीर का हनन यह मानकर करता है कि इससे विरोधी की आत्मा का कल्याण होगा... मैं एक भी ऐसे वंतिकारी को नहीं जानता जिसने विरोधी की आत्मा के विषय में सोचा तक हो। उसका एकमात्र उद्देश्य देश का कल्याण करना है, भले ही विरोधी का शरीर और आत्मा, दोनों नष्ट हो जाएं

(यंग, 30-4-1925, पृ. 153)


मैं अराजकतावादी को उसके देशप्रेम के लिए सम्मान देता हूं। मैं देश के लिए मर मिटने की उसकी तत्परता में निहित वीरता के लिए उसका सम्मान करता हूं, लेकिन मैं उससे एक बात पूछता हूं : क्या हत्या करना सम्मानयोग्य है ? क्या सम्माननीय मौत के लिए हत्यारे की कटार जरूरी है ? मैं इसे नहीं मानता

(स्पीरा, पृ. 323)


मैं अपनी सुविचारित राय को दुहराना चाहूंगा कि, अन्य देशों के बारे में जो भी स्थिति हो, कम-से-कम भारत में राजनीतिक हत्या देश को सिर्फ नुकसान पहुंचा सकती है

(यंग, 16-4-1931, पृ. 75)


इतिहास के पृष्ठ आजादी के लिए संघर्ष करने वालों के रक्त से रंजित हैं। मैं एक भी उदाहरण ऐसा नहीं जानता जिसमें घोर परिश्रम किए बगैर कोई राष्टं अपना अभ्युदय कर पाया हो। हत्यारे की कटार, विष का प्याला, बंदूकधारी की गोली, भाला आजादी के दीवानों द्वारा विनाश के इन सभी उपायों का आश्रय लिया जा चुका है... मैं आतंकवादी के पक्ष का समर्थन नहीं करता

(यंग, 24-12-1931, पृ. 408)

हिंसा और कायरता के बीच चुनाव

समूची प्रजाति के नपुंसक हो जाने का खतरा उठाने के मुकाबले मैं हिंसा को हजार गुना बेहतर समझता हूं

(यंग, 4-8-1920, पृ. 5)


पर मैं भारत को बेबस नहीं मानताकृमैं स्वयं को बेबस प्राणी नहीं मानता... शक्ति शारीरिक क्षमता में निहित नहीं है । वह अदम्य इच्छा से उत्पन्न होती है

(यंग, 11-8-1920, पृ. 3)


दुनिया केवल तर्क के सहारे नहीं चलती। जीवन में थोडी-बहुत हिंसा तो है ही । अतः हमें न्यूनतम हिंसा के रास्ते को अपनाना है

(हरि, 28-9-1934, पृ. 259)

कायरता नहीं

आदमी शरीर से कितना ही कमजोर हो, पर यदि पलायन लज्जा की बात है तो उसे मुकाबले पर डटे रहना चाहिए और कर्तव्यपालन करते हुए मृत्यु का वरण करना चाहिए। यही अहिंसा तथा वीरता है। वह कितना ही कमजोर हो, पर अपने शत्रु पर शक्ति भर वार करे और ऐसा करते-करते मृत्यु को प्राप्त हो जाए यह वीरता है, यद्यपि यह अहिंसा नहीं है। यदि आदमी संकट का सामना करने के बजाए भाग खडा होता है, तो यह कायरता है। पहले मामले में, आदमी के हृदय में प्रेम अथवा दयालुता का भाव होगा। दूसरे और तीसरे मामले में, उसके हृदय में घृणा अथवा अविश्वास और भय के भाव होंगे

(हरि, 17-8-1935, पृ. 211)


संकट का सामना करने के बजाए उससे भाग खडा होना मनुष्य और ईश्वर ही नहीं बल्कि स्वयं अपने आत्मविश्वास को खो देना है। विश्वास का ऐसा दिवाला निकालकर जीने से तो डूबकर मर जाना बेहतर है

(हरि, 24-11-1946, पृ. 410)


अहिंसा ऐसे व्यक्ति को नहीं सिखाई जा सकती जो मरने से भय खाता है और जिसमें प्रतिरोध की शक्ति ही नहीं है। लाचार चूहे को, जो हमेशा बिल्ली का शिकार बनता है, अहिंसक नहीं कहा जा सकता। उसका बस चले तो जरूर बिल्ली को खा जाए, पर वह उसे देखते ही भाग खडा होता है। हम उसे कायर नहीं कहते, क्योंकि प्रकृति ने उसे जैसा बनाया है वह वैसा ही व्यवहार करता है।

आक्रमण का प्रतिरोध

वीरता का जवाब वीरता से देना अपने नैतिक और बौद्धिक दिवालियापन को स्वीकार करना है और यह केवल एक दुष्चक्र को ही जन्म दे सकता है...

(हरि, 1-6-1947, पृ. 174)


प्रतिरोध के दोनों ही प्रकार हैं निष्व्यि प्रतिरोध तथा अहिंसक प्रतिरोध लेकिन प्रतिरोध की बडी भारी कीमत चुकानी पडती है। यूरोप ने नजरथ के यीशु के बुद्धिमना से युक्त दृढ एवं वीरतापूर्ण प्रतिरोध को, दुर्बल का प्रतिरोध मानकर, उसका गलत अर्थ लगाया। जब मैंने पहली बार 'न्यू टेस्टामेंट' पढा तो मुझे इसके चार अध्यायों में यीशु को जैसा चित्रित किया गया है, उनसे यीशु में किसी निष्व्यिता अथवा दुर्बलता के चिवन दिखाई नहीं दिए। जब मैंने टाल्सटॉय का 'हारमनी ऑफ द गॉस्पल्स' तथा उसी विषय पर उनकी अन्य रचनाएं पढम् तो अर्थ और भी स्पष्ट हो गया। क्या यीशु को निष्व्यि प्रतिरोधी मानने की भारी कीमत पश्चिम को नहीं चुकानी पडी है ? ईसाई जगत जिन युद्धों के लिए जिम्मेदार है, उनके सामने 'ओल्ड टेस्टामेंटल् और अन्य ऐतिहासिक या अर्ध-ऐतिहासिक अभिलेखों में वर्णित युद्ध भी फीके पड जाते हैं। मैं जानता हूं कि मुझे अपनी बात में संशोधन करना पड सकता है, क्योंकि मुझे इतिहास, आधुनिक अथवा प्राचीन, का केवल सतही ज्ञान है

(हरि, 7-12-1947, पृ. 453)


मारते हुए मरने की अपेक्षा बिना मारे मृत्यु का वरण करना ज्यादा वीरतापूर्ण है। मारना या मारते हुए मर जाना कोई बहुत ज्यादा प्रशंसनीय बात नहीं है। लेकिन जो व्यक्ति शत्रु की इच्छा के आगे घुटने टेकने के बजाए उसके आगे अपनी गर्दन कर देता है, वह कहीं ज्यादा उच्च कोटि के साहस का परिचय देता है

(हरि, 21-4-1946, पृ. 95)

अहिंसा का रास्ता

आपके पास अहिंसा की तलवार हो तो दुनिया की कोई शक्ति आपको अपनी अधीनता में नहीं ले सकती। यह विजेता और विजित, दोनों का उदानीकरण करती है

(वही, पृ. 174)


इस समय सारी दुनिया में हिंसा की जो लहर आई हुई है, उसका सही कारण यह है कि अभी तक वीर पुरुष की अपराजेय अहिंसा की तकनीक को पूरी तरह खोजा नहीं गया है । अहिंसक ।र्जा का एक औंस भी कभी बेकार नहीं जाता

(हरि, 11-1-1948, पृ. 504)


मैं यह नहीं कहता कि 'भारत पर आव्मण करने वाले लुटेरों, चोरों या राष्टों से निपटने के लिए हिंसा का सहारा मत लो।' लेकिन इसमें अच्छी तरह कामयाब होने के लिए हमें अपने ।पर संयम रखना सीखना चाहिए। जरा-जरा-सी बात पर पिस्तौल उठा लेना मजबूती नहीं, बल्कि कमजोरी की निशानी है। आपसी घूंसेबाजी हिंसा का नहीं, बल्कि नामर्दगी का अभ्यास है

(यंग, 29-5-1924, पृ. 176)


यदि युद्ध स्वयं एक अनैतिक छत्य है तो यह नैतिक समर्थन या आशीर्वाद के योग्य कैसे माना जा सकता है ? मैं सभी प्रकार के युद्धों को पूरी तरह गलत मानता हूं। लेकिन हम दो युद्धरत पक्षों के इरादों की छानबीन करें तो संभवतः यह पाएंगे कि उनमें से एक सही है और दूसरा गलत। उदाहरण के लिए, यदि '' देश '' देश पर कब्जा करना चाहता है तो स्पष्टतया यह '' देश पर अन्याय है। दोनों देश सशस्त्र संघर्ष करेंगे। मैं हिंसक संघर्ष में विश्वास नहीं करता, फिर भी, '' देश, जिसका पक्ष न्यायोचित है, मेरी नैतिक सहायता और आशीर्वाद का पात्र होगा

(हरि, 18-8-1940, पृ. 250)

भारत के सामने चुनने के लिए मार्ग शांति का मार्ग

शांति का मार्ग सत्य का मार्ग है। सत्यता, शांतिमयता से भी अधिक महत्वपूर्ण है। वस्तुतः झूठ हिंसा का जनक है। सत्यनिष्ठ मनुष्य अधिक समय तक हिंसक नहीं रह सकता। उसे सत्य की शोध के दौरान यह आभास हो जाएगा कि उसे हिंसा का आश्रय लेने की आवश्यकता नहीं है और उसे यह भी ज्ञात हो जाएगा कि जब तक उसके अंदर हिंसा का लेश भी रहेगा, वह सत्य की शोध में सफल नहीं हो सकेगा

(यंग, 20-5-1926, पृ. 154)


अहिंसा को समझना इतना आसान नहीं है और उसे व्यवहार में लाना और भी कठिन है, क्योंकि हम दुर्बल हैं। हमें भक्तिभाव से और विनम्रतापूर्वक कार्य करना चाहिए तथा निरंतर ईश्वर से प्रार्थना करते रहना चाहिए कि वह हमारे ज्ञानचक्षुओं को खोले। साथ ही, हमें प्रतिदिन ईश्वर से मिले आलोक के अनुसार कार्य करना चाहिए। इसलिए आज एक शांतिप्रेमी और शांतिसंवर्धक के रूप में मेरा कर्तव्य यह है कि अपनी स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए छेडे गए अभियान में अहिंसा के प्रति अटल आस्था बनाए रखूं। यदि भारत इस मार्ग पर चलकर स्वतंत्रता प्राप्त कर सका तो यह उसका विश्व-शांति के लिए सबसे बडा योगदान होगा

(यंग, 7-2-1929, पृ. 46)


मैं पूरी विनम्रता के साथ यह कहना चाहता हूं कि यदि भारत सत्य और अहिंसा के जरिए अपना लक्ष्य प्राप्त कर लेता है तो विश्व आज जिस शांति का भूखा है, उसमें उसका योगदान काफी महत्वपूर्ण होगा और, इस रूप में, वह उन राष्ट्रों को बदले में कुछ दे भी सकेगा जो आज खुलकर उसकी सहायता कर रहे हैं

(यंग, 12-3-1931, पृ. 31)


भारत यदि वस्तुतः अहिंसक रहे तो उसे किसी विदेशी ताकत से डरने की जरूरत नहीं होगी, न उसे अपनी रक्षा के लिए ब्रिटेन की नौसेना या वायुसेना का मुंह ताकना होगा। मैं यह जानता हूं कि अभी तक हम वीर की अहिंसा को हासिल नहीं कर पाए हैं

(हरि, 21-4-1946, पृ. 95)

भारत का कर्तव्य

भारत अब स्वतंत्र है और वास्तविकता मेरे सामने स्पष्ट होकर आ गई है। अब जब कि पराधीनता का बोझ हमारे   उपर से उतर गया है, अच्छाई की तमाम ताकतें एक ऐसे देश के निर्माण में लगा देनी चाहिए जिसने मानव संघर्ष़ों को ये चाहे दो राज्यों के बीच हों या एक ही राज्य के दो गुटों के बीच सुलझाने के परिचित मार्ग का त्याग किया है। मुझे अब भी यह विश्वास है कि भारत समयोचित गरिमा का प्रदर्शन करेगा और दुनिया को दिखा देगा कि दो नये राज्यों का जन्म शेष मानवता के लिए अभिशाप नहीं अपितु वरदान है। स्वतंत्र भारत का यह कर्तव्य है कि यदि वह अपनी स्वतंत्रता को मूल्यवान समझता है तो सामूहिक संघर्ष़ों को सुलझाने के लिए अहिंसा के शस्त्र को पूर्णता प्रदान करे

(हरि, 31-8-1947, पृ. 302)


अहिंसा ने चालीस करोड लोगों के शक्तिशाली राष्टं को बिना रक्तपात के आजादी दिलाई है। भारत की आजादी के परिणामस्वरूप ही बर्मा और लंका को भी आजादी हासिल हो सकी है। जिस राष्टं ने हथियारों की सहायता के बिना आजादी हासिल की है, वह बिना हथियारों के उसकी रक्षा करने में भी समर्थ सिद्ध होना चाहिए। यह इस तथ्य के बावजूद है कि भारत के पास एक थल सेना, निर्माणाधीन नौ सेना और एक वायु सेना है, और इनका आगे विकास किया जा रहा है। मैं समझता हूं कि यदि भारत अपनी अहिंसक शक्ति का विकास नहीं करता तो उसने जो कुछ हासिल किया है, उसका उसके और दुनिया के लिए कोई महत्व नहीं है। भारत का सैन्यीकरण स्वयं उसका और सारी दुनिया का विनाश कर देगा

(हरि, 14-12-1947, पृ. 471)

भारत और अहिंसक मार्ग

अहिंसक राज्य में भी पुलिस बल रखना जरूरी हो सकता है। मैं मानता हूं कि यह मेरी अपूर्ण अहिंसा की निशानी है। मैंने जिस तरह सेना के विषय में कहा है, उस तरह पुलिस के बारे में यह कहने का साहस नहीं कर सकता कि हम पुलिस बल के बगैर काम चला सकते हैं। हां, मैं ऐसे राज्य की कल्पना अवश्य कर सकता हूं और करता हूं, जिसमें पुलिस की जरूरत नहीं होगी, लेकिन यह तो भविष्य ही बताएगा कि हम कभी ऐसा करने में कामयाब हो पाएंगे या नहीं।

मेरी कल्पना की पुलिस आज के पुलिस बल से बिलकुल भिन्न होगी। इसमें अहिंसा में विश्वास करने वाले लोग भरती किए जाएंगे। वे जनता के स्वामी नहीं बल्कि सेवक होंगे। लोग सहज रूप से उनकी सब प्रकार की सहायता करेंगे और परस्पर सहयोग से वे बढते उपंवों पर आसानी से काबू पा सकेंगे।

पुलिस के पास किसी-न-किसी तरह के हथियार तो होंगे लेकिन उनके इस्तेमाल की कभी-कभार ही आवश्यकता पडेगी, अगर पडी तो। सच पूछा जाए तो पुलिसकर्मी सुधारक के रूप में काम करेंगे। पुलिस का काम मुख्यतः लुटेरों और डाकुओं तक सीमित होगा।

अहिंसक राज्य में श्रमिकों और पूंजीपतियों के बीच झगडे और हडतालें कभी-कभार ही होंगी, क्योंकि अहिंसक बहुमत का प्रभाव इतना अधिक होगा कि समाज के सभी प्रमुख वर्ग उसकी बात आदर के साथ मानेंगे। इसी प्रकार, सांप्रदायिक दंगों की भी कोई गुंजाइश नहीं रहेगी

(हरि, 1-9-1940, पृ. 265)


स्वराज में मुझे और आपको ऐसा पुलिस बल प्राप्त होगा जो अनुशासित और बुद्धिमान होगा । वह आंतरिक व्यवस्था सुनिश्चित करेगा और बाहरी हमलावरों से निपटेगा बशर्ते कि तब तक मैं या और कोई व्यक्ति इन दोनों के साथ निबटने का कोई बेहतर तरीका न खोज निकालें

(हरि, 25-1-1942, पृ. 15)

अपराध और दंड

अहिंसक तरीके के स्वाधीन भारत में अपराध तो होंगे, पर अपराधी नहीं होंगे। उन्हें दंड नहीं दिया जाएगा । अपराध भी किसी अन्य विकार की भांति एक रोग है जो वर्तमान सामाजिक प्रणाली से उत्पन्न होता है। इसलिए हत्या सहित सभी अपराधों को रोगों की श्रेणी में गिना जाएगा। ऐसा भारत कभी अस्तित्व में आएगा या नहीं, यह अलग बात है

(हरे, 5-5-1946, पृ. 124)


आजाद भारत में जेल कैसे होने चाहिए ? सभी अपराधियों को रोगी माना जाना चाहिए और जेलों को अस्पताल, जो इस प्रकार के रोगियों को इलाज और आरोग्यता प्रदान करने के लिए भरती करें। कोई व्यक्ति केवल मजा लेने के लिए अपराध नहीं करता। अपराध रोगी दिमाग की निशानी है। रोग-विशेष के कारणों का पता लगाकर उन्हें दूर किया जाना चाहिए।

जेल जब अस्पताल बनें तो उनके लिए आलीशान इमारतों की जरूरत नहीं पडनी चाहिए। इतना खर्चा कोई देश नहीं उठा सकता, और भारत जैसा गरीब देश तो और भी नहीं। लेकिन जेल के कर्मचारी वर्ग का दृष्टिकोण अस्पताल के डाक्टरों और नर्स़ों जैसा होना चाहिए। कैदियों को ऐसा लगे कि कर्मचारी उनके मित्र हैं। वे उनको उनका मानसिक स्वास्थ्य पुनः प्राप्त करने में मदद देने के लिए हैं, उन्हें किसी तरह सताने के लिए नहीं। लोकप्रिय सरकारों को इसके लिए आवश्यक आदेश जारी करने होंगे, लेकिन इस बीच जेल का कर्मचारी वर्ग अपने प्रशासन का मानवीकरण करने की दिशा में कुछ-न-कुछ प्रगति कर ही सकता है।

कैदियों का कर्तव्य क्या है ? ...उन्हें आदर्श कैदियों की तरह व्यवहार करना चाहिए। उन्हें जेल का अनुशासन तोडने से बचना चाहिए। मिसाल के तौर पर, जेल का खाना कैदी खुद बनाते हैं। उन्हें चावल, दाल और जो भी अनाज हों, उन्हें ठीक से साफ करना चाहिए ताकि उनमें पत्थर, कंकड और सुडियां न रह जाएं।

कैदियों को जो भी शिकायतें हों, उन्हें भंता के साथ जेल के अधिकारियों की जानकारी में लाएं। उन्हें अपने छोटेगसे समुदाय में इस तरह व्यवहार करना चाहिए कि जब वे जेल से छूटें तो जैसे आए थे, उससे बेहतर आदमी बनकर निकलें

(हरि, 2-11-1947, पृ. 395)


मैं तो बस प्रार्थना कर रहा हूं और आशा लगाए हूं कि एक नये और मजबूत भारत का उदय होगा। यह भारत पश्चिम की तमाम बीभत्स चीजों का घटिया अनुकरण करने वाला युद्धप्रिय राष्टं नहीं होगा। बल्कि एक ऐसा नूतन भारत होगा जो पश्चिम की अच्छी बातों को सीखने के लिए तत्पर होगा और केवल एशिया तथा अफ्रीका ही नहीं बल्कि समस्त पीडित संसार उसकी ओर आशा की दृष्टि से देखेगा...

लेकिन, पश्चिम की तडक-भडक की झूठी नकल और पागलपन के बावजूद, मेरे और मेरे जैसे बहुत-से लोगों के मन में यह आशा बंधी हुई है कि भारत इस सांघातिक नृत्य से उबर जाएगा, और 1915 से लेकर बनीस साल तक उसने निरंतर अहिंसा का जो प्रशिक्षण लिया है, चाहे वह कितना ही अपरिपक्व हो, उसके बाद वह जिस नैतिक ।ंचाई पर बैठने का अधिकारी है, उस स्थान पर आसीन होगा

(हरि, 7-12-1947, पृ. 453)

स्त्रो : महात्मा गांधी के विचार, पृ.104-153